वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-23
From जैनकोष
स्पर्शरसगंधवर्णवंत: पुद्गला: ।। 5-23 ।।
पुद्गल का लक्षण व पुद्गल के गुणों में सर्वप्रथम स्पर्श कहने का कारण―इस सूत्र में पुद्गल का लक्षण कहा गया है । जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाला है वह पुद्गल कहलाता है । ये 4 गुण हैं । गुण कहते हैं द्रव्य में रहने वाली शक्तिओं को । गुणरूप से देखे गये ये । चारों शाश्वत हैं, एक रूप हैं, सहज हैं, और इनको पर्यायरूप से देखा जाये तो जैसे अभी वर्णन आयेगा कि किसके कितने भेद हैं उनकी पर्याय जानी जायेगी । वे पर्यायें उस काल में हैं, आगे बदल जाती हैं । तो यहाँ मुख्यता है गुणों की । जिनमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये चार-गुण पाये जायें उनको पुद्गल कहते हैं । इन चारों में सबसे पहले स्पर्श को ग्रहण किया है क्योंकि इनका विषय बल सबसे अधिक है । सभी विषयों में स्पर्श का बल अधिक देखा जाता है । जितनी भी इंद्रियाँ अपने विषय को स्पर्श करके ग्रहण करती हैं उनमें सर्वप्रथम स्पर्श के ग्रहण की प्रकटता होती है । ऐसी इंद्रियाँ हैं चार जो पदार्थ का स्पर्श करके जाने । स्पर्शन इंद्रिय पदार्थ को छूकर जानती है । रसना इंद्रिय भी पदार्थ को छूकर ही तो रस ग्रहण करती है । गंध भी देखने में जरूर ऐसा आती कि यह नाक फूल के पास नहीं गई और दूर से ही सूँघ लिया, किंतु फूल के जो सुगंधित परमाणु है उनमें कई तो वे ही नाक के पास आ जाते और अनेक परमाणु जो अंतराल में पड़े हुए हैं सो फूल के परमाणुओं का निमित्त पाकर अन्य परमाणु सुगंधित होते हैं । इसी परंपरा से अन्य-अन्य परमाणु सुगंधित होते जाते हैं और नाक में उनका संयोग होता है तब गंध का ग्रहण होता है और कर्ण भी स्पर्श करके ही जान पाते हैं मगर यहाँ शब्द का ग्रहण नहीं है क्योंकि शब्द गुण नहीं, किंतु पर्याय है । तो यहाँ यह बताया जा रहा कि जितनी भी इंद्रियाँ छूकर पदार्थ का ज्ञान करती हैं उनका सबसे पहले स्पर्श होता है इसलिए स्पर्श इंद्रिय के विषय को बलवान बताया है । फिर दूसरी बात यह है कि स्पर्श तो सर्व संसारी जीवों के पाया जाता । एकेंद्रिय हो तो उसके तो स्पर्श है ही, और कुछ है ही नहीं, पर दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पंचेंद्रिय के भी स्पर्शन इंद्रिय तो है ही । तो सर्व संसारी जीवों में ये स्पर्शन इंद्रिय पायी जाती हैं और वे स्पर्श का विषय भी करती हैं । इससे भी सूत्र में सबसे पहले स्पर्श को ग्रहण किया है । यहाँ कोई शंका करता है कि रस का भी तो बड़ा बल है । मनुष्य प्राय: रसना इंद्रिय कै बहुत वश में हैं, और पशु-पक्षी तो रात-दिन खाने और स्वाद की ही धुन में रहा करते हैं । तो रस चूंकि बलवान विषय है इसलिए उसका ग्रहण पहले करना चाहिये था ? तो उत्तर इसका यह है कि भले ही रस का एक व्यापक प्रभाव दिख रहा है । कई पुरुष ऐसे भी होते हैं कि स्पर्श का सुख नहीं चाह रहे पर रस के ग्रहण में आसक्त रहा करते हैं । भले ही ये सब बातें दिख रही हैं तो भी यह तो समझना चाहिये कि जो कोई भी रस का ग्रहण करता है तो वह स्पर्श होने पर करता । कोई भी चीज खाये तो उसका जब तक स्पर्श न हो तब तक ग्रहण कैसे होगा? तो स्पर्श के होने पर ही रस का ग्रहण होता है, इस कारण स्पर्श का ग्रहण करना श्रेष्ठ है पहले ।
सूत्र में रस गंध वर्ण शब्द के इस क्रम से रखे जाने के कारण―स्पर्श के बाद रस ही प्रबल दिख रहा है इससे रस को ग्रहण किया है । यहाँ कोई यह संदेह न करे कि वायु में स्पर्श तो पाया जाता है पर रस नहीं पाया जाता सो यह कहना बेकार रहा कि सारे पुद्गल चारों गुण वाले होते हैं । यह शंका इसलिए न रखना कि वायु में भी रस, गंध वर्ण पाये जाते हैं, हम उनको नहीं ग्रहण कर पाते पर वे सब अविनाभावी हैं । जहाँ एक रहे वहाँ सभी पाये जाते हैं इसलिये वायु में भी चारों पाये जाते हैं । हां, जैसे स्पर्श का प्रकट ग्रहण होता है उस प्रकार वायु में रस आदिक का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि चक्षु इंद्रिय स्थूल विषय को ग्रहण करती है । रस आदिक भी स्थूल विषय को ग्रहण करते हैं । तो वायु में अन्य गुण पर्यायों का ज्ञान नहीं हो पाता, पर जिसमें स्पर्श है उसमें चारों ही हैं । यह एक अविनाभावी नियम है । अब यहाँ रस के बाद और वर्ण से पहले गंध शब्द का प्रयोग किया है । तो, शेष दो ही तो रह गए थे―गंध और वर्ण । उनमें ही तो छांट होनी है कि, पहले कौन कहा जाये तो चूंकि, रूप चाक्षुष है और गंध अचाक्षुष है इसलिए गंध को रूप से पहले ग्रहण किया है । तो चार गुणों के क्रम का रखने का यह भी कारण है कि चूंकि जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु इस क्रम से इंद्रियाँ पायी जाती हैं । जो एकेंद्रिय है उसका स्पर्शन ही है । जो दो इंद्रिय हैं उसके स्पर्शन रसना है, तीन इंद्रिय के स्पर्श, रसना, घ्राण है, चौइंद्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण चक्षु हैं । तो उनके विषयभूत पर्यायों के आधार ये गुण नाम भी इसी क्रम से रखे गये हैं । वर्ण को अंत में ग्रहण किया है, क्योंकि यह स्थूल है । तभी इसकी उपलब्धि होती है । यहाँ द्वंद्व समास किया गया है । स्पर्श, रस गंध और वर्ण―इन चारों का द्वंद्व समास करने पर एक पद बन जाता है । फिर उसमें मतुप् प्रत्यय लगाया जाता है । जिसका अर्थ है इनसे युक्त, याने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये जिनके पाये जायें उन्हें कहते हैं स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाला । पुद्गल में ये चारों गुण शाश्वत हैं सदा रहते हैं, इसलिए इसमें मतुप् बहुत ही संगत लगा हुआ है ।
स्पर्श और रस गुण की पर्यायों के मूल प्रकार―अब इन चार गुणों के भेद कहे जाते हैं । स्पर्श के भेद आठ हैं―(1) कोमल (2) कठोर (3) वजनदार (4) हल्का (5) ठंडा (6) गरम (7) चिकना और (8) रूखा, ये आठ प्रकार के परिणमन होते हैं । यहां यह जानना चाहिये कि जो परमाणु हैं उनमें तो चार गुण की ही व्यक्ति है (1) शीत (2) उष्ण (3) चिकना और (4) रूखा । परमाणु में कोमल कठोरपना नहीं है अनेक परमाणुओं का पिंड हुए बिना कोमल और कठोरपना नहीं बन पाता, इसी प्रकार परमाणुओं में कोई परमाणु वजनदार हो, कोई हल्का हो यह भी भेद नहीं होता । यह भेद होता है अनेक परमाणुओं के पिंड में । तो जो 8 भेद बताये गए है यह परमाणु और स्कंध दोनों को ही पुद्गल दृष्टि में रखकर कहा है । रस के भेद 5हैं―(1) तीखा (2) कडुवा (3) खट्टा (4) मीठा और (5) कषायला । तीखा रस जैसे नमक मिर्च में होता है । कड़वा रस गुरबेल आदिक कड़वी दवाइयों में होता है अथवा करेले में भी पाया जाता है । चूंकि ये पांचों ही रस इष्ट भी हैं, अनिष्ट भी हैं । किसी को कुछ इष्ट, लगता है किसी को कुछ । तो कई कड़वी चीजें इष्ट भी लगती हुई देखी गई हैं । कुछ ऐसा भी समझ में आता है कि जो चीज प्रकृत्या कड़वी नहीं होती और वह कदाचित कड़वी निकल जाये तो वह बहुत अनिष्ट लगती हैं । जैसे बादाम कड़वी नहीं है, पर कोई कड़वी निकल जाये तो उससे बहुत व्यग्रता होने लगती है । करेला प्रकृत्या कड़वा है और रुचिकर कड़वा है । कोई औषधियां तो प्रकृत्या कड़वी होकर भी रुचिकर नहीं होती । तो इससे जाना जाता है कि पाँचों ही रस इष्ट भी हैं, अनिष्ट भी । अम्ल को खट्टा कहते हैं । जैसे कच्चा आम, नीबू आदिक में होता है । ये अम्ल गुण की पर्यायें हैं । मधुर मायने मीठा, शक्कर आदि में और कषायला आँवला आदि में होता है । ये 5 प्रकार के रस हैं । ये पांचों ही किसी को मनोज्ञ हैं और किसी को अमनोज्ञ हैं । मीठा जैसा रस भी अनेक लोगों को इष्ट होता और अनेकों को अनिष्ट होता और वे रंच भी मीठा रस नहीं पसंद कर पाते । तो ऐसे रसना इंद्रिय के विषयभूत रूप पर्यायें 5 प्रकार की पाई जाती हैं ।
गंध और वर्ण गुण की पर्यायों के मूल प्रकार व शब्द के निर्देशन की भूमिका―गंध दो प्रकार का है―(1) सुगंध और (2) दुर्गंध । गुलाब के फूल आदिक में सुगंध मानी गई है । मल आदिक में दुर्गंध मानी गयी है । इष्ट अनिष्ट की बात देखो―और सब जीवों की ओर से देखो तो ये दोनों प्रकार के गंध किसी को इष्ट होते हैं और किसी को अनिष्ट । वर्ण 5 प्रकार के हैं―(1) नीला (2) पीला (3) सफेद (4) काला और (5) लाल । यद्यपि रंग सैकड़ों प्रकार के देखने में आते हैं लेकिन मूल भेद ये पांच ही हैं । इनके मिलावट से अनेक रंग बन जाते हे । जैसे हरा रंग मौलिक नहीं है । नीला और पीला मिलकर हरा बन जाता है । ऐसे अनेक प्रकार के रंग एक मिश्रित रंग हैं । उन सब रंगों के मूल प्रकार पांच हैं । तो जैसे रंगों के भेद अनेक पाये जाते हैं ऐसे ही इन बाकी तीन गुणों की पर्यायें भी अनेक प्रकार की पाई जाती हैं । जैसे ठंडा कोई कम ठंडा कोई अधिक ठंडा अनेक प्रकार के शीत पाये जाते हैं । इसी तरह सभी में अनगिनते भेद समझ लेना चाहिये । पुद्गल के गुण तो बताये गये हैं । अब कर्णेंद्रिय के विषयभूत शब्द उनमें नहीं आये क्योंकि शब्द कोई गुण नहीं है, शब्द वस्तु, में शाश्वत नहीं पाये जाते । पदार्थ के टक्कर से, वियोग से शब्द की उत्पत्ति होती है । तो जो शब्द पर्याय होने के कारण छोड़ दिया गया था उसको आदि लेकर और पर्यायें भी ऐसी हैं जो पुद्गल में पायी जाती हैं उनका वर्णन करते है ।