वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 162
From जैनकोष
जो चरदि णादि णिच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं ।
सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्चदो होदि ।।162।।
सहजस्वभाव का अवलंबन―जो पुरुष अपने आत्मस्वरूप से अपने आत्मा को अपनी गुण पर्यायों से अभेदरूप आचरण करता है, जानता है, श्रद्धान करता है वह पुरुष चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है, इस प्रकार निश्चय से स्वयं दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप होता है । प्रत्येक पदार्थ अद्वैत है, जो वह है वह ही स्वयं है । प्रत्येक समय वे पदार्थ परिणमते रहते हैं, अतएव प्रत्येक पदार्थ का परिणमन भी अद्वैत है । जो वह है वह ही स्वयं है और प्रतिसमय वह परिणमता रहता है, अतएव उसका समय-समय का प्रत्येक परिणमन भी अद्वैत हैं । यों जो कुछ भी सत् है वह अद्वैत है और उसका प्रत्येक समय का परिणमन भी अद्वैत है । उस परिणमन को उस द्रव्य से जुदा नहीं किया जा सकता, और वह परिणमन उस द्रव्य का है इस प्रकार भेद भी नहीं डाला जा सकता है । है वह, और है का निर्माण ही इस तरह है कि वह होता रहे तब वह है है। न होता रहे तो वह है नहीं हो सकता ।
सत्त्व के अर्थ का मर्म―सत्त्व का मर्म बताने वाला एक व्याकरण का प्रसंग है । व्याकरण में होता है'’ की धातु है 'भू धातु―भवति । इसका अर्थ है होता है। किंतु भू का शुद्ध अर्थ क्या हैं? तो बताया है भू सत्तायां । भू का अर्थ सत्ता है । हिंदी में कहते हैं―होता है और यथार्थ अर्थ है सत् होना । तब पूछा कि सत्ता किस शब्द से बना है, किस धातु से बना है? वह बना है अस् धातु से । जिसका रूप चलता है अस्ति । तो अस्ति का लोक में प्रसिद्ध अर्थ है 'है' लेकिन अस् धातु का भी व्याकरण में अर्थ क्या किया है? अस् भुवि । अस् धातु का अर्थ भू कर दिया और भू धातु का अर्थ अस् कर दिया । इसका अर्थ क्या है कि होना और सत् रहना―इन दोनों का इतना घनिष्ट अविनाभावी संबंध है कि अस् के बिना भू नहीं रह सकता व भू के बिना अस् नहीं रह सकता । भू का अर्थ अस् में पड़ा है, अस् का अर्थ भू में पड़ा है । यहाँ दो बातों को सिद्ध करते है कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य में पड़ा है और ध्रौव्य उत्पाद व्यय में पड़ा है ।
वस्तु की निरख―अब सोचिये―हम वस्तु को किस निगाह से निरखें? 'है' यों है । इसके सिवाय हम पदार्थ में और कुछ बोलें तो यों समझिये कि हम पदार्थ के टुकड़े-टुकड़े कर रहे हैं, उसे छेद भेद रहे हैं । जैसे किसी पदार्थ का छेद भेद टुकड़ा करें तो उसे लोग तोड़ फोड़ कहा करते हैं, ऐसे ही पदार्थ का विवरण करते हुए हम उसका गुण बतायें, उसका परिणमन बतायें और गुण भी अनंत बता रहे, उसका विश्लेषण भी कह रहे तो बात तो हम विस्तारपूर्वक यों कह रहे हैं कि वस्तु का सही ज्ञान बन जाय, पर कहने में तो हम तोड़ मरोड़ कर रहे हैं और चाहते यह हैं कि यथार्थ वस्तु का ज्ञान हो जाय । यों देखा जाय तो कुछ थोड़ा हम उस लक्ष्य से कुछ पंक्ति में पीछे रूप बात बना रहे हैं, लेकिन निश्चय का प्रतिपक्ष यह व्यवहार है, उसका साधक है, बाधक नहीं है ।
निश्चयस्वरूप―निश्चय के समक्ष यह व्यवहार उल्टी बात कह रहा है, तिस पर भी यह व्यवहार निश्चय का साधक है । उस समय यह आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप कहा जाता है, जब कि व्यवहारदृष्टि प्रधान है । निश्चयदृष्टि में यह है और यों ही ज्ञान में आ गया । जो आत्मा अपने ही द्वारा अपने ही आप में आत्मामय होने के कारण अपने को अभिन्नरूप आचरण करता है, अपने में परिणमन करता है, स्वभाव में नियत जो एक अस्तित्व है उस रूप वर्तता है, आत्मा को ही जानता है और अपने आपका प्रकाश करे इस प्रकार से चेतता है, अपने आपके ही द्वारा देखता है । तो आत्मा स्वयं ही चारित्र ज्ञान और दर्शन रूप है ।
अस्तित्व का दार्शनिक प्ररूप―अस्तित्व का दार्शनिक अर्थ है उत्पादव्यय ध्रौव्यमय अस्तित्व से निवृत्त होना । कोई भी अस्तित्व उत्पादव्यय ध्रौव्य से सूना नहीं होता । उत्पाद का अर्थ है बनना, व्यय का अर्थ है बिगड़ना और ध्रौव्य का अर्थ है बना रहना । कोई पदार्थ बने नहीं, बिगड़े नहीं और बना रहे, ऐसा नहीं होता । कोई पदार्थ बिगड़े नहीं, बने और बना रहे ऐसा भी नहीं होता । कोई पदार्थ बना तो न रहे, किंतु बने और बिगड़े ऐसा भी नहीं होता । बनना, बिगड़ना, बना रहना ये―तीनों अविनाभावी हैं और एक ही समय में हैं । ऐसा भी नहीं है कि अमुक पदार्थ अभी बन रहा है तो बिगड़ेगा इसके बाद और बना था पहिले या आगे पीछे । ये तीनों ही तत्त्व पदार्थ में एक साथ होते हैं ।
उत्पाद व्यय ध्रौव्य की अविनाभाविता पर दृष्टांत―जैसे सीधी अंगुली है और वह एकदम दूसरे ही समय में टेढ़ी हो गई तो दूसरे समय में वह अंगुली बने, बिगड़े, बनी रहे―ये तीन बातें एक साथ हैं । टेढ़ी तो बनी, सीधी बिगड़ी और अंगुली बनी रही । यदि ऐसा हो बैठे कि पहिले टेढ़ी यह कहे कि मुझे बन लेने दो, तुम पीछे बिगड़ना तो वह टेढ़ी हो ही न सकेगी । सीधी बिगड़ने के साथ ही टेढ़ी बनी हुई है या यह सीधी कहे कि पहिले मुझे बिगड़ लेने दो फिर तुम बनना, तो यह भी नहीं हो सकता कि पहिले सीधी बिगड़ ले उसके बाद वह टेढ़ी बने । यदि तब टेढ़ी न बने तो सीधी बिगड़ भी नहीं सकती । यों सब पदार्थो में प्रतिसमय बनना, बिगड़ना और बना रहना होता ही रहता है । चाहे शुद्ध जीव हो, चाहे अशुद्ध जीव हो, अथवा अजीव पदार्थ हो, मूर्त अमूर्त हो । सभी पदार्थ प्रतिसमय बनते हैं, बिगड़ते हैं और बने रहते हैं । यह है पदार्थ का स्वरूप ।
हित के स्वाधीन उपाय की ऐषणा―भैया ! हम भी प्रतिसमय दूसरे का सहारा लिये बिना अपने आपके अस्तित्व के कारण प्रतिसमय बनते हैं, बिगड़ते हैं और बने रहते हैं, ऐसे ही अन्य समस्त पदार्थ । अब बतलावो कि किसी एक पदार्थ से किसी दूसरे पदार्थ का संबंध है कैसे? जब कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ में अपना बना रहना नहीं दे सकता, अपना बनना नहीं दे सकता, अपना बिगड़ना नहीं दे सकता तो अब चौथा कौनसा रास्ता आप बनायेंगे? यों प्रत्येक पदार्थ अन्य समस्त पदार्थों से अत्यंत जुदा है । न कभी किसी का स्वरूप किसी दूसरे में गया, न जायगा, न जा रहा है । यों प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप निरखकर जो भव्य जीव सहज ही परपदार्थों से उपेक्षा कर लेता है और इस सहज उपेक्षा के कारण निज में सहज विश्राम कर लेता है उस जीव के सम्यक्त्व का अनुभव होता है । शांति के लिए इस जीव ने अनेकानेक उपाय किये, किंतु यह सुगम स्वाधीन उपाय इस जीव ने नहीं किया । इस ही उपाय को करने का यत्न होना चाहिए ।
भोगरमण का परिणाम―कुटुंब में वैभव में इनमें मौज मानने रमने का फल बहुत विकट भोगना पड़ेगा । ये आसान लग रहे हैं परपदार्थों के संयोग भोग, लेकिन ये बड़े महंगे पड़ेंगे । जैसे लोग कहते हैं कि सस्ता रोवे बार-बार, महंगा रोवे एक बार । कोई चीज आप खरीदते हैं, सस्ती जानकर खरीदते हैं तो आप उससे बार-बार अड़चन पाते रहते हैं । जैसे कोई पुरानी मोटर खरीद लाये तो उसमें बार-बार झंझट पड़ता है, रोज-रोज उसमें हैरानी रहती है व कुछ न कुछ खर्च लगा रहता है, किंतु एक बार कोई महंगी नई मोटर ले आया तो उसमें झंझट नहीं पड़ता । एक मोटी बात कही है । ये संसार के सुख बड़े सस्ते लग रहे हैं और पुराने भी हैं, अनंतकाल से भोगते चले आए हैं । ऐसे ही ये सुख सस्ते हैं, पुराने हैं जीर्ण-शीर्ण हैं आसान लग रहे हैं किंतु इनका फल बड़ा महंगा पड़ेगा, क्योंकि इनमें अपराध बना है परदृष्टि का । इन सांसारिक सुखों के भोग में माध्यम है परदृष्टि । पर की ओर जो दृष्टि बनाया है, अपने आपका आश्रय छोड़ दिया, पर की ओर का झुकाव बना लिया केवल दृष्टि में, उपयोग में तो ऐसे उपयोग में प्रकृत्या विह्वलता का ग्रहण होता है, वहाँ शांति और संतोष नहीं हो सकता।
आत्मस्पर्शन का महत्व―यह आत्मदर्शन, आत्मज्ञान, आत्मआचरण है तो वास्तव में सुगम स्वाधीन सहज, लेकिन यह आज तक स्थिति बनी नहीं, इसलिए बड़ा महंगा मालूम हो रहा है, कठिन मालूम हो रहा है, लेकिन इस समय लग रहे, इस महंगे काम को एक बार कर तो डालो, फिर अनंतकाल के लिए झंझट समाप्त हो जायेंगे । यह काम लग रहा है महंगा, किंतु इसके निकट जाने पर यह सब बहुत आसान लगने लगता है । तो यों परद्रव्यों से उपेक्षा करके अपने अंतस्तत्व में विश्राम करके जो एक सहज अनाकुलतारूप आल्हाद का अनुभव होता है उस अनुभव से परिणत आत्मा निश्चयमोक्षमार्ग है । इस स्थिति में कर्ता, कर्म और करण का भेद नहीं रहा, उसकी दृष्टि में नहीं रहा । भेद तो कभी होता ही नहीं, पर जो न माने उनके लिए भेद है, जो मान जायें निजस्वरूप को उनके लिए भेद नहीं है । यह जीव जो कुछ भी रहता है वह वहाँ अभेदरूप से ही रहता है, पर इस अद्वैतस्वरूप का जब आश्रय त्याग देता है तब भेद ही भेद नजर आता हैं ।
अभेदानुभव की शरण्यता―अभेदरूप रहते हुए, अभेद काम करते हुए भी अज्ञानी जीव चूंकि अपनी दृष्टि में भेदरूप चल रहे हैं, अतएव वे निर्धन हैं । जैसे कोई पुरुष अपने घर की जमीन के भीतर गड़ी हुई लाखों की संपत्ति से अपरिचित है, कुछ ख्याल ही नहीं है, कुछ अनुमान ही नहीं है, और वह जिस किसी प्रकार से सूखी रोटियों का सेजा लगाकर पेट पालता है । वह तो अपनी दृष्टि में गरीब है, भले ही उसके घर के भीतर लाखों का वैभव पड़ा है, लेकिन वह तो दीन ही बना हुआ है । यह एक मोटी बात कही है । यों ही आत्मा में अनंत समृद्धि का वैभव है अभेदरूप, यह स्वयं अद्वैतरूप है, लेकिन इसका जिसे परिचय नहीं है वह तो दृष्टि से भेदरूप बन रहा है । जब दृष्टि भी अभेदस्वरूप को अंगीकार करने की बन जाय उस समय यह जीव निश्चयमोक्षमार्गी होता है । वह आत्मा चारित्र ज्ञान दर्शनस्वरूप है । जीव के केवल शुद्ध चैतन्य स्वभाव में नियत है, वह निश्चयमोक्षमार्गी है । हमें यथासंभव प्रयत्नों से इस शुद्ध निर्विकार निर्विकल्प ज्योति के अनुभव में आना है, यही हम आपका वास्तविक शरण है ।