वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-22
From जैनकोष
पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ।। 4-22 ।।
वैमानिक देवों में लेश्या का विवरण―स्वर्गों में और स्वर्गों से ऊपर के विमानों में रहने वाले वैमानिक देवों में कैसी लेश्यायें होती हैं इसका वर्णन इस सूत्र में है । सूत्र का अर्थ है कि तीन दो-दो कल्पों में, और ऊपर के शेष सब विमानों में पीत लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्यायें होती हैं, सामान्यतया अर्थ यह हुआ कि सौधर्म ईशान यह एक कल्प युगल है । सानत कुमार माहेंद्र यह दूसरा कल्प युगल है इन कल्पों में पीत लेश्या होती है । इसके ऊपर ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ यह एक कल्पयुगल है और शुक्र, महाशुक्र शतार और सहस्रार यह दूसरा कल्प युगल है, इनमें पद्म लेश्या होती है । आनत, प्राणत यह पहला कल्प युगल है और आरण अच्युत यह दूसरा कल्प युगल है, इनमें शुक्ल लेश्या होती है । इसके ऊपर तीन नीचे के ग्रैवेयकों में 3 मध्य के ग्रैवेयकों में और 3 ऊपर के ग्रैवेयकों में शुक्ल लेश्या होती है । इसके ऊपर जो और शेष रहे 9 अनुदिश 5 अनुत्तर इन विमानों में शुक्ल लेश्या होती है ।
प्रकृत सूत्र का इस स्थल में औचित्य―शंकाकार कहता है कि यह सूत्र तो वहाँ ही कह जाना था जहाँ कि भवनवासी व्यंतर और ज्योतिषी इन तीन निकाय के देवों में लेश्यायें बतायी गई थीं । वह सूत्र है―आदितस्त्रिषु पीताँतलेश्या सो इस ही सूत्र के बाद यह सूत्र जोड़ देते । तो फिर अलग से यह सूत्र नहीं कहना पड़ता । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि यदि इस सूत्र को उस पहले सूत्र के साथ जोड़ दिया जाता तो इसका भाव स्पष्ट कहने के लिये और जानने के लिये कि अब सौधर्म आदिक के देवों की लेश्यायें बतायी जा रही हैं, सो सौधर्म आदिक शब्दों को वहाँ ग्रहण कहना पड़ता और फिर सूत्र बड़ा हो जाता । और यदि सौधर्म आदिक शब्दों को न कहते तो इसका अर्थ स्पष्ट न रहता । अच्छा यहाँ सूत्र कहना क्यों ठीक है? देखो यह वैमानिक देवों के वर्णन का प्रकरण ही है । जहाँ वैमानिका: यह सूत्र आया था उसके बाद जो भी कथन हो रहा है वह सब वैमानिक देवों के विषय में कथन हो रहा है इस कारण सौधर्मादिक शब्द के ग्रहण की जरूरत नहीं पड़ रही है । अत: यह सूत्र यहाँ ही कहना उचित रहा है ।
प्रकृत सूत्रगत पदों का अर्थ―इस सूत्र में दो पद हैं । प्रथम पद में द्वंद्व समास पूर्वक बहुब्रीहि समास किया गया है जिससे प्रथम पद का अर्थ यह होता है कि पीत पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्यायें जिनमें हैं ऐसे ये देव हैं । पीत पद्म शुक्ल इन तीन शब्दों में तो द्वंद्व समास हुआ और समास होने के पूर्व लेश्या के विशेषण में मूल शब्द था पीता पद्मा व शुक्ला । सो द्वंद्व समाहार समास होने से आकार की जगह अकार हो गया । यहाँ दूसरा पद है दुत्रिशेषेषु, यह आधार को बताता है कि किस जगह के रहने वाले देवों में ये लेश्यायें होती हैं । सामान्यतया अर्थ है, दो-दो कल्प, तीन बार और शेष देवों में अथवा तीन दो-दो कल्पों में जिससे ध्वनित होता है 12 कल्पों में याने एक बार दो-दो कल्पों में पीत लेश्या है, इसके बाद दूसरी बार दो-दो कल्पों में पद्म लेश्या है, इसके बाद दो-दो कल्पों में शुक्ल लेश्या है तथा कल्पों से ऊपर के सभी स्थानों के देवों में शुक्ल लेश्या होती है ।
द्वित्रिशेषेषु पद से ध्वनित अर्थ―यहाँ शंकाकार कहता है कि इस दूसरे पद को बदलकर ‘‘चतु: शेषेषु’’ यह पद रखना चाहिये था जिसका सीधा अर्थ है कि चार-चार कल्पों में और शेषों में शुक्ल लेश्या होती है । सो पहले भी यह ही बताया गया था कि चार-चार कल्पों में ये लेश्यायें बंटी हैं, स्पष्ट अर्थ भी बन जाता । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि यहाँ चतुशेषेषु न कहकर द्वित्रिशेषेषु कहने से कुछ विशिष्ट अर्थ का बोध होता है, चतुःशेषेषु कहने से अर्थ सामान्य रहता है और और द्वित्रिशेषेषु कहने से अर्थ में यह विशेषता आती है कि सौधर्म और ईशान के देवों में पीत लेश्या है और सानतकुमार और माहेंद्र के देवों में पीत एवं पद्म लेश्या है । यद्यपि सामान्य कथन में इन चार स्वर्गों में पीत लेश्या कही गयी है पर चार कल्प एक बार में न कहकर दो-दो कल्प कहने से यह अर्थ ध्वनित हुआ कि ऊपर के दो कल्पों में कुछ आगे की भी विशुद्ध लेश्यायें होती हैं, इसी प्रकार ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव कापिष्ठ इन दो कल्पों में पद्म लेश्या है और शुक्र, महाशुक्र शतार सहस्रार इन दो कल्पों में पद्म और शुक्ल लेश्या है । यदि चतुशेषेषु कहते तो आगे की विशुद्ध लेश्या ग्रहण न हो सकती थी और इसके बाद भी यह विशेषता साबित होती है कि अंत के दो-दो कल्पों में याने चार कल्पों में शुक्ल लेश्या होती है, तो इससे ऊपर के वैमानिकों में परम शुक्ल लेश्या होती है । कोई यह जिज्ञासा कर सकता है कि ऐसी मिश्रता की बात सूत्र में तो स्पष्ट है नहीं, फिर कैसे लगा ली गई? तो उत्तर यह है कि लोक में शब्द व्यवहार ऐसा ही देखा जाता है । जैसे कुछ थोड़ी सी वर्षा हो रही हो और वहाँ एक समूह छाता लगाकर जा रहा हो, मानो 50 पुरुष जा रहे हैं जिनमें 40 लोग अपनी-अपनी छतरी लगाये हैं, तो उन 50 लोगों के प्रति ऐसा लोक व्यवहार होता है कि लोग कहते हैं कि ये सब छाते वाले जा रहे हैं तो ऐसे ही जैसे पहले के चार स्वर्गों में पीत लेश्या कहा है तो उससे यह अर्थ बना कि पहले दो स्वर्गों में तो पीत लेश्या ही है, पर जो स्वर्ग पद्म लेश्या वाले स्वर्गों के नीचे है उनमें किसी के पद्म लेश्या भी पायी जाती है, और ऐसे निकट वाले देवों में विशुद्ध लेश्या का संग जोड़ना चतु:शेषेषु ऐसा पद बनाने पर नहीं बना सकते थे क्योंकि वहाँ अनिष्ट अर्थ हो जाता है । दो आदिक शब्द दुहरे अर्थ के बोधक होते हैं, जैसे किसी मनुष्य के प्रति कहा जाये कि यह मनुष्य दो बार भोजन करता है तो उसका अर्थ कहीं यह नहीं लगता कि यह जिंदगी में दो बार भोजन करता है । उसका अर्थ यों लगता है कि दिन-दिन में रोज-रोज यह दो बार भोजन करता है । तो ऐसे ही दो-दो में लेश्यायें बतायी हैं―तीन बार तो उसका अर्थ चार-चार कल्प हो ही जाता है ।
लेश्याओं के संक्रमण का संकेत―लेश्या के प्रकरण में छहों लेश्याओं के जो नाम हैं, उस नाम रूप के अनुसार इन लेश्याओं का सामान्य रूप से अर्थ ज्ञान हो जाता है―जैसे कृष्ण लेश्या का अर्थ है कि भवरे आदिक कृष्ण रंग वाले देहियों के वर्ण की तरह जहाँ खोटे भावों की छाया रहती है वह कृष्ण लेश्या कहलाती है । शरीर पर ऐसा रंग हो तो वह द्रव्य लेश्या कहलाती है और परिणामों में इस जाति का खोटा भाव हो तो वह भाव लेश्या कहलाती है । इन लेश्याओं के अनंत भेद हो सकते हैं―क्योंकि कृष्णता की डिग्रियों में दो डिग्री को कृष्णता, तीन डिग्री की कृष्णता यों चलते-चलते असंख्यात डिग्रियों की कृष्णता है और ऐसी कृष्णता के योग से कृष्ण लेश्या के अनगिनते भेद हो जाते हैं । तो बाह्य द्रव्य लेश्या की दृष्टि से तो अनंत प्रकार के हैं और भीतरी परिणामों की दृष्टि से असंख्यात लोक प्रमाण, आत्म प्रदेशों के परिमाण बराबर असंख्यात प्रकार की भाव लेश्यायें हो जाती हैं । इन लेश्याओं में परिवर्तन भी होता है, कोई कृष्ण लेश्या वाले जीव नील लेश्या में भी पहुँच जाते हैं । ये नील लेश्या वाले जीव आगे की लेश्याओं में अथवा कृष्ण लेश्या में पहुँच सकते । कृष्ण लेश्या के उत्कृष्ट अंश का और खोटी जगह परिवर्तन नहीं होता क्योंकि कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट अंश, शब्द अधिक खोटा का वाचक का है, ऐसे ही शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंश का और अधिक विशुद्धि में परिणमन नहीं होता क्योंकि शुभ लेश्या का उत्कृष्ट अंश खुद ही उत्कृष्ट विशुद्धि है । अशुभ लेश्याओं में यदि हल्की लेश्या में परिवर्तन हो तो वह संक्लेश की कमी में होता है । यदि अधिक खोटी लेश्या में परिवर्तन हो तो वह संक्लेश की वृद्धि में होता है । उन समस्त अंशों को संक्षेप रूप में तीन में शामिल कर लीजिये―जघन्य अंश, मध्यम अंश और उत्कृष्ट अंश । इसी प्रकार जो तीन शुभ लेश्यायें हैं पीत लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या इनमें उत्तरोत्तर शुभ की ओर परिवर्तन तो विशुद्धि की बढ़वारी से होता है और पूर्व में परिवर्तन अर्थात् शुक्ल लेश्या पीत में पलट जाये, पीत लेश्या पद्म में आ जाये तो यह विशुद्धि की कमी से होता है । कृष्ण लेश्या का जो पहला संक्लेश स्थान है, उससे और बढ़कर कृष्ण लेश्या जगे तो संख्यात असंख्यात अनेक अंशों में संक्लेश बढ़ने से परिवर्तन होता है । कृष्ण लेश्या से घटकर कृष्ण लेश्या ही बनी रहे ऐसी घटना के अनेक अंश कृष्ण लेश्या में हैं । कृष्ण से नील में आये तो उसमें अधिक अंशों में संक्लेश की हानि चाहिये और तब वह नील लेश्या के उत्कृष्ट स्थान में आता है ।
लेश्याओं का उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण―इन लेश्याओं को एक उदाहरण में समझिये कि जैसे कोई 6 पुरुष कहीं मुसाफिरी कर रहे थे । रास्ते में उन्हें कोई पके हुये आमों का पेड़ मिला । तो आम खाने की इच्छा उन छहों के जगी । उनकी इच्छा का तारतम्य ऐसा था कि एक पुरुष तो यह चाहता था कि इस आम के वृक्ष को जड़ से ही काटकर गिरा दें, पीछे मनमाने फल खायें, दूसरे पुरुष के मन में यह इच्छा बनी कि मूल से गिराने से क्या फायदा, तने के ऊपर की एक मोटी शाखा को ही गिरा दें तो उसके ही फल खाने के लिये बहुत होंगे, उन्हें खा लेंगे । तो तीसरे पुरुष के मन में यह इच्छा बनी कि इस बड़ी शाखा को गिराने से क्या लाभ, जो इसमें अन्य शाखायें हैं उनमें से एक शाखा को काटकर गिरा दें फिर मनमाने फल खायें चौथे पुरुष के यह इच्छा बनी कि इन शाखा प्रशाखाओं के गिराने से क्या लाभ, उनमें से किसी शाखा की टहनी तोड़ लें, इतने से फलों से ही पेट भर जायेगा । तो 5वें पुरुष के मन में यह इच्छा बनी कि उन टहनियों के तोड़ने से भी क्या लाभ? इन गुच्छों में जो पके-पके फल हैं केवल उनको ही तोड़ा जाये और खाया जाये । तो छठे पुरुष के यह इच्छा हुई कि पेड़ पर चढ़ने या फल तोड़ने से क्या फायदा? यहाँ जमीन में ही इतने पके फल पड़े हैं कि जिनको खाने से ही पेट भर सकता है । तो उन छहों पुरुषों के विकट इच्छा बनी सो जैसे उन इच्छाओं का जैसे तारतम्य है, परिणामों में । अशुभपना है ऐसे ही कृष्ण आदिक लेश्याओं में तारतम्य पाया जाता है । कृष्ण लेश्या वाला बड़ा प्रचंड क्रोधी होता है जो किसी भी प्राणी को मारना, बरबाद करना, ऐसा प्रयत्न कृष्ण लेश्या वाले के होता है, उससे कम खोटापन नील में है उससे कम खोटापन कापोत लेश्या में है । और जब खोटापन नहीं रहता, भावों में दया, दान, पूजा विनय भक्ति आदिक होती है तो वहाँ पीत लेश्या बनती है और उससे भी और विशुद्ध परिणाम होने में पद्म लेश्या और उससे भी अधिक विशुद्ध होने पर शुक्ल लेश्या होती है ।
लेश्याओं के छब्बीस अंशों में आयु बंध के व गति बंध के अंशों का संकेत―लेश्याओं के सब 26 अंश होते हैं । जैसे प्रसिद्ध 18 अंश हैं । एक-एक लेश्या में जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट अंश होते हैं, पर खोटी लेश्या के उत्कृष्ट अंश के करीब भी और भेद पड़ते हैं―आयु बंध न होने की अपेक्षा, ऐसे ही शुक्ल लेश्या के भी उत्कृष्ट अंशों के करीब और ऐसे स्थान हैं जो आयु बध होवे और न बंध होवे इन विशेषताओं से बढ़ जाता है । इन सब 26 अंशों में से बीच के 8 अंश तो आयु बंध के कारण होते हैं और शेष अंश उन-उन गतियों के बंध के कारण होते हैं । पुण्य, पाप कर्मों की ऐसी ही एक खूबी है, जिससे कि ऐसी भिन्न-भिन्न गतियों की और आयु के बंध के परिणाम निमित्त कारण होते हैं, शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंश में मरण हो तो वह सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होता है । कृष्ण लेश्या के उत्कृष्ट अंश से मरण हो तो वह सप्तम नरक में जन्म लेता है । शेष के अंशों में मरण होने पर नाना प्रकार की भिन्न-भिन्न दशाओं में जन्म होता है । इन लेश्याओं के आधार से संख्या क्षेत्र स्पर्शन, काल, अंतर भाव, अल्प बहुत्व आदिक विधियों से अनेक प्रकार के भेद समझे जाते है ।