वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-38
From जैनकोष
गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ।। 5-38 ।।
द्रव्य का लक्षण तथा गुण पर्यायों से द्रव्य के भिन्नपने व अभिन्नपने की मीमांसा―गुण पर्याय वाला द्रव्य होता है । इस सूत्र में दो पद हैं । प्रथम पद है गुणपर्ययवत् और द्वितीय पद है द्रव्य । प्रथम पद का समास है गुणाश्चते पर्यायाश्च गुणपर्याया: ते यस्य संति इति गुणपर्ययवत् अर्थात गुण तथा पर्याय जिसके हैं वह द्रव्य कहलाता हे । यहाँ एक आशंका होती है कि गुण और पर्याय ये द्रव्य से जुदे तो हैं नहीं । द्रव्य के क्षेत्र में है, द्रव्य के ही विशेषण हैं, द्रव्य के ही परिणमन हैं । तो जब गुण और पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं हैं तो उसमें मतु प्रत्यय कैसे लग सकता है? जैसे धन वाला कहा तो धन जुदी चीज है, पुरुष जुदा है तो वहाँ वाला शब्द उपयुक्त हो जाता है, मगर गुण पर्याय तो द्रव्य से भिन्न है नहीं । उसमें वाला शब्द कैसे लगाया जा सकता? अब इस शंका का समाधान करते हैं कि लोक में अभिन्न पदार्थों के भी मतु प्रत्यय का अर्थ देखा गया है । जैसे कहते हैं कि स्वर्ण की अंगूठी या स्वर्ण वाली अंगूठी, तो वह अंगूठी स्वर्ण से जुदी तो है नहीं । उस स्वर्ण का ही उस प्रकार का परिणमन है फिर भी वहाँ वाले शब्द का विशेषण लगा है, और फिर लक्षण से कथन्चित भेद भी सिद्ध है । देखिये―गुण और पर्याय द्रव्य से कथन्चित अभिन्न हैं और लक्षण भेद से कथंचित् भिन्न हैं । जैसे द्रव्य कहने से तो त्रिलोक त्रिकालवर्ती वे समस्त पदार्थ आ गये और पर्याय कहने से एक समय की हालत का ही परिणमन होता है । गुण कहने से द्रव्य की कोई एक विशेषता ही ग्रहण में आती है । गुण व पर्याय शब्द से पूरा द्रव्य ग्रहण में नहीं है । तो यों लक्षण से उनमें कथंचित् भेद भी है इसलिये मतु प्रत्यय लगना युक्त है ।
गुण शब्द की प्रयोग्यता के विषय की मीमांसा―अब एक शंकाकार कहता है कि पदार्थ में गुण नहीं है, द्रव्य है और पर्याय है । गुण यह संज्ञा तो अन्य सिद्धांत वालों की कही हुई दी गई है । जैन शासन में तो द्रव्य और पर्याय ये दो ही तत्त्व हैं और इसी कारण नय भी दो बनाये गये हैं―(1) द्रव्यार्थिक और, (2) पर्यायार्थिक । यदि गुण भी कुछ होता तो तीसरा नय और बनाया जाता―गुणार्थिक, पर तीसरा नय नहीं है । क्योंकि गुण ही नहीं है, फिर गुण पर्याय वाला द्रव्य है यह कहना कैसे युक्त हो सकता है? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि जैन शासन के हृदय में गुण का भी उपदेश है । अभी एक सूत्र आयेगा―द्रव्याश्रया निर्गुणागुणा:; वहाँ एकदम स्पष्ट हो जाता कि गुण की मान्यता जैन शासन में भी है । अब शंकाकार पुन: कहता है कि यदि गुण कहा तो गुण को विषय करने वाला एक गुणार्थिक नाम का तीसरा मूल नय भी प्राप्त होता है । इसके समाधान में कहते हैं कि द्रव्य के दो स्वरूप हैं―(1) सामान्य स्वरूप और, (2) विशेष स्वरूप । तो उसके सामान्य स्वरूप को उत्सर्ग, अन्वय, गुण, इन शब्दों से कहा जाता है, और द्रव्य का जो विशेष रूप है उसे भेद पर्याय इस नाम से कहा जाता है तो गुण सामान्य स्वरूप रहे, पर्याय विशेष स्वरूप रहे और द्रव्य भी एक वस्तु है ही, जिसके दो स्वरूप कहे जा रहे हैं । तो जो सामान्य स्वरूप है वही तो गुण है । असाधारण लक्षण में द्रव्य का परिचय होता है वह लक्षण असाधारण गुण ही तो है । तो सामान्य को विषय करने वाले नय का नाम द्रव्यार्थिक है । सो जब अभेद दृष्टि से द्रव्यार्थिकनय का प्रयोग होता है तब तो उसका वाच्य क्रय ध्वनित होता है और जब भेद दृष्टि से सामान्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थिकनय प्रयुक्त होता है तो उससे गुण ध्वनित होता है । पर्यायार्थिकनय में केवल पर्याय ही ग्रहण में आता है और इन दोनों नयों का जो समुदित स्वरूप है वही द्रव्य है । तो तीसरा नय को गुणार्थिक कहने की आवश्यकता नहीं । मूल नय दो ही हैं―(1) द्रव्यार्थिक और, (2) पर्यायार्थिक । उन दोनों नयों का जो समुदयात्मक रुप है वह कहलाता है द्रव्य । अथवा गुण ही पर्याय हैं ऐसा भी कह सकेंगे । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये पर्यायें कहलाती हैं । पर्याय नाम भेद और अंश का भी है । उनसे भिन्न गुण नहीं है, इस कारण गुण ही पर्याय है, ऐसा समानाधिकरण्य मान लिया जाये तब सूत्र को गुण पर्ययवत् निर्देश से कहना अयुक्त नहीं है ।
गुण की पर्याय स्रोतरूपता का संकेत―अब पुन: एक शंका आती है कि यदि गुण ही पर्यायें हैं तो दो विशेषण देना अनर्थक है । या तो गुणवद् द्रव्यं कहते या पर्ययवद् द्रव्यं कहते । दूसरा विशेषण देना व्यर्थ है, क्योंकि अर्थ में कोई भेद नहीं है । चाहे गुणवत् कहो चाहे पर्ययवत् कहो, जबकि गुण ही पर्यायें मान ली गई हैं । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि एक दृष्टि से देखें तो गुण ही तो उस परिणमन रूप से जाना गया है इसलिए पर्याय कह सकते हैं, पर गुण को कहना यों आवश्यक हुआ कि अन्य मतों में गुण पदार्थ को द्रव्य से जुदा माना है । मीमांसक सिद्धांत में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ऐसे 7 पदार्थ माने गये हैं । जिसमें द्रव्य, गुण और कर्म ये तो सदा विशिष्ट ही माने गये हैं । तो द्रव्य को गुण से जुदा माना है अन्य दार्शनिकों ने, क्योंकि गुण अलग स्वतंत्र सत् पदार्थ नहीं हैं, यह जाहिर करने के लिए सूत्र में गुण शब्द दिया है । अथवा कहो―द्रव्य, गुण, पर्यायमय होता है । इस प्रकार द्रव्य का लक्षण कहकर यहाँ तक 5 द्रव्यों के बारे में पूरा वर्णन किया गया है । अब जो एक शेष कालद्रव्य है उसका वर्णन करने के लिये सूत्र कहते है ।