वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-32
From जैनकोष
आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ।। 4-32 ।।
कल्पातीत देवों की उत्कृष्ट आयु―16 स्वर्ग तक की उत्कृष्ट स्थिति बताई जा चुकी है । अब स्वर्ग से ऊपर जो विमान हैं उन विमानों में रहने वाले देवों स्थिति बताई जा रही है आरण और अच्युत स्वर्ग से ऊपर नवग्रैवेयकों में एक-एक सागर अधिक स्थिति उत्कृष्ट पाई जाती है, अर्थात 16वें स्वर्ग में 22 सागर की उत्कृष्ट स्थिति थी तो ग्रैवेयकों में तेईस से लेकर 31 सागर तक की उत्कृष्ट स्थिति हुई । पहले ग्रैवयक में 23, दूसरे ग्रैवेयक में 24, इस तरह एक-एक अधिक लेकर 9वें ग्रैवेयक में 31 सागर की स्थिति होती है । इससे ऊपर अनुदिश विमानों में उत्पन्न हुए देवों की उत्कृष्ट स्थिति 32 सागर की होती है उससे ऊपर विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित इन चार विमानों में उत्पन्न हुये देवों की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागर की होती है । और सर्वार्थसिद्धि में 33 सागर की ही स्थिति होती है । वहाँ जघन्य स्थिति नहीं है ।
कल्पातीत देवो की आयु का प्रतिपादन करने वाले इस सूत्र में ज्ञातव्य कुछ तथ्य―इस सूत्र में अनुदिश शब्द तो दिया नहीं गया, फिर अनुदिश में उत्पन्न होने वाले देवों की आयु कैसे ग्रहण की गई है । उत्तर यह है कि इस सूत्र को जो ग्रैवेयकेषु और विजयादिषु इन दो भिन्न-भिन्न पदों में कहा है उससे ही यह सिद्ध होता है कि यहाँ अनुदिश और ग्रहण करना क्योंकि यदि अनुदिश ग्रहण न करने की बात होती तो ग्रैवेयक और विजय इन दोनों का समास एक ही पद बना देते, यह पद कैसा होता? ग्रैवेयक विजयादिषु, किंतु आचार्य महाराज ये इन दो पदों को जुदा-जुदा रखा है । इससे सिद्ध है कि अनुदिश को ग्रहण कर लेवें । यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि अनुदिश में तो एक ही उत्कृष्ट स्थिति बतायी है, 32 सागर की । और ग्रैवेयकों में उत्कृष्ट स्थिति बतायी है 23 से लेकर 31 सागर तक । ऐसा अर्थ कैसे ध्वनित हुआ? समाधान यह है कि विजयादिषु की तरह सिर्फ ग्रैवेयकेषु शब्द देते, नवसु शब्द न लगाते तब तो 9 जगह जुदी-जुदी उत्कृष्ट स्थिति न आती, पर नवसु शब्द देने से यह अर्थ ध्वनित होता है कि नवग्रैवेयकों में भिन्न-भिन्न उत्कृष्ट स्थिति है । इस सूत्र में सर्वार्थसिद्धि शब्द जो पृथक् से कहा गया है उससे यह ध्वनित हुआ कि सर्वार्थसिद्धि में सभी की 33 सागर की स्थिति होती है, अन्यथा विजयादिषु की जगह सर्वाथसिद्धि भी आ जाती, क्योंकि यह अनुत्तर विमान है । पर सर्वार्थसिद्धि को अलग कहने का अर्थ ही यह हुआ कि यहाँ जघन्य स्थिति नहीं हुआ करती है । अब यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि जैसे मनुष्य और तिर्यन्चों में उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति कही गई है, क्या देवों में उत्कृष्ट ही स्थिति होती है । जघन्य स्थिति नहीं होती क्या? तो इस जिज्ञासा के समाधान में अब आगे देवों की जघन्य स्थितियों का वर्णन चलेगा । जिससे सिद्ध होगा कि देवों में भी जघन्य स्थिति हुआ करती है ।