वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 36
From जैनकोष
ण कुदोचिवि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो सिद्धो ।
उप्पादेदि ण किंचिवि कारणमवि तेण ण स होदि ।।36।।
सिद्धों में कार्यकारणता का अभाव―सिद्ध भगवान न कार्यरूप हैं और न कारणरूप हैं, उनमें कार्यकारण भाव नहीं है, इसका समर्थन इस गाथा में किया गया है । जैसे संसारी जीव देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी पर्यायों के रूप से उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार सिद्ध भगवान किसी विशिष्ट पर्यायरूप से उत्पन्न नहीं होते हैं इस कारण सिद्ध कार्य नहीं हैं । हम आप संसारी जीव कार्यरूप हैं । यह कार्यरूपता संसारी जीवो में कैसे प्रकट हुई है, इसे अब सुनिये ।
कारणों का विवरण―कार्य होने में दो कारण होते हैं―एक उपादान कारण और एक निमित्त कारण । उपादान उसे कहते हैं जो कार्यरूप परिणम जाय, अभिन्न कारण । और निमित्त कारण उसे कहते हैं जो उस कार्यरूप तो नहीं परिणमें, किंतु उस परिणमते हुए में उपादान के परिणमन में निमित्तरूप हो । निमित्त उसे कहते हैं जिसका सन्निधान पाकर उपादान तदनुरूप परिणमे और उस प्रकार का सान्निध्य न मिले तो उस प्रकार का उपादान न परिणमें उसे निमित्त कारण कहते हैं । जितने भी कार्य हैं वे सब उपादान और निमित्त कारणपूर्वक होते हैं । अविशिष्ट कारण की अपेक्षा तो समस्त पदार्थों के परिणमन में कालद्रव्य निमित्त होता है, वह चूँकि अविशिष्ट कारण है, साधारण कारण है इस कारण उसे कारणरूप में न गिनिये । किसी को वह पदार्थ कारण पड़े, किसी को न पड़े, ऐसा विभाग जिनमें हो सके उनमें ही निमित्तकारण का व्यवहार होता है । कालद्रव्य तो सदैव रहता है और समस्त पदार्थों के परिणमन में निमित्त है, इस कारण कालद्रव्य को लोकप्रसिद्धि में कारण रूप से नहीं कहा गया ।
विशिष्ट निमित्त कारण―अब ऐसे निमित्तकरण का लक्षण कीजिए, और देखिये―जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है, उस घड़ा बनानेरूप कार्य में मिट्टी तो उपादान है, उपादान कारण उसे कहा था ना जो कार्यरूप परिणम जाय । घड़ा बन गया तो वह मिट्टी ही तो घड़ारूप बन गयी, और उसमें निमित्त कारण हैं―कुम्हार, चक्र, दंड आदिक जो भी उस प्रक्रिया में काम आये । जिनके सान्निध्य बिना घट की उत्पत्ति नहीं हुआ करती वे सब निमित्त कारण हैं । ऐसे ही यह जीव देव, नारकी, तिर्यंच, मनुष्य का शरीर धारण करता है उसमें उपादान कारण क्या है और निमित्त कारण क्या है? इस संबंध में विशेष बात यह समझना कि यह जो पर्याय है यह एक द्रव्य की पर्याय नहीं है । इसे असमानजातीय द्रव्यपर्याय कहते हैं । जीव और ये शरीरवर्गणायें, कर्मवर्गणायें इन सबका जो यह पिंड है वह एक भव है, इस कारण इसमें उपादान कारण कुछ एक बताना कठिन है । एक शरीर वाली भवरूपी पर्याय में किसको उपादान कहा जाय? हाँ, चूंकि यह पर्याय भी सामूहिक है तो इसमें उपादान भी सामूहिक है । पुद्गल और जीव ये दो उपादान हैं, पर इनमें भी यदि भेद करके देखें तो जो रागद्वेष कषाय विषय योग आदिक भावरूप परिणमन हैं उन अशुद्ध पर्यायों का उपादान आत्मा है । और जो शरीर परिणमनरूप कार्य हैं उनके उपादान पुद्गल द्रव्य हैं । खैर ये सब होते कैसे हैं, इस पर दृष्टि दें ।
संसारी जीवों की सृष्टि में कारणरूपता―संसारी जीव भावकर्म से सहित हैं । रागद्वेष आदिक अज्ञानभाव उस-उस काल में तन्मय हैं । वह आत्मा के परिणाम की संतति है । एक समय का रागद्वेष आदिक कोई-सा भी भाव इस जीव को नचाता नहीं है, विकार अनुभव नहीं कराता, किंतु अनेक समयों का भावकर्म जब उपयोग में आता है तब वह विकार का अनुभव कराता है और यह संतति विभाव जाति में अनादिकाल से चली आयी है । अनादि संतति का जो भावकर्मरूप परिणमन है वह कारण है नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपर्याय होने का । अर्थात् हमारे मोह रागद्वेष इन सांसारिक शरीर रचनावों का कारण बन रहे हैं । कैसे कारण और कैसे कार्य बन जाता, यह सब ज्ञान द्वारा ही जानने की बात है । उसका ऐसा विशेष विवरण जो इससे अपरिचित हैं, उनको बताया जाना अशक्य है । तभी तो लोगों की समझ में न आने के कारण इस सब सृष्टि को एक ईश्वर की लीला कह दिया जाता है । ईश्वर की लीला है इसमें कोई संदेह नहीं, किंतु प्रत्येक आत्मा ईश्वर का स्वरूप ही तो है, उनका स्वभाव, उनका सत्त्व निरखिये तो सब ज्ञानानंदस्वरूप हैं । जो ईश्वर का स्वरूप है वह सब जीवों का स्वरूप है । ये सब जीव मोह, राग, द्वेष भावकर्म करके संकल्प विकल्प करके इन भवों के कारण बन जाते हैं? नर, नारकादिक पर्यायों के होने में ये विभाव कारण हो जाते हैं ।
कारणों के विवरण की सीमा―अच्छा देखिये भैया ! आप तो यह भी नहीं बता सकते कि खिचड़ी कैसे पक जाती है? स्पष्ट बतावो । आप यही तो कहेंगे कि बटलोही में पानी डालकर चावल दाल मिलाकर चढ़ा दिये, नीचे से आग जला दी, ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि खिचड़ी पक जाती है । ठीक है, मगर पकते हुए दिखा दो कि देखो यह पक रही है । स्पष्ट बतावो । अरे इतना ही स्पष्ट होता है कि योग्य उपादान हुआ, योग्य निमित्त सान्निध्य हुआ, विभावरूप कार्य हुआ, इससे आगे और क्या स्पष्ट कहें? आप बोलते हैं, बहुत देर तक बोल सकते हैं, क, ख , ग, घ आदिक आप उच्चारण करते हैं, पर हमें यह बता दो कि यह क ख आदि शब्दों का उच्चारण कैसे हो जाता है? दिखा दो बना हुआ । अरे क्या दिखा दें, हो तो रहा है सब । उपादान और निमित्त सब योग्य सन्निधान होने पर ये सब कार्य हो रहे हैं । इसका और विचरण क्या करें? कहते हैं ना किसी चर्चा में बाल में खाल निकालना । आप कुछ बता ही नहीं सकते । कैसे क्या कार्य होता है । उनका और स्पष्ट क्या विवरण होगा? यह जीव मोह रागद्वेषभाव करता है उसका निमित्त पाकर ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म का बंध होता है । अब यह आत्मपरिणाम की संतति और पुद्गल परिणाम की संतति ये कारणभूत बने हैं । देव, नारक, तिर्यंच, मनुष्य पर्यायें उत्पन्न होने में यह कारण है । यह सब साधारणतया वर्णन चल रहा है ।
अध्यात्ममार्ग में विशिष्ट कार्य का अमहत्त्व―यह सृष्टि ऐसी विचित्र है और ऐसी मायारूप है कि यह सब कुछ है और कुछ नहीं है । तो भावकर्म और द्रव्यकर्म ये तो कारणरूप हो । कारण पाकर यह जीव देव, नारक, तिर्यंच, मनुष्य पर्यायरूप से जिस प्रकार उत्पन्न हो जाता है उस प्रकार सिद्ध रूप से जीवों की उत्पत्ति नहीं होती कि उनमें कुछ सद्भावरूप कारण रहता हो और इन कारणों से कोई विशिष्ट कार्य बनता हो । देखिये सिद्ध अवस्था विशिष्ट कार्य नहीं है और संसार अवस्था विशिष्ट कार्य है । लोग तो विशिष्ट कार्य को महत्त्व देते हैं, पर शांतिमार्ग में, अध्यात्ममार्ग में विशिष्ट कार्य का महत्त्व नहीं है । विशिष्ट कार्य तो निंदा के योग्य होता है । जो बात जिस पदार्थ में स्वभाव में नहीं पड़ी है, वह बात हो जाना, इसी का नाम विशिष्ट कार्य है, और जो बात स्वभाव में पड़ी है वह हो गयी, कोई विशेष बात नहीं हुई, जो था जो है वही हुई सिद्ध दशा ।
सिद्धावस्था की अविशिष्टरूपता―सिद्ध दशा तो अविशिष्ट कार्य है और संसार दशा विशिष्ट कार्य है । सिद्ध भगवान कार्यरूप नहीं हैं । भावकर्म और द्रव्यकर्म का क्षय हो जाने पर स्वयं ही स्वयं में से विकसित हुई यह सिद्धपर्याय किसी अन्य चीज से उत्पन्न नहीं होती । कदाचित् यह कहें कि कर्मों के नाश से तो सिद्धपर्याय हुई, इसके समाधान में दो प्रकार की दृष्टि लगायें, कर्मों के अभाव से सिद्धपर्याय हुई तो इसमें निमित्त कारण किसे कहा जाय? कर्म तो निमित्तकारण नहीं होते, क्योंकि वे वहाँ हैं नहीं । हाँ अभावरूप निमित्त कारण है, सो यह एक अपना यों सोचने के लिए है कि चूंकि कर्मों का सद्भाव संसार अवस्था का कारण था । दूसरी बात यह निरखिये कि चलो प्रथम समय की सिद्धपर्याय का कारण कर्मों का क्षय है, मगर अनंतकाल तक जो भी सिद्ध दशा बनी रहती है उसका कारण क्या है? कर्मों का क्षय तो नहीं कह सकते, कर्म हैं ही नहीं । क्षय किसका नाम है? यह सिद्ध दशा जीव की अकिंचन अवस्था है, इसलिए यह कार्यरूप नहीं है । जो विशिष्ट दशा हो उसे ही कार्यरूप से निरखा जाता है । ये सिद्ध भगवान किसी भी पदार्थ से उत्पन्न नहीं होते हैं इस कारण कार्यरूप नहीं हैं ।
सिद्ध प्रभु के कारणरूपता का अभाव―सिद्ध प्रभु कारणरूप भी नहीं हैं क्योंकि ये किसी पदार्थ को उत्पन्न नहीं करते । जैसे कि संसारी जीव भावकर्मरूप आत्म संतति को उत्पन्न करते हैं, मोह रागद्वेष विभावों को उत्पन्न करते रहते हैं तो ये संसारी जीव कारण हुए ना और इसी प्रकार द्रव्यकर्मरूप पुद्गल परिणामों की संतति को निमित्तकारण बनते हुए उत्पन्न करते हैं, सो उन कार्यों के कारणभूत बनते हैं, इस कारण ये संसारी जीव किसी कार्य के कारण हुए ना? इस प्रकार कारण बन-बनकर देव, मनुष्य, तिर्यंच, नारक, पर्यायों को ये संसारी जीव कर रहे हैं । इस प्रकार से सिद्ध भगवान किन्हीं कार्यों को उत्पन्न नहीं करते, इस कारण सिद्धप्रभु कारणरूप नहीं है।
कारणकार्यरूपता के बिना शुद्ध सृष्टि का सर्जन―सिद्धप्रभु तो अपने आपके आत्मस्वरूप को रचते रहते हैं । अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतआनंदरूप से अपने आत्मा को रचते हुए ये सिद्धप्रभु स्वयं ही कार्यरूप हैं, कारणरूप हैं, ये किसी के न कारण हैं और न कार्य हैं । एक तत्त्व की बात यहाँ यह भी ध्यान में रखें कि व्यक्तरूप से सिद्ध भगवान को कार्यरूप और कारणरूप नहीं कहा, फिर भी वहीं एक नय से कार्यरूपता और कारणरूपता बतायी जा सकती है, वह हैं शुद्ध रूप में, किंतु अपने आप सबके आत्मा में स्वरसत: सहज विराजमान शाश्वत् जो चित्स्वभाव है उस स्वभाव लक्षण को देखकर निरखो―यह चित्स्वभावमात्र परमब्रह्म न किसी का कार्य है और न किसी का कारण है । शुद्ध अंतस्तत्त्व में बंध मोक्ष का विकल्प नहीं है, कार्य कारण का विकल्प नहीं है । यों कार्य कारण भाव से रहित शाश्वत निज चित् रूप का जो ध्यान करता है, आलंबन लेता है वहीं पुरुष प्रकट रूप में शुद्ध पर्याय पाकर कार्यकारण भाव से सर्वथा रहित हो जाता है । यही सिद्ध दशा प्राप्त करने का उपाय है ।
कार्य का अनुरूप उपाय―सिद्ध अवस्था में जो-जो आपको गुण मालूम हुए उनकी प्राप्ति का उपाय उस ही पद्धति से देखना चाहिए । प्रभु में यह केवलज्ञान कैसे प्रकट हुआ? यह केवलज्ञान निर्विकल्प है, और अपने आत्मा में जो ज्ञानस्वभाव है वह भी निर्विकल्प है । स्वभाव में विकल्प क्या? ऐसे निर्विकल्प आत्मस्वभाव का जो आलंबन लेता है, निर्विकल्परूप से उसका आश्रय करता है ऐसा जीव केवलज्ञान को प्रकट कर लेता है । प्रभु में यह अनंत आनंद कैसे प्रकट हुआ है? थोड़ा-थोड़ा यहाँ भी ऐसा देखा जाता है कि कुछ सुखरूप वार्ता की चर्चायें होती हैं तो कुछ सुखरूप परिणमन होता है और दुःखरूप वार्ता की चर्चाएँ चल जाये तो चूंकि दुःखरूप बातों में उपयोग है इसलिए कुछ न कुछ खेद भी हो जाता है । यों ही और अंतर में चलकर देखिये―आत्मा में आनंदस्वभाव है, जो शाश्वत अविकार स्वभावरूप है उस आनंदस्वभाव का अनुभव करने से, उसे उपयोग में लगाने से और ऐसी ही स्थिरता कोई विशेष अंतर्मुहूर्त मात्र बन जाय तो इस आनंदस्वभाव के आलंबन से यह अनंत आनंद प्रकट होता है । यह समग्र सिद्ध पर्याय कार्यकारण भाव से रहित है । कार्यकारण भाव से शून्य यह सिद्ध अवस्था हमारे कैसे प्रकट होगी? उसका उपाय है कार्यकारणभाव से शून्य जो निज ज्ञानस्वभाव है, चैतन्यस्वभाव है उस चैतन्यस्वभाव का आलंबन हो तो उसके प्रसाद से यह कार्यकारण शून्य सिद्ध अवस्था प्रकट होगी ।
हमारी वर्तमान स्थिति―भैया ! हम आप आज जिस स्थिति में हैं, यह स्थिति बड़ी दयनीय है । थोड़े विषयसाधन पाकर मोहवश कुछ सुख मान रहे हैं । भले ही ये सब साधन आज बड़े सस्ते लग रहे हैं, किंतु ये विषयभोग जो कि आज सुलभ और सस्ते लग रहे हैं वे भविष्य में अधिक महंगे पड़ेंगे । संसारी जीवों का विस्तार तो निरखिये―किस-किस प्रकार के संसारी जीव हैं? जब कभी कहीं जाते हुए किन्हीं तड़फते हुए जीवों को निरख लेते हैं, कोई शिकारी सूकर मार रहा हो, बाँधकर छेद रहा हो, किसी पशु-पक्षी के कोई टुकड़े कर रहा हो
कोई ऐसी स्थिति देख लेते हैं तो हम आप लोगों का हृदय कितना व्यथित हो जाता है? लोग बड़े कोमल चमड़े के जूते बड़े शौक से पहिनते हैं जिसे क्रुम बोलते हैं यह किस प्रकार बनायी जाती है, सो देखो बहुत छोटे-छोटे बछड़ों पर बहुत तेज गर्म पानी फुवारे से डाला जाता है, जब वह चमड़ा खूब फूल जाता है तो जिंदा ही खड़े-खड़े उस बछड़े की खाल निकाल ली जाती है ताकि चमड़ा मुलायम बना रहें । ऐसे चमड़े के बने हुए ये जूते आते हैं । तो हम आप जब कहीं तड़फते हुए जीवों को देख लेते हैं तो हृदय में महती वेदना उत्पन्न होती है । वह वेदना किस बात से होती है, जरा अंत: परीक्षण तो करें, आप सोचें या न सोचें, पर अंतरंग में ऐसा स्पर्श होता है कि ओह ! हम आप भी कभी ऐसे ही जीव थे । ऐसे ही दयनीय स्थिति में तो हम आप भी हैं । इस स्थिति में मग्न मत होओ ।
आलंब्य तत्त्व ―आज पुण्योदय से सब साधन ठीक हैं, अच्छी स्थिति है, पर यह तो एक नाटक जैसा है, ये सब बिछुड़ने वाली बातें हैं । इन सबके ज्ञाता भर रहो । उसमें मग्न होने से, मस्त होने से इस जीव को कुछ भी लाभ न मिलेगा । आश्रय लो तो अपने आप में शाश्वत विराजमान एक स्वरूप का, जिस स्वरूप की दृष्टि में समस्त जीव एक समान विदित होते हैं, जहाँ केवल एक चित्स्वभाव ही दृष्ट होता है । यह मैं हूं―इतनी भी कल्पना नहीं होती । यह मैं हूँ ऐसा स्पष्ट रूप में कल्पना जब बनती है तब उसकी वासना में यह भी भरा पड़ा हुआ है कि ये सब पदार्थ पर हैं । यद्यपि पर को पर जानना, निज को निज जानना पहिली पदवी में काम की बात है, किंतु जिस समय इस चित्स्वभाव का अनुभव होता है, उपयोग होता है उस समय में यह पर है, यह मैं हूँ―इस प्रकार का विकल्प न चलेगा । वहाँ तो केवल एक चित्स्वरूप ही दृष्ट होगा ।
शुद्ध कार्यतत्त्व का दर्शन―कुछ दार्शनिक लोग यह कह डालते हैं कि यह आत्मा सब कुछ एक है और हम आप सब ये भिन्न-भिन्न जीव हैं । यह जीव जब उस एक ब्रह्म में लीन हो जायगा, अपनी सत्ता नष्ट कर देगा, ब्रह्म में ही समर्पित हो जायगा तब वहाँ मुक्ति है । इन वचनों में और रहस्य ही क्या है? यह उपयोग जो रागद्वेष से संबद्ध हो रहा है इस स्वभाव में लीन हो जाय, विशिष्ट उपयोग विलीन हो जाय, केवल एक चित्स्वभाव का अनुभव हो तो यही स्थिति मुक्ति का उपाय है । उस निर्विकल्प कार्यकारण भाव से रहित चित्स्वभाव का आलंबन करने से यह सिद्ध दशा प्रकट होती है । यह सिद्ध अवस्था शुद्ध निश्चय से कर्म नोकर्म की अपेक्षा न कार्यरूप है, न कारणरूप है, किंतु अनंत ज्ञानादिक से सहित है, और कर्मोदयजनित जितने भी विकार हैं उन विकारों से शून्य है, यह ही अवस्था उपादेय है और इस अवस्था के होने का उपायभूत जो निज शुद्ध स्वभाव का आलंबन है वह ही उपादेय है, यह शिक्षा इस गाथा से मिलती है ।