वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 38
From जैनकोष
कम्माणं फलमेक्को एक्को कज्जं तु णाणमध एक्को ।
चेदयदि जीवरासी चेदगभावेण तिविहेण ।।38।।
चेतयितृत्व के स्वामित्व का निर्देशन―इस अधिकार में प्रथम गाथा में यह सूचित किया था कि यह जीव है और चेतयिता है आदिक कुछ विशेषण कहे गये थे, उनके ही आधार पर व्याख्या चल रही है । जीव का वर्णन कर दिया, अब चेतयितृत्व का वर्णन कर रहे हैं । यह जीव चेतने वाला है, ऐसा सुनकर यह प्रश्न होता है कि जीव किसका चेतने वाला है, किसको चेतता है? उसके ही समाधान में यह गाथा आयी है । कोई जीव तो कर्मों के फल को ही प्रधानता से चेतता है । कोई जीव ऐसे होते हैं कि कर्मसहित कर्मफल को चेतते रहते हैं । क्रिया भी करते हैं और व्यक्तरूप से सुख दुःख का अनुभव भी होता है, और कोई जीव ऐसे होते हैं कि वे मात्र ज्ञान का ही चेतन करते हैं ।
कर्मफलचेतयितृत्व के अधिकारी―ऐसे भी कुछ जीव हैं जो प्रधानता से कर्मफल चेतन करते हैं । वे जीव हैं स्थावर । स्थावर जीवों के अंगोपांग न होने से उनके देह की क्रियाएँ नहीं होतीं । और इस दृष्टि से वे कुछ कर्म कर नहीं पाते । कर्म का अर्थ यहाँ क्रिया है, और उस क्रिया के बिना कर्म के फल को चेतते रहते हैं । चूंकि उनमें अंगोपांग न होने के कारण कर्म को नहीं चेतते, अत: जो कुछ वे चेतते हैं सुख-दुःख, वे अव्यक्त रूप से चेतते हैं । लोगों को भी पता नहीं होता । और वे भी त्रस जीवों की तरह कुछ व्यक्त विकल्प करते हुए न चेतते होंगे । उनका विकल्प भी ऐसा अव्यक्त उनके लिए तो उन पर गुजरी हुई विकल्प प्रवृत्ति चलती है । स्थावर जीवों का कितना निम्नतम स्थान है जीवराशि में । ये पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और उन वनस्पतियों में भी निगोद ये कितने निम्न स्थान हैं, जिनका कुछ व्यवहार ही नहीं । अनेक लोग तो इनको जीव भी नहीं मानते । ये जीव अत्यंत मोह से मलीमस हैं, इतने मोह मुग्ध हैं कि वे अपने आप में भी अपनी कोई व्यवस्था नहीं बना पाते । वे मस्त बेहोश पड़े हुए हैं ।
स्थावर राशि से निर्गमन की दुर्लभता―हम आपने स्थावर राशि में अनंतकाल व्यतीत किया है । सुयोगवश आज मनुष्य हुए, उत्तम कुल, उत्तम धर्म, उत्तम समागम सब कुछ पाया, लेकिन वही चाल ढाल अब भी बसाये हुए हैं जो बहुत पूर्व काल में बसाये हुए थे । कोई भी परिवर्तन नहीं दिखता । उल्टा कुछ और विकारों में ही बढ़ गये हैं । फल क्या होगा कि पुन: ऐसे स्थावर जीवों में उत्पन्न होने की नौबत आयगी कि फिर वहाँ कुछ भी पुरुषार्थ न किया जा सकेगा । वहाँ से जब जैसे निकलना हो निकलेंगे ।
स्थावरों की परिस्थिति―ये स्थावर जीव अत्यंत अधिक मोह से मलीमस हैं । ज्ञानावरण का उनके तीव्र उदय है उससे उनका प्रभाव मुद्रित हो गया है । कैसे यह जीव अपने परिणाम के कारण निमित्तनैमित्तिक योग से कैसी-कैसी स्थितियों को पा लेता है? अब पूछा जाय कि बतलावो तुम मरकर पेड़ बनना चाहते हो? तो शायद कोई भी छोटा से भी छोटा पुरुष यह न चाहेगा कि हम पेड़ बन जाये । किंतु करनी में अंतर न डालें, वे ही मोह की बातें बनी रहें तो पेड़ आदि बनना ही पड़ेगा । ये स्थावर जीव जिनकी ज्ञानावरण से बुद्धि शक्ति अत्यंत मुद्रित हो गयी है लेकिन है तो आखिर चेतन । यह चेतक स्वभाव जायगा कहाँ? यदि इतनी खराब हालत हुई है तो जरा और खराब हालत हो जाती, चेतना भी नष्ट हो जाती, तब भी भला था हम अचेतन रहते तो क्लेश तो न भोगने पड़ते, मगर यह होता कैसे है? कितनी भी निम्नतम स्थिति हो जायगी, पर इस चेतन का चेतकस्वभाव जायगा कहाँ? इस चेतकस्वभाव के कारण कुछ न कुछ चेतने का भाव करेगा ही । क्या करेगा ? कार्यकारण की सामर्थ्य तो विनष्ट-सी हो गयी । वीर्यांतराय कर्म का वहाँ बड़ा प्राबल्य है जिससे इसकी शक्ति पूर्ण रुद्ध-सी हो गयी है । अब ये स्थावर जीव शुभाशुभ कर्मफल को भोगने का काम करते रहते हैं ।
स्थावरों में आत्मशक्ति का अवगुंठन―देखो मनुष्यों में, पशुवों में, पक्षियों में कुछ शक्ति का अंदाज होता है । है शक्ति । मन, वचन और काय के रूप से उनमें कुछ इस प्रकार का काम होता है कि जिससे शक्ति विदित होती है और ये दो इंद्रिय तक भी इनमें स्थावरों की अपेक्षा शक्ति विशेष नजर आती है । ये केंचुवा, लट आदि दो इंद्रिय के जीव चलते हैं, फिरते हैं, मुड़ भी जाते हैं, गोल भी हो जाते हैं, चलते हुए लौट आते हैं । ये स्थावर क्या करें? जहाँ पड़े हैं, पड़े हैं; जहाँ खड़े हैं, खड़े हैं । यह शक्ति की ओर से बात चल रही है । कोई यह न बीच में तर्क उठाये कि देखो पेड़ गिर जाता है तो दसों आदमियों की हत्या कर डालता है । अरे वह पेड़ क्रिया करके नहीं गिरा, यों तो कोई भी काठ, पत्थर अजीव पदार्थ खड़ा हो और वह गिर पड़े तो उससे बहुत से जीव मर जाते हैं । तो उनका यह गिरना उनकी क्रिया में शामिल नहीं है । वह उनकी उस प्रकार की प्रकृति है । जहाँ वीर्यांतराय कर्म अधिक उदित है वहाँ कार्यकारण का सामर्थ्य दब गया है । अब वह चूंकि चेतकस्वभाव वाला तो है ही तो अब किसे चेतेगा? तो वह सुख दुःखरूप कर्मफल को ही प्रधानता से चेतता है ।
स्थावरों में कर्मफलचेतना की प्रसिद्धि―भैया ! स्थावरों में भी क्रिया का सर्वथा अभाव नहीं होता है, ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसमें क्रिया न होती हो । परिणमन ही क्रिया है । एक परिणमन क्रिया के बिना सुख दुःख की चेतना भी कैसे बनेगी, किंतु यहाँ कर्म से मतलब व्यक्त क्रियावों से है । ये क्रिया से रहित होकर आसक्ति के कारण प्रधानरूप से कर्मफल को ही चेतते हैं । इन स्थावरों में चेतने का स्वभाव है । चेतन पृथ्वी जो ऊपर धूलरूप में है यह चेतन नहीं हो सकती, किंतु जो खोदते हैं, खान से मिट्टी निकलती है, मिट्टी, मुरमुर, जमीन कंकड़, पत्थर, भीतर में जो कुछ पड़ा है वह जीव है । जल जो बहता रहता है वह जीव है । बहने वाला, बरसने वाला, रुकने वाला ये सब जल जीव हैं । अग्नि जीव है, हवा जीव है, वनस्पति जीव है । वनस्पति का जीवपना अपेक्षाकृत उन चारों से स्पष्ट ज्ञात होता है । ये बढ़ते हैं, हरे होते हैं, कभी कुम्हलाते हैं, कभी विकसित होते हैं । इनमें प्रकृत्या कुछ ग्रहण करने वाली, कुछ फेंकने वाली वायु पायी जाती है । इसमें जीवपने का चेतने का कुछ विशेष बोध हो जाता है । देखो इसमें चेतना कैसी मूर्छित है कि इसमें चेतन है, यह भी अवगम करना कठिन हो गया है । ऐसे ये स्थावर जीव कर्मफल को ही प्रधानता से चेतते हैं ।
त्रिविध चेतनाओं के विविध विवरण की पद्धति―इस प्रकरण में यह कहा जा रहा है कि चेतना तीन प्रकार की होती है―कर्मचेतना, कर्मफलचेतना और ज्ञानचेतना । इन तीनों का वर्णन समयसार में जिस प्रकार किया गया है वह एक अपूर्व अध्यात्मदृष्टि से वर्णन है । यह भी कुंदकुंदाचार्यदेवकृत ग्रंथ है, फिर भी एक दृष्टि और प्रकरण कुछ अन्य-अन्य होने से वही वर्णन अपनी विशिष्ट-विशिष्ट पद्धति को रखने लगता है । इस ग्रंथ में सिद्धांतस्थापन की भी दृष्टि अपनाई गई है ।
त्रिविध चेतनाओं का अध्यात्मविवरण व कर्मचेतना―समयसार में इन तीन चेतनावों का वर्णन इस प्रकार है कर्म चेतना―ज्ञान के सिवाय अन्य परिणमनों में इसे मैं करता हूँ, इस प्रकार की चेतना कर्मचेतना कहलाती है । कोई पुरुष अपने को ज्ञानरूप ही चेते, मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानप्रकाशरूप हूँ, जिसका काम केवल जानन है, जानन में जानन होता है, विकारों का वहाँ स्थान नहीं । रागद्वेष विभाव, पर के आकर्षण, पर की दृष्टियाँ ये सब मुझमें कहाँ पड़ी हैंें? मैं तो केवल ज्ञानमात्र हूँ । केवल जाननरूप से ही मैं चेतता हूँ, केवल जाननरूप को ही कर रहा हूँ, केवल इस जाननरूप ही मैं परिणम रहा हूँ, अन्य मेरा कुछ काम ही नहीं । सर्वत्र मैं जानता ही जानता रहता हूँ, इस प्रकार का चेतन हो तो वह ज्ञानचेतना है, किंतु ऐसा चेतन न बनकर मैं अमुक को सुख देता हूँ, अमुक को दुःखी करता हूँ, मकान बनाता हूँ, धन कमाता हूँ, दूकान करता हूँ, इतना आरंभ कर लिया है । ओह करने-करने का ही बोझ लादना, यही तो कर्मचेतना है ।
कर्मफलचेतना का अध्यात्मविवरण―कर्मफलचेतना―ज्ञान के सिवाय अन्य परिणमनों में इसे मैं भोगता हूँ, ऐसा चेतन करना कर्मफलचेतना है । जब कि ज्ञानी जीव अपने आपमें अपने आपको इस प्रकार चेतता है कि जो मेरा जाननस्वरूप है उस जानन को ही भोगता हूँ । भोगना और परिणमना जुदी-जुदी बातें नहीं हैं । करना और परिणमना जुदी-जुदी बातें नहीं हैं, और इस दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ में चाहे वह चेतन हो अथवा अचेतन हो, सभी करते हैं, सभी भोगते हैं । किसे? अपनी अवस्था को । सभी पदार्थ अपनी अवस्था को करते हैं और अपनी अवस्था को अनुभवते हैं, किंतु अचेतन पदार्थों में चेतन गुण नहीं है इस कारण उनमें अनुभवने की बात कहीं देर में बैठती है । अरे अनुभवन उनका उनके ही रूप है, अचेतन रूप से ही है । हाँ यह आत्मा चेतन है, यह शीघ्र समझ में आता है, क्योंकि यह चेतन के रूप से अनुभवता है ना? वे अपनी सत्ता परिणमन रूप से अनुभवते हैं, ज्ञान के सिवाय अन्य किसी को मैं अनुभवता नहीं । मैं जब कभी भी जो कुछ भी भोगता हूँ एक अपने जानन को भोगता हूँ । यह जीव जब किसी विषय को भी भोग रहा है तब भी वह विषयभूत पुद्गल को नहीं भोग रहा है, किंतु विषयभूत पुद्गल के भोगों में, उनके संपर्क में जो कल्पनाएँ बनायी, जो ज्ञान बनाया उस ज्ञान को ही भोग रहा हैं अशुद्ध वृत्ति को भोग रहा है । तो एक दृष्टि से अज्ञानी भी जब अन्य को नहीं भोग पाते तो ज्ञानी यहाँ परभाव को भी भोगने की बात अपने चित्त में न लगाकर केवल शुद्ध ज्ञान वृत्ति को भोगने की वृत्ति कर रहा है । ज्ञानी पुरुष ज्ञान को ही भोगता हुआ इस प्रकार का प्रत्यय रखता है । अज्ञानी जन परतत्त्व के भोगने का प्रत्यय रखते हैं, यही कर्मफलचेतना है ।
ज्ञानचेतना व त्रिविध चेतनाओं का प्रकृत उपसंहार―कोई-कोई जीव इतने सामर्थ्यहीन होते हैं कि वे भोगने का विकल्प भी अपने में स्पष्ट नहीं पाते हैं और भोगते जाते हैं । वे हैं स्थावर जीव । समयसार की उस पद्धति से इन तीन चेतनावों का विभाग कई प्रकार से होता है । ज्ञानचेतना किसके है? ज्ञानचेतना अप्रमत्त गुणस्थान से है । कर्मचेतना और कर्मफलचेतना पहिले गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक है । फिर दूसरी दृष्टि जगती है कि जो श्रद्धा में और प्रतीति में है, वास्तविकता तो उसकी है, मूल्यांकन तो वहाँ से है । लो अब है ज्ञानचेतना किसके? सम्यग्दृष्टि के, और कर्मचेतना कर्मफलचेतना, जो सम्यग्दृष्टि नहीं हैं उनके । इस प्रकरण में जिस प्रकार भूमिका आकर वर्णन किया हैं उसमें यह बताया है कि कर्मफलचेतना है एकेंद्रिय जीवों के, और कर्मचेतना किसके है? दो इंद्रिय जीवों से लेकर जब तक केवलज्ञान न हो तब तक । जब यह कर्म और कर्मफल को चेतता रहता है, और इस करणानुयोग की दृष्टि से ऐसा कुछ साफ जंचता भी है कि यह कर्म अपने उदय से तब तक कुछ न कुछ कर रहे हैं, केवलज्ञान होने के बाद फिर न कोई उपद्रव है और न किसी प्रकार की बाधा है । वह प्रभु है और वह अब स्पष्टरूप से ज्ञान को ही चेतता रहता है । ये स्थावर जीव कर्मफल का चेतन करते हैं ।
कर्मचेतना के प्रधान अधिकारी―त्रस जीव ये भी यद्यपि मोह से मलीमस हैं और ज्ञानबुद्धि सामर्थ्य भी रुकी हुई है, फिर भी कुछ वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम पाया है जिससे कार्यकारण सामर्थ्य प्रकट होता है । वह किसी बात के कारण बन जायें, किसी के कार्य बन जाये, कुछ पहिचान कर सकें ऐसे कर्म की सामर्थ्य प्रकट होती है । वे जीव कर्मफल चेतना से मुक्त नहीं हैं, वह तो चल ही रही हैं । सुख दु:खरूप जो कर्मफल है उसका अनुभवन उनमें चल रहा है, पर साथ ही वे कर्मों को प्रधानरूप से चेत रहे हैं । त्रस जीवों में कर्मचेतना की प्रधानता बतायी है, क्योंकि उनमें वीर्यांतराय का क्षयोपशम होने से कार्यकारण में सामर्थ्य प्रकट हुई है । चेतक स्वभाव के कारण जो भी उनमें सामर्थ्य प्रकट हुई है उसके अनुरूप ईहापूर्वक, विचारपूर्वक संज्ञपूर्वक, इष्ट अनिष्ट विकल्परूप कार्यों को करते हैं ।
ज्ञानचेतना के स्वामी―तृतीय प्रकार के जीव जो ज्ञानचेतना से ज्ञान को ही चेतते रहते है वे हैं केवलज्ञानी जीव। जिन्होंने समस्त मोह कलंक को धो डाला है और ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदिक समस्त कर्मों का समुच्छेद कर दिया है । इस ज्ञान चेतना में भी प्रधानता सिद्ध जीवों की रखी है । अब आत्मा की जितनी भी शक्तियाँ हैं समस्त शक्तियाँ अत्यंत विकसित हो गयी हैं । वीर्यांतराय कर्म का क्षय हो चुका है, उनके अनंतवीर्य प्रकट हुआ है । इस कथन में ज्ञानावरण और वीर्यांतराय कर्म इनके क्षय पर प्रधानतया दृष्टि दी है । इससे अरहंत भगवान के भी ज्ञानचेतना सिद्ध की तरह मानी गयी है । अब कर्मफल समस्त उनके समाप्त हो गये, कर्म भी समाप्त हो गये, अत्यंत कृतकृत्य हो गये ।
सकलपरमात्मा की निर्वांछ क्रिया―सकलपरमात्मा की क्रिया जब तक वे अरहंतभगवान् हैं, शरीरसहित हैं, जो हो रही है वह कैसी क्रिया हो रही है? विचार नहीं, विचारों का चलना नहीं, इच्छा नहीं, क्या है, अब तो उनका शरीर बड़ा सुहावना, स्वच्छ, निर्मल है, एक खिलौने का सा पुतला है । जैसे ये मेघ क्या विचार कर चलते हैं कि मैं इस देश में जाऊँ और वहाँ पानी बरसाऊ? अरे जहाँ की जनता का भाग्य है वह भी एक कारण है और यहाँ वायु का संपर्क संयोग है वह भी एक कारण है । बादल पहुंचते हैं और बरसते हैं । ऐसे ही यह प्रभु का शरीर, यह परमात्मा का परमौदारिक शरीर क्या यह जानकर चलता है कि मैं किस ओर जाऊं, मैं म्लेच्छ देश में ही जाऊँ, वहाँ के लोग बड़े धर्मात्मा हैं । वहाँ पहुंचेंगे, क्या उनकी ऐसी इच्छा है? नहीं है । फिर भी जहाँ के जीवों का प्रबल भाग्य है उस ओर उनका विहार होता है । जीवों का प्रबल भाग्य है विशेष कारण, और उनमें अघातिया कर्म तो रह ही रहे हैं, उनका उदय चलता है, बस ऐसे ही कारण कलाप मिलकर उस विषय के कारण बन जाते हैं । उनमें इच्छा नहीं, रागद्वेष नहीं, फिर भी यह गमन हो रहा है ।
कृतकृत्यता व उपादेयता―केवलज्ञानी जीव अत्यंत कृतकृत्य हैं, उन्हें बाहर में कहीं करने योग्य कुछ नही है । अंतरंग में करने योग्य है ज्ञान, उस ज्ञान को ही वे करते रहते हैं । उस ही ज्ञानरूप वे परिणमते रहते हैं और ज्ञानरूप को ही अनुभवते रहते हैं । वे अत्यंत कृतकृत्य हैं । वे अपने से अभिन्न स्वाभाविक आत्मीय सुख को और ज्ञान को ही चेतते हैं । ये प्रभु ज्ञानचेतना संयुक्त है । इस प्रकार ये जीव कोई तो ज्ञानचेतना को ही चेतते हैं और कोई कर्म कर्मफल रूप से चेतते हैं और कोई केवल कर्मफल को ही चेतते हैं । यह भेद पड़ गया है । एक स्वरूप, एक स्वभाव, एक लक्षण के भी होकर इन जीवों में उपाधिवश से ये नाना भेद पड़ गये हैं । इस प्रकरण से हमें यह शिक्षा लेना है कि हम इन बाहरी भेद परिस्थितियों को न चेतकर अपने अंत: शाश्वत विराजमान इस ज्ञानस्वभाव को ही चेतें । इसका आलंबन ही एक बहुत बड़ा सहारा है । यह सारी दुनिया, यह मोहक जगत सारा धोखा है, इस जीव की बरबादी का कारण है । मैं-मैं, मेरा-मेरा―इन ही विकल्पों में रहकर अपने आपका घात करते चले जा रहे हैं । अब सुयोग पाया, अच्छी बुद्धि पायी, सामर्थ्य मिला तो इसका सदुपयोग करें । इनको व्यर्थ न गमा दें और अपने ज्ञानस्वभाव को बारबार चेतते रहने का यत्न करें ।