वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 126
From जैनकोष
संढाणा संघादा वण्णरसप्फासगंधसद्दा य ।
पोग्गलदव्बप्पभवा होंति गुणा पज्जया य बहू ।।126।।
अरसमरूवमगंधमव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं ।
जाण अलिंग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।127।।
संस्थान का आधार―पुद्गल द्रव्य में बहुतसी गुण और पर्यायें हैं, जैसे कि संस्थान, संघात, वर्ण, रस, स्पर्श, गंध और शब्द । इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक पर्यायें पुद्गलद्रव्य में हैं । जिनको निरखकर यह निर्णय होता है कि यह पुद्गल द्रव्य है । संस्थान नाम आकार का है । द्वार का आकार, किवाड़ का आकार, शरीर का आकार जो-जो भी पदार्थ लंबे, चौड़े, मोटे आदिक आकार में दिख रहे हैं ये आकार पुद्गलद्रव्य के धर्म हैं । आकाश का तो कोई आकार है ही नहीं, वह तो असीम है । धर्म, अधर्मद्रव्य का भी आकार नहीं है, किंतु असंख्यातप्रदेशी अस्तिकाय है तो भी लोकाकाशप्रमाण फैला हुआ है और जो एक पूरा आकार है इसका तो आकार क्या कहा जाय? जो अनादि निधन आकार है, जिसमें न कभी एक प्रदेश की कमी होती है, न कभी एक प्रदेश की बढ़ोतरी होती है । जितने हैं ये धर्म अधर्मद्रव्य वे सब उतने ही रहेंगे । ऐसी जहाँ एकरूपता ही है शाश्वत, उसे आकार क्या कहेंगे? जैसा है तैसा है? । जहाँ परिवर्तन होता है अभी कुछ है, अभी कुछ बना वहाँ आकार की आभा होती है । यों ही कालद्रव्य एकप्रदेशी है, वह भी निराकार है । जीवद्रव्य चित्प्रकाशात्मक है उसका स्वरूप आकार की मुख्यता से नहीं है । वह भावप्रधान तत्त्व है, पर वह चैतन्यप्रकाश चूंकि अस्तिकाय है और इसके साथ अनादि से उपाधि का संबंध है, सो उपाधि के भेद से इसमें आकार के भेद हो रहे हैं । जब यह जीव जिस शरीर को ग्रहण करता है उस शरीरप्रमाण इसका आकार हो जाता है । इस जीव में स्वयं अपने आपके गुण के कारण अपने आप में आकार नहीं है और यह आकार जीव का सहजस्वरूप नहीं है । आकार पुद्गल द्रव्य में ही हुआ करता है ।
संघात का उपादान―इसी प्रकार संघात बिछुड़े हुए मिल जाये, एक पिंडरूप बन जायें, ऐसा संघात होना भी पुद्गल द्रव्य में संभव है । जीव-जीव मिलकर पिंड नहीं बनते अथवा जीव के साथी अन्य कोई द्रव्य मिलकर पिंड नहीं बनते, केवल पुद्गल-पुद्गल ही मिलकर ऐसे पिंड बन जाते हैं, एक स्कंध बन जाता है । ऐसा संघात होना यह पुद्गलद्रव्य में ही संभव है ।
वर्ण, रस व स्पर्श का आधार―वर्ण काला, पीला, नीला, लाल, सफेद और इनके तीव्र मंद से अनेक भेद और इन रंगों के मेल से बने हुए अनेक प्रकार के वर्ण ये समस्त वर्ण पुद्गल द्रव्य में ही हुआ करते हैं । पुद्गल को छोड़कर अन्य पदार्थों में नहीं होता । पुद्गल ही मूर्तिक पदार्थ है । अमूर्त पदार्थ में वर्ण नहीं होता है । इसी प्रकार खट्टा, मीठा, तीखा, कडुवा, कषैला ये 5 प्रकार के रस और इनके तीव्र मंद भेद से ये ही अनेक प्रकार के रस और इन रसों के मेल से बने हुए नाना प्रकार के रस, ये सब पुद्गल में ही संभव हैं । यद्यपि इन रसों का जानने वाला जीव है, इसमें रस है, इसका कौन अनुभव करे? इसे समझने वाला जीव है, लेकिन यह जीव केवल समझता है, रस तो उन पुद्गलों में उन पुद्गलों के कारण अपने आप है । रस भी पुद्गलद्रव्य में उत्पन्न हुआ परिणमन है । इसी प्रकार स्पर्श मूल में तो ये चार प्रकार के हैं―स्निग्ध रूक्ष शीत और उष्ण, पर इस परमाणु का जब संघात हो जाय, स्कंधरूप स्थिति बन जाय तो इसमें भारी, लघु, कोमल और कठोर―ये चार परिणमन भी हो जाया करते हैं । ये 8 प्रकार के स्पर्श पुद्गलद्रव्य में ही हैं, अन्य किसी भी द्रव्य में नहीं हैं ।
गंध और शब्द का उपादान―इसी प्रकार यह गंध जो कि सुगंध और दुर्गंध के भेद से 2 प्रकार का है, किसी को सुगंध इष्ट है, किसी को दुर्गंध इष्ट है और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार वह इन गंधों में रमण करता है, पर यह गंध तो पुद्गल में ही संभव है, इसका जाननहार यह जीव है । यह गंध भी पुद्गलद्रव्य से उत्पन्न हुआ परिणमन है । इसी प्रकार शब्द यह पुद्गलद्रव्य की गुणपर्याय नहीं है, किंतु महास्कंध के संघट्टन का निमित्त पाकर भाषावर्गणा जाति के स्कंधों में ध्वनि नामक यह द्रव्य परिणमन होता है । शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श गुण की परिणति नहीं है, किंतु उन द्रव्यों का ही एक इस प्रकार का परिणमन है । शब्द भी पुद्गलद्रव्य से उत्पन्न हुआ पर्याय है । यह तो जीव और पुद्गल के संयोग में भेदविज्ञान कराने के लिए पुद्गल के परिणमन की बात कही है ।
जीव की अरसादिरूपता―अब जीवतत्त्व की बात कहते हैं । यह जीव रसरहित है । रस गुण वाला हो तो रस वाला कहा जाय । रस गुणसहित तो पुद्गलद्रव्य ही होता है ।यह आत्मा रस गुण वाला नहीं है और न इसमें रस गुण के कोई परिणमन आते हैं । रस का ग्रहण करने वाली यह पौद्गलिक जिह्वा नाम की द्रव्येंद्रिय है, लेकिन रहो, यह एक बाह्यसाधनभूत है, परंतु यह जीव इंद्रियरूप भी नहीं है और इस जिह्वा द्रव्येंद्रिय के कारण से जो रसका ज्ञान होता है वह रस का ज्ञान भी जीवस्वरूप नहीं है । वह भावेंद्रिय रूप ज्ञान भी एक विकारभाव है, अथवा यह रस जैसे परिच्छेद्य होता है, ज्ञेय होता है इसी प्रकार इस द्रव्येंद्रिय और भावेंद्रिय से यह आत्मा ज्ञेय नहीं होता है । भले ही यह जीव रस के आस्वादन का परिच्छेदक है, वह क्षायोपशमिक भाव है, भावेंद्रियरूप है, पर भावेंद्रियरूप यह जीव नहीं है । यह तो एक शुद्ध चैतन्यस्वरूपमात्र है तथा भावेंद्रिय के कारण से यह रस की तरह ज्ञान में भी नहीं आता है । यह तो केवल सत् को ग्रहण करने वाला अखंड एक प्रतिभासस्वरूप ज्ञानमात्र है । रस के जाननरूप जो खंड ज्ञान है, रस को जाने ऐसा जो इस अखंड ज्ञान में एक खंडपना उत्पन्न होता है वह खंडपना जीव का स्वरूप नहीं है । यह रस रूप भी नहीं होता ।यह जीव अरस है । इसी प्रकार जीव रूपसहित भी नहीं गंध सहित भी नहीं और शब्द सहित भी नहीं ।
जीव की अव्यक्तता―यह आत्मा अव्यक्त है । पुद्गल की नाईं यह आत्मा ज्ञेय नहीं है, अथवा कभी-कभी यह क्रोधादिक कषायों में व्यक्त हो जाता है । समझ में आने लगता कि इसके क्रोधकषाय जगी है, इसके मान, माया, लोभ कषायें जगी हैं । क्रोधादिक कषायों का समूह भी कभी-कभी व्यक्त होने लगता है । निर्मलस्वरूप की जिन्हें उपलब्धि नही है, ऐसे जीवों की जो मिथ्यात्व रागादिक भावों में परिणति हो रही है ऐसे मन वाले के ये क्रोधादिक कषायें व्यक्त होने का परिणाम होता है । पर यह परमात्मतत्त्व मेरा सहजस्वरूप है, इस तरह व्यक्त नहीं हो पाता है । यह ती स्वसम्वेदन ज्ञानद्वारा अंतरात्मा पुरुषों को अपने अंत:स्वरूप निर्विकल्प परमसमाधि में व्यक्त होता है । यह आत्मतत्त्व अव्यक्त है ।
जीव की असंस्थानता―इस आत्मा में किसी प्रकार का संस्थान नहीं है । गोल हो, चौरस हो आदिक किसी भी प्रकार के संस्थान इस आत्मा में नहीं हैं । यह अखंड एक प्रतिभासस्वरूप है, परमात्मरूप है । यह संस्थान आदिक जो कर्मप्रकृतियों में बताये गये हैं उनके उदय से इस भव में संस्थान होता है । वह एक तो पौद्गलिक कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है दूसरे वह संस्थान रचना पौद्गलिक कर्मो की रचना है । यों यह असंस्थान है ।
जीव का अलिंगग्रहणत्व―यह आत्मतत्त्व किसी चिह्न के द्वारा ग्रहण में नहीं आता । जैसे धुवां देखकर हम अग्नि का ज्ञान कर लेते हैं इस तरह कदाचित् हम कषाय आदिक देख-कर इस अशुद्ध आत्मा का ज्ञान तो कर लें, परंतु जो शुद्ध आत्मा है उसका अनुमान नही बनता । उसका तो या प्रत्यक्ष होगा या कुछ न होगा । जैसे हम एक परोक्ष रूप के ज्ञान से अशुद्ध आत्मा को भाँप लेते हैं, इस प्रकार शुद्ध आत्मा का भाँप परोक्ष ज्ञान से नहीं होता, या तो भांप होगा नहीं या भाँप होगा तो प्रत्यक्ष रूप से होगा । रागादिक विकल्पों से रहित निज के स्वसम्वेदन ज्ञान से प्रकट जो परम आनंद है उस आनंद में स्थित उस आनंद में परिणत हुआ आनंद रस जल से जो सर्वप्रदेशों में भर गया है, ऐसे परमयोग से ही आत्मा प्रत्यक्ष होता है । यह आत्मा अलिंग ग्रहण है । किसी लिंग के द्वारा इस आत्मा का ज्ञान नहीं होता ।
जीव की चैतन्यस्वरूपता―यह आत्मतत्त्व तो चैतन्यगुण वाला है । समस्त द्रव्यों को, उनकी गुण पर्यायों को भूतकाल, भावीकाल और वर्तमान कोल के समस्त पदार्थों को एक साथ जानता है वही तो सर्वज्ञ है । ऐसी सर्वज्ञता की शक्ति प्रत्येक संसारी जीव में पायी जाती है । वही शुद्ध चैतन्य है । हम अपने आपके इस चैतन्यस्वरूप को न जानने के कारण अभी तक इस जगजाल में भटकने वाले बन रहें हैं । यह भटकना तो मंजूर हो रहा है, पर ऐसा साहस नहीं किया जा सकता कि किसी क्षण हम समस्त परभावों से भिन्न केवल निज सहज स्वरूपमात्र अपने आपको मान लें, हठ कर ले, एक दृढ़ता बना लें, मैं तो ऐसा एक अमूर्त चैतन्यतत्त्व ही हूँ, सबसे निराला हूँ, ऐसा यह मोही जीव मानने को तैयार नहीं हो पा रहा है, इसी कारण संसार की भटकना बन रही है ।
देहबंधन―यह जीव कभी मगरमच्छों के थूलमथूला शरीर में बँधकर रहता है, कभी कीड़ा-मकोड़ा पेड़ों के शरीर में बँधकर रहता है । इस जीव की कैसी अवस्था बन रही है? यह अवस्था अज्ञान के कारण है । हम अपने आपको सबसे विभक्त केवल चित्स्वरूपमात्र अनुभव नहीं करते । और यह अनुभव करते हैं कि जो यह देह है सो मैं हूँ । यह देह ठीक रहे तो मैं ठीक हूँ, इस देह का वियोग हो, मरण हो तो यह मेरा मरण है ।
स्वरूपपरिचय के बिना कल्पनाबंधन―लोग तारीफ करते हैं एक दूसरे की, पर तारीफ करने वाले की दृष्टि उस चैतन्यतत्त्व पर कहाँ रहती है? उनकी दृष्टि इस जड़ विभूति पुद्गल पदार्थों पर रहती है, और यह जीव कल्पना में यह मान लेता कि इसने मेरी स्तुति की है, इसने मेरी प्रशंसा की है । इतना मोह का जाल फैला हुआ है । हम परमात्मा की जाति के हैं, मेरा ऐसा शुद्ध स्वरूप है । जो सिद्ध भगवान हैं, जो केवल रह गए हैं, उस केवल परमात्मतत्त्व में कहाँ आकुलता है, कहाँ चिंता है, कहाँ रंग है, कहाँ तरंग है? वह तो एक शुद्ध अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतआनंद का अनुभव करने वाला है । ऐसी ही शक्ति हम आप सबमें मौजूद है, पर मन के स्वच्छंद बने हैं, बाह्य पदार्थों में हम ममता बनाये हुए हैं, उनसे ही अपना महत्व मान रहे हैं और इस मोहवासना के ही कारण अपने आपको हम ग्रहण में नहीं ले पाते । अपने में बसा हुआ: जो परम सहज आनंद है उसके अधिकारी नहीं हो पाते ।
भेदविज्ञान की पूरकता―इस प्रकार जीव और पुद्गल के स्वरूप को जानकर इस आत्मा का वास्तविक भेद हमारे उपयोग में रहना चाहिए । यह सम्यक् प्रकार से मार्ग को सिद्धि के लिए वस्तुस्वरूप का भेद बताया गया है । इस भेदविज्ञान से हम पुद्गल के स्वरूप को त्यागकर अपने स्वरूप में आ सकते हैं और अभेदरूप से एक चेतन का अनुभव कर के हम केवल हो सकते हैं । इसके लिए भेदविज्ञान की प्रथम आवश्यकता है, अतएव जिससे जुदा होना है यहाँ उस अजीव पदार्थ का वर्णन किया गया है ।