वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 163
From जैनकोष
जेण विजाणदि सव्बं पेच्छदि सो तेण सोक्खमणुहवदि ।
इदि तं जाणदि भविओ अभव्बसत्तो ण सद्दहदि ।।163।।
भव्य का श्रद्धान―जिस कारण से यह आत्मा समस्त वस्तुवों को जानता है और सब ही को देखता है, अतएव वह अनाकुल अनंत अमूर्त सुख का अनुभव करता है, इस प्रकार यह निकट भव्य जीव उस अनाकुल पारमार्थिक आनंद को जानता है, उपादेयरूप से मानता है । इस प्रकार अनाकुल सुख को जो जानते हैं वे तो निकट भव्य हे और निकट काल में वे मोक्ष को प्राप्त करेंगे, लेकिन जो इस प्रकार अभी नहीं जान रहे, उनमें भी ऐसी मोक्ष पाने की योग्यता भले ही हो, किंतु वे अभी सुभवितव्यता से दूर हैं और जो अभव्य जीव हैं उनमें ऐसी मोक्ष पर्याय के व्यक्त होने की योग्यता ही नहीं है वे शुद्धात्मा के अनंतसुख का परिचय भी नहीं कर सकते ।
सकल जीवों में स्वरूपसाम्य―भैया ! भव्यत्व और अभव्यत्व का अंतर होने पर भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की शक्ति सभी जीवों में है । चाहे भव्य हों और चाहे अभव्य हों । यदि अभव्य में केवलज्ञानादिक की शक्ति न मानी जाय, स्वभाव न माना जाय तो फिर केवलज्ञानावरण नाम किस बात का? केवलज्ञानावरण उसे कहते हैं जो केवलज्ञान को प्रकट न होने दे, केवलज्ञान का आवरण करे । जिस अभव्य में केवलज्ञान की शक्ति ही नहीं है स्वभाव ही नहीं है तो केवलज्ञानावरण प्रकृति क्यों बनेगी । जैसे इन खंभा, चौकी आदिक जड़ पदार्थों में क्या वह ज्ञानावरण है? तो केवलज्ञान का स्वभाव प्रत्येक जीव में है । वह तो जीव का स्वरूप है । हाँ केवलज्ञान प्रकट होने की शक्ति अभव्य में नहीं है अथवा यों कहिये जिनमें केवलज्ञान प्रकट होने की शक्ति नहीं है वे अभव्य हैं । केवलज्ञान की तो शक्ति है अभव्य में, पर केवलज्ञान के प्रकट होने की शक्ति नहीं है । इन दो बातों में अंतर है । जैसे दृष्टांत दिया जाता है बंध्या स्त्री का । जिसे लोग बंध्य स्त्री कहते हैं, उसमें यद्यपि संतान होने की शक्ति है पर संतान होने की शक्ति प्रकट होने की शुक्ति नहीं है । यदि संतान होने की शक्ति न मानी जाय तो उसका नाम स्त्री ही नहीं हो सकता । ऐसे ही यदि केवलज्ञान की शक्ति अभव्य में न मानी जाय तो वह जीव ही नहीं कहला सकता । वह तो जीव का सहजस्वरूप है । हाँ केवलज्ञान शक्ति के व्यक्त होने की शक्ति अभव्य में नहीं है ।
द्रव्यों में साधारणासाधारणगुणरूपता―यदि रंच भी फर्क आया किसी द्रव्य का किसी द्रव्य के साथ मूल में तो वे एक जाति के न कहलायेंगे, दो जाति के हो जायेंगे । यदि ऐसा असीम ज्ञान शक्तिस्वरूप स्वभाव अभव्य में न हो तो द्रव्य 6 के बजाय 7 कहना चाहिए―भव्य जीव, अभव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल । उन दोनों को एक जीव जाति में नहीं रख सकते । जो साधारण स्वरूप में पूर्ण समान होता है वह ही उस द्रव्य में आया करता है ।
जीव में ज्ञान और सुख का स्वभाव व अविनाभाव―जीव में समस्त ज्ञेयों के जानने का स्वभाव है और समस्त ज्ञेयों के अवलोकन का स्वभाव है । यह स्वभाव जिसके व्यक्त हुआ है अर्थात् समस्त ज्ञेयो को जानता-देखता है वह अद्भुत अनुपम आत्मीय शाश्वत आनंद का अनुभव करता है । जैसे प्रभु के ज्ञान और दर्शन असीम बन गए तो उसके साथ ही आनंद भी असीम बन गया । कुछ-कुछ हम आप भी अंदाज करते हैं कि सुख की दौड़ ज्ञान की दौड़ के साथ-साथ लगी रहती है । जिसका ज्ञान दर्शन असीम है और असीम होता है मोह के अभाव कारण तो उनका आनंद भी असीम है ।
आनंद का यत्न―संसारीजन आनंद पाने के लिए कोशिश तो किया करते हैं, पर कोशिश उल्टी चलती है । मोह रागद्वेष से ज्ञान पर आवरण होता है और मोह रागद्वेष से ही आनंद का विघात होता है । किंतु संसारीजन आनंद की उपलब्धि के लिए मोह रागद्वेष की ही प्रवृत्ति करते हैं । तो जैसे खून का दाग खून से नहीं धुला करता ऐसे ही मोह रागद्वेष से उत्पन्न हुआ कष्ट मोह रागद्वेष से कभी मिट नही सकता । आनंद की उपलब्धि का उपाय ऐसा ज्ञानप्रकाश कर लेना है जिस ज्ञानप्रकाश के कारण मिथ्या आशय अथवा परवस्तुवों में प्रीति अप्रीति का परिणाम न ठहर सके । इस उपाय के सिवाय अन्य कोई उपाय है ही नहीं शांति पाने का । ऐसा जिसका ठोस निर्णय होगा वही धर्मपालन करने का पात्र है अन्यथा धर्म के नाम पर कैसी ही मन, वचन, काय की चेष्टाएँ कर ली जायें, जब उसका मर्मभूत अंतरंग ही नहीं है तो धर्म नाम किसका है?
विपरीत वृत्ति में धर्म का अलाभ―जैसे चावलरहित धान के छिलकों को खरीदकर कोई लाभ नहीं पाया जा सकता है । हो उसमें भी लाभ है । धान के छिलके भी बिकते होंगे । लेकिन चावलों के भाव में कोई धान के छिलके खरीद ले तो उसमें सारा नुक्सान है । ऐसे ही धर्म के नाम पर कोई व्यवहार क्रियाएँ कर ले और धर्म की बात वहाँ है नहीं, निष्कषाय, निष्तरंग जो आत्मा का शुद्ध ज्ञानप्रकाश है वह मेरा स्वरूप है, जो समस्त पर से न्यारा है और अपने सहज सत्त्व के कारण प्रबल है, समर्थ है, शाश्वत है, ऐसे निज अंतस्तत्त्व की जिन्हें सुध नहीं होती और धर्म के नाम पर व्यवहार क्रियाएँ करें, मनचाही धर्म की चेष्टाएँ करें तो लाभ तो नहीं हो सकता । हाँ मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्ति करे तो उससे लाभ है, पर वह लाभ उतना ही लाभ है जैसा कि भुस और छिलके के भाव में भुस छिलका लेने से जो लाभ है उतना ही लाभ है । यह कोई लाभ नहीं है, मोक्षमार्ग का लाभ नहीं है । कुछ पुण्य बँध जायगा, थोड़ी विभूति मिल जायगी । वहीं संसार का जन्ममरण लगा रहेगा ।
एकत्व का आदर―जिस पुरुष ने अपने आपके स्वरूप को समझा है, यह मैं आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ, सबसे न्यारा हूँ वही जन्ममरण के चक्र से निवृत्त हो सकता है । मरने पर तो कोई जाता ही नहीं, यह तो प्रकट ही दिखता है । जन्म के समय कोई साथ आया नहीं, यह भी प्रकट दिखता है । जीवन में कोई विपदा आ जाने पर वहाँ भी कोई साथ नहीं निभाता, यह भी प्रकट दिखता है । जरा और अंत: प्रवेश करके स्पष्ट निर्णय कर लो कि यह जीव अपनी सब परिस्थिति में सदा अकेला ही है । ऐसा अकेला रहना दोष की बात नहीं है, गुण की बात है । अकेला रहना कोई खराब नहीं है, अच्छा ही है । जो केवल अकेला रह जाता है उसका नाम है भगवान । अकेला होना बुरा नहीं है ।
एकत्व के आदर के लाभ की एक घटना―जब चिरोंजाबाई जी, जिन्होंने बड़े वर्णी जी को पढ़ाया, 14 वर्ष की उम्र में विधवा हो गयी थी । गिरनार की यात्रा में सब लोग गए हुए थे, उस यात्रा में ही पति गुजर गया । जल्दी घर आयीं, वहाँ लोग लुगाई सब घर आये तो उन्हें बहुत बुरा लगे । तो कभी उपवास कर ले आज हमारा उपवास है । आज हम मिलेगी नहीं । कुछ यों दिन काटे । इससे पहिले तुरंत वियोग के समय चित्त में आया था कि कुवें में गिरकर मर जाये, अभी छोटी उम्र है, कैसे जीवन कटेगा? फिर सोचा कि गिरी तो सही मगर न मरी तो उससे भी कई गुना कष्ट होगा । खैर घर आयीं, यों उपवास में कुछ समय बिताया और सोचा खैर अकेली रह गयी हैं तो यह कुछ बुरा नहीं है, अनेक झंझटों से बची, पति की परतंत्रता से बची, बाल बच्चों के व्यर्थ के झंझटों से बची । अच्छा है । ज्ञानार्जन में चित्त दिया और उन्होंने जो वास्तविक आनंद लिया वह सबको विदित है, ऐसी धर्ममूर्ति थी चिरोंजा बाई जी, जिनकी, सानी की उनके समय में महिला नहीं थी । बड़े-बड़े लोग जो धर्म-मर्म में चकरा जाये, उसे यों ही सहज चलते-चलते सुलझा देती थीं । तो अकेला होना कहाँ बुरा है?
समागम में भी एकत्वप्रतीति से शांति―भैया ! समागम भी मिला हो भरपूर तो वहाँ भी अकेला मानना भला है । बड़े भरपूर समागम में रहकर जो अपने को अकेला नहीं समझ सकता है, मेरे बहुत से लोग हैं इस तरह की भ्रमबुद्धि बनाए है तो वहाँ पद-पद पर दूसरों की जरा-जरासी चेष्टा पर उसे खेद होने लगता है । आपने देखा होगा किसी अपरिचित स्थान में किसी अपरिचित व्यक्ति द्वारा कोई आपको कष्ट पहुंचे तो आप उतना बुरा नहीं मानते । आप में वहाँ सामर्थ्य रहेगी कि मैं कष्ट को सह लूं, पर आप व्याकुल न होगे और किसी परिचित जगह में कोई परिचित पुरुष आपको विशेष कष्ट भी नहीं पहुँचा रहा, किंतु जरासी कोई बात कह दे, इतने पर आप विह्वल हो सकते हैं । यह अंतर किस बात का आय।? वहाँ अपरिचित जगह में अपरिचित के सामने आप अपने को अकेला समझ रहे थे । जब अकेला समझ रहे थे तब कष्ट न था । यहाँ परिचित स्थान में परिचितों के बीच आप अपने को अकेला अनुभव नहीं कर रहे, इस कारण जरा-जरासी बातपर विह्वलता हो जाया करती है । यह तो एक गुण है । जिसे शांति पाना हो किसी भी स्थिति में कितना भी समागम हो, सर्व समागमों में आप अपने को अकेला अनुभवें।
एकत्वदर्शन का प्रताप―योगी जन जंगल के बीच वर्षों तक प्रसन्न रहा करते हैं, उनके अद्भुत आनंद जग रहा करता है । वह आनंद और किस बात का है? वे अपने को सदा अकेला मान रहे हैं । अकेला मानने में जो आनंद है वह आनंद समागम में नहीं है । समागम में रहकर भी अकेले की श्रद्धा हो तो वहाँ भी अंत: आनंद रह सकता है और इस अकेलेपन को मानने का चमत्कार भी निरखिये । जो इस एकत्व का आदर करता है वह अपने अकेलेपन को ही अपनाता है । उसके ऐसा असीम ज्ञान प्रकट होता है कि तीन लोक तीन कल के समस्त ज्ञेय पदार्थ उसके जानने में आ जाते हैं अर्थात् अकेला अनुभव करता है, वह सर्वज्ञ बन जाता है । जो अपने को अकेला अनुभव न करके कुटुंब वाला, देह वाला, धन वाला अनेकरूप अपने को मानता है वह संसार में रुलता है । छुटपुट ज्ञान और सुख मिल गए, इनमें ही राजी रहकर सुख को भोगते रहते हैं । प्रभु समस्त ज्ञेय को जानते देखते हैं, इस कारण विशुद्ध आनंद का अनुभव करते हैं और जो निकट भव्य जीव केवल इस एक अकेले को ही जानते देखते हैं वे भी आनंद का अनुभव करेंगे ।
एक बराबर सबका अध्यात्मदर्शन―देखो भैया ! एक बराबर सब । कितनी विलक्षण गणित है? सब कुछ कितना बराबर है? इस एक बराबर । इसे कोई मानेगा क्या? न्याय की ज्ञान की तराजू पर एक पलड़े पर तो निज रख दो और एक पलड़े पर अनंतानंत जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल उनकी भूतकालीन पर्यायें, भविष्यकालीन पर्यायें सब कुछ रख दो, और फिर भी बराबर कहलाये इसे कोई मान सकता है क्या? जाननहार लोग मान सकते हैं । प्रवचनसार में तो यह स्पष्ट कहा भी है कि जो एक को जानता है वह सबको जानता है, जो सबको जानता है वह एक को जानता है, इसका भी भाव इस रूप में निरखिये । प्रभु सर्वज्ञदेव अरहंत सिद्ध भगवान किसको जान रहे हैं? एक को जान रहे कि सबको जान रहे । एक को भी जान रहे, सबको भी जान रहे । तो क्या उस एक को और सबको यों ही समान कक्ष में रखे हुए के ढंग से जान रहे हैं प्रभु सर्वज्ञ नहीं । एक को जानते उर्फ सबको जानते । सबको जानने से मतलब एक को जानना । इस ढंग से जान रहे हैं, कहीं इस तरह नहीं कि किसी ने 11 चीजें जानी तो 10 बाहर की भी जानी और एक अंतर की भी जानी । यों नहीं । सर्वज्ञेयग्रहणात्मक उपयोगमय अपने को प्रभु जानते रहते हैं ।
परिणमनपद्धति―प्रभु सर्वज्ञ देव अपने ही प्रदेशों में हैं । जैसे आपका जीव आपके प्रदेशों में है, आप जो कुछ भी कर सकते हैं वह अपने ही प्रदेशों में कर सकते हैं, किसी पर में नहीं कर सकते । किसी पर को आप हुक्म दें, सुधार करें, बिगाड़ करें वहाँ भी आप जो कुछ कर रहे हैं वह अपने को कर रहे हैं, अपने में कर रहे हैं, आपकी कोई परिणति किसी दूसरे पदार्थ में नहीं बन रही । तो भगवान सर्वज्ञदेव भी जो कुछ कर रहे होंगे वह अपने ही प्रदेशों में कर रहे हैं। क्या कर रहे है? उनका ज्ञान किस प्रकार परिणम रहा है? परिणम रहा है उनके आत्मा में ही, पर सर्वज्ञेय ग्रहण रूप परिणम रहा है तो समस्त ज्ञेयों के जाननरूप परिणमन से परिणमते हुए केवल अपने आपको ही भगवान ने जाना, एक ही को जाना। उसमें सबका जानना आ गया।
ज्ञान में ज्ञेयाकारता का स्वभाव―युक्ति से भी विचारिये―उस ज्ञान का स्वरूप क्या जो ज्ञेय को जानता हो? भगवान के केवलज्ञान का और स्वरूप क्या? यदि वह ज्ञेय को जानता न हो। ज्ञेय का जानना ही तो ज्ञान का स्वरूप बन रहा है। तो उस समस्त ज्ञेय का जानन हुआ तब खुद का भी जानना हुआ। और यहाँ हम आप लोगों के लिए यद्यपि हम सबको नहीं जान रहे हैं। जितना क्षायोपशमिक ज्ञान है उतना ही हम उन पदार्थों को जान रहे हैं। लेकिन हम इन पदार्थों पर दृष्टि न डालकर केवल अपने सहजस्वरूप को जानें तो इस एक को भी जानने का वह चमत्कार होगा कि समस्त ज्ञेय इसके जानने में आयेंगे। जिस जीव के सब कुछ जानने में पड़ा है उसे अनंत आनंद का अनुभव होता है―यह बात निकट भव्य जीवों को विदित है। इस मर्म का जिसे परिचय नहीं है ऐसा अभव्य पुरुष उस सुख का श्रद्धान नहीं कर सकता है।
सिद्धों का अनंत सुख―अनेक लोग ऐसी शंका उठाते हैं कि लो, तपस्या की, शरीर छूटा, कर्म छूटा, यह जीव अकेला ही ऊर्द्धगमन स्वभाव से लोक के शिखर पर चला गया। वह क्या वहाँ सुख भोगता होगा, अकेला पड़ा है लोक के बिल्कुल किनारे पर, कैसे समय कटता होगा, क्या करते होंगे? यहाँ की बात लपेटकर और सिद्ध में भी सुख की शंका करते हैं। अरे सिद्ध भगवान के कैसा सुख है, इसका तब तक परिचय नहीं हो सकता जब तक आप अपने आपमें बसे हुए एकत्व की भावना से उत्पन्न हुए अपने ही आनंद को आप नहीं भोग सकते, उस शुद्ध आनंद की झलक आप नहीं ले सकते तब तक सिद्ध भगवान के आनंद का आप परिचय नहीं पा सकते हैं। सुख क्या है? स्वभाव के जो विरुद्ध है स्वभाव के जो प्रतिकूल है, स्वभाव की जो प्रतिकूलताएँ हैं उनका अभाव होने से अपने आप जो स्वभाव का एक शुद्ध विकास होता है वहाँ ही तो सुख है। आत्मा का स्वभाव है दर्शन और ज्ञान। उन दोनों के विषय का जो विरोध करे उसी का नाम है प्रातिकूल्य। ये प्रतिकूलताएँ सब मोक्ष में नहीं हैं। जो आत्मा समस्त ज्ञेयों को जानता है देखता है ऐसे उस विशुद्ध आत्मा के स्वभाव की प्रतिकूलताएँ रंच भी नहीं हैं। स्वभाव की प्रतिकूलताएँ विषयों के भोग में, विषयों की प्रवृत्ति में संकल्प विकल्प में पड़ी हुई हैं। इन सब प्रतिकूलतावों का मोक्ष में अभाव हो जाता है और उन बाधावों का अभाव होने से अनाकुलता रूप परमार्थ आनंद का मोक्ष में अनुभव अचलित रहा करता है।
परमार्थत: अमीरी और गरीबी―यह जीव स्वभाव से ही ज्ञानानंदस्वरूप है। इस मर्म का जिसे विशद अवगम है उससे बढ़कर यहाँ कोई अमीर नहीं है । और जिसे इस ज्ञानानंदस्वभाव का परिचय नहीं है उस जीव से बढ़कर गरीब दुनिया में कोई नहीं है । ये थोड़े समय के मिले हुए समागम अथवा विकल्प मौज ये सब स्वप्नवत् हैं, ये परमार्थ कुछ नहीं हैं । उस आत्मा के ज्ञान दर्शनस्वभाव के उस आनंद का ज्ञान भव्य पुरुष ही जानते हैं । तो भव्यपुरुष ही मोक्षमार्ग में चलने के योग्य हैं, इसका अभव्य श्रद्धान नहीं कर सकते । अतएव अभव्यजीव मोक्षमार्ग के योग्य नहीं हैं । जितना भी अपने आपके स्वरूप की ओर झुकाव होगा, अपने आपको अकेला मानकर और अधिक एकत्वस्वरूप में जाना होगा उतना ही यह आत्मा विशुद्धआनंद का अनुभव करेगा ।
लौकिक होड़ की व्यर्थता―इस जगत में लोग सुख की होड़ लगा रहे हैं । दूसरे के सुख को देखकर या दूसरों को मैं भी सुखी जचूँ, इस ख्याल से सुख की होड़ में लग रहे हैं । धनवान बनने की होड़ में ये मनुष्य दूसरे धनवान पुरुषों को देखकर, मैं कहीं छोटा न कहलाऊँ, कहीं मेरी प्रतिष्ठा कम न हो जावे, यह सोचकर लोग धनिक बनने की होड़ मचाये हुए हैं, लेकिन ये सबकी सब बातें किसे दिखाना चाहते हो? यहाँ आपका कोई साथी नहीं है, कोई हितू नहीं हे, कोई मित्र नही है, कोई रक्षक नहीं है । किसे प्रसन्न करने के लिए बाहरी सुख, बाहरी वैभव, बाहरी संचय की धुन में अपने को लगाया जा रहा है? जो पुरुष उन सबसे परे आत्मा के शुद्ध एकत्वस्वरूप को जानता है वह पुरुष विशुद्ध आनंद का अनुभव करता है ।
भव्यत्व का गौरव और उपयोग―इन संसारी जीवों में जो भव्य जीव हैं वे ही मोक्षमार्ग के योग्य हैं, सब मोक्षमार्ग के योग्य नहीं हैं । एक बात और विशेष समझना । इस जगत में भव्य जीव अभव्य से अनंतगुणे हैं । अव्यय अत्यंत कम हैं और फिर हम आपको ऐसी श्रद्धा बनानी चाहिए ही । है भी ऐसी बात कि हम आप सब ऐसी कक्षा के लोग तिर भी सकते हैं ।हम सबका कर्तव्य है कि हम अपने उस ज्ञानदर्शन स्वभाव की श्रद्धा करके अपने एकत्वस्वरूप की ओर झुके और विशुद्ध आनंद प्राप्त करने का उद्यम करें ।