वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-37
From जैनकोष
बंधेऽधिकौ पारिणामिकौ च ।। 5-37 ।।
बंध होने पर अधिक गुण वालों की पारिणामकता―बंध होने पर अधिक गुण वाले परमाणु पारिणामिक हो जाते हैं अर्थात दूसरे बद्ध परमाणु को अपने गुण रूप परिणमा लेते हैं । इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि बंध अवस्था में अधिक डिग्री के परमाणु की जाति के अनुसार हीन गुण वाले परमाणु परिणम जाते हैं । जैसे कि 5 डिग्री का रूक्ष परमाणु है, उसका बंध 7 डिग्री के स्निग्ध के साथ हुआ है तो 5 डिग्री का रूक्ष परमाणु स्निग्ध रूप परिणम जायेगा । यह बात बंध अवस्था होने पर ही होती है, संयोग होने पर नहीं होती । बंध और संयोग में यह अंतर इस उदाहरण से स्पष्ट जान सकते है कि जैसे कोई अधिक मीठा गुड़ हो और उसमें कोई बारीक रेसे या अन्न आदिक गिर जाये तो वे दूसरे पदार्थ भी मीठे हो जाते हैं और जैसे लाल सूत और हरा सूत दोनों सूतों के ताने बाने से कपड़ा बुना जाये तो कोई भी सूत अपने रंग को नहीं छोड़ता । जो जिस रंग से रंगा है वह उसी रग में रहता है । तो इस प्रकार परमाणुओं का बंध होने पर जो अधिक डिग्री वाला परमाणु है उसके अनुसार कम डिग्री वाला परमाणु परिणम जाता है । कभी स्कंध स्कंधों का संयोग हो जाये तो वहाँ यह बात न पाई जायेगी या परमाणुओं का भी निकट संयोग रहे तो भी यह परिणमाने वाली बात न पायी जायेगी । कोई पुरुष इस सूत्र का ऐसा भी पाठ करता है कि बंधे समाधिकौ पारिणामिकौ, पर ऐसा पाठ उचित नहीं है । उस अन्य पाठ का यह अर्थ होता है कि जैसे दो गुण वाले चिकने परिणमाने वाले 2 गुण वाले रूक्ष भी होते हैं, पर यह पाठ सिद्धांत के विरुद्ध है । आगम में, वर्गणा खंड में, बंध के विधान में यह सिद्धांत आया है कि नोआगम द्रव्य के बंध के विकल्प में जहाँ सादि वैस्रसिक बंध का निर्देश हो वहाँ यह जानना कि विषम चिकनाई होने पर और विषम रूखापन होने पर बंध तथा समान चिकनाई और समान रूखापन होने पर भेद होता है । और, इसके अनुसार गुण साम्ये सदृशानां यह सूत्र कहा गया है । इसमें समान गुणवाले के बंध का जब निषेध कर दिया तो बंधे सम: पारिणामिक: ऐसा कहना निरर्थक है । यह बात बिल्कुल स्पष्ट होती है कि जघन्य गुणवाले परिणामों में तो बंध होता ही नहीं, किंतु चाहे वह स्निग्ध स्निग्ध हो, या रूक्ष रूक्ष हो, 2 अधिक गुणवाले हैं, तो उनका परस्पर बंध होता है ।
बंध विवरण से प्राप्तव्य मूल शिक्षा―इस बंध की इतनी बड़ी लंबी चर्चा करने का प्रयोजन यह है कि आत्मा के योग व्यापार से आत्मा के प्रदेशों से स्निग्ध रूक्ष परिणाम वाले अनंत परमाणु कर्म बंध को प्राप्त होते हैं । वहाँ उनका कैसा बंधन चलता है इस बात का यहाँ विवरण किया गया है । जो कर्म बंधते हैं वे अनेक कोड़ा कोड़ी सागर तक की स्थिति के होते हैं और घन परिणाम वाले होते हैं कि उनका बंध उतने समय तक विघटित नहीं होता । अध्यात्म प्रयोजन में बंध की कथा कहने का कारण क्या है? वह यही है कि यह ज्ञान में आये कि कर्म परस्पर बंधते हैं तो ऐसे ढंग से बंधते हैं और उनका बंध इतना दृढ़ होता है कि कोड़ा कोड़ी सागर की स्थिति तक भी वे अलग नहीं हो पाते । अथवा जब कभी अलग भी होता है तो वहाँ आत्मा के कैसे परिणाम निमित्त होते हैं ये सब बातें उस बंध प्रकरण में ज्ञात करना चाहिये । यहाँ तक पुद्गल द्रव्यों के बंध का विवरण किया गया है । अब इसी अध्याय के बहुत पहिले के प्रकरण पर दृष्टि दीजिए । जब इस अध्याय के पहले सूत्र के बाद 2 सूत्र कहे द्रव्याणि और जीवाश्च । तो इन सूत्रों में द्रव्य का निर्देश तो किया गया, पर सुगम लक्षण नहीं बताया गया, सो अब द्रव्य का लक्षण कहते हैं ।