वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 104
From जैनकोष
मुणिऊण एतदट्ठं तदणुग्गमणुज्जदो णिहदमोहो ।
पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरावरो जीवो ।।104।।
शास्त्राध्ययन का फल―जो जीव विशिष्ट स्वसम्वेदन ज्ञान के द्वारा इस नित्य आनंद-स्वभावी शुद्ध जीवास्तिकाय नामक पदार्थ को जानता है, मानता है और उसका ही अनुलक्षण करके अनुकरण करके उसका आश्रय करता है, उस रूप से परिणमन में उद्यमी बनता है वह पुरुष मोह को दूर कर के रागद्वेष को प्रशांत कर के संसार से निवृत्त हो जाता है । इसमें ज्ञान श्रद्धान और चारित्र की शिक्षा दी गई है । यद्यपि ज्ञान, सम्यग्ज्ञान सम्यक्त्व का साथ पाने पर होता है यों साथ हुए तो भी वहाँ भी जो सम्यग्दर्शन के पूर्व ज्ञान होता है उस ज्ञान की भी बड़ी महिमा है। ज्ञान द्वारा जो अपने आपका निर्णय करता है तो जब वह निर्णय प्रथम बार अनुभव के रूप में उतर आता है―ओह बिल्कुल सही है, यही तो है तब वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाने लगता है और फिर इस अनुभूति के बाद इस प्रकार का आत्मोपयोग न भी हो तो भी वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । इस शास्त्र का प्रयोजनभूत, अर्थभूत तो यह शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्मा है । इस अपने आपको जो कोई भी जीव जानता है और फिर उस ही अर्थ को उसही स्वभाव से अनुगमन करने के लिए उद्यमी होता है उसके दर्शनमोहनीय का विनाश हो जाता है।
सम्यग्ज्ञान में व्यक्त परिचय―हमारे उन्नयन का बाधक है मोहभाव और मोहभाव में प्रबल है दृष्टिमोह । अर्थात् जो सम्यग्दर्शन का लोप करे ऐसा मिथ्या अभिनिवेश यही है प्रबल बंधक। तो अपने आपके अनुगमन में उद्यमी पुरुष के दृष्टिमोह का विनाश होता है उससे होता है स्वरूप का परिचय और अब जिसके बारे में पहिले तो वह अव्यक्तरूप से आत्मा को कह रहा था, अब इस ही आत्मा को यह स्वसंवेदन प्रत्यक्षीभूत ढंग से अपने आत्मा को जानने लगा, कहने लगा । स्वरूपपरिचय हो गया ना, जिससे अधिक परिचय होता है । लोग उसमें यह-यह ज्यादा बोला करते हैं और जिससे उपेक्षा होती है, साधारण परिचय होता है उसके संबंध से वह-वह की आवाज ज्यादा हुआ करती है ।अब यहाँ हुआ है ज्ञानी को स्वरूपपरिचय । उस स्वरूप परिचय से अब ज्ञानज्योति प्रकाशमान हो जाती है, प्रकट हो जाती है तब इसका राग और द्वेष शांत होने लगता है । मोह मिटा कि रागद्वेष स्वयं शांत हो जाते हैं ।
मोहक्षय से रागद्वेष का विनाश―वृक्ष की जड़ कटी तो यह गिरा हुआ वृक्ष जैसे सूखने के उन्मुख रहता है और कुछ दिनों में वह पेड़ सूख जाता है। ऐसे ही मोह के दूर होते ही, अज्ञान के दूर होते ही ये रागद्वेष सूखने लगते हैं । जहाँ रागद्वेष शांत हुए वहाँ भावी बंध और पूर्वबंध नष्ट हो जाता है । अब पुन: बंध के कारण रहे नहीं, राग द्वेष रहे नहीं तो यह जीव अपने स्वरूप में स्थित होकर नित्य प्रतापशील रहता है । अनंतज्ञान अनंतदर्शन के विकास से सर्व का ज्ञाताद्रष्टा रहे और अपने अनंत आनंद अनंत शक्तिमय होने से सदा निराकुल रहे, ऐसा अनंत प्रताप अपने आपके चैतन्यस्वभाव में शुद्ध विधि से उपयोग में परिणत होने का प्रताप इस जीव के अनंतकाल तक रहता है ।
अधिकारसमाप्ति पर उपसंहार―यों जो कुछ ज्ञान पाया, जहाँ तक पाया हम आपने उस सिलसिले में इस शास्त्र का कितना उपयोग हो रहा है, जिस उपयोग पथ से चलकर हम मुक्ति जैसी स्थिति के निकट हो जाये, यों निहारिये और स्व वृत्ति में उद्यत होइये । इस प्रकार इस अधिकार में कल्याण की प्राप्ति का उपायभूत यह पंचास्तिकायों का प्रतिपादन किया है ।
।। इति पंचास्तिकाय प्रवचन चतुर्थ भाग समाप्त ।।