वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 102
From जैनकोष
एदे कालागासा धम्माधम्मा य पुग्गला जीवा ।
लब्भंति दव्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं ।।102।।
कालद्रव्य की अकायता का कारण―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये द्रव्यपने का लक्षण पाये जाने से द्रव्य कहलाते हैं । इस प्रकार काल भी द्रव्य है, किंतु उसके कायपना नहीं है । द्रव्य उसे कहते हैं जो अपनी पर्यायों को प्राप्त करे, प्राप्त करता है, जिसमें पर्यायें बनी रहें उसे द्रव्य कहते हैं । सो कालद्रव्य में भी समय नाम की पर्याय बनती रहती है । जब हम पूछें कि द्रव्य कितने होते हैं? तो उत्तर आयेगा कि द्रव्य 6 होते हैं । काल भी द्रव्य है, किंतु जैसे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश में अनेक प्रदेश हैं और इस कारण वे अस्तिकाय कहलाते हैं, वे पिंडरूप हैं, बहुप्रदेशी हैं, इस प्रकार से कालाणु बहुप्रदेशी नहीं है, यद्यपि इसकी गणना असंख्यात है । लोकाकाश में जितने प्रदेश हैं उतने ही ये कालाणु हैं, लेकिन हैं अपने एक प्रदेश में, अपने स्वरूप को पूर्ण करने वाले, इस कारण कालद्रव्य को अस्तिकाय नहीं कह सकते हैं । यही कारण है कि पंचास्तिकाय के प्रकरण में इस कालद्रव्य का मुख्यरूप से वर्णन नहीं किया गया ।
पंच अस्तिकायों के वर्णन के प्रसंग में काल की वर्णनीयता का हेतु―इस ग्रंथ में मुख्यरूप से जीव और पुद्गल का परिणाम बताया और उसे परिणमन से काल नामक पदार्थ ज्ञान में आया करता है । इस कारण से जीव पुद्गलपरिणाम से जाना गया यह कालद्रव्य, द्रव्यरूप से सिद्ध किया है और इस पंचास्तिकाय के मध्य में इसे द्रव्यरूप से अर्ंतभूत कर दिया है । अर्थात् इस ग्रंथ का नाम पंचास्तिकाय है, इसमें 5 अस्तिकायों का वर्णन किया गया है, लेकिन साथ ही यह जताने के लिए कि समस्त पदार्थों का परिणमन कालद्रव्य के परिणमन के निमित्त से होता है । यह कालद्रव्य भी पंचास्तिकाय के वर्णन के बीच आया है । इस प्रकार द्रव्यरूप से, जातिरूप से द्रव्य 6 होते हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जो स्वरूप अपनी सब जाति में रहें और उसे छोड़कर अन्य में न रहे यही जाति का लक्षण है । इस जाति की दृष्टि से ये 6 द्रव्य हैं । जीव में सब जीव आ गए, पुद्गल में सब पुद्गल आ गए, काल में सब काल आ गए । धर्म, अधर्म, आकाश ये तो सब एक-एक ही हैं । इस प्रकार षट्द्रव्यों के समूहरूप इस लोक का वर्णन किया गया है ।