वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 92
From जैनकोष
उत्तम अट्ठं आदा तम्हि ठिदा हणदि मुनिवरा कम्मं।
तम्हा हु झाणमेव हि उत्तम अठ्टस्स पडिकमणं।।92।।
उत्तमार्थ प्रतिक्रमण- उत्तम पदार्थ आत्मा है। उस आत्मा में अवस्थित रहने वाले मुनीश्वर कर्मों का विघात करते हैं इस कारण ध्यान ही वास्तव में इस उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमणों में अंतिम प्रतिक्रमण उत्तमार्थप्रतिक्रमण कहा गया है। उत्तमार्थप्रतिक्रमण का व्यवहारमार्ग में तो यह अर्थ है कि साधक पुरुष अपने जीवनभर के दोषों की शुद्धि, गुणों के विकास की प्रगति करते हुए जब अंतिम देहत्याग की अवस्था में हो तो उस समय सारे जीवन के किए हुए दोषों की शुद्धि करना और अपने आपको शुद्ध सन्मार्ग में ले जाना सो उत्तमार्थप्रतिक्रमण है। यहां उत्तमार्थप्रतिक्रमण का अर्थ आवीचिमरण में उत्तमार्थप्रतिक्रमण किया जाना चाहिए, इस दृष्टि को रखकर किया गया है। यह आत्मा प्रतिक्षण अपनी आयु को गँवा रहा है। आयु के क्षय का ही नाम मरण है। यह जीव प्रतिसमय आयु के निषेकों का क्षय कर रहा है, इस कारण एक जीवन में ही प्रतिसमय मरण हो रहा है। इस मरण का नाम है आवीचिमरण। आवीचिमरण में इस उत्तमार्थ आत्मा का कर्तव्य है कि वह उत्तमार्थप्रतिक्रमण करे।
उत्तमार्थ का उत्तमार्थप्रतिक्रमण- लोक में समस्त द्रव्यों की जातियां 6 हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन समस्त द्रव्यों में एक जीवद्रव्य ही सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है। यद्यपि स्वरूपदृष्टि से सभी द्रव्य अपने आपमें अपनी महत्ता रखते हैं, किंतु इन सब द्रव्यों की व्यवस्था करने वाले अर्थात् जानने वाले और इसके सत्त्व को प्रसिद्ध करने वाले जीवपदार्थ ही हैं। इस कारण जीवपदार्थ सर्वपदार्थों में श्रेष्ठ है। ऐसे इस उत्तम अर्थ, श्रेष्ठ पदार्थ, जीव को क्या करना चाहिए प्रतिसमय? उसका इसमें समाधान है। उत्तमार्थ जीव को उत्तमार्थप्रतिक्रमण करना चाहिए। उत्तमार्थप्रतिक्रमण का अर्थ है उत्कृष्टों में जो उत्तम है, उत्कृष्ट है उसके अर्थ दोषशुद्धि करना चाहिए। उत्तमार्थ है जीवद्रव्य। उसका अर्थ है उत्कृष्ट और उसमें भी तम है, उत्कृष्ट है अनादि अनंत अहेतुक ज्ञानानंद स्वरूप यह अंतस्तत्त्व। उस अंतस्तत्त्व के अर्थ अर्थात् उस अंतस्तत्त्व की प्राप्ति व अनुभूति के लिए जो विभाव भावों से निवृत्त निर्दोष आत्मतत्त्व का ध्यान किया जाता है वही उत्तमार्थप्रतिक्रमण है। इस गाथा में निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण का स्वरूप कहा गया है।
भागवत उत्तमार्थ प्रतिक्रमण- व्यवहारमार्ग में, मरणकाल में जिनेश्वर मार्ग के अनुसार अर्थात् सर्वज्ञ भगवान ने जो मार्ग बताया है उसके अनुसार सल्लेखना धारण करने को उत्तमार्थप्रतिक्रमण कहते हैं। जिस प्रकार जिनेंद्रदेव के मार्ग में मुनीश्वरों को सल्लेखना की विधि बतायी गयी है उसी तरह सल्लेखना करते हुए के समय में अधिक से अधिक 32 मुनि उत्तमार्थप्रतिक्रमण कराते हैं, योग्य मुनीश्वर जब सल्लेखना धारण करते हैं तो चूंकि सल्लेखना का काम बहुत उत्कृष्ट है, भविष्य का लाभ अलाभ सब मरण समय पर निर्भर रहता हैं, अत: उस समय सर्वमुख्य कार्य उस एक मुनि महाराज का शुद्ध विधिसहित सल्लेखनामरण कराना है। सल्लेखना का कार्य इतना प्रधान है कि उनकी सेवा में लगे हुए मुनिजन सेवा के समक्ष सामायिक काल को भी नहीं गिनते हैं। सामायिक छोड़कर भी समाधिमरण करने वाले की सेवा की आवश्यकता हो तो उस सेवा को करना उस समय वे अपना कर्तव्य समझते हैं।
मुनिराज की सल्लेखना के समय में परिचारक मुनि क्या करते हैं? चार मुनि तो दो-दो करके अदला बदली से संन्यासमरण करने वाले साधुसंत के पास वस्तिकाशुद्धि, उपकरणशुद्धि, मल मूत्र कराना आदि सेवा करने के लिए बने रहते हैं। चार मुनीश्वर वसतिका के द्वार की रक्षा करते हैं ताकि कोई असंयत पुरुष अहंकारी शिक्षक उनके पास न जा सके। चार मुनीश्वर धर्मोपदेश मंडप के द्वार पर रहते हैं। चार मुनीश्वर उस महाक्षेत्र के अंतिम द्वारों पर रहते हैं। ये मुनीश्वर जिस क्षेत्र में संन्यासमरण किया जा रहा है उस क्षेत्र के बाहर मुख्य स्थानों पर जैसे कि जो द्वार की तरह हो वहां बने रहते हैं। जो बडी़ शांति से आने वाले लोगों को धर्मसाधना की देशना करते हैं और उन्हें संतुष्ट कर देते हैं। कोई लौकिक जन उस संन्यासमरण करने वाले साधु के समीप दर्शन को भी न पहुंचे ऐसी व्यवस्थाएँ वे रखते हैं। आजकल तो प्राय: संन्यासमरण करने वाले के दर्शन के लिए एक व्यवस्था भी बनाते हैं कि इस तरह से उन्हें नंबरवार दर्शन करना चाहिए, पर वे मुनीश्वर दर्शन को बाधा समझते हैं। कोई भी पुरुष दर्शन करने आयेगा और इस साधु को; संन्यासमरण में रहने वाले को इतना भी ज्ञात हो गया कि कोई आया है इतना सा उपयोग के आने में वहां तो उन्हें संन्यास में बाधा आ जायेगी।
संन्यासमरण में गृहस्थों के लिये सावधानी का संदेश- भैया ! गृहस्थों में भी कोई पुरुष मर रहा है तो उसके कुटुंबियों का यह कर्तव्य है कि उस मरणहार व्यक्ति के पास अपना दु:ख सुख रोने न जायें। उन कुटुंबियों के देखते ही उस मरणहार का उपयोग बदल सकता है और मोह ममता आ सकती है, किंतु कहां होता है ऐसा? वह मरता जाता है और ये घर के लोग लिपट-लिपटकर रोते जाते हैं। भला जिसने अपने जीवन भर नाना श्रम करके परिवारजनों की इतनी सेवा खुशामद की है, पालन पोषण किया है अब वे इसे 5 मिनट भी विश्राम नहीं लेने देते, आध्यात्मिक आराम नहीं लेने देते। यहां भी यह कर्तव्य है कि मरणसमय में किसी मोही व्यक्ति को, परिजन को, इष्ट मित्र को पहुंचना न चाहिए। हां जो धर्मात्माजन हैं, जिनके धर्म, ज्ञान, वैराग्य की परिणति चल रही है ऐसे पुरुष रहें साथ में और वे उसे सावधान कराते रहें।
सल्लेखना में योग्य परिचारक की आवश्यकता- मरण समय में संन्यास धारण करने वाले पुरुष के लिए सेवक इतने योग्य चाहियें कि जो साधना की प्रत्येक बात समझ सकें। उस समय उस साधु के प्रति न तो कठोर व्यवहार होना चाहिए तथा न अति कोमल व्यवहार होना चाहिए। कुछ उन्हें समझाया भी जाय तो वे सेवक इस बात के जानकार हों कि कितने जोर से बोलना चाहिए और कब बोलना चाहिए? साधु का तो ध्यान आत्मचिंतन में लग रहा है और उसे आप कोई विनती सुनाने लगें तो आपने तो उसमें बडी़ बाधा डाल दी। कोई योग्य पुरुष संन्यासमरण धारण करने वाले के पास होना चाहिए, इस बात का भी ध्यान करके योग्य सेवक को उनके समीप छोड़ा जाता है।
वे चार मुनीश्वर जो महाक्षेत्र के बाहर याने बहुत दूर-दूर पर इसलिए बैठे होते हैं कि कोई वादविवाद की इच्छा से अहंकार में आकर उस साधु के पास जाना चाहे तो वहीं बात करके उनकी शंकावों का समाधान करते हैं और घमंडियों का घमंड चूर देते हैं। चार मुनीश्वर संन्याससाधक मुनिराज की शरीर की सब प्रकार की सेवा के लिये निर्यापकाचार्य द्वारा नियुक्त किये जाते हैं और भी अनेक मुनियों को निर्यापकाचार्य नियुक्त करते हैं, जो निम्न प्रकार से विविध सेवा करते हैं। चार मुनीश्वर शुभ अशुभ वार्तावों का निरीक्षण करते है ताकि शुभ वार्तावों की सल्लेखना साधक के हित में रक्षा की जा सके और अशुभ वार्तावों से सावधानी रखी जा सके। चार मुनीश्वर साधक मुनि को धर्मोपदेश सुनाते रहते हैं जिससे साधक सल्लेखना में सावधान रहे। चार मुनीश्वर बसतिका के बाहर स्थित होकर धर्मोपदेश करते हैं वे धर्मकथावों का प्रायोजनिक वस्तुस्वरूप का विवरण करके धर्ममय वातावरण रखते हैं। चार मुनीश्वर धर्मोपदेश की कथा करने वालों की रक्षा के लिए इधर उधर भ्रमण करते हैं। ऐसे परिचर्या में समर्थ मुनीश्वर इस प्रकार की परिचर्या करते हैं। इनके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार आहार पान की प्रकल्पना के लिये व रक्षा के लिये भी कुछ मुनीश्वर होते हैं। ऐसे कितनी ही प्रकार से संन्यासमरण में स्थित साधु की सेवा की जाती है। ऐसे अनेक मुनि चाहियें एक संन्यासमरण करने वाले साधु का उत्तमार्थप्रतिक्रमण कराने के लिए। न हों इतने मुनि तो जितने हों उतने से ही काम बनाया जा सकता है, पर दो से कम में यह काम नहीं बनाया जा सकता है। ऐसे उत्तमार्थप्रतिक्रमण की विधि से देह का त्याग कराना यही व्यवहार से धर्म है। संन्यासमरण है, उत्तमार्थप्रतिक्रमण है।
निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण- अब निश्चय से उत्तमार्थप्रतिक्रमण क्या है? इसे भी जानो। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष- इन 9 तत्त्वों में उत्तमार्थ अथवा समस्त द्रव्यों में उत्तमार्थ है आत्मा। उस आत्मा में भी उत्तम है शाश्वत ज्ञानाननदस्वभाव। उस ज्ञानानंद स्वभावमय कारणसमयसार के स्वरूप में उपयोग द्वारा जो ठहरते हैं ऐसे तपस्वीजन आवीचिमरण का नजरे अंदाज रखकर संसार से विमुख और आत्मतत्त्व के सन्मुख रहते हैं, सो उनकी जो सहज अंतस्तत्त्व की उपयोगमयी उपासना है वह निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण है।
आवीचिमरण के चिंतन में धर्मसाधन का उत्साह- ज्ञानी का यह ख्याल है कि मरण प्रतिसमय हो रहा है। जो समय गया वह समय करोड़ों रूपये भी खर्च करें, करोड़ों किसी से मिन्नते करे तो बीता हुआ समय वापिस नहीं आ सकता है। इस ही युक्ति से समय की कीमत समझ लीजिए। उम्र बढ़-बढ़कर आज इतनी बडी़ हुई है और अब अनेक वृद्धावस्था के सम्मुख हो रहे हैं और अनेक वृद्ध भी हो गए हैं। उनके पास अटूट धन संपदा हो और अटूट चतुराई हो, धर्मविषयक ज्ञान भी हो और कदाचित् वह चाहे कि ये 10 साल मेरे कुछ धोखे में निकल गये, सो ये न निकले की तरह हो जायें, हम फिर 10 वर्ष छोटे बन जायें। अरे एक सेकेंड भी छोटे नहीं हो सकते। तब समझ लीजिए कि अब जो हमारी जिंदगी में बचा हुआ समय है उसकी कितनी कीमत है? हम बचे हुए समय का ही ठीक सदुपयोग कर लें तो हमने बहुत कुछ किया, और तो कुछ किया ही क्या जा सकता है, अन्यथा जैसे प्रमाद में, असावधानी में हमारा इतना समय गुजर गया है ऐसे ही शेष समय भी गुजर जायेगा।
मायामय जगत् में आशा की अकरणीयता- भैया ! यह जगत् मायामय है। यहां किससे क्या चाहते हो? तुम्हें क्या मिल सकता है किसी दूसरे से? जीव पंचेंद्रिय के विषयभोगों में और मन के विषय साधनों में रहना चाहता है, पर ये छहों के छहों विषय नितांत असार हैं। किसी चीज को छूकर कुछ मौज मान लिया तो आत्मा में कौनसी वृद्धि हो गयी, उल्टा आत्मबल घटा, पाप बंध हुआ, बहिर्मुखता हो गयी। रसीला स्वादिष्ट भोजन कर लिया और उसमें मौज मान लिया, अपने ब्रह्मस्वरूप की भी याद भूला दिया तो बतावो उसमें कौनसा आत्मलाभ पा लिया, कर्म बंध ही किया। यों ही घ्राण, चक्षु, श्रोत्र के जो विषय हैं, रूप देखना, अच्छा राग सुनना, रागभरी बातें सुनना इन बातों में भी अपनी प्रवृत्ति की तो इससे कौनसा आत्मलाभ पा लिया, प्रत्युत कर्म बंधन किया। अपना संस्कार खोटा बनाया। मन के विषय की तो कहानी ही क्या कहें, इस जीवजगत् में भरे हुए मलिन अज्ञानी खोटे विचार वाले, मद्य मांस खाने पीने वाले, इस मनुष्य समाज में अपना नाम रखने के लिए बडी़ तरकीबें लड़ाते हैं। इस दुष्प्रयत्न से कौनसा आत्मलाभ होगा? ये मुनिराज आवीचिमरण में निरंतर सावधान हैं इसलिए आत्मोपयोग का उद्यम ही करते हैं, कर्म विनाश को ही करते हैं, इसी कारण उनके निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण होता है। ऐसा यह निश्चयउत्तमार्थप्रतिक्रमण उत्तमार्थशाश्वत अंतस्तत्त्व के अभेद ध्यान में परिसमाप्त होता है।
निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण की परिस्थिति- निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण निश्चय परमशुक्लध्यान का नाम है जिस ध्यान में ध्यान ध्येय का भेद नहीं है, केवल ज्ञानप्रकाश का अनुभवन है, सर्वप्रकार से जो अपने अंत: स्वरूप की ओर ही सन्मुख है, जैसे तरंग रहित समुद्र अपने आपमें समाया हुआ होने से शांत है, इस ही प्रकार रागद्वेष रहित यह उपयोग अपने आपमें समाया हुआ शांत है, ऐसा जो सर्वप्रकार से अंतर्मुखाकार है, किन्हीं भी इंद्रियों के विषयभूत नहीं है, यहां तक भी कि जहां मन का भी काम रूद्ध हो गया है, जहां उपयोग द्वारा उपयोगमय आत्मतत्त्व का ही अनुभवन है ऐसी उत्कृष्ट अभेद स्थिति को निश्चय परम शुक्लध्यान कहते हैं। यह ही निश्चयउत्तमार्थप्रतिक्रमण है।
निश्चयप्रतिक्रमण की अमृतकुंभरूपता- यह निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण अमृतकुंभस्वरूप है, क्योंकि अमृत का भंडार परम आनंद की निधि निज आत्मा के आश्रय से वह निश्चय शुक्लध्यान प्रकट होता है। यह आत्मा परम धर्मस्वरूप है इस ही कारण यह उत्तमार्थप्रतिक्रमण अमृतकुंभस्वरूप है। यद्यपि नाना व्यवहार में लगे पुरूषों से चूँकि अनेक दोष लगते रहते हैं इस व्यवहारी पुरुष की प्रवृत्ति अधिक रूप से भी विषयों के दोष में पहुंच जाती है उसका निराकरण करने के लिए व्यवहारप्रतिक्रमण भी आवश्यक है अर्थात् गुरूवों से दोष निवेदन करके उनके दिये गये प्रायश्चित्त का पालन करना और प्रतिक्रमण के साथी जो अन्य भाव हैं उनकी भावना वृत्ति करना, ये सब व्यवहारप्रतिक्रमण आवश्यक है, किये जाना चाहिये, किंतु ये व्यवहारप्रतिक्रमण व्यवहार धर्मरूप है इनसे और ऊपर उठकर अथवा यों कहो अपने अंतरंग की गहराई में पहुंचकर जब निश्चय आत्मधर्मस्वरूप का परिचय होता है, व्यवहारधर्म से भी उत्कृष्ट आगे बढ़कर जब ज्ञायकस्वरूप निश्चय आत्मधर्म में प्रवेश होता है उस समय यह व्यवहारप्रतिक्रमण विषकुंभ कहलाता है और निश्चयप्रतिक्रमण अमृतकुंभ कहलाता है। यहां अमृततत्त्व और विषतत्त्व का प्रयोजन आपेक्षिक है, उत्कृष्टता में तो निरपेक्ष अमृतकुंभ निश्चयउत्तमार्थप्रतिक्रमण ही है।
प्रतिक्रमण के सहयोगी भावों में प्रतिसरणभाव- उस प्रतिक्रमण भाव के साथी अन्य भाव भी हैं। जिनका ध्येय प्रतिक्रमण की भांति निर्दोषता व गुणविकास होता है। जिसे प्रतिसरण अर्थात् सम्यक्त्व आदिक गुणों में वृद्धि करना, प्रतिक्रमण का ध्येय है कि दोषों से निवृत्त होकर निर्दोष गुणस्वरूप अपने आपको बनाना। यह उद्देश्य सिद्ध होने में जिन-जिन भावों की सहायता होती हो वे सब भाव प्रतिक्रमण के साथी हैं। गुणों की दृष्टि करके उन गुणों की प्राप्ति के लिए, वृद्धि के लिए अपनी अंत:प्रेरणा होना, उत्साह जगना, गुणविकास से ही संतोष मानने की वृत्ति होना ये सब हैं प्रतिसरण। दोषों का निराकरण और गुणों में लगने की प्रेरणा होना ये दोनों सहभावी गुण भी हैं और इनका परस्पर में एक दूसरे भाव के लिए सहयोग है। यह प्रतिसरण भी जब व्यवहार धर्मरूप होता है तो प्राक्पदवी में, विषय कषायों का संपर्क रह सकने वाले साधकों में यह व्यवहार प्रतिसरण अमृतकुंभ है किंतु व्यवहार धर्म के गुणों की प्रेरणा से ऊँचे उठकर जब अभेदपद्धति से निश्चयगुण ज्ञानस्वभाव में सहज प्रगति होती है तब उस निश्चयप्रतिसरण की स्थिति में व्यवहारप्रतिसरण विषकुंभ होता है और यह निश्चयप्रतिसरण अमृतकुंभ माना जाता है। विषकुंभ का भाव हेय लेना और अमृतकुंभ का भाव ‘‘उपादेय’’ लेना।
परिहारभाव- उस प्रतिक्रमण का साथी परिहारभाव है। मिथ्यात्व आदिक जो परिणाम हैं, रागद्वेष विरोध, शोक, रंज, रति आदिक जो परिणमन हैं उन परिणमनों का परिहार करना सो परिहार नामक सद्भाव है। यह परिहार जब व्यवहारधर्म की पद्धति से होता है तो वह प्राक् पदवियों में अमृतकुंभ कहा जाता है, किंतु आत्मस्वभाव के दृढ़ अभ्यासी और ज्ञायकस्वरूप की ही रूचि और मान्यता रखने वाले महात्मा संतों को यह व्यवहार परिहार विषकुंभ हो जाता है, हेय हो जाता है और निश्चयपरिहार अर्थात् ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य तरंग मात्र का भी परिहार होना, यह उपादेय हो जाता है।
धारणाभाव- प्रतिक्रमण का साथी है धारणा। किसी शिवस्वरूप ध्यान का आलंबन करके चित्त को स्थिर बनाना सो धारणा है। यह धारणा भी जब व्यवहारधर्म की पद्धति से भेदवासना सहित जब पंचनमस्कार मंत्र अथवा प्रतिमा आदिक पदार्थों के आश्रय से चित्त स्थिर किया जाता है उसको कहते हैं व्यवहारधारणा। यह व्यवहारधारणा प्राक् पदवियों में अमृतकुंभ है किंतु जब इससे और अंतरंग में प्रवेश करके केवलज्ञान शुद्ध ज्ञानस्वरूप निश्चय धर्म का उपयोग द्वारा धारण होता है, जहां ज्ञान ज्ञानस्वरूप को ही धारण किए रहता है ऐसे अभेद स्थितिरूप धर्मध्यान में अथवा निश्चय शुक्लध्यान में यह व्यवहारधारणा हेय हो जाती है और वह उपयोग द्वारा उपयोगमय आत्मा को उपयोग में धारण किए रहने रूप निश्चयधारणा उपादेय हो जाती है।
निवृत्तिभाव- प्रतिक्रमण का साथी भाव है निवृत्ति। बाहरी विषय साधनों से निवृत्ति होना, विषय कषाय आदिक के परिणामों से अलग हटना यह है निवृत्ति। यह निवृत्ति भी जब व्यवहारधर्म पद्धति से प्रकट होती है अर्थात् चरणानुयोग की विधि से आत्मकल्याण के बाधक बाह्य पदार्थों का त्याग किया जाता है और साथ ही अपना सद्भाव बनाने के लिए विभावों से भी दूर होने का यत्न किया जाता है तब यह व्यवहारनिवृत्ति प्राक्पदवी में अमृतकुंभरूप है। यह किया ही जाना चाहिए। यह तो आत्महित के मार्ग में बढ़ने के लिए प्रथम कदम है, किंतु जैसे ही सूक्ष्म भी तरंगों से, रंगों से निवृत्ति की स्थिति प्राप्त होती है ऐसी निश्चयनिवृत्ति में जो निश्चयधर्म में वृत्ति कराता है ऐसी परम शुक्ल ध्यानरूप वृत्ति में यह व्यवहारनिवृत्ति हेय हो जाती है और स्वभाव के उपादानरूप निश्चयनिवृत्ति वहां उपादेय होती है।
आत्मनिंदाभाव- ऐसे ही प्रतिक्रमण का साथी भाव है निंदा। अपने आपसे अपने दोषों को जाहिर करना, अपने दोष अपने आपको कहना, अपने दोषों को जानकर उन दोषों की निंदा करना, उनमें अरति करना यह है निंदानामक सद्भाव। यह निंदाभाव जब भेदसहित, विकल्पसहित जागृत होता हैं तब वह व्यवहाररूप निंदाभाव है आत्मनिंदा। यह प्राकपदवियों में नितांत आवश्यक है और अमृतकुंभ है किंतु अपने आपमें अपने दोषों की निंदा करने रूप विकल्प उत्पन्न करना यह निश्चय-पथ नहीं है। इस भेदभावना से भी रहित होकर निंदा का जो फल होता है निंदा स्थान से हटकर अनिंद्य स्थान पर पहुंचना, ऐसी निश्चय वृत्ति जहां हो रही हो वह है निश्चयदृष्टि से आत्मनिंदा। इस स्थिति में व्यवहाररूप निंदाभाव हेय हो जाता है और विभावों से हटकर स्वभाव में प्रवेश करने रूप आत्मनिंदा फलस्वरूप स्थिति में यह निश्चय निंदाभाव उपादेय हो जाता है।
आत्मगर्हाभाव- इसी तरह एक उपाय है गर्हा का। अपने दोष अपने गुरु से प्रकट करना यह गर्हा नामक सद्भाव है, गर्हा से दोषों की निवृत्ति हो जाती है। अपने दोष अपने आचार्य से, गुरु से कहना उनके ही संभव है जिनको आत्महित की धुन है, उसे जगत् के समस्त शान की वृत्तियां अत्यंत हेय मालूम होती हैं। जो जगत् की झूठी शान के लिए उत्सुक हैं वे अपने दोष अपने मुख से नहीं कह सकते हैं। गुरु से अपने दोष निवेदन करना यह है गर्हा। यह गर्हा मोक्षमार्ग के अभिलाषी पुरुष को आवश्यक है और यह आत्मविशुद्धि में साधक है, लेकिन इस गर्हारूप विकल्प में अभी अभेद स्थिति नहीं आ पायी है। यह मैं दोषी हूं, मुझे दोष दूर करना है इसलिए गुरूमहाराज से मुझे निवेदन करना चाहिए ऐसे विकल्प सहित जो निवृत्त होता है उससे अभी स्वभाव स्थिति नहीं हो सकी है। इस भाव से भी आगे बढ़कर आत्मा का गुरु जो निज आत्मतत्त्व है उस आत्मतत्त्व के गुणों को निरखना, जिस निरखने के प्रसाद से अपने दोषों से उपेक्षा हो जाय और यह दोष सही मायने में अभेदरूप से वचनजल्परहित इस अभेदस्वरूप आत्मतत्त्व आत्मगुरू में लापता अभेदरूप निवेदित हो जाय अर्थात् आत्मदोष इस अंतस्तत्त्व में विलीन हो जायें, ऐसे उत्तम गर्हा को निश्चय गर्हा कहते हैं। इस स्थिति में व्यवहारगर्हा हेय हो जाती है और यह निश्चयरूप गर्हा उपादेय हो जाती है। यहां यह कहा जा रहा है कि दोषशुद्धि के प्रकरण में जब यह आत्मा दोषमयी किनारे से हटकर गुणमयी किनारे की ओर आता है तो उसमें जब इसके अभेद ज्ञायकस्वरूप का अभेदोपयोगरूप उपाय बनता है तो यह निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण है। इसही को निश्चय परमशुक्लध्यान कहते हैं।
अप्रतिक्रमणरूप व प्रतिक्रमणरूप भूमियां- अब जरा यहां विचार कीजिए इस प्रसंग में अभी दो शब्द आये हैं प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण। इन दो शब्दों में तीन भूमियां आयीं। प्रथम भूमि तो विषयी, कषायवान् मोही पुरूषों का अप्रतिक्रमणरूप है। प्रतिक्रमण कहते हैं दोषों को दूर करने की कोशिश करना। यह विषय कषायों में ग्रस्त मोही पुरुष दोषों को दूर करने की कहां कोशिश कर रहा है? दोषों के दूर करने का यत्न न होना इसका नाम है अप्रतिक्रमण। यह मोही प्राणी अप्रतिक्रमण की पहिली भूमि में पडा़ हुआ है। इससे जब ऊँचे उठता है तो प्रतिक्रमण की भूमि आती है। द्वितीय कक्षा में जहां लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण किया जाता है। तपस्या करना, आलोचना करना, गुरु से दोष निवेदन करना, विपरीत स्थानों से हटना, अपने स्वभाव की ओर लगना- ये सब बातें प्रतिक्रमणरूप हैं।
समक्षतावश प्रतिक्रमणरूप द्वितीयभूमि की अमृतकुंभरूपता व विषकुंभरूपता- इन दोनों में अप्रतिक्रमण तो विषरूप है इसमें तो कोई संदेह ही नहीं और उससे उठकर जहां प्रतिक्रमण प्रयत्न में आया तो वह अमृतकुंभ है। भली बात है, किंतु थोड़ा और विचार करें। दोषों को दूर करने का यह यत्न प्रतिक्रमणरूप कोशिश विकल्पसहित है। अभी इससे और ऊँचा चलना है तब साक्षात् मोक्षमार्ग मिलेगा। इससे ऊपर की स्थिति होती है कि वहां न गुरूवों से दोष निवेदन की वृत्ति है, न किसी प्रायश्चित्त किसी तपस्या को ग्रहण करने की वृत्ति है किंतु वहां ज्ञानमय आत्मा ज्ञानभाव के द्वारा ज्ञानमय आत्मा में ही मग्न हो जाता है। इस स्थिति में यह उत्कृष्ट ध्यानी पुरुष क्या प्रतिक्रमण कर रहा है? तो इस ऊँची स्थिति का नाम प्रतिक्रमण है। वह परम अमृतरूप है उस तृतीय अवस्था के अप्रतिक्रमण के समक्ष यह प्रतिक्रमण भाव, द्वितीय अवस्था को प्राप्त भाव विषकुंभ है।
उत्कृष्ट स्थिति में पहुंचने का अनुरोध- अब देखिये जब इस प्रतिक्रमण को ही विषकुंभ कहा गया है तब यह अप्रतिक्रमण दोषों की परवाह न करके स्वच्छंद बनकर दोषों में लगना, यह अमृत कैसे हो सकता है? इस कारण हे मोक्षमार्ग के रूचिया संतों ! नीचे के अप्रतिक्रमण में मत लगो। उत्कृष्ट जो प्रतिक्रमण है अर्थात् उत्तमार्थप्रतिक्रमण है उस ओर लगना चाहिए। हमारी दृष्टि इस ज्ञायकस्वभाव की ओर होनी चाहिए। इस ज्ञायकस्वभावरूप आत्मतत्त्व के ध्यान के अतिरिक्त अन्य जितने भी ध्यान हैं, ख्यालात हैं वे सब संसार भ्रमण के मूल हैं। भले ही उन अनात्मभावों में अपनी कल्पना से हम धर्म का पालन कर रहे हैं, धर्म की चीजों का ध्यान कर रहे है ऐसे ध्यानध्येय की प्रमुखता से तपस्या कर रहे हैं, ऐसी कल्पना करके भले ही धर्मरूप में मान लें, पर वे भी संसार के कारणरूप भाव हैं पुण्य भाव हैं। इन समस्त अनात्मभावों को त्यागकर सहज परम आनंदरूप अमृत से भरे हुए इस आत्मा में अंत:मग्न जो सहज परमात्मतत्त्व है कारणसमयसार शाश्वत स्वरूपमात्र, इस अंतस्तत्त्व को बुद्धिमान् लोग प्राप्त करते हैं और इस तरह इस निश्चयपरमशुक्लध्यान में अर्थात् ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व की मग्नता में यह निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण होता है।