वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 11
From जैनकोष
उप्पत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो।
विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।।11।।
द्रव्य की पर्यायमयता―लोक में जो कुछ है वह कैसा है उसके स्वरूप का निर्णय चल रहा है। जो भी पदार्थ है उसमें दो बातें अवश्य हैं। एक सदा रहने वाला तत्त्व और दूसरा―उसकी प्रति समय बदलने वाली अवस्था। है और अवस्थायें बनाता रहता है। जो भी पदार्थ है उसमें तीन बातें अवश्य हैं―(1) बनना, (2) बिगड़ना और (3) बना रहना। ये तीन बातें किसी की समझ में आये तो, न आयें तो, होती सबमें हैं। यह अनिवार्य बात है। द्रव्य और पर्याय इनके बिना सत्त्व नहीं होता। अगर है कुछ तो सदा रहेगा और अपनी अवस्थायें बनाता रहेगा। यह है प्रत्येक पदार्थ का इतिहास। यह ही अनादि से प्रत्येक पदार्थ करता आया है। अनंतकाल तक यह ही करता रहेगा। तो द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु है। जैसे जीव द्रव्य क्या है? जो त्रिकाल रहने वाला चैतन्यस्वरूप है एक द्रव्य दृष्टि में ज्ञात हुआ। पर्याय क्या है ? तो पदार्थ को पर्यायें दो प्रकार से होती हैं―एक तो आकाररूप में और एक गुण परिणतिरूप में । दोनों ही प्रकार की पर्यायें प्रत्येक पदार्थ में हैं। जैसे परमाणु वह एक प्रदेशाकार है, बहुप्रदेशी नहीं है। जो भी एकप्रदेश है वही उसका आकार है, और गुण परिणमन क्या है ? स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये बदलते रहते हैं, ये उनकी गुणपर्यायें हैं। जीव में क्या है? नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव ये आकार पर्यायें हैं। जिस शरीर में जीव जाता उसही आकार में जीव प्रदेश रहते हैं। जीव एक अखंड है, प्रदेश भी अखंड है, मगर उस अखंड प्रदेश का इतना विस्तार हो जाता है कि उसे अगर प्रदेश के रूप से नापे तो असंख्यात प्रदेश कहलाता है। कहीं ये असंख्यात प्रदेश एक-एक अलग-अलग हों और उनको जोड़-जोड़कर बनाया हो, ऐसा नहीं है। वह निश्चय से अखंड प्रदेशी है, किंतु उसका विस्तार होता है, संकोच होता है तो समझा कि वह बहुप्रदेशी कहलाता है। जैसे प्रकाश खाली प्रकाश मात्र वह तो एकस्वरूप है, मगर उसके फैलाव की दृष्टि से देखो तो कोई दो हाथ दूर तक प्रकाश है, कोई 10 हाथ तक, कोई 50 हाथ तक। तो फैलाव की दृष्टि से बहुप्रदेशी है और स्वरूप की दृष्टि से वह अखंड है। जीव भी अखंड प्रदेशी है वस्तुतः, किंतु उसका कारण पाकर संकोच विस्तार होता है तो वह एक ही बढ़ा, एक ही घटा। उस घटा बढ़ी में जो नाप बना वह बहुप्रदेशी है, और ऐसे कितने प्रदेश हैं? तो यह कल्पना करो कि अगर जीव फैले तो कितनी दूर तक फैलेगा? पूरे लोक में फैलेगा। तो लोक में जितने प्रदेश हैं उतने प्रमाण आत्मा के प्रदेश हैं, इस प्रकार जीव के प्रदेश लोक प्रमाण असंख्यात कहे गए हैं। धर्मद्रव्य का आकार परिणमन क्या है ? जितना लोकाकाश है वहीं तक धर्मद्रव्य है, उतना ही अधर्मद्रव्य है। आकाश अनंतप्रदेशी है, आकाश एक अखंड है। उस आकाश में जितने में समस्त द्रव्य रहते हैं उसका नाम रखा है लोकाकाश और उसके बाहर में जो आकाश है उसका नाम है अलोकाकाश। लोकाकाश की सीमा है, अलोकाकाश की सीमा नहीं है। वस्तुत: आकाश के दो भेद नहीं हैं, आकाश तो एक ही है। जैसे एक मैदान में आकाश है उसमें किसी ने एक बड़ा मकान बना लिया तो अब संबंध से दो भेद कर दो, एक मकान में रहने वाला आकाश और एक मकान से बाहर का आकाश। पर आकाश के क्या दो टुकड़े हो गए? वह अखंड प्रदेशी है, सभी पदार्थ अखंड प्रदेशी हैं। कालद्रव्य का क्या आकार है? कालद्रव्य एकप्रदेशी होता है। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य स्थित है, उसका भी एक प्रदेशाकार है। प्रत्येक पदार्थ में आकार होता है। आत्मा को निराकार जो कहा है तो अमूर्त होने से कहा है, पर फैलाव की दृष्टि से आत्मा भी साकार है, प्रत्येक पदार्थ साकार है। उनका कोई निज-निज प्रदेश है और उस प्रदेश में फैलाव होता है। यों प्रत्येक पदार्थ में आकार का परिणमन है और सभी पदार्थों में गुण का परिणमन है। जो भी जिसका असाधारण गुण है उनका प्रति समय परिणमन होता रहता है, इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य पर्यायवान है।
उत्पादव्ययध्रौव्यमयता के परिचय से हित की शिक्षा―अब वस्तु को द्रव्य की दृष्टि से देखो तो पदार्थ सदा काल रहता है और पर्यायदृष्टि से देखो तो प्रति समय अपनी नई अवस्था बनाता रहता है, पुरानी अवस्था विलीन करता है। ये बातें सभी पदार्थों में पायी जाती हैं। इसके परिचय से अपने को क्या शिक्षा मिलती है कि भाई सभी पदार्थों का ऐसा ही स्वरूप है। प्रत्येक पदार्थ है और वह अपनी नई-नई अवस्था बनाता रहता है। कोई पदार्थ किसी दूसरे की अवस्था नहीं बनाता। कोई पदार्थ अपने प्रदेश से हटकर किसी दूसरे पदार्थ में नहीं जाता। इसलिए उसका किसी भी पदार्थ से कुछ भी संबंध नहीं। दूसरी बात उसकी जो परिस्थिति बन रही है, जो दु:ख भरी स्थिति है यह स्थिति मिट सकती है क्या? हाँ मिट सकती है। क्यों? यों मिट सकती कि आत्मा का स्वरूप है ऐसा कि पुरानी अवस्था विलीन करे और नई अवस्था बनाये। जिन सिद्धांतों का यह मत है कि जीव तो एकांतत: नित्य है, परिणमता नहीं। उनका जीव दुःखी है तो दु:खी रहेगा, सुखी है तो सुखी रहेगा, वहाँ तो परिणमन नहीं माना, तो उनकी कल्पना में जो मंतव्य है उस पदार्थ से दुःख नहीं मिट सकता, पर ऐसा नहीं है। मैं जीव हूँ, प्रतिसमय अपनी अवस्थायें बनाता रहता हूँ । मैं अपनी दु:खमयी अवस्था मिटा दूं और आनंद अवस्था को लाऊँ यह मेरी प्रकृति है, ऐसा मैं कर सकता हूँ । इस बात की हमको उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाले स्वरूप से शिक्षा मिलती है।
अवक्तव्य अखंड वस्तु में भेददृष्टि, उत्पाद व्यय व ध्रौव्य का परिचय―प्रत्येक पदार्थ द्रव्यस्वरूप से न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, किंतु पर्याय ही उत्पाद व्यय और ध्रौव्यपने को प्राप्त होती है। देखिये ये तीनों ही बातें पर्यायदृष्टि से कही गई हैं। तो उत्पादव्यय की बात तो भली प्रकार समझ में आयगी कि हाँ पर्यायदृष्टि से प्रत्येक पदार्थ नया-नया बनता रहता है, मगर ध्रुवपना कैसे आता है? तो देखो जहाँ द्रव्यदृष्टि है वहाँ अखंड सत् का परिचय है। उसमें उत्पाद है, व्यय है, ध्रौव्य है। ये तीन अंश व्यवहारनय से किए जाते हैं और अंश का ही नाम पर्याय है। पर्याय अंशादिक अर्थों में पर्याय शब्द का प्रयोग है, तो उस दृष्टि से पर्याय ही ध्रुवपने को, पर्याय ही उत्पादव्यय को प्राप्त होती है। अब इससे यह बात समझना कि जो पर्याय विशेष है, क्षण-क्षण में जो पर्यायें हैं उसे दृष्टि से तो पर्याय विशेष है, क्षण-क्षण में जो पर्यायें हैं उस दृष्टि से तो उत्पादव्यय है और जो पर्याय सामान्य हैं, सर्वपर्यायों में पर्यायपना तो है ही उस पर्याय जाति की दृष्टि से वहाँ ध्रुवता भी है। पर्याय होती ही रहेगी। इस तथ्य को तत्त्वार्थ सूत्र के एक सूत्र में बताया गया है―तद्भावाव्ययं नित्यं। पदार्थ के होने का, होते रहने का, व्यय न होने का नाम नित्य है, याने अवस्थायें निरंतर होती ही रहें ऐसी धारा बनी रहने का नाम नित्य है। कोई भी पदार्थ ऐसा नित्य नहीं होता कि उसमें उत्पाद व्यय न हो। ऐसा यह मैं जीव तत्त्व द्रव्यदृष्टि से तो सद्भावरूप हूँ, अखंड हूँ, पर्यायदृष्टि से मेरे में उत्पाद है, व्यय है और ध्रौव्यपना है। ऐसा यह मैं परिपूर्ण अखंड आत्मा जगत के समस्त पदार्थों से निराला हूँ।
विकल्प का विच्छेद होने पर ही आत्मानुभव की निर्भरता―जैसे सबका घाट एक होता है। मरना सबको होता है। संसार में जीवन भी सबका एक ढंग से चलता है। आयु का उदय सो जीवन, आयु का क्षय सो विनाश, ऐसे ही शांति और कल्याण का लाभ भी एक ही विधि से होगा। जिसे आत्मानुभव चाहिए उसे बहुत-बहुत त्याग करना होगा। जैसे भीतर में जितनी कल्पनायें बनती उनका त्याग करना होगा, उनके संस्कार का त्याग करना होगा। ऐसा जब सहज उदार हो जाय तो वहां आत्मानुभव जगता है। देखो मैं किस जगह बैठा हूँ, यह थोड़ा बहुत भी याद रहेगा तो आत्मानुभव न बनेगा। मैं किस वक्त बैठा हूँ, कौनसा समय है, कितने बज गए हैं? यह बात जब तक थोड़ी भी चित्त में रहेगी आत्मानुभव न जगेगा। मैं मनुष्य हूँ, व्यापारी हूँ, वैश्य हूँ, जैन हूँ, गृहस्थ हूँ, साधु हूँ, परिवार वाला हूँ, बालबच्चों वाला हूं, मैं उच्चकुल का हूँ, ऐसी कोई भी बात, कुछ भी संस्कार जब तक चित्त में ऊधम मचायेगा तब तक आत्मानुभव न जगेगा। व्यवहारधर्म की प्रवृत्ति का मूड दूसरा होता है और आत्मानुभव की वृत्ति का मूड दूसरा होता है। कैसी व्यवहार से परे है यह आत्मानुभव की स्थिति?
व्यवहारधर्म का प्रयोजन आत्मानुभव की अपात्रता से बचाव रखना―आत्मानुभव की स्थिति व्यवहार से परे है, इसके मायने यह नहीं हैं कि जब व्यवहार का मार्ग बिल्कुल जुदा है व आत्मानुभव का मार्ग जुदा है और निश्चयनय का मार्ग आत्मानुभव में ले जाता है तो व्यवहार क्यों किया जाय? छोड़ दो। हाँ हाँ भाई छोड़ दो। कब छोड़ दो? जब इतनी पात्रता है कि हम सहजदृष्टि से स्वतंत्रता इतनी पा गए हों, इतना समर्थ हों कि हम आत्मानुभव में गर्त रहा करते हों, तो छोड़ोगे क्या, वह तो छूट ही जायगा, किंतु जब तक आत्मानुभव की स्थिति नहीं पायी, तब तक आप कुछ करेंगे तो सही। मन, वचन, काय ये खाली न रहेंगे, इनकी प्रवृत्ति रहेगी, वह कैसी प्रवृत्ति रहेगी? आप कहेंगे कि आत्मानुभव करने के लिए धुन बन जाय, सोचा करें, यह प्रवृत्ति बन जायगी, बस यह ही व्यवहार धर्म है। आप कहेंगे कि उस आत्मानुभव की गाथा गाया करें, शास्त्र पढ़ें, पढ़ाये, अध्ययन करें, चर्चा करें, किसी भी प्रसंग के रूप में हम आत्मानुभव की गाथा बनाये रहें, बनाइये, यह ही तो व्यवहार धर्म है। शरीर से प्रवृत्ति क्या करेंगे? भाई जिन्होंने आत्मानुभव का फल पाया है उनकी वंदना करेंगे। जो आत्मानुभव के कार्य में लगे हैं उनकी सेवा करेंगे। करो, यह ही तो व्यवहार धर्म है। सब जीवों में हम उसी स्वरूप को निरखेंगे जैसा कि मैंने अपने में अनुभव किया है और उस स्वरूप को जब निरख लूंगा, सब जीवों में मैं उस चैतन्यस्वरूप को निरखूँगा तो उसके प्रति आदर भी करेंगे वह फिर हिंसा कैसे कर सकेगा? हिंसा न करेगा, किसी को दुर्वचन न बोलेगा, दुर्व्यवहार न करेगा। हाँ तो करेगा ऐसा, यह ही तो व्यवहार धर्म है। तो व्यवहार धर्म आत्मानुभव के लिए पात्रता बनाये रखता है। कहीं यह उल्टा न हो जाय, व्यसनी न हो जाय, पापी न हो जाय, एकदम पतित न हो जाय, अज्ञान न आ जाय―इन सब बातों का बचाव व्यवहार धर्म करने से होता है। मगर आत्मानुभव की दशा में व्यवहार धर्म छूटकर एकमात्र शांत सनातन सत्य कल्याणमय एक शुद्ध चित्प्रकाश अनुभव होता है। यह बात हो सकती है, इसका संकेत मिल रहा है इस कथन से कि प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है। जो पर्याय मिला है यह पर्याय मिट सकता है। अज्ञान दशा तो मिटेगी, ज्ञानदशा में आयगी। इस पर्याय को मिटाना दो उपायों से होता है एक तो व्यावहारिक और दूसरा नैश्चयिक। व्यावहारिक उपाय यह है कि बाह्यपदार्थों का संबंध यह हमारी ममता का कारण बनता है। इसका त्याग करें। नैश्चयिक उपाय यह है कि अपने आत्मा के उस ध्रुव चैतन्यस्वरूप को ज्ञान में लेना, मैं यह हूँ ।
परमार्थ पुरुषार्थ―कोई कठिन बात है क्या निज परिचय की? आप कुछ न कुछ अपने बारे में विचारते हैं कि नहीं कि मैं यह हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, साधु हूँ, बाबू हूँ, श्रावक हूँ, उच्च कुली हूँ । रास्ते में जाते हैं और कुछ छोटी जाति के लोग जब वहाँ से निकलते हैं तो आप उन्हें छोटा मानकर उनसे बचकर चलते हैं, क्यों आप ऐसा करते हैं? इसलिए कि आपने अपने को भीतर में कुछ समझ रखा है कि मैं यह हूँ, और जब कोई अपनी पार्टी का दिख जाता है तो आप उसे अपनी ओर खींचते हैं, अपने पास बुलाकर अपने पास बैठाते हैं, आप उसका आदर करते हैं, बाकी और जीवों को आप उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि आपने कुछ समझ रखा है पर में कि मैं यह हूँ । निरंतर यह ध्यान में रखते हैं कि मैं यह हूँ । मैं होने को कभी नहीं भूलते। बस जो मैं हूँ उसे नहीं भूलना है, किंतु सही तो जानें कि मैं क्या हूं? जो-जो कल्पनायें की जाती हैं वे मैं नहीं हूँ । मैं सहज चैतन्यस्वभावमात्र हूँ, कैसा निस्तरंग, धीर, गंभीर, उदार, शाश्वत, अनवरत, अंतःप्रकाशमान ऐसा मैं चैतन्यस्वरूप हूँ, ऐसा मैं होने का बोध रहे, लगा रहे तो प्रतिक्षण कर्मनिर्जरा होती है। बडे-बड़े तपश्चरणों का तथ्य और है क्या? जिस किसी भी प्रकार इस अंत:स्वरूप में रमण हो जाय। अगर तपश्चरण नहीं कर सकते, जो समझ में देखने में आता है―अनशन करना, ऊनोदर करना, रसत्याग, कायक्लेश, विविक्त शय्यासन आदिक नहीं बनता, उनके करने को समय नहीं मिलता और यह अंतस्तत्त्व की दृष्टि दृढ़तया बन गई तो तपश्चरण का फल पा लिया। उसे तपश्चरण की क्या अनिवार्यता? इसके मायने यह नहीं कि तपश्चरण अनावश्यक हो गया। अनावश्यक भी है, आवश्यक भी है। जो परमार्थ पद में प्रविष्ट नहीं हैं उन्हें आवश्यक है और जो प्रविष्ट हैं, परम चैतन्यस्वरूप का अनुभव कर रहे हैं वे तो इस तपश्चरण से भी ऊँचा तपश्चरण कर रहे हैं, जिसे कहते हैं चैतन्यस्वरूप का प्रयत्न। यह स्थिति बने, बस इसके लिए समस्त प्रवचन हैं, आगम है, संबोधन है। वही शिक्षा हम को पदार्थों के स्वरूप के निर्णय में मिलती है।
द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि से पदार्थ का परिचय―पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यवान है, द्रव्यस्वरूप से नहीं, पर्यायरूप से। द्रव्यस्वरूप से कैसा है? सत्स्वरूप अखंड अवक्तव्य। ओह ! उत्पादव्ययध्रौव्यवान होकर भी अखंड की दृष्टि में है यह जीव और अखंड होने पर भी उत्पादव्ययध्रौव्य की दृष्टि में है यह जीव। जो जीव उत्पादव्ययध्रौव्य की बात सुन रहा है, समझ रहा है वह अखंड होकर भी समझ रहा है, और जो अखंड की बात सुन रहा है, समझ रहा है, अखंडस्वरूप में प्रवेश कर रहा है वह उत्पादव्ययध्रौव्यरूप से रहता हुआ ही प्रवेश कर रहा है, इन दो बातों में किसको असत्य कहा जाय? पदार्थ का स्वरूप सत्य है, उत्पादव्ययध्रौव्य यह सत्य है और अखंड है, यह असत्य है, यह नहीं कहा जा सकता। अखंडता नहीं है तो उत्पादव्ययध्रौव्य न बनेगा और जहाँ उत्पादव्ययध्रौव्य नहीं हो रहा वहाँ अखंड तत्त्व ही नहीं। किसके आश्रय में उत्पादव्ययध्रौव्य हो? तो ये दो किनारे जैसे वस्तु के होते ही हैं लाठी में या रस्सी में या अन्य चीजों में, ऐसे ही प्रत्येक पदार्थ में दो बातें होती ही हैं। पदार्थ द्रव्यरूप है, पदार्थ पर्यायरूप है, द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु होती है। मेरा द्रव्यपर्याय मुझमें समाप्त है, मेरे से बाहर नहीं। प्रत्येक अणु मुझ से भिन्न है। कितना भिन्न? पूरा भिन्न। प्रत्येक परजीव मुझ से भिन्न है। कितना भिन्न? पूरा भिन्न। जो इस श्रद्धा में कमी रखेगा उसके सम्यक्त्व नहीं है। घर में रहने वाले जीव पुत्र पुत्री और-और सब ये जीव ये तो कुछ मेरे लगते हैं, ऐसी श्रद्धा में बात होगी तो वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, संसार में जन्ममरण की परंपरा बढ़ाने वाला है। हम राग न छोड़ सकें, यह बात तो क्षम्य है, पर श्रद्धा यदि ऐसी बनी है कि ये तो मेरे हैं, बाकी अन्य जीव मेरे कुछ नहीं, तो यह अक्षम्य अपराध हैं। इसका फल तो कुगतियों में जन्म मरण है। अज्ञान हटने के बाद जो राग रह जाता है उसमें तो बड़े-बड़े पुण्यबंध भी होते हैं, किंतु अज्ञान रहते हुए यदि कुछ धार्मिक क्रियावों का भी राग चलता है तो वहाँ तो पापबंध होता है, मिथ्यात्व का असर विशेष होता है और आपके शुभ मन, वचन, काय की क्रियावों का तेज न होगा। भीतर देखो तो यह बात हम को यह द्रव्यस्वरूप का परिचय कराती है कि हम अज्ञानअवस्था में मत रहें। इस अवस्था को बदलकर ज्ञानअवस्था में आयें और अपने ध्रुवस्वरूप की दृष्टि बनावें।