वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 118
From जैनकोष
देवा चउण्णिकाया मणुया आ कम्मभोगभूमीया ।
तिरिया बहुप्पपारा णेरइया पुढविभेयगहा ।।118।।
चातुर्गतिक जीवों का संक्षिप्त उपसंहार―अब पूर्व में कहे गये संसारी जीवो के प्रकार का इसमें कुछ चूलिकात्मक वर्णन है । देव चार निकाय वाले होते हैं । इनके देवगति नामकर्म का उदय है और देव आयुकर्म का उदय है इसके वश से ये देव हुए हैं । देवगति नामकर्म का कार्य तो यह है कि देवगति नामकर्म के उदय से उस देव भव वाले जीव के देवगति के योग्य ही भाव और परिणतियां बनती हैं और देव आयुकर्म के उदय का कार्य यह है कि देवायु के उदय से यह जीव देव शरीर में रुका रहता । सो देवगति और देव आयु के उदय से उत्पन्न हुए वे सब देव चार प्रकार के निकाय वाले हैं । कोई भवनवासी हैं, कोई व्यंतर हैं, कोई ज्योतिषी हैं और कोई वैमानिक हैं।
प्रथम पृथ्वी के भाग―जिस जमीन पर हम आप चलते हें यह पृथ्वी बहुत मोटी है और इस पृथ्वी के तीन भाग हैं―खरभाग, पंकभाग और अव्वहुल भाग । ये यहाँ से एक हजार योजन नीचे से हैं । यह ऊपरी भाग वह खंड न समझना । इसके नीचे तीन खंडों को समझो । यह प्रथम खंड का ही ऊपरी भाग है, इनका नाम कितना अच्छा दिया गया है । कोई मनुष्य जैसे कुवां खोदता है तो सबसे पहिले खर अर्थात् सूखी मिट्टी निकलती है, और गहराई पर जाने पर फिर पंक सा निकलने लगता है फिर और गहराई पर जाने पर पानी निकलता है । तो यद्यपि ऐसी बात उन भागों में नहीं है, लेकिन यहाँ कुछ खोदने पर जैसे तीन प्रकार को विशेषता मिलती है उसके अनुसार रूढ़ि से ये नाम रक्खे गए हैं, पहिला है खरभाग, दूसरा है पंकभाग और नीचे का हिस्सा है अव्वहुल भाग ।
देवों का निवास स्थान―ये भवनवासी और व्यंतर खरभाग और पंकभाग में रहते हैं । पंकभाग में तो असुर जाति के देव और राक्षस नाम के देव रहते हैं और शेष भवनवासी और व्यंतर खरभाग में रहते हैं । इनमें ऊँचे मणिखचित सुंदर भवन हैं और विशेष-विशेष भवनों के निकट चैत्यालय हैं, अकृत्रिम सब रचना है, व्यंतरों में तो कुछ व्यंतर तो इस मध्यलोक की कई पुरानी जगहों में रहते हैं । कहीं द्वीप आदिक में निचले स्थानपर रहते हैं, आकाश में भी अधर जहाँ चाहे रहते हैं, और कोई पुरानी जगह खंडहर विशाल पेड़ इत्यादि पर जैसी उनकी रुचि होती है उस रुचि के अनुसार इन जगहों में भी रहते हैं । ज्योतिषी देव सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र और तारे इन विमानों में रहने वाले हैं, वैमानिक देव स्वर्गों में और स्वर्गों से ऊपर सर्वारिसिद्धि पर्यंत इन सबमें वैमानिक देव रहते हैं, ये सब संज्ञी जीव होते हैं ।
देव देह―देवों के शरीर में अतिशय होता है । खून, पीप, हाड़, मांस, मज्जा इत्यादि अपवित्र चीजें उनके नहीं हैं । वैक्रियक जाति की वर्गणायें उनके शरीर में हैं, वे शरीर के अनेक बना, लें, छोटा, बड़ा, लघु, वजनदार सब प्रकार का बना ले, ऐसी विविध ऋद्धियों के वे स्वामी हैं । उनको कई पखवारे बाद तो श्वांस लेने का कष्ट करना पड़ता है और कई हजार वर्षों में उनके भूख लगती है । सो गले में से अमृत झड़ जाता है, शांति हो जाती है कितना महान उनको सुख है, सुविधा है? हम आप लोग ऐसा सोच सकते हैं कि वे तो यदि खूब प्रभुभक्ति करें और आत्मध्यान करें, आत्मा की उत्कृष्ट साधना करें तो उनको तो सारा ही मौका है लेकिन वे इस सुख में रहकर ऐसे छोटे मन वाले हो जाते हैं कि उनके आत्मकल्याण की विशेष जिज्ञासा और यत्न नहीं बनता । वे सदा असंयमी जीव रहा करते हैं ।
मनुष्य जीव―मनुष्य गति में मनुष्यगति नामकर्म के, उदय से और मनुष्यायु के उदय से ये जीव मनुष्य हुए हैं । ये मनुष्य. दो प्रकार के हैं―कर्मभूमिज और भोगभूमिज । जिन्हें खेती व्यापार आदिक कुछ करके आजीविका बनानी पड़ती है वे कर्मभूमिज हैं और जिन्हें स्वयं ही खड़े हुए कल्पवृक्ष से सर्व इष्ट सामग्री प्राप्त हो जाती है वे भोगभूमिज हैं । तिर्यंच―तिर्यक्गति नाम के उदय से और तिर्यक् आयु के उदय से यह जीव तिर्यंच होता है । समस्त स्थावर, गेडुवा आदिक दोइंद्रिय, जू आदिक तीनइंद्रिय भंवरा आदिक चारइंद्रिय तथा जलचर, थलचर, नभचर आदिक पंचेंद्रिय अनेक प्रकार के तिर्यंच होते हैं ।
नारकी जीव―नारकी जीव नरकगति तथा नरक आयु के उदय से होते हैं । ये नारकी जीव 7 प्रकार की पृथ्वियों में उत्पन्न होने से 7 प्रकार के कहे जाते हैं और उस ही हिसाब से इनकी लेश्याएँ आयु और क्लेश के साधन सब हुआ करते हैं । उन भूमियों के नाम प्रसिद्ध हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातम: प्रभा । इन भूमियों में उत्पन्न होने से ये नारकी जीव 7 प्रकार के हो गए । नारकों में कैसे दुःख हैं―यह सब वर्णन करणानुयोग त्रिलोक प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथों में कहे गए हैं । रत्नप्रभा को यह जानना कि वहाँ रत्न मौजूद हैं, किंतु वहाँ उतना ही उजेला है जितना कि रत्न की प्रभा होती है । बाकी तो अंधेरा ही है । अंधेरा बताने के लिए इन सातों का नाम बताया गया है ।
जीवभेदपरिचय से शिक्षा―ये देव, मनुष्य, नारकी पंचेंद्रिय ही होते हैं और संज्ञी ही होते हैं । तिर्यंचों में भेद है―कोई तिर्यंच सैनी पंचेंद्रिय होते हैं और कोई असैनी पंचेंद्रिय होते हैं । एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय―ये जीव नियम से असैनी ही होते हैं ।इस प्रकार इस प्रकरण में संसारी जीवों का भेदविस्तार कहा है । वहाँ यह शिक्षा लेना है कि हम अपने आपकी और नहीं दृष्टि देते हैं । इसका फल यह है कि हमें इन नाना शरीरों में जन्ममरण करना पड़ता है ।