वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 37
From जैनकोष
सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुण्णमिदरं च ।
विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सब्भावे ।।37।।
मुक्तावस्था में जीव के अभाव का निराकरण―कुछ लोग मुक्त अवस्था में जीव के अभाव को मानते हैं। जब तक जीव है तब तक संसारी है और इस जीव का अभाव हुआ उसी के मायने मोक्ष है । इस प्रकार यदि जीव के अभाव का नाम मोक्ष माना जाय अर्थात् मुक्त अवस्था में जीव के सद्भाव का निराकरण किया जाय तो इस जीवतत्त्व के बारे में, शुद्ध ब्रह्म के संबंध में जो दार्शनिकों ने अपना मंतव्य रखा है उन सबकी कैसे सिद्धि होगी? और देखिये, जीव का अभाव होने पर जो शाश्वतरूपता बतायी जाती है वह किसमें विराजेगी? यह ब्रह्म शाश्वत है, द्रव्यरूप से यह जीव अविनाशी है, यह किसमें बताया जावे, क्योंकि तुमने तो अभाव ही मान लिया ।
मुक्त अवस्था में जीव के सद्भाव की सिद्धि―मुक्त अवस्था में भी जीव का सद्भाव है और इस आधार पर यह कथन युक्त है कि जीव शाश्वत हैं । शाश्वतता तो जीव के अभाव में बनेगी कैसे? उच्छेद भी नहीं बन सकता । जीव अपनी पर्यायों को विनष्ट करता है, यह तभी संभव है जब जीवद्रव्य का सद्भाव माना जाय । जीवद्रव्य पर्यायरूप से उच्छेद करता है । यों उच्छेदरूप से परिणमने वाले कोई पदार्थ हुए ना? तभी उच्छेद संभव हो सकता है। द्रव्य नित्य हो, पर्यायों का प्रतिसमय में उच्छेद माना जा सकता है । इस जीव में और जीव में ही क्या समस्त पदार्थों में भव्यता और अभव्यता दोनों बातें पायी जाती हैं । यह सिद्ध जीव भव्य याने भाव्य भी है और अभव्य याने अभाव्य भी है । जो पर्याय जिस योग्य है, अपनी ही शुद्ध सृष्टियां होने योग्य हैं, वे होवे इसका नाम भव्यता है। जो बात अब होने योग्य नहीं है, देव, मनुष्य, नारकी, तिर्यंच रूप में यह जीव अब नहीं बन सकता । यह मुक्त जीव अब संसार में नहीं रुल सकता, । तो जो बात नहीं हो सकती है उसका न होना इसका नाम अभव्यता है । जो होने योग्य परिणमन है, शुद्ध सृष्टि है वह हो, यह भव्यता जीवद्रव्य में तब ही तो मानी जायगी जबकि कोई जीव नामक पदार्थ उस मुक्त अवस्था में है । सभी द्रव्यों में भव्यता और अभव्यता पायी जाती है । चाहे वह जीव हो, पुद्गल हो, कोई सा भी पदार्थ हो । जो पर्यायें नहीं है, अभूत हैं, उन पर्यायोंरूप से होने का नाम भव्यता है या भाव्यपना है, और जो पर्यायें पहिले गुजर गयी हैं वे पर्यायें उस द्रव्य में आ नहीं सकतीं, इसलिए यह अभव्यता है ।
भव्यता व अभव्यता से पदार्थ की सिद्धि―जो होने योग्य है उसका होना और जो हो चुका है उसका कभी भी न होना ये दो बातें प्रत्येक पदार्थ में हैं । जैसे जो समय गुजर गया वह समय वापिस नहीं आ सकता । जो गुजर गया सो गुजर गया । कितने ही उपाय करें, उस बीते हुए समय की वापिसी नहीं हो सकती । ऐसे ही पदार्थ में जो पर्याय व्यतीत हो गयी अब वह गुजरी पर्याय उस पदार्थ में आ नहीं सकती । भले ही उसके समान दूसरा आये अथवा उससे भी उत्तम दूसरा आये, पर जो पर्याय व्यतीत हुई वह नहीं हो सकती । मुक्ति की भव्यता व संसार की अभव्यता है, यह बात तब कही जायगी जब कोई जीव नामक पदार्थ माना जाय ।
पदार्थ में शून्यता व अशून्यता का दर्शन―देखो प्रत्येक पदार्थ में शून्यता और अशून्यता पड़ी हुई है । कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य के रूप से तो शून्य है । किसी भी द्रव्य में अन्य कोई दूसरा द्रव्य नहीं है । प्रत्येक पदार्थ सूना है, कहते हैं ना कि यह घर सूना है, यह कमरा सूना है । सूना है―इसका अर्थ यह है कि इस कमरे में कमरे की चीज के अलावा और कुछ नहीं है, सूना है। जब आप रात में या दिन में बाहर से आकर घर की सांकर हिलाते हैं कि कोई आकर खोल जाय (जब कि किवाड़ भीतर से बंद रहते हैं) तो आपके कुटुंबी जनों में से कोई आकर पूछता है कि आप कौन हैं ? तो आप क्या उत्तर देते हैं? कोई नहीं । अरे कोई नहीं कैसे? आप सरासर मौजूद हैं, उस कोई नहीं का यह अर्थ है कि मेरे अतिरिक्त कोई नहीं, मैं हूँ । तो अपने को ही शून्य बता दिया । और कभी-कभी ऐसा भी कह बैठते ह कि आप, जब भीतर से कोई पूछता है कि आप कौन हैं तो आप उत्तर देते हैं कि मैं हूँ । अब 'मैं हूं' ऐसा कहने में कोई सही जवाब है क्या? मैं हूँ का अर्थ है कि मैं ही हूँ, परिपूर्ण, अशून्य । आप बिल्कुल दार्शनिकता संबंधी झांकी दिखा देते हैं । अन्य कोई नहीं है, मैं हूँ, इसका अर्थ है शून्य होना और अशून्य होना ।
मुक्त जीव में शून्यता व अशून्यता का विवरण―प्रत्येक पदार्थ परद्रव्यों से शून्य है, किसी पदार्थ में कोई दूसरा पदार्थ नहीं लिपटा है । अरे इस जीव में शरीर तक तो लिपटा नहीं है । भूले ही यह जीव बड़े बंधन में है, स्वतंत्र नहीं है, शरीर को छोड़कर कहीं जा नहीं सकता, तिस पर भी शरीर जीव में लिपटा नहीं है । जीव द्रव्य में पुद्गल द्रव्य का सत्त्व न प्रवेश कर सकेगा । ये भिन्न-भिन्न ही है, यह जीव द्रव्य शून्य है । किसी जीवपदार्थ में अन्य दूसरे पदार्थ का अभाव है और यह जीव अशून्य है । अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन सबसे परिपूर्ण है । यह बात तभी कही जा सकती है जब जीवद्रव्य का सद्भाव हो । मुक्त जीव शून्य है और मुक्त जीव अशून्य हैं पर द्रव्यों का प्रवेश नहीं है इस कारण शून्य है । अपनी शक्तियों का विकास है, उससे परिपूर्ण है, तन्मय है इस कारण अशून्य है ।
अनंतता व सांतता से मुक्त जीव पदार्थ की सिद्धि―किसी जीवद्रव्य में अनंतज्ञान है और किसी जीव में सांत ज्ञान है । अथवा एक ही जीव में मुक्त जीव में अनंत ज्ञान है और सांत ज्ञान है । अनंत ज्ञान है, यह तो स्पष्ट है । प्रभु अनंत पदार्थों को जानते हैं इस कारण अनंतज्ञान है । प्रभु के ज्ञान का कभी अंत नहीं हो सकता इस कारण अनंतज्ञान है, फिर भी जिस समय में जो ज्ञानपरिणमन हुआ उस ज्ञानपरिणमन में उस समय उस पदार्थ को जाना । दूसरे समय में द्वितीय ज्ञान परिणमन ने पदार्थ को जाना । चूँकि उन समस्त ज्ञानपरिणमन में विषय वही का वही रहता है, इसमें भेद नहीं मालूम देता, लेकिन पदार्थ में प्रति समय में परिणमन निरंतर चलता रहता है । और जो परिणमन व्यतीत हुआ वह फिर नहीं आता । इस प्रकार वह शुद्ध सदृश ज्ञानपरिणमन भी प्रति समय नवीन-नवीन रहता है । तो जिस समय में जो ज्ञानपरिणमन हुआ वह अगले समय में नहीं है, इस कारण वह ज्ञान भी सांत है । प्रत्येक पदार्थ में पर्यायें सांत रहा करती हैं । यह ऐसे भी तभी तो कहा जा सकता है जब जीवद्रव्य का सद्भाव माना जाय । ये सब बातें जीवद्रव्य का सद्भाव न मानने पर नहीं बन सकती, इस कारण यह सब वर्णन मुक्त जीव में, मुक्त अवस्था में जीव के सद्भाव को प्रकट करता है ।
अपने उपादेय तत्त्व की स्वत: सिद्धि पर दृष्टांत―इस गाथा में यह भी दृष्टि दिलाई गई है कि अपने आप में यह निर्णय करें कि ऐसा जो शुद्ध तत्त्व है वही उपादेय है, सारभूत है । अन्य किसी पर दृष्टि लगाना हितकारी नहीं है । देखो यह शुद्ध अवस्था टंकोत्कीर्ण ज्ञायकरूप से अविनश्वर है । हुआ क्या सिद्ध अवस्था में? जो था वही हुआ । अन्य कुछ नहीं हुआ । जैसे किसी बड़े पाषाण में से कोई मूर्ति बनवानी है, कारीगर को बुलवाया, पत्थर दिखाया, और जैसी मूर्ति बनवानी है तैसा चित्र आकार नाप तौल सब बताया तो वह कारीगर एक ही नजर में उस पत्थर में मूर्ति का दर्शन कर लेता है । यदि कारीगर को उस पत्थर में मूर्ति का दर्शन न हुआ होता तो वह उसमें से मूर्ति बना ही न सकता था । वह अब उस मूर्ति के आवरक पाषाणखंडों को किस तरह निकालता है, उसकी कला देख लीजिए । कभी वह अटपट छैनी हथौड़े नहीं चलाता है कि जहाँ चाहे मार दे, पत्थर के टुकड़े कर दे । वह कारीगर धीरे से अगल-बगल के मूर्ति के आवरक पत्थरों को हटाता है और ज्यों-ज्यों उस मूर्ति का कुछ व्यक्त रूप होने लगता है, त्यों-त्यों कारीगर और बड़ी सावधानी से उन आवरक पत्थरों को निकालता है । और जब पूर्ण व्यक्त रूप हो आता है तब उसकी सफाई के लिए वह छोटे-छोटे औजारों को अत्यंत धीरे-धीरे चलाता है और उसे स्वच्छ बना लेता है । लो कारीगर ने क्या किया? लोग कहते हैं कि कारीगर ने मूर्ति बना दी । अरे कारीगर ने कौन-सा नया काम किया? हां नया काम उसने उच्छेद का किया । सृष्टि का कोई नया काम नहीं किया । मूर्ति के आवरक जो पाषाण थे, जो कि मूर्ति को ढके हुए थे उन पाषाणों को दूर किया, चीज वही निकली जो उसमें थी।
मुक्त अवस्था में विकास की स्वत: सिद्धि―टंकोत्कीर्ण दृष्टांत के अनुसार जब इस जीव को यह भान हो जाता है शुद्ध स्वरूप का वर्णन सुनकर ज्ञान करके महिमा जानकर इस प्रकार जब इसकी भावना हो जाती है कि मुझे तो सिद्ध बनना है, सर्व कर्मों से विमुक्त होकर केवल बनना है, जब उसकी यह भावना होती है तो उसे इस अपने आप में जीव में, जो कि अशुद्ध पर्याय में चल रहा है वहाँ भी वह शुद्ध स्वरूप नजर में आने लगता है । अब यह सम्यग्दृष्टि कारीगर इस ज्ञायकस्वरूप को आवरण करने वाले जो विषयकषाय के परिणाम हैं उन परिणामों को दूर करता है । विषयकषायों का उच्छेद हुआ विभाव दूर हुए कि यह ज्ञायकस्वभाव जो अपने सत्त्व के कारण स्वत: जिस स्वरूप को रख रहा है, बस वह स्वरूप अब प्रकट हो गया । इसी के मायने हैं सिद्ध हो गया, मुक्त हो गया । यह सिद्ध अवस्था कुछ बनाई नहीं गयी, किसी चीज से इसका निर्माण नहीं किया गया, किंतु इसके व्यक्त करने के प्रयोग में उच्छेद का ही काम किया गया है । पहिले तो भेदविज्ञान के प्रयोग से बहुत से विभाव परिणामों का उच्छेद किया, फिर जैसे यह अपने शुद्ध स्वरूप के निकट आया, कुछ व्यक्त होने लगा तो निज अभेद ज्ञान के प्रयोग से इसने अपने अंतरंग में पुरुषार्थ बढ़ाया, मगर चुप्पी अधिक आयी । अब वे तीव्र योग नहीं रहे जो प्रथम भेदविज्ञान के प्रयोग में रहते थे । अब लो―इस निज अभेदविज्ञान के प्रयोग से और भी यह स्वयं व्यक्त हुआ । व्यक्त ही हो गया तब, अब मन का भी वहाँ कोई काम नहीं है, गति नहीं है, अब स्वयं ही अपने आप में अपने ही शुद्ध परिणमन के प्रताप से रही-सही औपाधिक अशुद्धि भी दूर हो जाती है । यह आत्मा जब केवल सिद्ध के स्वरूप में व्यक्त हो गया तो वहाँ व्यवहारीजन क्या कहते हैं―सिद्ध पर्याय उत्पन्न हो गयी, सिद्ध भगवान बन गये । अरे सिद्धभगवान किसने बनाया? जो था सो अब प्रकट हो गया । बनना तो उसका नाम है कि जो हो नहीं वह हो जाय । यह सब बड़ी सावधानी से द्रव्य और पर्याय की दृष्टियों को बराबर अदल-बदलकर ध्यान में लेते रहने से कथन स्पष्ट होता है ।
मुक्त अवस्था में परिणमन―यह प्रभु द्रव्यरूप से शाश्वत है और पर्यायरूप से अगुरुलघुत्व गुण के षट्स्थान पतित वृद्धि-हानि की अपेक्षा से इनका निरंतर उच्छेद हो रहा है, इसका अब यह परिणमन किस प्रकार का है? संसारी जीवों से तो उपमा कुछ मिलती नहीं, मात्र एक सिद्धपरिणमन को बताना है । इसमें या तो उपमा यही लगेगी कि सिद्ध का चमत्कार सिद्ध की तरह है, दूसरा कुछ उपमा के लिए मिलता ही नहीं है, अथवा कुछ-कुछ कहना भी चाहें तो जो शाश्वत सत् पदार्थ धर्म, अधर्म, आकाश, काल हैं इसमें जैसे अगुरुलघुत्व गुण की वृद्धि हानि से जो परिणमन जिस पद्धति से चलता रहता है उस पद्धति से जो परिणमन हो रहा है । अब इसका होना किस प्रकार हो रहा है? निर्विकार, शुद्ध, ज्ञानानंदस्वभावरूप से अब सिद्ध का परिणमन हो रहा है, और जो मिथ्यात्व रागादिक विभावपरिणाम चल रहे थे वे तो अब अतीत हो गये ना? तो जो अतीत हो गए हैं अशुद्ध परिणाम के रूप से वे कभी भी न होंगे ।
हितमयी स्थिति―भैया ! किस अवस्था में इस जीव का हित है, यह भी साथ ही साथ दृष्टि में रखते हुए सिद्धस्वरूप पर नजर रखना है । परम निराकुल दशा इस ही स्थिति में है । एक साल दो साल का भी बालक जरा-सा हँस दे और कंधे पर या सिर पर हाथ रख दे, बस इतनी ही चेष्टा वह बालक करता है और यह जो अपने को उसका मालिक मानता है उसको पूरी उल्झन में फंस जाना पड़ता है, उस बालक की थोड़ी-सी ही चेष्टा से समझो अब वह बंधन में आ गया । तो बंधन आपने अपने आप अपने ही विकल्प से प्रीति-परिणाम बनाकर ही तो किया है । उस सालभर के बालक में आपको बंधन में डालने की कला कहाँ है जो बेचारा बालक अभी बोलना भी नहीं जानता । यों ही समझिये प्रत्येक पदार्थ चाहे वह चेष्टावान हो अथवा अचेष्ट हो, ये आपका कोई बंधन नहीं पैदा करते । आप खुद ही अपने मन का संकल्प-विकल्प बनाकर अन्य पदार्थों के वश होकर पराधीन हो जाते हैं । तब भी आप पराधीन नहीं हैं, किंतु कल्पना में पराधीन हो जाते हैं । और ऐसी पराधीनता की स्थिति ही अहितरूप है ।
परमकल्याण व उसका उपाय―ये सिद्धप्रभु हित की मूर्ति हैं, कल्याणमय हैं, शिवस्वरूप हैं, परमानंदमय हैं, यह अवस्था ही हितरूप है । अब जो उनमें शुद्ध अंतस्तत्त्व प्रकट हुआ है उस रूप से वे हैं, अन्य विभावरूप से वे नहीं हैं । अब उनके अनंतज्ञान है, मतिज्ञानादि का उनके उच्छेद है, ऐसी उत्कृष्ट विकासरूप स्थिति है, उसकी ही हम आप पूजा करने आते हैं । हमें यह भावना आनी चाहिए कि मुझे तो यही स्थिति उपादेय है । इस शुद्ध विकास की और शुद्ध विकास के कारणभूत चैतन्यस्वभाव की अभिरुचि जगे, यही कल्याण का प्रारंभिक उपाय है ।