वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-31
From जैनकोष
त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशभिरधिकानि तु ।। 4-31 ।।
ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक 10 सागर की होती है । लांतव, कापिष्ठ स्वर्ग के देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक 14 सागर की होती है । शुक्र महाशुक्र स्वर्ग के देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक 16 सागर की होती है । शतार सहस्रार स्वर्ग के देवों की आयु उत्कृष्ट से उत्कृष्ट कुछ अधिक 18 सागर की होती है । आनत और प्राणत स्वर्ग के देवों की उत्कृष्ट स्थिति 20 सागर की होती है । यहाँ इससे अधिक की स्थिति नहीं होती है । कारण यह है कि व्रती मनुष्य इन स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं । इससे पहले अनेक प्रकार के संन्यासी, श्रावक व्रत व महाव्रत से रहित भी उत्पन्न हो लेते थे । तो यहाँ की स्थिति जो पुरुष बाँधता है उसकी इस ही योग्य स्थिति रहती है । छेद नहीं होता है । आरण और अच्युत स्वर्ग में 22 सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति होती है । इस सूत्र में 3 पद हैं । प्रथम पद में तो 7 सागर में जितना-जितना मिलकर उत्कृष्ट स्थिति बताई गई है उन संख्याओं का निर्देश है । जैसे 3 अधिक 7, 7 अधिक 7, 9 अधिक 7 आदि मिलाते जायें । दूसरे पद से कह अर्थ ध्वनित हुआ कि 7 सागर में इतनी अधिक मिलान होती है । और तीसरा पद है तु अव्यय, वह इस बात को घोषित करता है कि 12 स्वर्ग तक ही कुछ अधिक उत्कृष्ट स्थिति होती है । जो उत्कृष्ट स्थिति बताई गई है उससे कुछ अधिक होना 12वें स्वर्ग तक ही है । जैसे कि 13वें, 14वें स्वर्ग में 20 सागर की स्थिति बतायी तो उससे कुछ अधिक न होगी । कोई शब्द व्यर्थ सा पढ़कर कुछ न कुछ विशिष्ट अर्थ को घोषित किया करता है ।