वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-34
From जैनकोष
परत: परत: पूर्वा पूर्वाऽनंतरा ।। 4-34 ।।
सौधर्म और ऐशान स्वर्ग से ऊपर के समस्त स्वर्गवासी व कल्पातीत देवों की जघन्य स्थिति―आगे-आगे के देवों की जघन्य स्थिति वह है जो उससे पहले-पहले स्वर्गों की उत्कृष्ट स्थिति होती है । जैसे सौधर्म और ऐशान स्वर्गों के देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक दो सागर है, तो सानत्कुमार माहेंद्र स्वर्ग के देवों की जघन्य स्थिति कुछ अधिक दो सागर प्रमाण है । सानत्कुमार और माहेंद्र के देवों की जो उत्कृष्ट स्थिति है वह ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के देवों की जघन्य स्थिति है । इस प्रकार ऊपर-ऊपर के कल्पों में तथा स्वर्गों के ऊपर नवग्रैवेयकों में, अनुदिश में और विजय, वैजयंत, जयंत अपराजितों में जघन्य स्थिति जानना चाहिये । इसके बाद सर्वार्थसिद्धि में जघन्य स्थिति होती ही नहीं है । यहाँ एक शंका खड़ी हो सकती है कि इस सूत्र में जब पूर्वा-पूर्वा शब्द कहने से ही यह अर्थ ध्वनित होता है कि पहले-पहले स्वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति ऊपर के स्वर्ग के लिए जघन्य होती है, तब फिर अनंतरा शब्द कहने की क्या आवश्यकता रही? समाधान यह है कि पूर्वा शब्द का तो कितने ही पहले के बारे में अर्थ ले सकते हैं, पर यहाँ ऐसा अटपट पूर्व नहीं लेना है कि जैसे कोई कहे कि 7वें, 8वें स्वर्ग के देवों की जघन्य स्थिति पहले दूसरे स्वर्ग के देवों की उत्कृष्ट स्थिति बराबर है, क्योंकि पूर्व तो यह भी हो गया किंतु ऐसा पूर्व न लेना, अनंतर पूर्व लेना, अर्थात् जिस कल्प स्वर्ग की जघन्य स्थिति बताना है तो उससे एकदम पहले जो कल्प स्वर्ग हैं उनकी उत्कृष्ट स्थिति बराबर समझना । इस प्रकार अर्द्धलोक के सभी देवों की जघन्य स्थिति का वर्णन हुआ ।