वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-20
From जैनकोष
सुखदु:खजीवितमरणोपग्रहाश्च ।। 5-20 ।।
सुख दुःख, जीवित व मरण उपग्रह का परिचय―सुख, दुःख जीवन, मरण ये उपग्रह पुद्गल के उपकार हैं, क्योंकि पुद्गल के संबंध के बिना सुख दुःख जीवन, मरण नहीं होता है । कहीं संयोग से कहीं वियोग से । दुःख सुख किसे कहते हैं कि बाह्य कारण के वश से और सातावेदनीय के उदय से आत्मा में जो प्रसाद पैदा होता, हर्ष प्रीति रूप परिणाम होता उसका नाम सुख है । तो जो आनंद है वह तो पुद्गल का उपकार नहीं है, पर सुख पुद्गल का उपकार है । आनंद तो आत्मा में मग्नता के कारण स्वभाव से उत्पन्न होता है और सुख बाह्य विषय का आलंबन हो, सातावेदनीय का उदय हो तो सुख होता है, इस कारण सुख पुद्गल का उपकार है । दुःख किसे कहते हैं? बाह्य कारणों की वजह से असातावेदनीय के उदय से जो संक्लेश से भरा हुआ आत्मा का परिणाम है वह दुःख कहलाता है । दुःख भी पुद्गल का उपकार है । जैसे कंटक लगाया विषय का बाधक पुरुष सामने आया उस पर दृष्टि जाकर असातावेदनीय का भीतर उदय चल रहा है तो जो संक्लेश भाव है वह दुःख है । यद्यपि वह संक्लेश भाव और हर्ष भाव जीव का ही परिणमन है मगर पुद्गल के उपकार बिना नहीं हो सकता । पुद्गल का आलंबन आवश्यक है, जीवन किसे कहते है? भव की स्थिति का निमित्तभूत आयुकर्म है । उसके उदय से भव की स्थिति प्राप्त होती है । जितने समय का आयु कर्म का उदय है उतने समय यह जीव उस भव में रहता है । तो उस जीव की श्वासोच्छ्वास रूप क्रिया विशेष नष्ट न होवे उसका नाम जीवन है । यह प्राणापान याने श्वांस लेना और निकलना यह प्रत्येक संसारी जीव में चलता है । जो एकेंद्रिय जीव है उसके भी श्वासोच्छ्वास है । पृथ्वी हो, जल हो, अग्नि, वायु, वनस्पति, पेड़ वगैरह इनके भी श्वासोच्छ्वास होता है, और यह श्वासोच्छ्वास मुख्यता से तो मुख और नाक से लेने और निकालने की वायु का नाम है । मगर शरीर में सब जगह से जो वायु निकले, वायु ग्रहण करे या नाड़ी वगैरह चले तो वह सब श्वासोच्छ्वास कहलाता है । तो एकेंद्रिय जीव के मुख नहीं है मगर उनके सारे शरीर से श्वांस और उच्छ्वास चलता रहता है, मरण किसे कहते हैं? जीवन के विनष्ट होने का नाम मरण है, श्वासोच्छ्वास खतम तो जीवन खतम, आयु का उदय समाप्त हुआ तो इसे कहते हैं मरण ।
सूत्र निहित सुख आदि शब्दों के क्रम का कारण और समासविधि का विवरण―अब इस सूत्र में चार उपग्रह बताये गये, तो उनका नाम जिस क्रम से रखा, उसका कारण बतलाते हैं । सबसे पहले सुख शब्द रखा । वह यह जाहिर करता है कि सर्वप्राणियों का जो कुछ भी परिस्पंद होता है, क्रिया होती है, चेष्टा होती है वह सुख की प्राप्ति के लिये होती है और इसी कारण सूत्र में सुख का ग्रहण सबसे पहले किया है । उसके बाद दुःख शब्द कहा है, तो दुःख सुख का प्रतिपक्ष है, क्योंकि सुख तो प्रीति का कारणभूत है, दुःख अप्रीति का कारणभूत है, और सुख के साथ दुःख तो सारी दुनिया बोलती है, जैसे―अजी शरीर में सुख दुःख तो लगे हैं, दुःख सुख शायद ही कोई बोलता हो । तो सुख का प्रतिपक्ष होने से सुख के बाद दुःख का नाम लिया है । सुख दुःख दोनों शब्दों के निर्देश के बाद जीवित शब्द दिया है । उसका प्रयोजन यह है कि सुख और दुःख ये जीवित रहने वाले प्राणियों के हुआ करते हैं इसलिये इन दोनों के बाद जीवित शब्द का ग्रहण किया है । अंत में मरण शब्द कहा है । सबसे अंत में मरण ही होता है । तो अंत में प्राप्य होने से मरण का अंत में निर्देश किया गया है । आयु के क्षय के निमित्त से मरण होता है तो वह उस भव की आखिरी चीज है इस कारण अंत में निर्देश किया है । यहाँ पहले द्वंद्व समास किया है फिर कर्मधारय समास हुआ याने यह ही उपग्रह है, ऐसा कहकर इसमें विशेष्य विशेषण वाला समास हुआ है । यह उपग्रह किसका है? तो पुद्गलानां, इसकी अनुवृत्ति पहले कहे गये सूत्र से आती है । वह पूर्व सूत्र है ‘शरीर वाङ्मन प्राणापाना: पुद्गलानाम’ शरीर, वचन, मन और प्राणापान ये उपग्रह पुद्गलों के उपकार है ।
प्रकरण सिद्ध होने से सूत्र में उपग्रह शब्द कहने की आवश्यकता न होने पर भी उपग्रह शब्द के कथन का रहस्य―यहाँ एक शंका है कि जब पुद्गलों के उपकार का प्रकरण चला आ रहा है और पुद्गल का ही उपकार इस सूत्र में बताया जा रहा है । फिर उपग्रह शब्द कहने की आवश्यकता तो न थी । उत्तर―बात सही है उपग्रह शब्द कहने की आवश्यकता न थी और फिर भी कहा है तो उसमें एक नई बात जाहिर होती है । वह यह बात जाहिर होती कि धर्म अधर्म और आकाश जिसके कि उपकार पहले बता दिये गये वह द्रव्य तो दूसरों का ही उपग्रह करता है, याने धर्मद्रव्य जीव पुद्गल के गमन का निमित्त है, तो दूसरे का ही तो कार्य किया, अधर्मद्रव्य ने भी दूसरे का किया और आकाश ने भी दूसरे को अवकाश दिया तो ये तो दूसरों का ही उपकार करते हैं, किंतु इस तरह ये पुद्गल नहीं हैं, ये दूसरे का भी कार्य करते हैं । और खुद का भी कार्य करते हैं । वह किस प्रकार कि जैसे कोई बर्तन मलना है तो राख से बर्तन मले तो वह राख भी पुद्गल और बर्तन भी पुद्गल, तो पुद्गल ने पुद्गल का उपकार किया और पुद्गल ने जीव का भी उपकार किया, तो पुद्गल के लिए जीव तो पर पदार्थ हुये और पुद्गल के लिये पुद्गल स्वपदार्थ हुये । जैसे कोई जल है या कोई गंदा पानी है उसमें कतक या फिटकरी डाल दी जाये तो वह गंदा जल साफ हो जाता । तो इस तरह ये पुद्गल-पुद्गल का भी उपकार करते हैं और जीवन का भी कार्य करते हैं । तो दोनों बातें जाहिर करने के लिये इस सूत्र में उपग्रह शब्द दिया है ।
अब यहाँ कोई शंका करता है कि सुख दुःख जीवन ये तो पुद्गल के उपकार हुये, पर मरण कैसे उपकार कहलायेगा? मरण तो बुरी चीज है, उसे कहते हो कि यह पुद्गल का उपग्रह है, उपकार है, वह कैसे सिद्ध होगा, क्योंकि वह तो अनिष्ट है, किसी को भी मरण इष्ट नहीं है, उसे उपकार कैसे कहा जा रहा? तो शंका के उत्तर में कहते हैं कि मरण भी किसी को प्रिय होता है, जैसे जो विरक्त पुरुष है, जिसकी आयु क्षीण होने को है, ज्ञानी पुरुष है तो मरण का उत्सव तक मनाता है, समाधि मरण समारोह मनाया जाता है और वहाँ वह प्रसन्नता भी पाता है, तो व्याधि होने की वजह से या पीड़ा आदिक होने से अत्यंत बुढ़ापा होने से, शरीर के जीर्ण हो जाने से जीवन में जिसका आदर नहीं रहा और जो विरक्त है उस पुरुष को मरण भी प्रिय देखा जाता है, अथवा एक प्रयोजन बताने के लिए मरण को एक कार्य बताया है । चाहे इष्ट हो चाहे अनिष्ट हो, पर पुद्गल के आलंबन से ये सब कार्य होते हैं, यह बात बताने के लिये मरण को उपकार कहा है ।
पुद्गलों का उपकार बताने के प्रकरण में पृथक् पृथक् दो सूत्र बनाने का रहस्य―अब यहाँ एक शंका हो रही है कि यहाँ दो सूत्र कहे गये पुद्गल के उपकार में । पहला सूत्र था कि शरीरवाङ्मन: प्राणापाना: पुद्गलानाम् । और दूसरा सूत्र है सुख दुःख जीवित मरणो प्रग्रहाश्च । तो जब ये दोनों सूत्र पुद्गल का उपकार बतला रहे हैं तो दो जगह क्यों रखे? एक ही सूत्र में दोनों शामिल कर लेते, कुछ लाघव भी हो जाता । इसके उत्तर में कहते हैं कि यहाँ दो सूत्र कहने से यह परिस्थिति आती है कि पहले सूत्र में कहे गये शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये तो कारणभूत हैं, और इस सूत्र में कहे गये सुख दुःख जीवन मरण ये फल हैं सो कभी कोई इनमें ऐसा क्रम न लगाने लगे कि शरीर से तो सुख होता है, वचन से दुःख होता है, मन से जीवन होता है और श्वासोच्छ्वास से मरण होता है । उन चार को इन चार के साथ क्रम का मेल न बैठा लें, क्योंकि क्रम का मेल नहीं बैठता है । शरीर ही सुख, दुःख, जीवन, मरण इन चारों का कारण है और श्वासोच्छ्वास भी चारों का कारण है, अच्छा बिना कष्ट के श्वांस निकले सो सुख हुआ, रुक-रुककर निकले तो दुःख हुआ । जब तक जीवन है, जीवन है, और खतम हो गये तो मरण हो गयो । तो कहीं कोई क्रम की कल्पना न कर बैठे इस कारण से दो सूत्र पृथक बनाये गये हैं । दूसरा कारण यह है कि इसके आगे एक सूत्र आयेगा ‘‘परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।’’ जिसका अर्थ यह है कि जीवों का उपकार परस्पर का कार्य करना है । तो वह परस्पर का कार्य क्या है । यह सुख दुःख जीवन मरण । तो इसका संबंध अगले सूत्र से भी जुड़ जाये, इसके लिये इस सूत्र को अलग कहा गया है ।
नित्यैकांतवाद व क्षणिकैकांतवाद में सुख दु:खादि की अनुपपत्ति―अब यहाँ एक बात और समझना कि पुद्गल और जीव इनको जो कोई सर्वथा नित्य बनाता है उसके यहाँ सुख दुःख जीवन मरण घटित नहीं हो सकते । जो सर्वथा नित्य बनता है वहाँ भी सुख दुःख आदि नहीं हो सकते । जैसे कोई कहे कि जीव सदा नित्य अपरिणामी है, उसकी कुछ बदल ही नहीं होती, ऐसा ध्रुव है तो सुख, दुःख कहाँ से आयेंगे । सुख दुःख तो बदल के ही नाम हैं और जब नित्य में पूर्वकाल और आगे का काल में एक ही बात रह गई और अन्य परिणाम न माना गया, कोई विकार न माना गया तो सुख दुःख नहीं बन सकते, और जो लोग जीव को सर्वथा अनित्य कहते हैं, एक क्षण को पैदा हुआ और दूसरे क्षण नष्ट हो गया तो उसमें भी सुख दुःख कैसे होगा? जब कुछ बाहर ठहरे तब तो सुख: दुःख की कल्पना बने । एक ही क्षण में उत्पन्न हुआ, दूसरे में रहा नहीं, तो जब अवस्थान ही न रहा तो सुख दुःख आदिक का संबंध भी नहीं बन सकता । पुद्गल में भी कोई चीज अवस्थित हो इष्ट अनिष्ट पदार्थ, उनके शब्द, उनका रूप, उनका स्पर्श हमारे ग्रहण में आये तो सुख दुःख आदि हो सकते । अब जिसके दर्शन में पुद्गल भी एक क्षण को ठहरते तो उनका संबंध ही नहीं बन सकता । तो जब पुदगल भी क्षणिक है तो उनका समागम न रहेगा । जीव अगर क्षणिक है तो उसमे ये सुख दुःख आदिक के अनुभव न बनेंगे । तो सर्वथा अनित्य मानने में उसके भी सुख दुःख आदिक नहीं बनते किंतु स्याद्वाद विधि से जो जीव को और पुद्गल को नित्यानित्यात्मक माने कि द्रव्यार्थिक दृष्टि से तो ध्रुव है, पर्यायार्थिक दृष्टि से विनाशीक है, वहाँ सुख दु:ख आदिक का संबंध बन सकता है क्योंकि सुख दु:ख आदिक अकस्मात् नहीं होते । कहीं भी किसी के किसी क्षण हो जायें सो नहीं है, किंतु वे शुभ अशुभ भावनापूर्वक होते हैं । और शुभ अशुभ की जो भावना है या शुभ अशुभ रूप इष्ट अनिष्ट की भावना यह बनती जाये यह तब बने जब स्मरण से कुछ संबंध बने, और स्मरण क्षणिकवाद में हो नहीं सकता । एक क्षण को हुआ, नष्ट हो गया । स्मरण तो उसे कहेंगे कि पहले था, अब भी है और उसने पहले को ख्याल किया पर क्षणिकवाद में स्मरण न बनेगा । स्मरण न बने तो शुभ अशुभ भाव की संभावना नहीं रहती और शुभ अशुभ रूप संभावना न रहे तो सुख दुःख आदिक नहीं हो सकते । तो ये सारी बातें नित्यानित्यात्मक आत्मा में होती हैं और नित्यानित्यात्मक पुद्गल के संबंध से होती हैं । यहाँ तक चार अजीव पदार्थों के अनुग्रह बताये गये―धर्म, अधर्म आकाश और पुद्गल । तो जैसे ये चार पदार्थ पर पदार्थ के कार्य करते हैं वे पर के कार्य में निमित्त होते हैं तो क्या ऐसे ही जीवों का भी उपग्रह है कि वे पर पदार्थ का उपग्रह करें मायने अजीव का उपकार करें? इसके समाधान में हम कहते हैं ।