वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 74
From जैनकोष
खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू ।
इदि ते चदुव्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा ।।74।।
अजीवाधिकार में पुद्गलद्रव्य का वर्णन व आत्मप्रयोजन―इस ग्रंथ में पूर्वरंग के बाद जो मुख्य वक्तव्य था जीवास्तिकाय का, उसका वर्णन किया । अब उस ही जीवास्तिकाय में शुद्ध सुदृढ़ स्थिति करने के लिए जिन पदार्थों से हमें हटना है उन पदार्थों का वर्णन इस अजीवाधिकार में किया जा रहा है । अजीव वह है जो जीव नहीं है । जीव वह है जो मेरे द्वारा मेरे में सहज अनुभव होता है । उस अजीवतत्त्व के, उस अजीव अस्तिकाय के चार भेद हैं―पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । कालद्रव्य अस्तिकाय में नहीं है, लेकिन वह भी अजीव है । उनमें से पुद्गल द्रव्यास्तिकाय के वर्णन में यह पहिली गाथा है । पुद्गलद्रव्य स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और परमाणु―इस प्रकार चार भेद वाले हैं । इनका संक्षेप में अर्थ है जो भी एकप्रदेशी पुद्गल है परमाणु वह तो है और उससे बढ़कर जो अनेक परमाणुवों का पुंज है, किंतु किसी विवक्षित स्कंध के आधे से आधा है कम से कम, उसका नाम स्कंध प्रदेश है, और जो विवक्षित स्कंध से आधा है उसका नाम है स्कंधदेश, और जो स्कंध विवक्षित है वह स्कंध है।
भौतिकवाद में पृथ्वी का लक्षण―इस प्रसंग में कुछ दार्शनिकों ने चार चीजें मानी हैं―पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु । जो कुछ भी ये दृश्यमान हैं वे सब इन चारों में शामिल हैं ।उनमें जो कुछ भी मैटर है, दृश्य हों अथवा न हों, किसी प्रकार इंद्रिय से ज्ञात हों वे सब चार प्रकार के हैं―पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु । वनस्पति का शरीर भी पृथ्वी है उस दर्शन में ।जो पिंडरूप हों, जिसमे गंध हो, वे सब पृथ्वीकाय हैं, यह उनका पृथ्वी का लक्षण है । वनस्पतिकाय पिंडरूप है, इसमें गंध है, ये सब दृश्य हैं । मनुष्य का शरीर, पशु-पक्षियों का शरीर ये सब पृथ्वी हैं । कभी जल में बास आने लगती है, सड़ गया जल, गंध आती है तो वह गंधजल की नहीं है, किंतु उस जल से जो और पृथ्वी मिली हुई है वह सड़ गयी है उसकी गंध है। व्यवस्था अपनी सीमा में यह भी अच्छी है ।
भौतिकवाद में जल, अग्नि, वायु तत्त्व का लक्षण―जल का लक्षण है जिसमें रस हो ।किसी पृथ्वी का टुकड़ा खाकर, फल वनस्पति खाकर रस का स्वाद आता है तो जो रस है वहतो जल है और जिसमें गंध है वह पृथ्वी है । अग्नि तत्त्व में रूप रहता है । जो रूप है वह अग्नि तत्त्व चीज है और वायु में स्पर्श रहता है । जिसमें स्पर्श हो वह वायु है । सब कुछ दृश्य और अदृश्य इन चारों में गर्भित हैं―पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु । और इसी कारण दुनिया में केवल चार ही तत्व हैं, 5वीं चीज कुछ नहीं है ।
भौतिकवाद में प्रयोजन―यह चार्वाक या चारुवाक दर्शन की चीज चल रही है । चारु मायने मीठा, वाक मायने बोलना, जो बहुत मीठा बोले उसका नाम चारुवाक है । भला बतलावो ये वचन किसे पसंद न होंगे? जहाँ कहा कि दुनिया में केवल 4 चीजें हैं―पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु । जीव, आत्मा कुछ नहीं है । ये चारों मिलकर एक ऐसी बिजली चलती है कि इसमें जानने जैसी कला आ जाती है, और जब यह बिखर जायेंगे तब वह भी कुछ न रहेगा । इसलिए जब तक यह जीवपना है तब तक खूब खावो, पीवो, चाहे कर्जा भी लेना पड़े, खाने-पीने में कसर न रखो, खूब आराम भोगो । खूब इस शरीर को पुष्ट करो, खूब मौज करो ।ऐसी बातें आप लोगों को सुहाती हैं कि नहीं? शायद न सुहाती हों, पर जिन्हें ये वचन सुनावेंगे उन्हें बड़े प्रिय लगेंगे । तो ऐसे सुंदर मीठा बोलने वाले को चारुवाक कहते हैं । लेकिन तर्क शास्त्र पर जरा कसकर तो निरखो ।
जाति की लक्षणपद्धति―जाति का लक्षण वही सही है जहाँ जो लक्षण अपनी समग्रजाति की व्यक्तियों में तो रहे और उसके अतिरिक्त अन्य में न रहे । क्या कोई सदृशता ऐसी है जो इन चारों में पायी जाये । एक तो यह खोज कीजिए । दूसरे यह देखिये कि पृथ्वी, जल तो नहीं बन जाता, कभी जल वायु तो नहीं बन जाता, कभी वायु जल तो नहीं बन जाता, कभी पृथ्वी आग तो नहीं बन जाती । अगर बन जाये तो फिर ये चारों अलग-अलग जाति के नहीं ठहरे ।जो पदार्थ जिस तत्त्व में है वह पदार्थ कभी भी अपनी जाति को छोड़कर अन्य रूप नहीं बन सकता । लेकिन दिखने में तो यह सब कुछ आ रहा है । पृथ्वी आग बन जाती है, जल हवा बन जाता, हवा पानी बन जाती । इस कारण चारों स्वतंत्र तत्त्व नहीं हैं । वर्तमान सीमा के लिए तो किसी को भी जाति बना सकते । गेहूं भी पचासों जाति के होते हैं । मनुष्य भी हजारों जाति के होते हैं । अपनी सीमा में अपने प्रयोजन के लिए जाति का कुछ भी लक्षण बना लो संकुचित लेकिन मूल जाति, मूल लक्षण तो नहीं होगा जो सबमें व्यापे और उन्हें छोड़कर अन्य में न व्यापे । और साथ ही उन व्यक्तियों में अपने आप में अदल-बदल तो हो जाये, मगर अन्य से अदल-बदल न करे । जाति का मूल लक्षण ऐसा ही होगा ।
पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु के काय की पौद्गलिकता―ये चारों के चारों रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले हैं । ऐसा नहीं है कि पृथ्वी में केवल गंध हो, जल में केवल रस हो, अग्नि में केवल रूप हो और वायु में केवल स्पर्श हो । यद्यपि शीघ्रता से जो कुछ ग्रहण में आता है वह इस ही प्रकार प्राय: आता है, लेकिन पृथ्वी में गंध के अलावा स्पर्श भी नजर आता है, रस और रूप भी नजर आता है । जिसमें प्रत्यक्ष से दूसरा कोई नहीं ज्ञात होता है वहाँ भी शेष गुण हैं । हवा में स्पर्श है तो रूप, रस और गंध भी है । अग्नि में रूप है तो रस, गंध और स्पर्श भी है । जल में रस है तो गंध, रूप, स्पर्श भी है । जहाँ इन चारों गुणों में से एक भी गुण पाया जाये वहाँ चार ही रहते हैं । ये चारों चीजें एक पुद्गल जाति में गर्भित होती हैं । पुद्गल का यह लक्षण है कि जो मिलकर बड़ा हो जाये और बिखरकर हल्का हो जाये उसे पुद्गल कहते हैं, देखो यह लक्षण इन चारों में घटित हो जाता है । पृथ्वी के स्कंध भी मिलकर बड़े हो जाते हैं और बिखरकर सूक्ष्म हो जाते हैं, ऐसे ही जल, अग्नि और वायु में भी वही पद्धति है । ये चारों पुद्गल जाति में हैं और इसी कारण जल वायु बने, वायु जल का रूप रख ले, ये सब परिवर्तन हो सकते हैं । जाति के जाति में परिवर्तन हुआ करते हैं, विजातीय रूप से परिवर्तन नहीं होता । यों ये सब एक पुद्गल जाति में आते हैं ।
पृथिव्यादि तत्त्वों का परस्पर व्यक्तिपरिर्तन―एक अनाज जौ होता है, उससे बहुत हवा बनती है । यद्यपि वह पशुवों के खाने की चीज है, पर बहुत से मनुष्य भी उसे खाते हैं ।वह जो चार्वाकदर्शन में पृथ्वी है । जौ खा लेने पर हवा बहुत बनती है और हवा खिरती भी है । पेट में गुड़गुड़ाहट हो नीचे ऊपर पेट में आवे जावे तब यह मनुष्य उसमें पीड़ा मानता है ।वह वायु खिरती है, तो उस जौ के दाने में यदि स्पर्श न होता तो उस दाने में कभी यह वायु के रूप में यह स्पर्श न आ सकता था याने जो वायु न बन पाती । जंगल में बांस खड़े रहते हैं, उनकी रगड़ से स्वयं ही उनमें आग पैदा हो जाती है । तो उनमें यदि रूप तत्त्व न होता, अग्नितत्त्व न भरा होता तो यह अग्नि कहाँ से प्रकट होती? चंद्रकांतमणि से जल ढलने लगता है और आज के वैज्ञानिक तो जल से हवा, हवा से जल यह प्रकट आविष्कृत कर दिया करते हैं तो ये जातियां स्वतंत्र नहीं हैं ।
जीवतत्त्व की महाभूतों से विभक्तता―अब जीवतत्त्व पर दृष्टि दो तो विदित हो जायेगा कि यह जीव इन चारों के संघर्ष से उत्पन्न नहीं होता है । ये चारों ज्ञानरहित हैं । ज्ञानरहित4 क्या अनंत जुड़ जायें तो भी ज्ञानरहित अनंत के प्रयोग से ज्ञान वाली वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती । यह ज्ञान वाली वस्तु, जीवतत्त्व इन चारों से पृथक् है ।
अजीवों में पुद्गलद्रव्य के प्रथम वर्णन का प्रयोजन―इन अजीव पदार्थों में सर्वप्रथम वर्णन पुद्गलद्रव्य का इसलिए करते हैं कि हम आपकी पहिचान अधिकतर पुद्गल के साथ है । धर्म, अधर्म आदिक के तो कोई नाम भी नहीं जानते होंगे । कुछ ही लोग समझते हैं । आकाश, काल की तो चर्चा ही क्या करें? इनसे कुछ सुधार बिगाड़ नहीं होता । हमारा काम तो सब पुद्गल के आश्रय से चल रहा है और इस समय जितना सुख अथवा दुःख माना है वह सब पुद्गलद्रव्य के कारण माना है । पुद्गलद्रव्य के आलंबन से जितने भी परिणमन होते हैं वे सब क्लेशरूप होते हैं । उस क्लेशरूप परिणमन के कल्पनावश दो भाग कर दिए हैं―एक सुख और एक दुःख । दोनों ही वस्तुत: क्लेश हैं । वह सुख क्या सुख है जिसके बाद फिर दुःख हो? अज्ञानी लोग मोह में राग में बँधे पड़े हैं और कुछ विषयों के साधन पुण्यानुकूल मिल गए हैं तो उनमें मस्त हो रहे हैं, अपना बड़प्पन महसूस करते हैं । परवस्तुवों के प्रति व्यामोह करके अपने को लोग सुखी मानते है, किंतु इस सुख के बाद एकदम अचानक विपरीत दशा आयेगी । उसमें यह बड़ा दुःख अनुभव करेगा और जितना सुख माना था उससे कई गुणा दुःखी होना पड़ेगा । इस सुख के फल में निकट भविष्य में दुःखी होंगे नियम से और भविष्य में दुःखी होंगे, इतनी ही बात नहीं किंतु वर्तमान में भी जब यह मोही सुख अनुभव कर रहा है तो वह क्षोभ परिणाम को लिए हुए रहा करता है । यह क्षोभ ही क्लेश है । तो हमारे सुधार बिगाड़ में इन पुद्गलों का संबंध और असंबंध कारण पड़ता है, इस कारण जीवतत्त्व के बाद पुद्गलद्रव्य का वर्णन किया जाता है ।
कायप्रकारों के वर्णन का प्रयोजन तात्कालिक भेदप्रदर्शन―जाति अपेक्षा चारुवाकों ने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ये चार भेद किए हैं । उस दृष्टि से काय के भेद किए जायें तो6 होते हैं―पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । पृथ्वी से जैसे जल, अग्नि वायु नहीं मिलते जुलते हैं, इनका भेद प्रकट नजर आता है ऐसे ही त्रसकाय और वनस्पतिकाय का भी प्रकट भेद नजर आ रहा है । क्या पेड़ का शरीर व हमारा शरीर एक ही प्रकार का है? उनमें फर्क है, अंगोपांग का फर्क है, कोमल नरम का फर्क है, इसमें हड्डी है उसमें नहीं । अनेक तरह के भेद हैं । तो इस दृष्टि से ये 6 भेद हुआ करते हैं ।और यदि मिलाना है एक मानना है तो एक मानने के भी अनेक उपाय बन सकते हैं और वैसे तो ऐसा निरखने लगो कि यह आदमी उल्टा पेड़ है । पेड़ों में ऊपर शाखायें होती हैं और नीचे जड़ें होती हैं । पेड़ नीचे की जड़ों से जल हवा इत्यादि खींचकर आहार करते हैं और इस मनुष्य की शाखायें ये पैर और हाथ हैं और यह शिर जड़ हैं । इस जड़ से अर्थात् मुख से अन्नजल का आहार करता है । तो किसी को किसी में मिलाना है, एक करना है तो चलो पेड़ को और आदमी को भी एक किया जा सकता है । फर्क इतना है कि पेड़ सीधा है और आदमी उल्टा है तो यों अटपट कुछ एकता करने की बात और है, पर सही-सही मायने में विवेकपूर्वक भेद किया जाये तो मूल तो सब पुद्गल हैं । ये छहों काय सभी पुद्गल हैं, पर इनका परस्पर में तात्कालिक भेद समझ में आये उस दृष्टि से ये 6 भेद हैं ।
पुद्गल के पिंडरूप में प्रकार―ये पुद्गल कभी स्कंधरूप से परिणमते हैं और कभी स्कंध देश पर्याय से परिणमते हैं, कभी स्कंध प्रदेश पर्याय से परिणमते हैं और कभी परमाणुरूप से ही इस लोक में ठहरा करते हैं, इन चार विकल्पों के सिवाय अन्य गति पुद्गल काय की नहीं है । भेद करने के कुछ प्रयोजन हुआ करते हैं । और जो प्रयोजन रखकर भेद किया जाता है उसके अनुसार भेद होता है । यह प्रयोजन केवल पुद्गल द्रव्य से अपने को हटाने और आत्मतत्त्व में लगने का है । हटाने की बात सीधी एक व्यक्ति व पिंडरूप से हुआ करती है । हटने का जब लक्ष्य होता है तो जिससे हटना है उसे पिंडरूप में, व्यक्तिरूप में निरखा जाता है । हटोजी, इसे हटावो । कोई चीज बेस्वाद की बन गयी है, मानो खीर कड़वी हो गयी है, विरस हो गई है इस कारण से वह अनिष्ट हो गयी । मगर जिस समय कोई उसके प्रति यों बोलता है कि इसे हटावो, तो उस समूचे को पिंडरूप में निरखकर कहता है । यद्यपि प्रयोजन विरसता का है मगर क्या यों कहते हैं कि इसकी विरसता हटावो । वह तो समूचे उस पिंड को ही कहता है कि इसे हटावो । तो पुद्गलद्रव्य से हमें हटना है तब हम वहाँ एक पिंडरूप से तक रहे हैं । इस कारण ये चार भेद पिंड के भेद से किये गए हैं । जो पूर्ण पिंड है वह स्कंध है और जो उसका आधा है वह स्कंधदेश है । उसका आधा बने तो स्कंध प्रदेश है । अब इसके बीच में भी उन्हें समझ लो और एकप्रदेशी परमाणुमात्र रह जाये तो वह परमाणु कहलाता है ।
परमाणु में द्रव्यत्व की यथार्थता―यद्यपि वस्तुत: एक परमाणु ही पुद्गलद्रव्य है, क्योंकि एक कहते उसे हैं जिसमें कोई भी परिणमन जिस पूरे में होना ही पड़े और जिससे बाहर कभी न हो, वह एक चीज होती है । जैसे कोई कपड़े का एक छोर जल रहा है, बाकी अभी नहीं जल रहा है तो वह कपड़ा एक नहीं है । एक वही होता है कि उस ही समय में वह परिणमन जितने पूरे में होना ही पड़ता है । इस दृष्टि से एक पुद्गल परमाणु ही वास्तव में द्रव्य है । जो कुछ भी होगा वह उस ही समय में पूरे में होगा ही । जैसे कि आत्मा एकप्रदेशी है, हम आप सब एक-एक हैं, किंतु जब विचार सुख दुःख राग ज्ञान जो कुछ भी परिणमन होता है उस काल में वह परिणमन इस पूरे समग्र आत्मा में होता है और इससे बाहर कहीं अन्य जगह नहीं होता । ऐसे ही इस पुद्गल में परिणमन जहाँ ही पूरा हो और जिससे बाहर कभी न हो वह एक है । यों वस्तुतः पुद्गलद्रव्य तो परमाणु ही है, किंतु जो पूरे और गले अर्थात् जिसमें पूरण और गलन का स्वभाव है उसे पुद्गल कहते हैं । इस पुद्गलत्व को दृष्टि में रखकर ये सभी स्कंध पुद्गल कहलाते हैं और इसे उपचार से पुद्गल कहा जाता है । जीवों में ऐसा नहीं होता कि कई जीव मिलकर एक बन जाये । अन्य द्रव्य में भी ऐसा नहीं होता कि वे बहुत से मिलकर एक बन जायें, किंतु पुद्गल में यह बात पायी जाती है कि वे बहुत से मिलकर एक पिंड बन जाते हैं । यों पिंड की दृष्टि से ये चार प्रकार के विकल्प किए गये ।
पौद्गलिक प्रकरण से प्राप्तव्य शिक्षा―इस प्रकरण को पढ़कर हमें इतनी शिक्षा लेनी है कि ये सभी तत्त्व पुद्गल हेय हैं । उपादेयभूत अनंत आनंदमय शुद्ध जीवास्तिकाय से इन सबका विलक्षण स्वरूप है, इनसे मेरा हित नहीं, ये सब पृथक् हैं, ऐसा जानकर उनकी उपेक्षा करके एक निज शुद्ध जीवास्तिकाय में उपयोग लगाना चाहिए और यह उपयोग लग सकेगा शुद्ध जाननमात्र स्वरूप को उपयोग में लगाने से । हम इन पुद्गलद्रव्यों की उपेक्षा करें और ज्ञानमात्र निज जीवास्तिकाय में उपयोगी बनें ।