वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 44
From जैनकोष
जदि हवदि दव्वमण्णं गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे ।
दव्वाणतियमधवा दव्वाभावं पकुव्वंति ।।44।।
द्रव्य और गुणों की अभेदरूपता की प्रसिद्धि―वस्तुस्वरूप के संबंध में यह बताया गया था कि द्रव्य गुण और पर्यायों का अभिन्न आधार है । जो भी परिणमन हो, परिणमन अनित्य होता है । नया परिणमन होता है प्रति समय और पुराना परिणमन विलीन होता है । जो व्यक्त स्थितियां हैं उनका नाम पर्याय है । और वे पर्यायें इस ही जाति की हुआ करें, ऐसी उन पर्यायों का जो मूल है उसका नाम शक्ति है, और शक्ति तथा पर्यायें इन सबका जो समूह है उसका नाम द्रव्य है । यों तो भेद से अभेद की ओर आये, अब अभेद से भेद की ओर चले । कोई वस्तु है वह वस्तु एकरूप है, अद्वैत है अपने आप में । उस वस्तु का जब हम द्वैत रूप देखते हैं तो यह विदित होता है कि प्रत्येक वस्तु में प्रतिसमय नवीन-नवीन परिणमन होता है और वह परिणमन अपनी-अपनी शक्ति के अनुरूप होता है । यों अभेद से भेद बन गया । ऐसे भेदात्मक वस्तुस्वरूप को सुनकर कोई पुरुष यदि भेद का एकांत करने लगे-द्रव्य से गुण भिन्न ही होता है, इस प्रकार से कोई भेद का एकांत करे तो उस मंतव्य में क्या दोष आता है? उसका वर्णन इस गाथा में चल रहा है ।
द्रव्य व गुणों को भिन्न मानने पर दोषापत्ति―गुण और द्रव्य के संबंध में बातें चल रही हैं । गुण किसी न किसी जगह आश्रित हुआ करता है । जहाँ आश्रित होता है उस ही का नाम द्रव्य है । वह द्रव्य यदि गुणों से अभिन्न है तो रहा आये अभिन्न, लेकिन इस नियम में भ्रम नहीं हो सकता कि जहाँ गुण आश्रित रहे उसका नाम द्रव्य है, तब अन्य कुछ द्रव्य खोजिए । जिस द्रव्य को खोजें वह भी अन्य है तो इस प्रकार खोजते जाइये । द्रव्य गुणात्मक होता है, उस द्रव्य के गुण भी द्रव्य से भिन्न हैं तो कहाँ टिकेंगे? क्या गर्मी अग्नि से भिन्न होती है? यदि भिन्न है तो उस गर्मी का आश्रय बतावो, वह गर्मी कहाँ ठहरती है? लो यों अग्नि भी नहीं रही, गर्मी भी नहीं रही । बिना आधार के गर्मी क्या, बिना गर्मी के अग्नि क्या? जैसे अग्नि और गर्मी इन दोनों को भिन्न-भिन्न मानने पर न अग्नि की सत्ता रह सकती, न गर्मी की सत्ता रह सकती, इसी प्रकार द्रव्य और गुणों को भिन्न-भिन्न मानने पर न द्रव्य की सत्ता रह सकती, न गुण का सत्त्व रह सकता । जो बात जैसी नहीं है वहाँ वैसी कल्पना करो कितनी आपत्ति आती है?
गुण गुणी के भेदहठ में एक द्रव्य में अनंत द्रव्य का प्रसंग―गुण नाम अंश का है और गुणी नाम अंशी का है, पूरे का नाम गुणी है और उसके एक धर्म का नाम गुण है । अंश से अंशी जुदा नहीं रह सकता, अंश अंशी के आश्रय ही रहा करता है । यदि कोई यह हठ करे कि अंश से अंशी जुदा होता है तो यह तो निश्चित ही है ना, कि अंश आधार के बिना नहीं रह सकता । उसके लिए कोई अन्य अंशी चाहिए । गुण द्रव्य के बिना नहीं रह सकता तो गुण का कोई आधार चाहिए । इस द्रव्य को तो अलग मान लिया, फिर जो भी आधार मानेंगे वहाँ भी भेद की कल्पना हो जायगी । तब गुण और आधार कल्पनाएँ करिये । यों द्रव्य अनंत हो जायेंगे अथवा यों ही मान लीजिए उतने ही द्रव्य होंगे, जितने गुण हैं । वे स्वयं स्वतंत्र द्रव्य हो गये, पर ऐसा है नहीं । द्रव्य तो गुणों के समुदाय का नाम है । क्या यह गुण उस गुण समुदाय से भिन्न है? गुण समुदाय से भिन्न मानने पर सीधीसी बात यह है कि न गुण रहेंगे और न द्रव्य रहेंगे ।
यथार्थज्ञान से ही शांतिलाभ―यह बात अंतस्तत्त्व की चल रही है । मूढ़ लोग तो द्रव्य-द्रव्य का मेल बैठाल लेते हैं । यह एक चीज है, शरीर है सो मैं हूँ । अपनी सुध न रखना यह महान गल्ती है । दो चीजों को एक मान लेना भी गलत है और एक चीज को दो मान लेना भी गलत है । जब तक अपने अभेद ज्ञानस्वभावमात्र निज तत्त्व की सुध न होगी तब तक इस आत्मा को धीरता, गंभीरता, शांति, निराकुलता आ ही नहीं सकती । परवस्तु से अपना सहारा माना, हितकारी माना; तो पर तो पर ही है । पर को जैसा परिणमन परिणमेगा । यहाँ यह व्यामोही जीव अनेक कल्पनाएँ बनाकर अनुकूल परिणमे, प्रतिकूल परिणमे इन कल्पनाजालों में उलझकर खेदखिन्न रहा करता है । प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, अपनी गुण-पर्यायों में तन्मय है । कोई पदार्थ किसी के गुण पर्यायरूप नहीं होता है । जब ऐसी वस्तुस्थिति है तो एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य क्या लगा? कुछ भी संबंध नहीं है । यों भिन्न असंबद्ध स्वतंत्र पदार्थ को निरखने से मोह का विनाश होता है । जहाँ मोह अंधेरा नहीं रहा वहीं इस जीव को शांति प्राप्त होती है । तब वस्तुस्वरूप के संबंध में वास्तविकता क्या है? अब उसका वर्णन कर रहे हैं ।