वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 101
From जैनकोष
कालो त्ति य ववदेसो सब्भावपरूवगो हवदि णिच्चो ।
उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई ।।101।।
कालद्रव्य का प्रतिपादन―कालद्रव्य का यह वर्णन बहुत कुछ कठिनसा लग रहा है ।इसमें कुछ प्रत्यक्षभूत पदार्थ की तरह समझ नहीं बन पाती, अतएव यह विषय कुछ कठिन प्रतीत होता है । किंतु सर्वज्ञदेव के ज्ञान में जो कुछ जाना गया और उसका प्रतिपादन दिव्यध्वनि के रूप में हुआ । उसकी परंपरा से जो ज्ञान चला आया है, जो पदार्थ है उस सद्भूत पदार्थ का वर्णन तो नहीं छोड़ा जाता । तब सब कुछ बताया जा रहा है कि इस लोक में यह है, यह भी है, तो कालद्रव्य भी तो है, उस कालद्रव्य का वर्णन कैसे छोड़ा जाये? उस ही काल को बता रहे हैं कि यह कालद्रव्य किस प्रकार से है, और किस प्रकार से परिणत होता है ।
निश्चयकाल―अर्थपरिणमन में कारण जो हो कोई द्रव्य विशेष हो वह काल है वह काल है, इस तरह सदा व्यपदेश को प्राप्त होता है, वह अपने सद्भाव को प्रकट करता हुआ नित्य है, जिसके बारे में हम आप कहा करते हैं कि यह समय है यह भी समय है, यह काल है ।अनेक कालद्रव्य होकर भी, अनेक समय परिणमन होकर भी उनमें जो यह काल है ऐसी एकता को लिए हुए जो व्यपदेश होता है वह व्यपदेश निज काल के सद्भाव का व्यपदेश है और प्रकट करता है कि यह नित्य है, और जो उत्पन्न होते हो नष्ट हो जाया करता है उसका नाम है समय नाम की पर्याय । जो नष्ट होता हुआ चित्त में समझ में बैठता है वह तो है पर्याय समय और जिसकी प्रति समय सत्ता रहती है वह है निश्चयकाल ।
व्यवहारकाल―वह व्यवहारकाल यद्यपि क्षण भंगी है, फिर भी अपनी संतान बराबर बनाये है । यह समयों के संतान की वजह से तो मिनट घंटा वगैरा बने हुए हैं । तो समय यद्यपि क्षण-क्षण में नष्ट होता जा रहा है, फिर भी इसकी संतान परंपरा बिना विच्छेद हुए बराबर बनती चली जा रही है, और फिर नय बल से व्यवहारनय से हम उस समय से दीर्घकाल तक ठहरे हुए कहने लगते हैं । जैसे यह एक घंटे का समय है तो उस एक घंटे के समय में सूक्ष्म व्यवहारदृष्टि से तो एक-एक समय नाम की पर्याय है, लेकिन स्थूल रूप से हम एक घंटे को ग्रहण में ले लेते हैं । यह इतना लंबा समय है और फिर इस ही समय का समय संतान से बढ़ा-बढ़ाकर अपनी बुद्धि में आवली से लेकर सागरों पर्यंत तक का व्यवहार बना लेते हैं । सेकंड, मिनट, पहर, दिन, रात, महीना, वर्ष, युग, पूर्वांग पूर्व चलते जाइए, फिर पल्य, फिर उपमा से बातें चलने लगती हैं । सागर उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कल्पकाल इस प्रकार बहुत लंबे समय को हम अपनी बुद्धि में ले लिया करते हैं ।
निश्चयकाल व व्यवहारकाल का लक्षण―यहाँ यह बात बतायी है कि निश्चयकाल तो नित्य है, क्योंकि वह द्रव्यरूप है और व्यवहारकाल क्षणिक है, क्योंकि वह पर्यायरूप है ।जो अनादि अनंत है, समयादिक कल्पनावों के भेद से रहित है, परमाणु के द्रव्यरूप से व्यवस्थित है, जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नहीं है, ऐसा अमूर्तिक समय आदिक पर्यायों का आधारभूत निश्चयकाल है, और उस कालद्रव्य की पर्यायें जिसकी आदि है, जिसका अंत है ऐसे समय घड़ी दिन विवक्षित कल्पनावों के भावरूप व्यवहारकाल होता है । इस प्रकार कालद्रव्य का कुछ वर्णन किया है । अब इस कालद्रव्य के संबंध में यह बात बता रहे हैं कि इसमें द्रव्यास्तिकायपना नहीं होता है । इस गाथा के साथ यह अंतराधिकार पूर्ण होगा और उसके बाद शिक्षा रूप में दो गाथाएँ आयेगी ।