वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-27
From जैनकोष
औपपादिक मनुष्येभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय: ।। 4-27 ।।
तिर्यंचों का परिचय व देवों के परिचय के बाद तिर्यंचों का परिचय कराने वाले प्रकृता सूत्र का इस प्रकरण में कहे जाने का प्रयोजन―औपादिक जीव और मनुष्य इनके सिवाय शेष जीव तिर्यन्च कहलाते हैं । सूत्र का यह सामान्य अर्थ हुआ । इस सूत्र से पहले वैमानिक देवों का प्रकरण था । इस अध्याय के प्रारंभ से ही देवों का प्रकरण चला आ रहा था । उसकी समाप्ति के बाद क्योंकि यहाँ तक नारकी देव और मनुष्यों का विशेष वर्णन चला था तीसरे और चौथे अध्याय में, तो अवशेष तिर्यन्च बचे, उनका यहाँ परिचय दिया गया है । शंका यहां यह हो सकती है कि तिर्यन्चों का भी थोड़ा प्रकरण चला था पहले । उस ही प्रकरण में इस सूत्र को कह देते याने तिर्यन्च का वर्णन कर देते, वहाँ वर्णन क्यों नहीं किया गया? तो समाधान इसका यह है कि यदि इस सूत्र को अर्थात तिर्यन्चों का परिचय यदि पहले तिर्यंचों के प्रकरण में दिया जाता तो सभी तिर्यन्चों के नाम लेने पड़ते कि कौन-कौन तिर्यन्च कहलाते हैं । और जब देव नारकी मनुष्यों का वर्णन हो चुका तब थोड़े से ही अक्षरों में इस सूत्र ने बता दिया कि इन तीन गति के जीवों को छोड़कर बाकी सब संसारी जीव तिर्यन्च कहलाते हैं ।
तीन लोकों के वर्णन के बाद तिर्यंचों का परिचय कराने का कारण―उक्त वृत्त के अतिरिक्त एक यह भी भाव भरा हुआ है कि जब अधोलोक, मनुष्यलोक और अर्द्धलोक का खूब वर्णन किया जा चुका और उसके बाद तिर्यन्च का भी परिचय कराया जा रहा है तो यह भी ज्ञान में आ जाये कि तिर्यन्च समस्त लोक में भरे पड़े हैं, इस लोक का कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं क्या कि जहाँ तिर्यन्च जीव न पाये जाते हो । तिर्यन्च होते हैं दो प्रकार के (1) सूक्ष्म और, (2) वादर । सूक्ष्म नामकर्म का उदय होने पर सूक्ष्म देह वाले तिर्यन्च होते हैं, वादर नामकर्म का उदय होने पर ये वादर शरीर वाले होते हैं । तों उनमें सूक्ष्म तिर्यन्च तो समस्त लोक में रहा करते हैं, परंतु बादर तिर्यन्चों का आवास नियत है । हरी वनस्पति में रहें, मनुष्य आदिक के शरीर में रहें, उनके आश्रय से रहा करते हैं तो ये सूक्ष्म तिर्यन्च समस्त लोक में भरे पड़े हैं, यह बात भी यहाँ तिर्यन्च परिचय में सिद्ध हो जाती है ।
सूत्रगत तीनों पदों की सार्थकता का वर्णन―व्याकरण विधि से यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि इस सूत्र में जो तीन पद कहे हैं उनके प्रथम पद में दो शब्द दिये हैं । औपपादिक और मनुष्य और इनका द्वंद्व समास भी हुआ है । इस समास में दो शब्द हैं उनमें थोड़े अक्षर मनुष्य शब्द में पाये गये । औपपादिक शब्द में अक्षर अधिक हैं । तो द्वंद्व समास विधि के अनुसार अल्प अक्षर वाला मनष्य शब्द पहले आना चाहिये । इसे पहले क्यों नहीं दिया गया? तो उत्तर इसका यह है कि लौकिक दृष्टि से मनुष्यों की अपेक्षा औपपादिक जो देव हैं वह आदरणीय है, अभ्यर्हित है । उसके कारण अल्प अक्षर का उल्लंघन करके औपपादिक शब्द पहले दिया गया हैं । इस सूत्र में दूसरा पद है शेषा: अर्थात् औपपादिक और मनुष्यों को छोड़कर शेष जीव । तो इस शेष में सिद्ध भी आ जाना चाहिए, और इस तरह सिद्ध तिर्यन्च बन जायेंगे । समाधान इसका बिल्कुल स्पष्ट है कि यह सब संसारी जीवों का प्रकरण चल रहा है, इस कारण इस शेष शब्द से शेष के संसारी जीव ही लिये जायेंगे । इस प्रकरण में सिद्ध का कोई प्रसंग नहीं आता । इस सूत्र में तीसरा पद दिया गया है तिर्यग्योनय: अर्थात् तिर्यन्च योनि वाले याने तिर्यंचों में जिनकी उत्पत्ति होती है, तिर्यन्चों की जो स्थिति है उनका जो लक्षण है उस ढंग में जो पैदा होत हैं वे तिर्यन्च कहलाते है । कर्मोदय से जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो याने बोझा ढोने योग्य हों नीचे रहें वे तिर्यन्च योनि हैं । कोई ऐसा सोच सकते हैं कि जो मनुष्य बोझा ढोकर चलते हैं या स्वयं पैदल रिक्शा खींचकर चलते हैं ऐसे मनुष्यों को तिर्यन्च कहना चाहिये, क्योंकि वे भी दूसरों के द्वारा बोझा ढोये जाने वाले बनते हैं । समाधान―यह शंका अत्यंत निर्मूल है, यह विवक्षा है तिर्यन्च नामकर्म का उदय होने पर जो ऐसी योनियां मिलती हैं वे तिर्यन्च कहलाते हैं । मनुष्यों के तो मनुष्य गति नामकर्म का उदय है, वे मनुष्य ही कहलायेंगे, इस प्रकार इस सूत्र में जो बात कहने को शेष रह गयी थी याने तिर्यन्चों का परिचय कराने की बात शेष रह गयी थी, उसका परिचय कराया गया है ।