वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 77
From जैनकोष
अल्पज्ञता का क्या गर्व- हम लोग किस बात पर गर्व किए जा रहे हैं? गर्व करने लायक हमारा आपका ज्ञान नहीं है। ज्ञान के अनन्तवे भाग प्रमाण मन:पर्ययज्ञान, अवधिज्ञान के मुकाबले में भी एक तुच्छ प्रतिबोध है और विशिष्ट श्रुतज्ञानियों के सामने भी यह हम आप लोगों का पाया हुआ ज्ञान कुछ भी तुलना नहीं करता है। किस बात पर गर्व किया जाय। यहाँ के इज्जत, मान, पोजीशन, प्रतिष्ठा इनका क्या गर्व करना? इस पोजीशन की चाह की डाइन ने इस जीव को बरबाद कर दिया है। यह मायामय संसार में जिसमें अपना कुछ शरणतत्त्व नहीं है यहां यह बेहताश भटक रहा है। दूसरे जीवों की आशा करके दीन बनकर अपने को पतित बना रहा है। विषयों की आशा करके, विषयों के साधनों से गिड़गिड़ाकर यह दीन बन रहा है। कैसा आनन्दनिधान परमपावन सर्वोत्कृष्ट स्वरूप वाला मैं आत्मा हूं और आज कहां दयनीय दशा में पडा़ हुआ है, तिस पर भी खेद और आश्चर्य इस बात का है कि न कुछ मिली हुई सम्पत्ति पर, न कुछ कपोलकल्पित यहां की वार्तावों में यह गर्व किए जा रहा है।
महान् अपराध व उसके दूरीकरण का उपाय- कोई महान् अपराध हो जाय तो उसकी शुद्धि का भी विकट महान् यत्न करना पड़ता है। क्या हम आप सबसे महान् अपराध हुए हैं? सबसे महान् अपराध तो यह है कि महान् अपराध करते हुए भी अपने को चतुर समझे जा रहे हैं। ऐसे कठिन अपराध की शुद्धि कैसे हो? इसका उपाय है परमार्थप्रतिक्रमण। परमार्थप्रतिक्रमण उस भाव में रहा करता है जिस भाव में आना विशुद्ध परमार्थस्वरूप बसा रहा करता है। मैं क्या हूं- इस सम्बन्ध में यदि परमार्थ यथार्थ सत्य सहजरूप प्रतीति है उस वर्तमान परमार्थप्रतिक्रमणरूप पुरूषार्थ के कारण भव-भव के बद्ध कर्म भी विफल हो जाते हैं। प्रतिक्रमण का साधारण लक्षण है लगे हुए दोषों को दूर करना। लगे हुए दोष दूर होंगे दोषरहित ज्ञानपुंज आत्मस्वभाव की दृष्टि से। किसी भी चीज का विनाश होता है तो उसके प्रतिपक्षी पदार्थ के योग से होता है। आत्मा के दोष हैं काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, और उन दोषों के निमित्तभूत हैं उन्हीं दोषों के कारण पूर्वकाल में बांधे हुए द्रव्य कर्म। इन सबका दूरीकरण कैसे हो? उसका उपाय मात्र एक है। वह उपाय है सर्व दोषों से रहित केवल ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्त्व का दर्शन अवलोकन, आशय और आलम्बन। एक इस ही उपाय से समस्त ऐब टल जाते हैं।
पूर्वज ऋषि संतों की अनुपम देन- अपने पूर्वज कुन्दकुन्दाचार्य आदिक ऋषि संतों की अपार परमकरूणा का लाभ तो लूट लीजिए। कितनी उन्होंने हम सब जीवों पर परमकरूणा की थी, जिसका बदला चुका सकने का कोई उपाय ही नहीं हो सकता है। यदि कुछ उपाय हो सकता है हमारे पूर्वज ऋषि संतों के ऋण को चुकाने का तो जो उनकी परमकरूणा में आशय भरा हुआ था- ये जगत् के प्राणी ऐसे सुगम स्वाधीन निज तत्त्व को, निज महानिधि को भूले है, इसे ये पा लें। यदि हम अपने उस ज्ञायकस्वरूप को पा लेते हैं और उसमें रम जाते हैं तो समझ लीजिए कि हमने उन ऋषि संतों के उपकार का ऋण चुका पाया है और इसका कोई दूसरा उपाय नहीं है। कुछ भी अन्य उपाय करेंगे, चाहे देशना देकर, अध्ययन कराकर तन, मन, धन, वचन को व्यय करके समाज को सन्मार्ग बतायें, उनका उपकार करें, ऐसे उपाय करें तो उनमें भी अधूरापन रहेगा। आचार्यदेव की इस उपकारशीलता का ऋण हम क्या न चुका पायेंगे।
परमार्थप्रतिक्रमण में स्नात प्रभु का स्मरण- भैया ! यह परमार्थप्रतिक्रमण का अधिकार कैसे सार मर्मों से भरपूर है? उनकी प्रत्येक वाणी, उनके प्रत्येक वचन बड़े-बड़े मर्मों से ओतप्रोत है। यह परमार्थ प्रतिक्रमण निश्चयचारित्र का प्रतिपादन करने वाला है। यह परमार्थप्रतिक्रमण निश्चय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान का संकेत करने वाला है। यह परमार्थप्रतिक्रमण निश्चय रत्नत्रय के निशाने का अवलोकन करने वाला है। प्रतिक्रमण मायने निखार। कुछ चीज निखर जाती है तो वह अपने स्वरूप में कितना कांतिमान् बनती है। शुद्ध निश्चयात्मक परमार्थचारित्र का संकेत करने वाला है यह परमार्थप्रतिक्रमण। ऐसे परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार को सुनते हुए में, कहते हुए में सर्वप्रथम एक बार कुछ बार परमार्थ प्रतिक्रमण के फल में जो निर्दोष निखर चुके हैं उनका स्मरण कर लो। जैसे सेना के साधारण सिपाहियों के आदर्शरूप सेनापति महासुभटराज जैसे पुरूषों की जय बोलने से गुणानुवाद से सिपाहियों में एक अद्भुत साहस जगता है यों ही हम मोक्षमार्ग के सिपाही जो कर्मशत्रुवों का विध्वंस करने का प्रोग्राम बनाए हुए है। हम साधारण सिपाहियों में बल तब प्रकट होगा जब हम इस मोक्षमार्ग के प्रधान पुरुष गुरूजन और प्रभु की आराधना करें, स्मृति करें तो हममें वह साहस प्रकट हो सकता है कि दोषों की शुद्धि के लिए हम परमार्थप्रतिक्रमण को परमार्थरूप से कर सकें।
देशनाश्रवण का उद्यम- अपने उपयोग में अपने उद्देश्य के मौलिक उद्देश्य में बढ़े हुए महापुरूषों के स्मरण बिना हम अपनी चारित्रनिधि की रक्षा नहीं कर सकते हैं। जो संयम और ज्ञान की मूर्ति हैं, जो क्रोध, मान, माया, लोभ, कषायों के दलन करने में विकट शूरवीर हैं, ऐसे गुरूजनों का स्मरण करके और इस मोक्षमार्ग के फलरूप विशुद्ध सकलपरमात्मा ओर निकलपरमात्मा का स्मरण करके अब जरा कुन्दकुन्दाचार्यदेव की देशना को सुनिए। इस चारित्राधिकार में सर्वप्रथम यह परमार्थप्रतिक्रमण है। इसमें 5 गाथाएँ आयी हैं। ये पांचों गाथाएँ मानो 5 रत्न ही हैं। उनमें से अब सबसे पहिली गाथा का अवतार हो रहा है-
णाहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेव पज्जाओ।
कत्ता ण हि कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।।77।।
चित्स्वरूप की विविक्तता- मैं नारकभावरूप नहीं हूं, तिर्यंच पदार्थ नहीं हूं, मनुष्य और देवपर्याय नहीं हूं। इन रूप भी मैं नहीं हूं और इनका करने वाला मैं नहीं हूं, इनका कराने वाला भी मैं नहीं हूं और इनको जो कोई कर रहे हों उनका अनुमोदने वाला भी मैं नहीं हूं। ये बातें डर कर नहीं कही जा रही हैं किंतु परमार्थस्वरूप की रूचि के कारण कही जा रही हैं। यों न समझना कि जैसे स्कूल में किसी लड़के से कोई अपराध बन गया है तो वह मास्टर साहब से कहता है मास्टर साहब ! मुझे कुछ पता ही नहीं है, मैंने कसूर नहीं किया है, न मुझे किसी ने बहकाया है, न मैं उस घटना में शामिल ही था- ऐसा डर कर नहीं कहा जा रहा है किंतु परमार्थस्वरूप को निरखकर जो बात यथार्थ अनुभव में उतरी है उस बात को ये ज्ञानी संत नि:शंक होकर प्रकट कर रहे हैं। मेरा स्वरूप तो वह है जो मेरे सत्त्व के कारण स्वत:सिद्ध हो। मैं नारक तिर्यंच मनुष्य देव कहां हूं? मैं तो एक ज्ञायकस्वरूप चैतन्यमात्र अनुपम पदार्थ हूं।
परमार्थस्वरूप के अनुभव का उद्यम- भैया ! इस परमार्थस्वरूप के अनुभव के लिए कुछ समय को इंद्रियों को संयत करके परमविश्राम प्राप्त करें। सब इंद्रियों का काम बंद करके, न आँखों से देखना है, न कानों से सुनना है। किसी भी इंद्रिय का काम न करके परमविश्राम सहित देह से भी दूर भागकर, ज्ञान द्वारा देह से भी दूर चलकर, बहुत भीतर चलकर निरखें तो विदित होगा कि यह मैं आत्मतत्त्व केवल ज्ञानमात्र हूं, इस देह से कितना दूर भागकर अपने अंतस्तत्त्व का पता पाड़ सकेंगे? बहुत दूर भागना पड़ेगा, अत्यंत दूर चलना पड़ेगा और चलना भी कुछ नहीं पड़ेगा, केवल जरा सा मुख मोड़ देना है। देह की ओर जो आकर्षण बना है, यह देह मैं हूं, इस प्रकार की जो बुद्धि बनी है सो शुद्धविज्ञान करके यह बात समझ लेना कि देह तो मैं हूं ही नहीं, मैं इन रागद्वेषादिक विकारोंरूप भी नहीं हूं। मैं अपने अस्तित्त्व के कारण अपने स्वरूप से अपने स्वभाव में जो कुछ अपने आप हूं मैं तो वह हूं। जो मैं हूं वह कभी विनष्ट नहीं होता, जो मैं हूं वह कभी छिन्न भिन्न नहीं होता। मैं तो एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूं। मैं न नारकी हूं, न तिर्यंच हूं न मनुष्य हूं और न देव हूं।
परमार्थोपासक के परमार्थप्रतिक्रमण का अधिकार- कोई कहे कि इस समय तो नारक, तिर्यंच और देव का कोई प्रश्न ही नहीं खड़ा होता, इस समय तो मेरा मनुष्य शरीर है। अच्छा तो यों कह लो कि न मैं नारकी था, न तिर्यंच था, न देव था, न मनुष्य था और न मैं मनुष्य हूं और न मैं कभी इन चारों देहों रूप होऊँगा। मैं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप मात्र हूं- ऐसा जिसने अपने आपके शुद्ध सनातन निज अंतस्तत्त्व का आकर्षण प्राप्त किया है वह ज्ञानी परमार्थप्रतिक्रमण का अधिकारी है। परमार्थप्रतिक्रमण बहुत महान् कार्य है। बहुत सावधानी से इन ऋषि संतों की देन को हम आपको ग्रहण करना चाहिए।
मोह में अप्रतिक्रमण का संसर्ग- यह संसारी प्राणी अनादि काल से परंपरया ग्रहण किए चले आ रहे शरीर में आत्मबुद्धि कर रहा है, यह मैं हूं। व्यवहार के अंदर अनेक संकट इस ही देहात्म बुद्धि के आधार पर निर्भर हैं। जब यह प्रतीति की कि यह मैं हूं तब इस देह के पोषक, देह के विरोधक, विषयों के पोषक जीवों में पर्यायों में पदार्थों में इसे रिश्ता मानना पड़ेगा और जब किसी दूसरे से स्नेह बस गया फिर तो संकटों का जाल बिछ जाया करता है। दूसरे जीवों से मोह भरा स्नेह हो जाना, इससे बढ़कर विपदा अन्य कुछ नहीं है। सकलविभावों का मूल यही है कि दूसरे प्राणियों में स्नेह पहुंच जाना। इसके फल में तो वह फँस चुका पूरा।
परपदार्थ के स्नेह से हानियां- पर के प्रति स्नेह मोह रखने में दो हानियां हैं। एक तो किसी दूसरे जीव से स्नेह का परिणाम किया कि अपने स्वरूप की उपासना से उसे हाथ धोना पड़ा। दूसरी बात पराधीन होकर अपनी व्यग्रता बढ़ा ली गई। एक उपयोग में दो बातें नहीं हो सकती हैं कि दूसरे जीव से स्नेह का परिणाम भी किए जाएँ और अपने शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का अनुभवरूप मोक्षमार्ग बनाया जाय। ये दो बातें एक साथ नहीं हो सकती हैं। तब समझ लीजिए कि अन्य जीव से स्नेह करने के फल में अपने आपकी कितनी बरबादी करनी पड़ी। अपना तन, मन, धन, वचन सब कुछ कल्पित घर में बसे हुए स्त्री पुत्र आदिक के लिए ही रहें और वे ही सब कुछ हैं ऐसी मान्यता रहे, उनके लिए ही मेरा सर्वस्व श्रम है ऐसी वासना रहे, उनके अतिरिक्त अन्य जीवों पर कुछ भी स्नेह न जगे अर्थात् उनके लिए तन, मन, धन, वचन के उपयोग का कर्तव्य ही न समझा जाय ऐसी स्थिति में यह जीव कितना महा अंधकार में जा चुका है कि उसने अपने स्वरूप की दृष्टि खो दी है। कितनी बड़ी हानि है दूसरे जीव से स्नेह करने में? मोही प्राणी को यह काम लग रहा है बड़ा सुगम और सस्ता, साथ ही लग रहा है अपने आपको आराम देने वाला। कितनी आकुलता, कितनी बरबादी इसमें हो रही है? इस ओर ध्यान नहीं जाता।
सकल संकटों का मूल देहात्मबुद्धि- सकलसंकटों का मूल है अपने देह में ‘यह मैं हूं’ ऐसी आत्मबुद्धि करने का। हम चाहते तो हैं आनंद, किंतु आनंद मिलने की जो पद्धति है उस पद्धति के लिए एक मिनट भी दृढ़ न होना चाहें तो काम कैसे बनेगा? ऐसा निर्मल स्वच्छ उपयोग होना चाहिए कि यह बात उपयोग में स्पष्ट झलकती रहे कि मेरा तो मात्र मैं हूं, यह देह तक भी मेरा नहीं है, फिर स्त्री पुत्र आदिक की तो चर्चा ही क्या करें? ऐसी स्पष्ट झलक आ सके तो सच जानो कि आज आपने कुछ अर्जन किया अन्यथा तो वही ढला चला जो अनादि से चला आया है, उससे कोई लाभ न होगा। यह चल रहा है परमार्थप्रतिक्रमण अर्थात् जो कुछ धब्बे शेष रह गये हों उन सबको धो धाकर खत्म करें। इस कार्य का यह अधिकार चल रहा है, इसका नाम है परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार।
दोषमय समारोह व कल्याणमय महोत्सव- मोही पुरुष दोषों के लादने में महोत्सव मानता है। अब मुन्ना बड़ा हो गया, अब इसकी शादी हो रही है, बाजे बज रहे हैं, बड़ा तमाशा कर रहे हैं। काहे का है यह महोत्सव? दोषों को लादने का यह महोत्सव हो रहा है। अब शादी हो रही है। बड़ी खुशियां मनायी जा रही हैं। देखो शादी का अर्थ है खुशी मनाना। शादी का अर्थ विवाह नहीं है। मगर शादी का नाम लेने से एकदम विवाह अर्थ हो जाता है। शादी का अर्थ खुशी है, यह नाशाद है अर्थात् दु:खी है। इसकी शादी हो रही हैं अर्थात् इसकी खुशी हो रही है। पर खुशी का अर्थ प्रचलित नहीं है, शादी का अर्थ चारित्र ग्रहण प्रचलित है। यह काहे का समारोह है? यह समारोह है दोषों को लादने का। महोत्सव मायने दोषों का साफ करना, दूर करना, यही है परमार्थप्रतिक्रमण, इससे बढ़कर क्या और खुशी की बात होगी कि मेरे आत्मा में जो अनादि काल से ऐब लगे चले आ रहे थे उनको जो बिल्कुल साफ कर दे, आगे अनंत भविष्य काल के लिए संकटों से मुक्ति पा ले, इससे बढ़कर है भी कुछ?
सच्चे सलाहगिरों की विरलता- भैया ! दुनिया की ओर दृष्टि न दो, यह जगत मोहियों की संख्या से भरा हुआ है। यहां से बाहर कदम दिया कि प्राय: शतप्रतिशत लोग मोही-मोही ही नजर आयेंगे। जिनमें अपनी पोजीशन चाही जा रही है वे सब प्राय: मोहियों की मंडली के सदस्य हैं। वहां हित की क्या आशा कर सकते हैं? अरे सलाह तो किसी दूसरे भी व्यक्ति से मत लो। आप ही अपने ज्ञान को सलाह लेने वाला बना लो और ज्ञान के स्रोत को अपना परममित्र बना लो, जिससे सलाह लेते रहो। यहां कौन दूसरा है ऐसा कि जिसकी सलाह से हम नियम से कल्याण कर ही लें? हां व्यवहार में ऐसे लोग कोई हो सकते हैं कि जिनसे सलाह लेना संकटमुक्ति के लिए आवश्यक है, वे हैं सम्यग्दृष्टिजन, किंतु ऐसे पुरुष तो बिरले हैं क्वचित् कदाचित् मिलते हैं।
निज ज्ञानबल की पूँजी का प्रताप- भैया ! क्वचित् कदाचित् ज्ञानी संत मिल भी जाय तो भी नफे का काम तब तक नहीं बन सकता जब तक खुद की गांठ में यह ज्ञान संपत्ति न हो। निराट गरीब से तो कोई धनी बात ही नहीं करता है। यों ही कोई निराट अज्ञानी मोही से कोई सम्यग्दृष्टि की बात ही नहीं हो सकती है। खुद में यदि ज्ञान संपत्ति है, तो उसका बल सच्चा है और नहीं है तो ये संसार के झंझट यहां तो चलते ही हैं। अनुभव करो, स्नेह में मत बह जावो, दूसरे लोग कितना ही प्रिय बोलने वाले हों, कितनी ही तरह की सेवाएँ करने वाले हों, पर आत्मकल्याण के मंच पर बैठकर तुम उन सब रिश्तों को एक साथ समाप्त कर दो। जब आत्मकल्याण के मंच से नीचे उतरकर व्यवहार में लगे तो उनसे व्यवहार कर लो, जिसमें अच्छा वातावरण रहे, गुजारा चले। फिर भी यह तथ्य न भूल जाइये कि रात दिवस में जिस भी 2 मिनट आत्मध्यान करना चाहते हैं, आत्महित के कृत्य करना चाहते हैं उस काल में तो इस सब जीवों से रिश्ता मूलत: काटना पड़ेगा अन्यथा कुछ भी नहीं कर सकते। न यहां के रहे, न वहां के रहे, यह स्थिति होगी। इस पदवी में रात दिन यह करें यह नहीं कहा जा रहा है, किंतु जिन दो मिनटों में आपको यथार्थ धर्म करना है वहां यह करना होगा, दूसरा उपाय नहीं है, मैं देह नहीं हूं। मैं एक चैतन्यतत्त्व हूं, ऐसी अपने आपके स्वरूप की भावना बनानी होगी !
आत्मध्यान के अनंतर संभावित स्नेह का विषय सकल जीवलोक- इस परमार्थचैतन्य प्रतपनरूप तपस्या के अनंतर यदि आपका स्नेह जग रहा है तो एक बार सब जीवों को भावपूर्ण हृदय से लगाकर स्नेह करो पश्चात् कुटुंब के स्नेह का तो नंबर आयेगा ही। ऐसे परमयज्ञ में रहने वाले हम आप किसी पुरुष के धर्मप्रभावना जग रही हो, अपने आपका ज्ञानमात्र चिंतन कर रहे हों, देह से भी न्यारा ज्ञानस्वरूप मात्र निरख रहे हों और इस कार्य के बाद एकदम कुटुंब की खबर आती हो तो समझो कि यह मोह चोर उस समय भी पड़ा हुआ था जिस समय हम धर्म का कुछ काम कर रहे थे और कदाचित् इस परमधर्म की उपासना का आनंद प्राप्त करने के बाद कुछ बाहर निकले और यदि स्नेह की मात्रा आये तो उस समय में सब जीवों को भावरूप से अपने हृदय में लगा सकें, तब समझो कि हमने उस समय इस धर्म का पालन भले रूप में किया।
दोषशोधन- इस प्रसंग में अपने ऐबों को भावना के साबुन से ज्ञान के जल से धोया जा रहा है, यह अत्यंत स्वच्छ ज्ञानमात्र इसका स्वरूप परिणत हो इसके लिए उद्यम किया जा रहा है। भली बात करने में कितना कठिन हो रहा है और बाद की बात कितनी सुगम लग रही है। यह मोह का कितना विचित्र खेल है? मैं देह भी नहीं हूं, मैं मनुष्य भी नहीं हूं, मैं तो ज्ञानस्वरूप मात्र एक तत्त्व हूं। यों यह प्रतिक्रामक अंतरात्मा ज्ञानी संत कितना अधिक अंतस्तत्त्व का रूचियां बना चला जा रहा है? इतना अनुपम ज्ञान बल बनाये बिना काम क्रोधादिक विषयकषायों के शत्रुवों को जीतना कठिन है।
कर्तृत्वविषयक जिज्ञासा समाधान- एक जिज्ञासा मैं इन देहों रूप इन पर्यायों रूप नहीं हूं, ठीक है, पर इन देहों का करने वाला तो हूं मैं, मेरी करतूत से ही तो ये देह उत्पन्न होते हैं। आचार्यदेव इसके समाधान में यह कह रहे हैं कि मैं इस देह का, व्यंजनपर्याय का कर्ता नहीं हूं। हे जिज्ञासु पुरुष ! तुम्हें यद्यपि ऐसा लग रहा है कि मैं विभाव न करूँ तो ये देह कहां से आयें, मेरी ही कला के कारण ये देह उत्पन्न होते हैं पर इस समस्या का हल तू इन दो परिज्ञानों के बल से कर ले। पहिला परिज्ञान तो यह है कि मैं आत्मा केवल अपने भावों का ही कर्ता हूं। विभावों को करने के समय में पौद्गलिक कर्मों का बंधन हो जाय तो हो जाय, पर इस कर्म बंधन का कर्ता तो मैं हूं ही नहीं। मैं तो अपनी टेक रख सकता हूं। दूसरे में क्या करतब कर सकता हूं और इस प्रकार मैं अपने परिणाम भर का करने वाला हो सकता हूं, जड पौद्गलिक आहारवर्गणावों के पुन्जरूप इस देह में मैं क्या दखल कर सकता हूं? यह होता है तो होने पर इसका करने वाला मैं नहीं हूं, यह तो है पहिला परिज्ञान। दूसरा परिज्ञान यह है कि हे आत्मन् ! जरा अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप को तो देखो कि हूं कैसा मैं। तू तो अकर्ता अनादि अनंत अहेतुक शाश्वत चित्स्वरूप मात्र है, उसको निरख। यह तू तो रागद्वेष का भी कर्ता नहीं है, मोहादिक विभावों का भी कर्ता नहीं है। ऐसा तू अकर्ता है। अब ध्यान में आया कि मैं इस पर्याय का कर्ता भी नहीं हूं और व्यंजन पर्याय का कर्ता भी नहीं हूं, ऐसे इन दो तत्त्वों का इसमें वर्णन किया गया है।
परमार्थत: कर्तृता का अभाव- इस प्रसंग में निज सहज सत्यस्वरूप पर दृष्टि दिलायी जा रही है और उस दृष्टि में यह परिज्ञान कराया जा रहा है कि मैं इस स्वरूपमात्र हूं, मैं किसी पदार्थ का कर्ता नहीं हूं। करना शब्द व्यवहार का शब्द है। वैसे आप कितने ही भाषण करते जायें और निबंध भी लिखते जायें तथा यदि यह चाहें कि मैं अपने भाषण में अथवा निबंध में करने शब्द का प्रयोग ही न करूँ तो आप घंटों बोलते जायें और करना शब्द का प्रयोग नहीं हो सके ऐसा हो सकता है। आप बड़ी पुस्तक लिखें, बोलें और उसमें करना शब्द कहीं भी न लायें तो लिखा जा सकता है परंतु भावप्रक्रिया की धातु लिखे बिना काम नहीं चलता है।
सकर्मकों के अकर्मक प्रयोग में कुछ उदाहरण- अब मैं भोजन करूँगा इसको यों बोल लो, अब मेरा भोजन होगा। करूँगा शब्द बोलने में कर्तृव्य भाव आया, व्यग्रता का भाव आया, धारता गायब हो गयी। क्षोभ की मुद्रा आ गयी। कितना भी आप बोलते जाइये, पर सकर्मक वाक्य का या कर्तृवाच्य का प्रयोग न करें तो भी काम चल जायेगा। अभी तो सिर्फ करने भर की बात कही जा रही है, आप सकर्मक धातु ही न बोलें तो भी काम चल सकता है। मैं मंदिर जाऊँगा, यह सकर्मक प्रयोग हो गया। अब मेरा मंदिर जाना होगा, यह अकर्मक प्रयोग हो गया। अब मैं शिष्यों को पढ़ाऊँगा, यह सकर्मक प्रयोग हो गया अब मुझसे शिष्यजन पढ़ेंगे, यह अकर्मक प्रयोग हो गया। या शिष्यजन मेरा आश्रय पाकर, निमित्त पाकर या मुझ पर दृष्टि रखकर अध्ययन करेंगे। सकर्मक प्रयोग की अपेक्षा अकर्मक वाक्यों के प्रयोग में बहुत नम्रता भरी होती है।
ज्ञानियों के वचन प्रयोग- भैया ! मेरे ख्याल से ज्ञानी पुरूषों का उनकी भाषा में सकर्मक वाक्यों का बहुत कम प्रयोग होता है। कितने ही वक्ता तो छाती ठोककर भी कहते हैं कि मैंने यह किया, मैं वहां गया, मैं-मैं का प्रयोग करके अपनी शान से भरा भाषण बना देते हैं, पर मेरे ख्याल से ज्ञानीसंतों की भाषा में अकर्मक वाक्यों का प्रयोग बहुत होता है। कदाचित् ही सकर्मक भाषा का प्रयोग वे करते हैं। भरमार नहीं होना चाहिए सकर्मक वाक्यों का।
निर्दोषीकरण का पुरूषार्थ- इस प्रकरण में एक बहुत बड़ी पुरूषार्थ संबंधी बात की जा रही है। मैं अपने आपको ऐसा शुद्ध स्वच्छ रूप परिणत करूँ कि मुझमें एक भी विकार का धब्बा न रह सके, उसकी तैयारी की जाती है और इस तैयारी में सर्वप्रथम सीधा यों कहना पड़ेगा कि मैं नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव किसी भी पर्यायरूप नहीं हूं। जो अपने को कुछ बनायेगा उसे आकुलता मचेगी। जो अपने को कुछ बनाना नहीं चाहता उसे आकुलता नहीं होती। मैं नारकपर्याय नहीं हूं और नारकभाव भी नहीं हूं, अर्थात् जिन परिणामों के कारण नारकपर्याय मिलती है बहुत आरंभ परिग्रह रखने का परिणाम रखना, इन भावों रूप भी मैं नहीं हूं। जैसे जरासी आँख मींचने और आँख खोलने में हमारी दो दुनिया बन जाती हैं, आँख मींचकर बैठे तो दूसरी प्रकार की दुनिया दिखती है, आँख खोलकर चले तो दूसरे प्रकार की दुनिया दिखती है। ऐसे ही अपनी ओर मुड़े तो परमार्थलोक दिखता है और बाह्य की ओर मुड़े तो वहां यह सारा मायामय लोक दिखता है।
सर्वविशुद्धदृष्टि- मैं तो शुद्ध जीवास्तिकायरूप हूं। परमार्थदृष्टि से देखा जाय, सहज शुद्ध स्वभाव की दृष्टि करके निरखा जाय तो मैं शुद्ध जीव पदार्थ हूं। इस मुझ जीव में नारकादिक पर्यायें नहीं हैं। यह प्रकरण बहुत सावधानी से जानने और सुनने लायक है। थोड़ा दृष्टि से चिगे कि यह दिखने लगेगा कि यह कितना अशुद्ध बोला जा रहा है कि मैं मनुष्य नहीं हूं। मनुष्य हैं, यहां बैठे हैं, अभी खायेंगे पियेंगे, व्यवहार करते हैं और यह कह रहे हैं कि मैं मनुष्य नहीं हूं और इसी में अपने बड़े उत्कृष्ट ज्ञान का गौरव कर रहे हैं। सच तो यह है कि ज्ञानी की कला को अज्ञानी माप नहीं सकता। किसी अज्ञानी को ज्ञानी के अंतर के मर्म को समझना हो तो उसे अपनी अवस्था छोड़कर ज्ञानी की लिस्ट में आना चाहिए तो ज्ञानियों के आंतरिक मर्म को पहिचान सकता है। नहीं तो उपादान तो है अज्ञान भरा और करेगा ज्ञानियों की करतूत की नकल का तो उसमें विडंबना ही रहेगी।
ज्ञानियों की कला की अज्ञानियों के अगोचरता- जैसे कुछ लोग कुत्ते के छोटे-छोटे बच्चों को खिलाते हैं, वे बच्चे लात मारें, कभी मुख भी जड़ जाते हैं और ये उन पिल्लों को अपनी छाती से लगाकर खिलाते हैं। कोई गधा यह देखे कि ये पिल्ले इसलिए इसके प्रिय बन रहे हैं कि इस मनुष्य को ये लात मारते और दांतों से चबाते हैं, सो अपन भी लात मारें और दातों से चबायें तो वह प्यार करेगा। वह यदि ऐसा ही करने लगे तो उसे प्यार की जगह पर डंडे ही मिलेंगे। यों ही किसी का उपादान तो है अज्ञान भरा और करने लगे ज्ञानियों की क्रियावों की नकल, अंतर में मर्म कुछ भरा नहीं तो कैसी विडंबना होगी सो वही जानेगा और कुछ-कुछ दूसरे भी समझ सकते हैं। घर छोड़ा, परिग्रह छोड़ा, केवल शरीर मात्र ही रह गया, फिर भी चैन नहीं पड़ती, आकुलता मच रही है। यह सब क्या हो रहा है? उपादान तो अज्ञानमय बना हुआ है और क्रियाएँ ज्ञानियों की कर रहे हैं।
आत्मा की विशुद्ध स्वरूप चतुष्टयात्मकता- भैया ! सर्वप्रथम अपने आपके यथार्थ स्वरूप को तो पहिचान लो। जिसके परिचय के प्रताप से सहज कला प्रकट होती है, और यह शांति की सिद्धि में अवगाह करके संसार के सारे संतापों को समाप्त कर देता है। मैं शुद्ध जीवास्तिकायरूप हूं, मैं शुद्ध जीव पदार्थ हूं, मैं शुद्ध जीवद्रव्य हूं, मैं शुद्ध जीवतत्त्व हूं। पिंडात्मक दृष्टि से देखा, गुणपर्यायवान् पदार्थ के लक्षण से देखा तो यह मैं अपने गुणपर्यायस्वरूप हूं। इससे भी कुछ गहरी दृष्टि लेकर चलें तो मैं सहज ज्ञानादिक गुणस्वरूप हूं और मेरा जो सहज परिणमन है, अर्थपरिणमन है, अगुरूलघुत्व गुण के निमित्त से होने वाले धर्मादिक द्रव्यों की तरह जो सत्त्वपरिणमन है, तन्मात्र मैं हूं। यूँ जो शुद्ध जीव पदार्थ को निरख रहा है उसके ज्ञान की यह बात है कि मैं नारक पर्याय नहीं हूं, मैं किसी पर्यायरूप नहीं हूं, उन पर्यायों के भेदरूप नहीं हूं, ये सब व्यवहार से बाह्यदृष्टि के प्रताप से निमित्तनैमित्तिक भाव से होने वाली मायाएं हैं। जब मैं अपने प्रदेश की दृष्टि से अपने को निहारने चला तो वहां देखा कि मैं शुद्ध जीवास्तिकाय हूं। इस क्षेत्र में अन्य कुछ भी विकार नहीं हैं। जब उस परिणमन की निगाह लेकर देखने चला तो मेरे स्वरूप में मेरे ही कारण मेरे में जो अर्थपरिणमन है वह भी एक अर्थपरिणमनों का आधारभूत सामान्य परिणमन मात्र हुआ, ऐसा यह मैं शुद्ध जीवद्रव्य हूं। जब मैं भावदृष्टि से अपने को निहारने चला तो केवल ज्ञानानंदभावरूप मैं हूं, अन्य कुछ मैं नहीं हूं। ऐसा मैं शुद्ध जीवतत्त्व हूं।
विभावविविक्तता- इस जीव के उन नारक आदिक भावों के कारणभूत रागद्वेष मोह व्यवहार से हैं, परमार्थ से नहीं हैं, अर्थात् मेरे स्वरूप से रचे हुए वे भाव नहीं हैं। स्वरूप में रचे हुए भाव वे हैं जो अनादि अनंत अहेतुक नित्य प्रकाशमान् हैं। यों ही समझ लीजिए कि मैं तिर्यंच व्यंजन पर्याय नहीं हूं और तिर्यंच भावरूप भी नहीं हूं। तिर्यंचपर्याय के योग्य जो माया से मिला हुआ अशुभ कर्म होता है अशुभ भाव होता है वह मेरे स्वरूप में नहीं है। सो न मैं तिर्यंचभावरूप हूं और न तिर्यंचपर्यायरूप हूं। ऐसा ही जानिए कि मनुष्य आयु के योग्य जो परिणाम हैं उन परिणामोंरूप भी मैं नहीं हूं और मनुष्यपर्यायरूप भी मैं नहीं हूं।
ज्ञानी का अगाध गमन- यह ज्ञानी अपने आपमें कितना गहरा उतर गया है कि जैसे समुद्र के किनारे बैठे हुए पुरुष को बहुत नीचे मग्न होने वाले मनुष्य का क्या पता है, ऐसे ही इस तत्त्वसमुद्र के किनारे पर बैठे हुए बातूनी पुरुष को इस तत्त्वसमुद्र की गहराई में मग्न हुए ज्ञानी की करतूत का क्या पता है? मैं मनुष्यपर्यायरूप भी नहीं हूं, इसी प्रकार देव पर्यायरूप नहीं हूं, देवपर्याय में होने वाले सरस सुगंध पुद्गलद्रव्य शरीर स्कंध ये भी मेरे स्वरूप में नहीं हैं और जिन भावों का निमित्त पाकर ऐसी देव अवस्था मिलती है मैं उन भावों रूप भी नहीं हूं। यह मैं सर्वव्यंजन पर्यायों से परे शुद्ध चैतन्यस्वरूप मात्र हूं। मैं उन रूपों नहीं हूं और उन रूपों का कर्ता भी नहीं हूं। मैं सदा अपनी ही रचनावों को किया करता हूं। मैं पुद्गल की रचनावों रूप नहीं परिणम सकता।
कारयितृत्वविषयक शंका- इस तरह यहां तक ये दो बातें बतायी गई हैं कि मैं इन व्यंजन पर्यायोंरूप नहीं हूं, देहोंरूप, शरीररूप नहीं हूं और शरीर का कर्ता भी नहीं हूं। अब यह बतला रहे हैं कि मैं इन शरीरों का कराने वाला भी नहीं हूं, पहिली दो बातों को सुनकर किसी के चित्त में यह आ सकता है कि मैं इन पर्यायोंरूप नहीं हूं, यह भी समझ में आ गया क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप हूं और यह शरीर जड़ हैं, अचेतन है, यह भी समझ में आ गया कि मैं जिस रूप बनूँगा सो अपने ही रूप बनूँगा। किसी अचेतन पर शरीर के रूप में नहीं बन सकता हूं- यह भी ध्यान में आ गया। पर कुछ यह जरा कम ध्यान में आता कि मैं इन शरीरों का कराने वाला भी नहीं हूं। कैसे नहीं हूं? मैं कराता हूं तब ये शरीर बनते है। मैं परिणाम करता हूं, मैं प्रेरणा करता हूं और जैसे बना करते हैं उस रूप में प्रयोग किया करता हूं। तब मैं कराने वाला तो होऊंगा।
कारयितृत्वविषयक समाधान- आचार्यदेव समाधान करते हैं कि तू इन पर्यायों का कराने वाला भी नहीं है। किसे कराना कहते हैं? कार्य प्रयोजकता को कराना कहते हैं। कार्यप्रयोजकत्वं हि कारकत्वं। जिस कार्य का प्रयोजन जिसे मिलता है, जिस कार्य का फल जो पायेगा, जो पाना चाहता है उसे कहते हैं कराने वाला। जैसे कोई कहता है कि मैं कुवां साफ कर रहा हूं, उसमें भाव यह भरा हुआ है कि कुए को साफ करने वाले तो मजदूर है पर कुवों के साफ हो जाने से उसका प्रयोजन मुझे मिलेगा क्या? दुनिया में मेरा नाम होगा? सब लोग मेरा यश गायेंगे कि इन्होंने कुवां साफ कराकर लोगों का बड़ा उपकार किया है। हम भी उसमें पानी पियेंगे। तो जिसे किये जाने वाले कार्य का प्रयोजन मिले उसे कराने वाला कहते हैं। प्रयोजन बिना तो कोई कुछ कराता भी नहीं। चर्चा बड़ी सावधानी से सुनने की है। अब जरा यह देखो कि मैं अपने को जिसका भी कराने वाला मानता हूं क्या उस कार्य का प्रयोजन हमें मिलता है? इसका निर्णय करिये।
कार्यप्रयोजकत्व का निर्णय- जिस कार्य में जो परिणमन होता है उस कार्य का प्रयोजन उस पदार्थ को मिलता है जिस पदार्थ में परिणमन हो रहा है। ‘मैं ईंधन को जला रहा हूं’ इन शब्दों में देखिये, काम क्या हो रहा है? ईंधन जलाने का। उस ईंधन के जलाने का प्रयोजन किसे मिला? उन्हीं स्कंधों को, अर्थात् जल करके वे क्या हुए और इस तरह का मिला प्रयोजन किसे? उन्हीं स्कंधों को मिलता है उसका प्रयोजन, हमको नहीं मिलता है। कल्पना करके हम चाहे देश के राजा अपने को कहलवाने लगें तो उसकी क्या कीमत है? यों तो खेल-खेल में बच्चे लोग भी बादशाह बन जाते हैं, कोतवाल बन जाते हैं, न्याय किया करते हैं। तो कल्पना में कुछ भी मान लें किंतु वास्तविक बात यह है कि किसी भी कार्य का प्रयोजन मुझे नहीं मिलता, किंतु जिस पदार्थ में परिणमन हो रहा है उसे प्रयोजन मिलता है।
कार्यप्रयोजकत्व का प्रयोजनिक विवरण- अच्छा जरा बतावो कि मैं जब किसी प्रकार का राग कर रहा हूं तो उसका प्रयोजन किसे मिलेगा? मुझे। उसका फल किसे मिलेगा? मुझे प्रयोजन अर्थात् फल क्या मिलेगा कि आकुलित होते रहेंगे। ठीक, यह चौकी बन गयी, यह चौकी मिट गयी, यह चौकी जल गयी ये सब काम हो रहे हैं, इसका प्रयोजन किसे मिलेगा? उन ही पुद्गल स्कंधों को। क्या प्रयोजन मिला? यह मिला कि उनकी सत्ता बनी रही। यह पदार्थ यदि परिणमें नहीं तो उनकी सत्ता कायम न रहेगी। इस कारण इन अचेतन के नाना प्रकार के परिणमनों का प्रयोजन यह है कि वे अपने सत्त्व से त्रिकाल बने रहते हैं, इसके आगे उस कार्य का प्रयोजन नहीं है। अब समझ लीजिए कि मैं शरीरों का कराने वाला हूं क्या? नहीं हूं। न मैं कर्ता हूं और न मैं कराने वाला हूं। मैं तो शुद्ध चित्प्रकाशमात्र हूं ऐसी स्वभावदृष्टि रखने वाले साधु संत परमार्थ प्रतिक्रमण किया करते हैं।
कारयितृत्व का निर्णय- कार्य का प्रयोजन जिसे मिले उसे कराने वाला कहते हैं। जैसे लोकव्यवहार में कहते हैं कि मालिक ने नौकर से काम कराया तो उस काम का फल किसे मिलेगा? जिसे मिले उसी को कराने वाला कहते हैं। अब यहां परमार्थदृष्टि से निर्णय कीजिये और सर्वप्रथम स्व में ही निरखिये कि किसी भी पदार्थ के परिणमन का फल क्या मुझे मिलता है? चूँकि एक पदार्थ का परिणमन किसी अन्य पदार्थ में आ नहीं सकता है इस कारण किसी भी पदार्थ के परिणमन का फल वस्तुत: अन्य को नहीं मिलता है। जो परिणम रहा है उसके परिणमन का फल उसी को मिलता है। परमार्थ दृष्टि से निरखते जाइए कि किसी भी पदार्थ के परिणमन का फल क्या-क्या मिलता जा रहा है? मूल फल तो यह है कि पदार्थ के परिणमन का फल पदार्थ का सत्त्व बना रहना है। न हो परिणमन तो सत्त्व नहीं रह सकता है इसलिए एक ही उत्तर लेते जाइये समस्त पदार्थों में। वही उत्तर मूल उत्तर स्वयं में घटित कर लीजियेगा।
अमूर्त अजीव द्रव्यों का कार्यप्रयोजकत्व- धर्मद्रव्य क्यों परिणम रहा है? अपना सत्त्व रखने के लिए परिणम रहा है। अधर्म द्रव्य क्यों परिणम रहा है? वह भी अपना सत्त्व रखने के लिए परिणम रहा है। इसी प्रकार आकाशद्रव्य और कालद्रव्य क्यों परिणम रहे हैं? ये भी अपना-अपना सत्त्व रखने के लिए परिणम रहे हैं। वैसे यह भी कहा जा सकता है कि कालद्रव्य अन्य द्रव्यों का परिणमन करने के लिए परिणम रहा है, तो यों निमित्त दृष्टि का जो उत्तर है वह औपचारिक उत्तर है, पारमार्थिक नहीं है और ऐसा उत्तर प्रत्येक द्रव्य में लगाया जा सकता है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अन्य द्रव्यों की किसी न किसी बात में निमित्त हुआ करता है। तो ये चारों द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश और काल अपना-अपना अस्तित्त्व रखने के लिए परिणम रहे हैं।
पुद्गल पदार्थ का कार्यप्रयोजकत्व- अब पुद्गल के संबंध में निरखिये। कोई भी पुद्गल स्कंध किसलिए परिणम रहा है? लोग कह बैठेंगे कि वह कुर्सी हमारे बैठने के लिए बन रही है। जरा कुर्सी के हृदय होवे तो उससे पूछो कि तुम किस लिए बन रही हो? तो वह क्या जवाब देती है? वह तो अपना अस्तित्त्व रखने के लिए परिणम रही है। किसी भी प्रकार परिणमें, पुद्गल को अपने परिणमन में हठ नहीं है। इस बेईमान जीव को ही हठ लगी है नाना प्रकार के परिणमन में, इस पर पुद्गल को किसी भी प्रकार के परिणमन की हठ नहीं पड़ी हुई है। मैं तो कुर्सी ही बनूंगा, ऐसा पुद्गल स्कंधों में हठ नहीं है। कुछ भी परिणमों, जरा और भी देखते जावो, कुर्सी जल गयी तो वह खाक बन गयी, तो यह खाकरूप किसलिए बन गयी? क्या उत्तर होगा? मैं दूसरे के बर्तन मांजने के लिए खाक बन गयी, यह उत्तर होगा क्या? अरे वह खाक भी बनी है तो अपना अस्तित्त्व रखने के लिए। पदार्थ में क्यों परिणमन हो रहा है? यह तो पदार्थ के अस्तित्त्व का सहयोग मात्र है।
जीवद्रव्य का कार्यप्रयोजकत्व- अब जरा जीवद्रव्य पर आइए, जीवद्रव्य का कुछ भी परिणमन होता है वह किसलिए हो रहा है, पूछिए किसी जीव से। क्यों भाई ! तुम रागरूप परिणम रहे हो, किसलिए परिणम रहे हो? मूल उत्तर तो यह है कि हम अपना अस्तित्त्व रखने के लिए परिणम रहे हैं। तुम अपना अस्तित्त्व रखने के लिए रागरूप परिणम रहे हो। यहां रागरूप की बात नहीं कह रहे हैं। जो भी परिणमन होगा वह भी किसी न किसी विशेष रूप होगा, उससे हमें मतलब नहीं है। यह जीव उत्तर दे रहा है अपने सही होश के साथ। निमित्त के सद्भाव में विकाररूप विशेष होगा, निमित्त के अभाव में सामान्यरूप विशेष होगा। विशेष परिणमन तो चलेगा पर हमें विशेष से मतलब नहीं। हमें तो परिणमन मात्र से प्रयोजन है क्योंकि मैं द्रव्य हूं, जो कुछ भी परिणमता हूं अपना अस्तित्त्व रखने के लिए परिणमता हूं।
विकारी जीव का कार्यप्रयोजकत्व- अब मूल से और ऊपर उठकर अन्य उत्तर सुनिये। ऐ आत्मन् ! तुम किसलिए यह राग कर रहे हो? उत्तर यह होगा कि मैं अपनी आकुलता मिटाने के लिए राग कर रहा हूं, मिटे अथवा न मिटे। इसकी बात नहीं कहते हैं, किंतु राग करने वाले का अन्य में क्या प्रयोजन रहता है? सबकी चेष्टा का यही प्रयोजन है कि अपनी आकुलता मिटा लें, पर हो क्या रही है? आकुलता। तो तीसरा उत्तर यह है कि मैं आकुलित होने के लिए, भोंदू बने रहने के लिए राग कर रहा हूं। चलो कुछ हर्ज नहीं। अब तक इस जीव ने स्वरूप की लाज तो रक्खी। अपना ही तो परिणमन फल में बताया। अब तक दूसरे का नाम नहीं लिया इसने।
व्यामोही जीव का कार्यप्रयोजकत्व के संबंध में व्यामोहपूर्ण उत्तर- अब इसके आगे जो चौथा उत्तर होगा वह बेवकूफी से भरा हुआ होगा। अरे आत्मन् ! तुम किसलिए यह राग कर रहे हो? किसलिए यह तुम 200 रु. की साड़ी ले आये हो? स्त्री को खुश करने के लिए। अब यह आ गया मूढ़ता भरा उत्तर। अरे वह परद्रव्य है, परद्रव्यों में तुम क्या कर दोगे? उस साड़ी में अगर एक भी धागा दूसरे रंग का लगा हुआ दिख जायेगा तो वह स्त्री साड़ी को फेंक देगी और गाली सुनायेगी। तुम दूसरे को प्रसन्न करने के लिए यत्न कर रहे हो? या कुछ भी हो। कोई जीव अपने परिणमन का फल दूसरे जीवों में नहीं ला सकता है, तब कोई किसी अन्य का कराने वाला हुआ क्या? यह मैं आत्मा किसी भी परद्रव्य का कराने वाला भी नहीं हूं।
जिज्ञासु का समाधान और एक अंतिम जिज्ञासा- यहां तक इस परमार्थ प्रतिक्रमण के अधिकार में अपनी-अपनी भूल से लगे हुए कलंकों को साफ करने के पुरूषार्थ में तीन बातें कही गयी है। मैं किसी नर नारकादिक पर्यायरूप नहीं हूं। मैं उनका करने वाला नहीं हूं और मैं उनका कराने वाला भी नहीं हूं। खास-खास मोटी-मोटी बातें निकल रही हैं। सबसे मोटी बात पहिली थी, उससे कुछ कमजोर बात दूसरी थी, उससे कुछ कमजोर बात तीसरी थी, अब आखिरी बात यह जिज्ञासु पुरुष रख रहा है कि महाराज न सही मैं पर्यायरूप, न सही मैं उनका कर्ता, न सही मैं उनका कराने वाला किंतु उनका जो कुछ भी करने वाला हो चाहे वही सही, पुद्गल का पुद्गल ही करने वाला सही, पर करते हुए उनका अनुमोदन करने वाला तो मैं हूं। कितना कठिन तर्क रक्खा जा रहा है? अरे मैं शरीर का मोटापा देने वाला नहीं हूं, उस पर हमारा क्या वश है? मोटा हो जाय तो हो जाय, दुर्बल हो जाय तो हो जाय, पर जब यह शरीर तगड़ा हो रहा है, मोटा हो रहा है, इसका करने वाला या कराने वाला नहीं हूं तो अनुमोदना करने वाला तो हूं, तारीफ करने वाला तो हूं, समर्थन करने वाला तो हूं ना?
जिज्ञासु की अंतिम जिज्ञासा का समाधान- आचार्य देव उत्तर देते हैं कि तुम करने वाले की अनुमोदना करने वाले भी नहीं हो। कुछ भी हो परपदार्थ में परिणमन होता है वहां वह उसका ही परिणमन है और इस प्रसंग में कुछ भी होता हो तुम्हारा अनुमोदना वह परिणमन तुम्हारा ही परिणमन है, तो तारीफ करने का जो भाव बना, उसमें अनुमोदन समर्थन हर्ष करने का जो परिणाम बना इसमें भी हर्ष परिणमन तुम्हारा ही तो ईप्सिततम है। वह परिणमन तुम्हारे ही प्रदेश में हुआ। उस परिणमन के आश्रय तुम ही हो। वह परिणमन तुममें ही एक रस बन करके हुआ है। तुम वहां अपने ही भाव में अपना ही अनुमोदन करने वाले हो रहे हो। तुम पर में क्या अनुमोदन कर सकते हो? तुम करने वाले के अनुमोदक भी नहीं हो।
संकटमुक्ति का उपाय संकटसाधनों की निवृत्ति- यह बहुत ऊँचे कल्याण प्रसाद की बात चल रही है। मुझे संसार के समस्त संकटों से निवृत्त होना है, उन संकटों से निवृत्त होने के लिए संकट जिन-जिन विकारों को, दोस्तों को देखकर आया करते हैं उनको हटाना है। होली के दिनों में कोई एक बूढ़ासा अथवा कुछ मजाकिया सा एक ऐसा पुरुष होता है जिसके ऊपर यह सलाह रहती है कि जिस घर पर यह बैठ जायेगा तो 10-20 हुड़दंग लड़के धूल कीचड़ उड़ाउड़ाकर सारा घर भर देंगे। वे सब आपस में सलाह कर लेते है कि आज फलाने के घर धूल कीचड़ डालकर उसकी अक्ल ठीक करना है, वे हुड़दंग लड़के कीचड़ डालते हैं और वह बूढ़ा मजाकिया उनको बनावटी गाली देता है। सारा घर धूल से भर देते हैं। ऐसे ही ये जितने चारित्र मोह के विकार हैं ये तो है वे सब हुल्लड़ लड़के; जो कीचड़, धूल आदि फैंकते हैं। काम, क्रोध, मान, माया, लोभ ये सब हैं हुड़दंगे और बूढ़ा मजाकिया है मिथ्यात्व मोह। यह मोह जिस घर में बैठ जाता है उस घर में ये काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि हुड़दंग लड़के कीचड़ उछालते हैं, धूल फैंकते हैं, उसका घर बरबाद कर डालते हैं। जिस किसी में हिम्मत आ जाय कि इन हुड़दंगों को निकालकर भगा दें तो ये हुड़दंगे भी अपने आप फिसल जायेंगे। इस तरह से न वे हुड़दंगे हुल्लड़ मचा सकेंगे और न वह बूढ़ा मजाकिया हुल्लड़ मचा सकेगा।
संकटशमनसाधन के उपाय का संकेत- तब क्या करना है? ऐसा प्रबल बहादूर कोई आये कि इन सबको हटाये, मारे, भगाये तो शांति होगी, ऐसे ही कोई बहादूर ज्ञानी जीव जो इन सबको अपने घर से हटा दे तो वह शुद्ध स्वच्छ और शांत रह सकता है। वही काम कराया जा रहा है इस परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार में।
विदेश से निज घर के विश्रामस्थान में आने का क्रम- जैसे कोई पुरुष अपने इटावा के घर से लालपुरा के मकान से चलकर विलायत में पहुंचे। बहुत दूर चला गया घर से 10, 5 हजार मील दूर चला गया। अब जब उसे अपने घर की सुध आती है अथवा अपने घर का प्रयोजन उसकी दृष्टि में आता है तब वह विलायत से चलता है। लोग पूछते हैं कहां जा रहे हो? वह कहता है कि अब हिंदुस्तान जा रहे हैं। हिंदुस्तान के किनारे आ गया। जब वहां से चला तो लोग पुछते हैं कि कहां जा रहे हो? तो वह कहता है कि हम उत्तर प्रदेश जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के किनारे पर पहुंचा तो पूछा कि कहां जा रहे हो? तो उत्तर मिला कि हम इटावा जिले जा रहे हैं? इटावा जिले के निकट पहुंचे तो पूछा कि कहां जा रहे हो? तो उत्तर मिला कि इटावा जा रहे हैं। जब स्टेशन आ गया तो ये रिक्शे वाले पूछेंगे कि कहां जा रहे हो? तो उत्तर मिलेगा कि लालपुरा जा रहे हैं। लालपुरा के नुक्कड़ में आ गया, वैद्यजी के घर के सामने तक आ गया मानो, तब पूछा गया कि कहां जा रहे हो? तो कहा गया कि फलानी गली में अमुक मकान में। वहां पहुंचा दिया रिक्शे वाले ने। यहां तक तो दूसरे की सवारी पर चढ़कर आया। मकान के द्वार पर उतरकर अब क्या करेगा? रिक्शा तो अंदर घुसता नहीं, अब स्वयं अपने आपके पैरों से घर के भीतर जायेगा और जो उसके विश्राम करने का स्थान है वहां जाकर पंखे की बटन खोलकर गद्दी पर चित्त होकर लेट जायेगा। फिर वह नि:संकोच होकर आराम करने लगेगा।
बाह्योपयोग से अनिजोपयोग में आने का एक क्रम- ऐसे ही यह जीव निज घर से निकलकर विलायत में बहुत दूर पहुंच गया। कहां पहुंच गया भाई? इन जड़ पदार्थों तक में पहुंच गया। जब इसे निजस्वरूप की खबर आये, अपने प्रयोजन की बात मन में आये तो अब यह विलायत से चला, अब इन जड़ पौद्गलिक प्रसंगों से हटा, मानो ये महल मकान पूछ रहे हैं कि कहां जा रहे हो? तो यह उत्तर देता है कि मैं अपनी चैतन्य जाति में जा रहा हूं। ओह इन पुद्गलों से हटकर यह आया मात्र चेतनों में, परिजन मित्र चेतन जाति ही तो हैं। वहां भी इसका प्रयोजन न था, तो वहां से भी हट रहा है। तो पूछते है वे ही चेतन लोग कहां जा रहे हो? अब मैं जा रहा हूं अपने क्षेत्र में, अपने अस्तित्त्व में। इसके निकट पहुंचा तो पूछा गया, अब तुम कहां जा रहे हो? तो उत्तर दिया अपने स्वतत्त्व की परख करने जा रहा हूं। अब स्वतत्त्वों का तो बड़ा विस्तार है- 5 हैं स्वतत्त्व। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक। इन तत्त्वों में किन्हीं तत्त्वों में पहुंच गया। वहां से भी आगे बढ़ने लगा तो वहां भी प्रश्न हुआ। अब कहां जा रहे हो? तो औदयिक भावों से तो उसे हटना था, वहां कुछ प्रयोजन नहीं मिला तो उत्तर मिलता है कि हम अपने स्वभाव विकास की जगह जा रहे हैं। औदयिक तो केवल विकार भाव है। स्वभाव विकास की बात तो उनमें नहीं है। वहां से हटकर स्वभावविकास की सीमा में पहुंच गया, अल्पविकास में वहां भी इसका चित्त न लगा। कहां जा रहे हो? मैं निरूपाधिपरिणमन में जाना चाहता हूं। वह आया अब कुछ औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक भाव अथवा सम्यक्त्व आदिक के निकट यहां तक आने में इस जीव को अपने ज्ञान की और मन की दोनों की सहायता मिलती रही।
निराकुल निजविश्रामस्थान में आने की पद्धति- अब इसके बाद उतर गया, पूछने वाला अब कोई नहीं रहा, उतरकर अपने ही ज्ञानबल से मन का सहारा छोड़कर अब यह निज परमपारिणामिक संयमभूत शुद्ध जीवत्व ज्ञायकस्वरूप के निजी महल में यह पहुंचता है और वहां बेखबर होकर जहां से आया, जो मिले थे, जिनके बीच में था, जिन-जिन से बातें हुई थी, उन सबकी खबर छोड़कर नि:शंक होकर सो जाता है। जैसे कोई अकेले बैठे तो कुछ परवाह न करके बैठता है, शरीर कहां जा रहा है, कहां बैठे हैं, कुछ भी परवाह नहीं रहती है और जरा दूसरों का ख्याल आ जाय, अब यह भाई आयें हैं, यह मां जी आयी हैं तो यह हाथ पैर फटकार कर ढंग से बैठ गया। अरे यह तो बतावो अब इस ढंग से बैठने में वह आनंद है क्या जो पहिले अटपट पड़े थे, किसी की खबर न थी, नि:संकोच मुद्रा में पड़ा हुआ था? नहीं रहा वह आनंद। यों ही समझ लो यह जीव नि:संकोच मुद्रा में दूसरे की सबकी खबर छोड़कर इस ज्ञानस्वरूप की साधना में एक रस बनकर या यों कहो कि शून्यसा होकर, मग्न होकर विश्राम कर रहा है।
वर्तमान स्थिति और मूल कर्तव्य- अब आप यों समझो कि विश्राम के निजी घर के स्थान को छोड़कर हम कितना दूर भटक रहे हैं? ध्यान में लायें और तिस पर भी खेद की बात यह है कि उस भटकने पर ही हम गर्व कर रहे हैं, मेरे इतने महल हैं, मेरे इतना धन वैभव है, मैं इतना बड़ा हूं, मैं ऐसा कर सकता हूं, मैंने यों किया था, मैं यों कर दूं, कितना गर्व मचा रहे हैं। तब स्थिति यह है कि तू न नारकादिक पर्यायरूप है, न इन सर्वपरद्रव्यों का कर्ता है, न इन सर्वपदार्थों का कराने वाला है। अन्य की बात तो दूर रही इन पदार्थों को करते हुए जो कुछ भी हों उनका तू अनुमोदन करने वाला भी नहीं है। ऐसा परमविविक्तता का भाव रखने वाले ये ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष अपने आपके क्षेत्र को इतना साफ और स्वच्छ बना लेते हैं कि किसी भी प्रकार के विकार का धब्बा भी नहीं रहने देते। ऐसी शूरवीरता जहां प्रकट हुई वहां ही परमार्थ प्रतिक्रमणरूप अमृत का पान किया जा रहा है।
वास्तविक शूरता- शूरवीरता दूसरों को सताने में नहीं है, शूरवीरता परपदार्थ के संचय करने में नहीं है, शूरवीरता अपने विषयों के साधने में, विषयों के संचय करने में नहीं है, किंतु शूरवीरता है सर्वविकार, सर्व दोषों से परे रहकर अपने आपमें मग्न हो जाने में। ऐसा शूर यह ज्ञानी परमार्थ प्रतिक्रमण कर रहा है।