वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-7
From जैनकोष
निष्क्रियाणि च ।। 5-7 ।।
धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य व आकाश द्रव्य की निष्क्रियता का परिभाषण―धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य ये निष्क्रिय हैं । क्रिया का लक्षण है अंतरंग और बहिरंग निमित्त की अपेक्षा से जो द्रव्य का अन्य देश में प्राप्ति का हेतुभूत पर्याय विशेष होता है उसको क्रिया कहते हैं । आभ्यंतर कारण क्या है? क्रिया रूप में परिणमने की शक्ति सहित द्रव्य । स्वयं द्रव्य में क्रिया रूप से परिणमने की जो योग्यता है वह अंतरंग कारण है, और बहिरंग कारण क्या है? जिनके संपर्क अभिघात आदिक की अपेक्षा करके पदार्थ के देशांतर की प्राप्ति का हेतुभूत परिणमन विशेष उत्पन्न होता है वह बाह्य कारण है । बाह्य कारण होता है अन्य पदार्थों के संपर्क वाला । अंतरंग कारण होता है क्रिया रूप से परिणमने वाली स्वयं द्रव्य की शक्ति । तो ऐसा अंतरंग और बहिरंग निमित्त सापेक्ष क्रिया हुआ करती है । यहाँ दोनों को निमित्त कहा है । इस विशेषण से यह सिद्ध होता है कि परिणमने वाले द्रव्यों में क्रिया करते रहने का स्वभाव नहीं होता । यदि क्रिया रूप परिणमने का द्रव्य स्वभाव होवे तो द्रव्यों को हमेशा ही निरंतर क्रिया करते ही रहना चाहिये । क्रियावान द्रव्यों में भी कभी क्रिया होती है, कभी नहीं होती है । जो भी सक्रिय द्रव्य हैं―जीव और पुद्गल, इनमें कभी क्रिया है कभी नहीं है । जब अंतरंग बहिरंग निमित्त का योग है तब क्रिया होती है अन्यथा नहीं होती । सो यदि क्रिया करना द्रव्य का स्वभाव बन जाये तो सदैव क्रिया करते रहना चाहिये ।
क्रिया के लक्षण के विशेषण शब्दों से ध्वनित तथ्य―यहाँ जो क्रिया का लक्षण किया गया है उसमें बताया है कि द्रव्य का पर्याय विशेष है क्रिया । इस विशेषण से यह सिद्ध हुआ कि वह क्रिया भिन्न वस्तु नहीं है । यदि क्रिया द्रव्य से भिन्न वस्तु बन जाये तो द्रव्य तो निश्चल बन जायेगा, और जब द्रव्य निश्चल हो गया तो कोई भी भिन्न क्रिया हो उसका इस पर कोई प्रभाव नहीं होगा । अथवा यदि क्रिया का पर्याय विशेष न हो किंतु अन्य ही हो कुछ तो न क्रिया रहेगी न द्रव्य में क्रिया परिणाम बताया जा सकेगा । क्रिया का जो लक्षण किया गया है उसमें बताया है कि अन्य देश की प्राप्ति का कारण क्रिया होती है । इससे ज्ञानादिक परिणमनों की निवृत्ति हो गई, याने ज्ञानादिरूप परिणाम विशेष हो उन्हें क्रिया नहीं कहते । वह सब तो भावरूप परिणमन हैं किंतु जो एक देश से अन्य देश को प्राप्त कराये, ऐसा परिणाम विशेष क्रिया कहलाती है । निष्क्रियाणि, इस शब्द में निर् तो उपसर्ग है और क्रिया संज्ञावाचक है । जिसका यह अर्थ होता है कि जो क्रिया से निष्क्रांत हो वह निष्क्रिय कहलाता है, याने जहाँ क्रिया नहीं है ऐसा द्रव्य निष्क्रिय कहलाता है ।
निष्क्रिय द्रव्यों में भी उत्पाद व्यय की निरंतरता―यहाँ शंका होती है कि यदि पदार्थ निष्क्रिय हो गये तो उनमें कोई पर्याय उत्पन्न न हो सकेगी । तब वह ध्रुव कूटस्थ अपरिणामी हो जायेगा । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है कि निष्क्रियपना होने से पर्यायों के उत्पाद का अभाव हो जायेगा, क्योंकि पर्यायों का उत्पाद और ढंग से ही होता है । जो निष्क्रिय पदार्थ में भी है और क्रियावान पदार्थ में भी है । धर्मादिक द्रव्य यद्यपि निष्क्रिय हैं तो भी उनमें उत्पाद व्यय होता रहता है । वहाँ यह संदेह न करना चाहिये कि जैसे घट आदिक का उत्पाद क्रिया पूर्वक देखा गया । चाक चलता है, क्रिया होती है तो उसमें से घट पर्याय की उत्पत्ति होती है । तो जहाँ क्रिया नहीं है वहाँ उत्पाद कैसे होगा और जहाँ उत्पाद नहीं है वहाँ व्यय भी नहीं होगा और जहाँ उत्पाद व्यय ध्रौव्य सब खत्म हो गये तो फिर वस्तु ही क्या रही । ऐसा संदेह निष्क्रिय होने वाले पदार्थों में न करना, क्योंकि उनका उत्पाद और ढंग से है, हाँ क्रिया नाम का उत्पाद नहीं है यह तो सत्य है । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और आगे कहा जाने वाला काल द्रव्य ये निष्क्रिय हैं । क्रिया नामक उत्पाद इनमें नहीं है, फिर भी धर्मादिक द्रव्यों में उत्पाद निरंतर चलता ही रहता है । यह कैसे सो निरखिये उत्पाद दो प्रकार का होता है―(1) स्व निमित्तक और, (2) पर निमित्तक, स्वनिमित्तक उत्पाद तो पदार्थों में स्वभावत: अपने ही अगुरुलघुत्व गुण के षड्गुण वृद्धि हानि से चल रहे सभी पदार्थों का उत्पाद और व्यय देखा गया है । यह हुआ स्वनिमित्तक उत्पाद और परनिमित्तक उत्पाद क्या? जैसे घोड़ा, मनुष्य आदिक चल रहे हैं तो उनका निमित्त पाकर या उनके उपलक्ष्य से धर्म द्रव्य का नवीन-नवीन परिणमन रूप उत्पाद माना है । स्थित होने से अधर्म का उत्पाद, अवगाहन होने से आकाश का उत्पाद । सो क्षण-क्षण में उनकी गति, स्थिति, अवगाहन में फर्क हो रहा है तो उनका हेतुभूत जो कुछ भिन्न चल रहा है उसकी अपेक्षा से वह परनिमित्तक उत्पाद विनाश है, ऐसा व्यवहार से समझा जायेगा ।
निष्क्रिय द्रव्यों की अन्य पदार्थ परिणाम के प्रति उदासीन निमित्त मात्रता―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि जो द्रव्य निष्क्रिय है वह दूसरों की गति, स्थिति, अवगाहन और क्रिया के कारणभूत कैसे हो सकता है? जो क्रियावान जल आदिक हैं मे मछली आदिक के गमन के कारण देखे गये हैं, पर धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य जब निष्क्रिय ही मान लिये गये तो वे दूसरे की क्रिया के कारण कैसे हो सकते हैं? इस शंका का उत्तर है कि यह द्रव्य दूसरे द्रव्य की गति, स्थिति अवगाहन में प्रेरक नहीं है, किंतु बलाधान मात्र है, उदासीन सहायक है इंद्रिय की तरह । जैसे―कोई रूप को देखने की इच्छा कर रहा है तो उस पुरुष के चक्षुइंद्रिय रूप के निरखने में बलाधान मात्र है, सहायक निमित्त मात्र है, किंतु वह देखना चक्षुइंद्रिय के सामर्थ्य की चीज नहीं है । चक्षुइंद्रिय तो जड़ पौद्गलिक है, वह समझने का काम कभी कर ही नहीं सकती, किंतु जो रूप को समझने का प्रयास करता है उसको रूप के समझने के लिये चक्षुइंद्रिय सहायक निमित्त होते हैं, इसे कहते हैं बलाधान मात्र, याने जिसकी उपस्थिति से उपादान अपने में बल प्रकट कर सके उसे बलाधान मात्र कहा है । चक्षुइंद्रिय देखती नहीं है, अन्यथा किसी अन्य द्रव्य में उपयोग लग रहा हो और आँखें खुली भी हों तो भी सामने का कोई पदार्थ दिखता नहीं है, अथवा ये चक्षुइंद्रिय जो शरीर में नाक के दोनों ओर लगी रहती है, जड़ पौद्गलिक वे सत् समझने वाले पदार्थ हों तो आयु का क्षय हो जाने से जब आत्मा शरीर से निकल जाता है तब ये द्रव्येंद्रियां तो हैं मगर रूपादिक की उपलब्धि में समर्थ नहीं होती । इससे यह समझना कि देखना, सूंघना आदिक इन सब ज्ञानों के उत्पत्ति करने में सामर्थ्य आत्मा का ही है । इंद्रिय तो बलाधान मात्र है ।
उदासीन निमित्तमात्र का एक अन्य दृष्टांत से समर्थन―जैसे कोई दूसरी मंजिल पर भवन है अथवा कहीं भी हो और उसमें चारों ओर अनेक खिड़कियां लगी हैं उस हौल में रहने वाले पुरुष खिड़कियों से चारों ओर की बात देख लेते हैं, समझ लेते हैं तो क्या वह देखना और समझना उन खिड़कियों का सामर्थ्य है? नहीं । देखना, समझना पुरुष का ही सामर्थ्य है । खिड़कियां तो बलाधान मात्र हैं । उनके द्वार से कोई पुरुष अपनी सामर्थ्य से बाहर देख ले तो देख ले । तो जैसे देखना आदिक आत्मा का ही सामर्थ्य है और इंद्रियाँ बलाधान मात्र है ऐसे ही स्वयं ही गति, स्थिति, अवगाहना पर्याय रूप से परिणमने वाले जीव और पुद्गल का धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य गति आदिक की रचना में बलाधान मात्र है । परिणमता वह द्रव्य स्वयं है । जीव पुद्गल ये धर्म, अधर्म आदिक स्वयं क्रिया रूप से नहीं परिणमते । तात्पर्य यह हुआ कि न चलता हुआ धर्म जीव पुद्गल के चलने में निमित्त कारण है, ऐसे ही अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य अपना कोई व्यापार न करते हुये भी, क्रिया न करते हुये भी पदार्थों की स्थिति और अवगाहना में निमित्त मात्र हैं । कैसे समझा जाये? तो उसका उत्तर है कि द्रव्य की सामर्थ्य से यह बात समझी गई । जैसे आकाश न चलता हुआ सर्व द्रव्यों के साथ संबद्ध है । आकाश कहीं किसी द्रव्य के पास जाकर उसको अपने में छिपाता हो ऐसा नहीं है । तो जीव पुद्गल आदिक अवगाही हो जायें, उनकी अवगाहना बन जाये तो अवगाहना परिणमन में सामर्थ्य आकाश का ही है, अन्य का नहीं है, ऐसे ही धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य निष्क्रिय है तो भी यह अन्य द्रव्यों की गति, स्थिति आदिक क्रिया की रचना के प्रति बलाधान मात्र है । तो वह नियत-नियत होने से असाधारण समझना चाहिये ।
तीन अस्तिकायों की निष्क्रियता के कथन से शेष दो अस्तिकायों के क्रियावंत्व की सिद्धि―निष्क्रियाणि च । इस सूत्र में च शब्द के देने से अधिकार प्राप्त उन तीन का संकेत हो जाता है । वे तीनों एक-एक द्रव्य हैं और निष्क्रिय हैं । धर्मद्रव्य लोकाकाश में है, असंख्यात प्रदेशी है, वह एक द्रव्य है, अधर्मद्रव्य भी ऐसा ही है, आकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी है और एक द्रव्य है । वे सब तीनों एक-एक द्रव्य निष्क्रिय हैं, ऐसा कहने से यह अपने आप सिद्ध हो जाता हे कि जीव और पुद्गल स्व और पर के सापेक्ष होकर क्रिया परिणाम वाले हो जाते हैं । सापेक्ष के मायने पराधीनता नहीं है किंतु सहज योग है कि योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव होने पर यह उपादान क्रिया परिणामयुक्त होता है ।
सर्वगत बताकर आत्मा को सर्वथा निष्क्रिय बताने की विफल चेष्टा―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि आत्मा तो सक्रिय नहीं हो सकता, क्योंकि वह सर्वव्यापी है । जो-जो सर्वव्यापी होता है वह स्वयं निष्क्रिय होता है, पर जब उनमें क्रिया के हेतुभूत आत्म प्रयत्न गुण का समवाय संबंध होता है अर्थात् प्रयत्न का संयोग होता है तब हस्तादि सक्रिय हो पाते हैं । इस शंका का उत्तर यह है कि यदि आत्म द्रव्य में क्रिया रूप से परिणमने का सामर्थ्य न होता तो अन्य शरीरादिक पदार्थों में क्रिया न उत्पन्न हो सकती थी । जैसे कि वायु स्वयं क्रिया रूप परिणत है तो पत्ते, फूल आदिक वनस्पतियों की क्रिया का कारण हो जाता है, ऐसे ही आत्मा क्रिया पर्याय के स्वभाव वाला है, सो जब वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम हुआ, ज्ञानावरण का क्षयोपशम हुआ, अंगोपांग नामकर्म का उदय हुआ तब विहायोगतिनाम कर्म के उदय से एक शक्ति विशेष उत्पन्न होती है । उस समय किसी क्रिया रूप से चल रहे आत्मा के हाथ आदिक में क्रिया का उत्पन्न होना युक्त है, याने जो क्रिया रूप परिणमने का स्वयं स्वभाव रखता है वह होगा अन्य की क्रिया का निमित्त कारण, तब ही हस्तादिक क्रियाओं की उत्पत्ति देखी जा रही है, और यदि आत्मा को निष्क्रिय मान लिया जायेगा तो अन्य पदार्थों में भी क्रिया का हेतुभूत वह नहीं हो सकता । सो आत्मा स्वयं क्रिया रूप से परिणमने का स्वभाव रखता है और योग्य कारण कलाप मिलने पर क्रिया रूप से परिणमता है, तो उसका संपर्क पाकर हाथ-पैर आदिक अंगों में भी क्रिया होने लगती है, निष्क्रिय पदार्थ अन्य की क्रियाओं का कारण नहीं बन सकता है । उसके लिए आकाश का दृष्टांत रख लीजिये । आकाश क्रिया रूप परिणत नहीं हो सकता तो वह आकाश, मिट्टी, घट पट आदिक पदार्थों में संयुक्त है तो वह क्रिया का कारण नहीं बन पाता । उसी तरह यहाँ परखिये कि आत्मा को यदि निष्क्रिय मान लिया जाये तो आत्मा का शरीर के साथ संयोग होने पर भी हाथ आदि अंगों में वह आत्मा क्रिया का कारण नहीं हो सकता । और भी देखिये जो यह बतला रहे हैं शंकाकार कि आत्मा के क्रिया हेतुभूत प्रयत्न गुण का संयोग होने पर क्रिया बनती है तो यह बतलायें शंकाकार कि आत्मा को तो निष्क्रिय कहते ही हैं और जो संयोग हुआ है वह संयोग सक्रिय है या निष्क्रिय? सक्रिय तो होता नहीं, क्योंकि वह द्रव्य नहीं हैं तो निष्क्रिय ही कहना पड़ेगा । तो संयोग निष्क्रिय, प्रयत्न निष्क्रिय तो इस निष्क्रिय के होने पर भी अर्थात् आत्मा संयोग प्रयत्न इन तीन निष्क्रिय का जमघट होने पर भी क्रिया बन ही न सकेगी ।
अग्निसंयोग के दृष्टांत से संयोग को क्रियाहेतु बताकर आत्मा को सर्वथा निष्क्रिय बताने की विफल चेष्टा―अब शंकाकार तर्क करता है कि जैसे अग्नि के संयोग से घट आदिक पदार्थों में रूप से रूपांतर बन जाता है तो वह केवल अग्नि से नहीं बन जाता किंतु संयोग से बनता है । सो ऐसे ही आत्मा में संयोग और प्रयत्न इनका संबंध होने से हाथ आदिक में क्रिया बन जाती है । हां आत्मा में कोई क्रिया नहीं होती, और वह संयोग प्रयत्न आत्मा के अदृष्ट के अनुसार होता है । इस शंका के उत्तर में तथ्य अनुरूप भरा है, इस कथन में तो हमारे इष्ट की सिद्धि होती है । किस प्रकार? जैसे कि अग्नि का संयोग रूपादिमान् द्रव्य का गुण है सो अन्य घट आदिक में जो कि स्वयं रूपादिमान हैं उनमें अन्य-अन्य रूपादिकों की उत्पत्ति का कारण बन जाता है । तो अग्नि के संयोग से घट में एक रूप से दूसरा रूप जो बना सो यह तब ही तो बना कि अग्नि भी रूपादिमान, घट भी रूपादिमान । तो उनके संयोग से अन्य रूप की उत्पत्ति हो गई । तब ऐसे ही यहाँ समझ लीजिये कि आत्मा भी क्रियावान और संयोग प्रयत्न भी हस्तादिक क्रियाओं के करने वाले क्रियावान हैं । इसलिए क्रिया होती रहती है । तो आत्मा निष्क्रिय नहीं है । हाँ स्वभाव में तो निष्क्रिय है । स्वयं अपने आप अकेला ही रहे तो निष्क्रिय है । भले ही जब इसका मोक्ष होता है तब ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण एक समय को लोक पर्यंत गति होती है, सो वह उस काल का प्रभाव है कि जैसे छिलके में बँधा हुआ एरन्ड का बीज बंधन में रहने से वहीं पेड़ पर चिपका रहता था और बंधन के खुलने से वह बीज ऊपर उछलता है तो ऐसे ही कर्म बंधन में रहने पर जीव संसार में ही भ्रमण करता रहता है । कर्मबंध बिल्कुल छूट जाने पर जीव ऊर्ध्वगमन स्वभाव से ऊपर चला जाता है । यह उस एक समय का वियोगजन्य प्रभाव है । पर वहाँ तो आत्मा के स्वभाव से क्रिया नहीं पड़ी है । हाँ अंतरंग, बहिरंग निमित्त―सापेक्ष क्रिया हो जाती है । सो आत्मा का क्रियावानपना होना यह आस्रव है । यहाँ जो अग्नि संयोग का दृष्टांत कहा गया है सो उस संयोग का सामर्थ्य नहीं है यह, क्योंकि संयोग न उष्ण है, न शीत हे, न प्रेरक है, न निरोध या उपघात करने वाला है । न चिपकने वाला है । उस संयोग को अन्य रूप के उत्पाद विनाश का कारण नहीं कह सकते । तो यहाँ प्रकृत बात के विरोध करने में शंकाकार ने जो दृष्टांत दिया है वह उचित नहीं बन रहा ।
गुरुत्व दृष्टांत से निष्क्रियों में क्रिया हेतुत्व बताकर आत्मा को निष्क्रिय प्रसिद्ध करने की विफल चेष्टा―यहाँ कोई यह कहे कि जैसे वजनदार होना यह गुण निष्क्रिय है और ऐसा गुरुत्व लोहे के गोले में वर्तमान है, उसका संपर्क तृण आदिक की क्रियाओं का कारण बन जाता है । जैसे गोला वजनदार है, स्वयं निष्क्रिय है और वह कोई नीची जमीन को पाकर ही सरके या कोई बलवान पुरुष सरकाये, तो जहाँ से गया वहाँ के संपर्क में आये तृण आदिक में भी क्रिया हो गई । ऐसे ही आत्मा, संयोग और प्रयत्न ये निष्क्रिय होकर भी हस्तादिक अंगों में क्रिया के कारण हो जाते हैं, ऐसा सोचना ठीक नहीं है । यह तो अग्नि संयोग के दृष्टांत के समान हो गया । कैसे कि क्रिया परिणमन करने वाला है वह लोहे का गोला और उसका गुण है गुरुत्व । वह दूसरे की क्रियाओं का कारण बन जाता है ऐसे ही आत्मा के संयोग और प्रयत्न ये भी क्रियारूप परिणमने वाले आत्मद्रव्य के गुण हैं । इसमें भी आत्मा का सक्रियपना सिद्ध होता है । खाली गुरुत्व को देखा तो वह निष्क्रिय है । स्पर्श भी नहीं कर सकता, प्रेरक भी नही, ठोकर देने वाला भी नहीं अर्थात गुरुत्व गुण क्रिया का कारक नहीं बन पाता, तब यह समझना चाहिये कि क्रियारूप से परिणमने वाला द्रव्य ही क्रिया का हेतुभूत है ।
निष्क्रिय अस्तिकायों के निर्देश का प्रकरण―यह मोक्ष शास्त्र का पंचम अध्याय चल रहा है । पंचम अध्याय में पहला, सूत्र था―अजीवकाया: धर्माधर्माकाशपुद्ला: ।। 5-1 ।।
धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और पुद्गल द्रव्य ये अजीव होते हुए अस्तिकाय हैं अर्थात अजीव भी हैं और अस्तिकाय भी हैं । इसके बाद बताया गया है कि ये द्रव्य हैं, फिर बताया गया जीव भी द्रव्य है । फिर उनकी विशेषता बता-बताकर इस निष्क्रियाणि सूत्र में यह बात कह रहे हैं कि वे सब निष्क्रिय हैं । इससे पहले सूत्र आया था―‘आ आकाशादेक द्रव्याणि’ । आकाश पर्यंत यह एक-एक द्रव्य है । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य एक-एक ही हैं । इनकी संख्या अनेक नहीं है । और ये तीनों निष्क्रिय हैं, इनमें क्रिया नहीं है । सिद्धांत की बात यह है कि जीव और पुद्गल इनमें तो क्रिया होती है । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य इनमें क्रिया नहीं होती । तो सूत्र ग्रंथ में सूत्रों की पद्धति के अनुसार वर्णन चलता है । यहाँ बतला रहे हैं कि ये निष्क्रिय द्रव्य हैं और इससे यह सिद्ध हुआ कि ये 3 तो निष्क्रिय हैं किंतु जीव और पुद्गल ये सक्रिय हैं । इनमें क्रिया होती ई । एक देश से दूसरे देश में पहुँचना इसका नाम है क्रिया । परिणमन तो सबमें होता है । चाहे क्रिया वाला हो चाहे वे क्रिया का हो । जैसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचना इसका नाम क्रिया है । तो इस क्रिया में परिणमन हुआ या नहीं? हुआ है । और एक स्थान पर ही रहे दूसरे स्थान पर न पहुँचे मगर उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ होते । रूप रंग बदल रहे या धर्म अधर्म आकाश के परिणमन चल रहे तो भी परिणमन है या नहीं? है पर क्रिया नहीं है । तो जीव और पुद्गल इनमें क्रिया है, बाकी किसी द्रव्य में क्रिया नहीं है । यह एक सिद्धांत है ।
क्रिया के परिचय के संबंध में शंका समाधान की प्रस्तावना―अब क्रिया कैसे होती है इस संबंध में कुछ विवाद चल रहा है । तो उसी से संबंधित कुछ बात बतलाते हैं ताकि विषय अच्छी तरह समझ में आयेगा । विषय कठिन है । उपयोग आपका ऐसा बन जाये कि यह तो कठिन विषय है क्या सुनना ? उपयोग को ढीला कर दिया तो कुछ समझ में नहीं आता, पर यह ध्यान में रख कर सुनें कि हम भी तो ज्ञानस्वरूप पदार्थ हैं । जिसका जानना काम है, क्यों न ज्ञान में आयेगा ? ज्ञान में आना ही पड़ेगा, ऐसा भीतर का उत्साह हो, श्रद्धा हो । जब हम ज्ञानस्वरूप पदार्थ हैं तो हमारे ज्ञान से दूर कैसे हो जायेगा? सब ज्ञान में आयेगा । जो ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्व की आस्था रखते हैं वे उससे इतना ज्ञानबल पाते हैं कि ज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है, और ज्ञान बढ़ता है । और इस ही ज्ञानस्वरूप आत्मा की दृष्टि के प्रताप से केवलज्ञान होता है । ज्ञानावरण का पूर्ण क्षय होता है और 3 लोक 3 कालवर्ती समस्त पदार्थ उनके ज्ञान में आ जाते हैं । तो द्रव्य के संबंध में पदार्थ के संबंध में भेदवादियों का क्या सिद्धांत है वह थोड़ा सा सुनो―वैशेषिकवाद में मानते हैं 6 भावात्मक पदार्थ और एक अभावात्मक पदार्थ । द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय ये 6 तो भावात्मक हैं । अभाव पदार्थ सो अभावात्मक है ही । यहाँ ऐसी भेदवाद की दृष्टि हुई, जिससे यह जाहिर किया कि द्रव्य अलग पदार्थ है । गुण अलग पदार्थ है । द्रव्य से गुण; गुण से द्रव्य न्यारा नहीं है । जैसे आत्मा ज्ञानस्वरूप है, पर इन वैशेषिकों के यहाँ आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं है, आत्मा अलग है, ज्ञान अलग है । ज्ञान के संबंध से आत्मा ज्ञानी कहलाता है । इसे कहते हैं भेदवाद याने भेद को भी करना, कुछ भेद की ऐसी धुन करना कि थोड़ा भी वचन का भेद हो तो भी भेद कर देना । तो इस सिद्धांत में द्रव्य निराला है, गुण निराले हैं, कर्म निराला है, कर्म मायने क्रिया । सो द्रव्य गुण कर्म ये 3 तो मुख्य सत् हैं, और उपचार से सत् तीन और हैं । सामान्य, विशेष, समवाय । जैसे कहते ना कि आत्मा आत्मा सब एक समान हैं । यह किस बात से पहिचाना? सामान्य स्वरूप से पहिचाना । तो इनका कहना है कि वह सामान्य भी एक अलग पदार्थ है यह मनुष्य पशु से भिन्न है । तो उनका कहना है कि वह भिन्नता भी एक अलग पदार्थ है, और जब ये सब अलग-अलग पदार्थ हो गये तो अलग अलग ही रहें तब तो कुछ भी काम न चलेगा । तो इनको इकट्ठा भी तो करना पड़ेगा । तो यह कहते हैं कि द्रव्य और द्रव्य में तो संयोग से इकट्ठापन होता और बाकी तो सबमें समवाय से एक होता है । दो का संबंध माने, जैसे पृथ्वी और जल इनका तो संयोग होगा । और, पृथ्वी में रूप इनका समवाय होगा । उनसे कोई पूछ कि जब ये अलग-अलग हैं सब तो किन्हीं में संयोग कहना और किन्हीं में समवाय कहना यह अंतर कैसे? तो वे विवश होकर यह उत्तर देंगे कि क्या बतायें? द्रव्य से गुण निराला करने में दिखने में नहीं आता, अलग क्षेत्र में नहीं हैं । इस कारण हम उन्हें समवाय से लेते हैं और जो भिन्न-भिन्न जगह में हैं उन्हें हम संयोग से लेते हैं । तात्पर्य यह है कि उन्होंने 6 पदार्थ यो माने ।
भेदवाद में पदार्थ संख्या का पूर्वपक्ष―अब जरा स्याद्वाद दर्शन से वैशेषिकोक्त पदार्थों का मिलान करें तो देखो ये 6 कहते तो हैं, मगर ये 6, 6 नहीं हैं किंतु एक द्रव्य है न गुण है, न कर्म है, न सामान्य है, न विशेष है, न समवाय है । ये कोई पृथक नहीं हैं, किंतु द्रव्य में द्रव्य की जो खासियत है वह गुण है । उस द्रव्य को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाते हैं सो द्रव्य की यह पर्याय क्रिया है । कुछ मिलते हुये धर्म देख करके कह दिया कि यह सामान्य है । सामान्य भी द्रव्य का पर्याय हुआ । फिर एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य में कुछ धर्म मिलते नहीं दिखे तो कहते कि यह विशेष है । तो यह विशेष भी द्रव्य का पर्याय हुआ । आत्मा में क्रोध आया तो आत्मा में क्रोध का समवाय है मगर समय बीतते ही क्रोध अलग हो गया । तो लो क्रोध का समवाय भी अलग हो गया । यों समवाय भी द्रव्य का ही परिणाम है । एक ही चीज है द्रव्य, सो कभी किसी की एक ऐसी विचित्र धुन हो जाती है कि जो कहना चाहिये सो कह नहीं पाये और जो न कहना चाहिये उस पर जोर डाल दिया । क्या कहना चाहिये था उन्हें ? द्रव्य 6 हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, द्रव्य के भेद किया―वैशेषिकों ने, उनमें कुछ छूट गये कुछ पुनरुक्त आये हैं । तो यह है सिद्धांत, जीव एक द्रव्य है, वह जीव योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के मिलने पर एक देश से दूसरे देश में पहुँच जाता है । जीव क्रियावान है और इस संबंध में ये विशेषवादी यह कहते हैं कि आत्मा निष्क्रिय है । जीव में क्रिया नहीं होती । पर जीवों में प्रयत्न का संयोग होता है तब हाथ पैर आदिक की क्रिया का वह प्रयत्न कारण बनता है, जीव कारण नहीं बनता ।
क्रिया (कर्म) परिचय संबंधित प्रकरण―यहाँ सूत्र बतलाया जा रहा है निष्क्रियाणि च । प्रत्येक दस लक्षण पर्व में मोक्ष शास्त्र प्राय बचता है, उसमें एक या डेढ़ घंटे का समय लगता है, जिसमें एक अध्याय पूरा करना पड़ता है और उसमें भी साधारण रूप से भी अर्थ समझ में आया या नहीं, इसका कोई निर्णय नहीं रखा । आचार्य महाराज के तत्त्व विज्ञान को देखो, एक ही बात में कितने भेद कर-करके उसको निखार रहे हैं, जब यह सुना गया कि धर्म-अधर्म, आकाश ये निष्क्रिय हैं और इनके अलावा जीव और पुद्गल सक्रिय हैं । काल द्रव्य आगे कहा जायेगा । वह भी निष्क्रिय हैं । तो यहाँ कोई पूछता है कि पुद्गल को तो कह दो कि क्रियावान है, यह तो हम मान लेंगे झट, परंतु जीव में क्रिया न होती है यह नहीं समझ सकते, क्योंकि जीव चलता हुआ कहाँ नजर आता? पुद्गल में तो क्रिया होती है । ढेला उठाकर रख दिया, हाथ भी चला लिया मगर जीव में क्रिया कैसे हुई? कैसे समझें कि जीव क्रिया करता है? उसका उत्तर यह है कि यदि जीव क्रिया न करता होता तो शरीर में भी क्रिया न हो सकती थी । शरीर में क्रिया होने का कारण है जीव की सक्रियता । इससे यों अनुमान बनाइयेगा कि आत्मा क्रियावान है, क्योंकि अन्य द्रव्यों में क्रिया होने का कारण है । यों जीव शक्ति है ।
तत्त्व ज्ञान के आधिक्य से तत्त्व बोध की अधिक स्पष्टता―आप सोचते होंगे कि इन बातों के कहने से कौन सा हमारा काम बनेगा? फालतू बात क्यों कही जा रही है? अच्छा तो जिन बातों से काम बने जरा वही करके दिखा दो । जो आत्मतत्त्व की कथनी है सो बोलते जायेंगे घंटे दो घंटे और रोज बोलेंगे, पर रोज का बोलना, वैसा ही बोलना, वह एक आदत बन जाती है, और जब सर्वज्ञ के शासन में कहे हुये करणानुयोग चरणानुयोग, प्रथमानुयोग के तत्त्व का भी अध्ययन साथ चलता हो तो एक ऐसा उत्साह बनता है और एक ऐसी नवीनता आती है कि अध्यात्म चर्चा में उसको फिर आनंद आने लगता है । इससे जो केवल दो ही बातों की कथनी में अपना पूरा जीवन लगाकर और समझ लें कि हमने सब कुछ पाया उनमें वह उमंग नहीं आ पाती आत्मानुभव करने के लिये । फिर अनभ्यस्त पुरुष को क्या करना चाहिये ? भोजन में आप क्या करते हैं? कभी यह खाया, कभी वह खाया, तो आप ज्ञान की दिशा में भी क्या करें? कुछ करणानुयोग की बात भी जानें । यह प्रकरण चल रहा है द्रव्यानुयोग का । आप कहेंगे कि कठिन तो लग रहा, फिर द्रव्यानुयोग कैसे? द्रव्यानुयोग तो बड़ा सरल हुआ करता है कि जीव न्यारा पुद्गल न्यारा । और यह ही बात चाहे कितने ही लोगों से बुलवा लीजिये, सब हां-हाँ कहते चले जायेंगे कि द्रव्यानुयोग तो बड़ा सरल होता है । अरे भैया, द्रव्यानुयोग उनको अत्यंत सरल है जिन्होंने आत्मा के सहज ज्ञान स्वरूप का ज्ञान द्वारा अनुभव कर लिया बाकी के लिये तो गोरख धंधा है । जैसे गोरख धंधे में क्या होता कि एक दूसरे से तार फंसे हुये होते, उसमें एक छल्ला देना पड़ता, उनको छू कर जरा भी उलझा दिया तो उनका सुलझाना अत्यंत कठिन होता है, ऐसा ही अत्यंत कठिन होता है द्रव्यानुयोग उनके लिये जो कि ज्ञान स्वरूप का अनुभव नहीं कर पाये । जिन्होंने ज्ञान स्वरूप का अनुभव कर लिया उनके लिये यह द्रव्यानुयोग अत्यंत सरल है । एक सेकेंड के लाखवें हिस्से में वह परमात्मतत्त्व के दर्शन कर सकता है और सत्य सहज आनंद का अनुभव कर सकता है । पर यह बात जब न बन रही हो या हर समय नहीं बनती है तो शेष समयों में द्रव्य के स्वरूप का ज्ञान कीजिये ।
विशेष तत्त्व बोध के बीच दर्शन ज्ञान सामान्यात्मक अंतस्तत्त्व के दर्शन से सहजानंदलाभ―भैया देखने-देखने में फर्क होता है । जैसे कोई दूर देश का पुरुष एक दिन में आपके इस मेरठ शहर को घूम कर देख सकता है एक तो उसका देखना और एक यहाँ के स्थानीय पुरुष का देखना जिसका कि अनेकों लोगों से परिचय है, जिसका रोज-रोज सारे शहर में आना-जाना रहता है बताओ इन दोनों प्रकार के लोगों के ज्ञान में कुछ फर्क है कि नहीं? हाँ है फर्क । अरे दोनों की जानकारी में दृढ़ता का फर्क है, ऐसे ही एक व्यक्ति तो द्रव्य के स्वरूप सामान्य को सुन-सुनकर निर्णय बनाता है कि जीव न्यारा पुद्गल न्यारा, ज्ञान मेरा स्वरूप आदिक कुछ बातें सुन लिया और एक व्यक्ति ऐसा जो कि न्याय, युक्ति, तर्क और हेतुओं से सही-सही जानकारी कर द्रव्य के स्वरूप का अवधारण करता है एक वह है दृढ़ निर्णय करने वाला । आत्मा क्या है, कैसा है, उसमें कैसी शक्तियां हैं, क्या प्रवृत्तियाँ होती हैं, क्यों होती हैं इन सबका उत्तरोत्तर विशेष परिचय होने से वस्तु का स्वरूप बहुत स्पष्ट हो जाता है । यहाँ प्रकरण यह चल रहा है कि जीव क्रियावान है क्योंकि अन्य द्रव्यों में क्रिया का कारण बनता है । बहुत काम करने के बाद जैसे आप एक क्षण को कार्य की निष्पत्ति होने पर संतोष की श्वांस लेकर बैठते हैं और आराम अनुभव करते हैं ऐसे ही द्रव्य का सूक्ष्मतया परीक्षण का काम करने के बाद लक्ष्यभूत अंतस्तत्त्व की दृष्टि होने पर यह भव्य पुरुष एक क्षण सहज आराम करता है ।
जीव के क्रियावत्त्व की सिद्धि―यहाँ यह बतलाया जा रहा था कि जीव क्रियावान है क्योंकि वह शरीरादिक की क्रिया का कारण बनता है । बताओ हाथ यहाँ से उठाकर यहाँ कैसे पहुँचा? आत्मा ने किया ज्ञान कि हाथ यहाँ धरना और इच्छा की तो ज्ञान और इच्छा होने पर आत्मा के प्रदेशों में परिस्पंद हुआ और उस प्रयत्न का निमित्त पाकर एक क्षेत्रावगाह में रहने वाले शरीर में वायु चली, जिसका वात, पित्त, कफ में नाम कहते हैं । और उस वायु के चलने का निमित्त पाकर यह हाथ चल उठा । तो मूल में तो वह आत्मा का प्रयत्न कारण पड़ा । आत्म प्रदेश परिस्पंद हुये बिना शरीर में परिस्पंद नहीं हो सकता और क्रियावान आत्मा हुआ ना, क्योंकि वह अन्य द्रव्य में क्रिया का कारण पड़ता है, तो एक जिज्ञासु कह उठा कि तुम्हारा हेतु शुद्ध नहीं है, क्योंकि काल द्रव्य ऐसा है कि अन्य द्रव्यों की क्रिया का कारण है और फिर भी क्रियावान नहीं है काल द्रव्य । तो जो यह कह रहे हो कि अन्य द्रव्य में जो क्रिया का कारण हो वह सक्रिय होता है । जैसे जीव पुद्गल, मगर काल द्रव्य तो अन्य पदार्थों की क्रिया में कारण है और काल सक्रिय नहीं है, इनका उत्तर बहुत काम का है । उत्तर यह आयेगा कि क्रिया के कारणभूत या किसी विकार के कारणभूत दो प्रकार के पदार्थ होते हैं―एक प्रेरक और एक उदासीन । यह प्रसंग आगे आप सुनेंगे । काल द्रव्य को बताया है कि यह उदासीन कारण है । प्रेरक कारण जितने भी होंगे वे क्रियावान होंगे ।
प्रेरक और उदासीन निमित्त की स्थिति―यद्यपि चाहे प्रेरक कारण हो चाहे उदासीन कारण हो, किसी भी निमित्त कारण का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कुछ भी उपादान में नहीं जाता, यह पक्की बात है । मगर उससे बहुत तथ्य ज्ञान होगा कि प्रेरक निमित्त किस वातावरण में होता है? केवल एक यह दृष्टि बनाकर कि किसी भी निमित्त कारण का गुण पर्याय उपादान में होता है और उदासीन निमित्त किस कारण में कभी भी नहीं पहुँचता और यह बात सत्य है लेकिन इस आधार पर सभी कारणों को एक समान उदासीन कहना यह ठीक नहीं बैठता, अन्यथा आप कार्य भेद की दृष्टि में नहीं कर सकते । तो काल द्रव्य क्रिया रूप से परिणमने वाले पदार्थों का स्वयं निमित्त मात्र है, उदासीन निमित्त है । जैसे बुड्ढे के चलने में लाठी उदासीन निमित्त है और क्यों जी । बुड्ढे को एक लड़का पकड़कर ले जाये और उस बुड्ढे को एक लाठी मिली चलने के लिये तो इन दो निमित्तों में निमित्त की दृष्टि से अंतर है कि नहीं? है । एक उदासीन है और एक प्रेरक । और यद्यपि न उदासीन का कुछ उपादान में गया और न कुछ प्रेरक का उपादान में गया । यहाँ बात एक समान है । फिर से देखें तो सही सक्रिय पदार्थ अन्य पदार्थ की क्रिया का हेतु होता है और निष्क्रिय लाठी बुड्ढे की क्रिया का कारण नहीं बना किंतु बुड्ढे के चलने में उदासीन निमित्त रहा । इस बात को आगे के प्रसंग में कहेंगे ।
निमित्त के सान्निध्य में ही विकारभाव की उपपत्ति―पदार्थों के जितने भी स्वभाव परिणमन होते हैं उनमें निमित्त केवल काल द्रव्य है और वह कहलाता है उदासीन निमित्त, क्योंकि काल द्रव्य सक्रिय नहीं है । विभाव परिणमन केवल जीव और पुद्गल में होता है । सो जितने विभाव परिणमन होते हैं उनमें काल द्रव्य तो सबका उदासीन निमित्त कारण है ही, पर वहाँ उपादान कारण के साथ और भी कोई विशेष निमित्त कारण है । यदि विभाव परिणमन, विकार भाव निमित्त के न होने पर भी हो जाये तो वह स्वभाव परिणमन कहलायेगा, और जो स्वभाव परिणमन होता है उसकी धारा कभी मिटती नहीं है, सदा विकार होता रहेगा । तो यह आवश्यक है कि विकार परिणमन निमित्त के सन्निधान में ही होता है । अब उन विकार परिणमनों में जो पुद्गल में विकार परिणमन हैं उनमें । तो उपादान व निमित्त कारण है और जीव में जो विकार परिणमन है सो वे विकार परिणमन दो प्रकार के हैं―(1) व्यक्त विकार, (2) अव्यक्त विकार । व्यक्त विकार होने में उपादान, निमित्त व आश्रयभूत 3 कारण हैं, अव्यक्त विकार में उपादान व निमित्त दो कारण हैं ।
व्यक्त और अव्यक्त विकार तथा उनके कारणों का संक्षिप्त दिग्दर्शन―व्यक्त विकार उसे कहते हैं जो बुद्धि में आये, जिसका अनुभव बने, महसूस हो वह है व्यक्त विकार । और अव्यक्त विकार वह कहलाता है जो बुद्धि में न आये किंतु इस उपयोग पर्दे पर पड़ जरूर गया है । इस आत्मभूमि पर पुद्गल कर्मोदय का प्रतिफलन हो गया, पर बुद्धि में नहीं आ पाता, वह कहलाता है अव्यक्त विकार । व्यक्त विकार के लिये तो कुछ दृष्टांत देना ही नहीं है, सब लोग समझते हैं कि यह व्यक्त विकार है, इसमें महसूस होता, पीड़ा होती, हर्ष होता, बुद्धि में आता, वह सब व्यक्त विकार है । अव्यक्त विका―-जैसे श्रेणी में रहने वाले मुनियों के रागादिक विकार आते हैं । रागादिक विकार 9वें गुणस्थान तक चलते हैं, 10वें में सूक्ष्म राग है, पर वह सब अव्यक्त है । वह तो शुक्ल ध्यान में है, शुक्ल ध्यान कहते ही उसे हैं कि जहाँ राग न हो या महसूस न हो जहाँ द्वेष न हो या द्वेष महसूस न हो, अनुभूति हो वही तो शुक्ल ध्यान है । तो बुद्धि में नहीं है राग द्वेष इस कारण उसे शुक्ल ध्यान कहते हैं । उस श्रेणी में रहने वाले मुनियों के अव्यक्त विकार हैं । अप्रमत्त दशा में अव्यक्त विकार है, प्रमत्त दशा में भी किसी का गुणस्थान में नीचे उपयोग उसका लग रहा हो दूसरी ओर और रागादिक विकार सो निरंतर उदय में आते ही रहते, पर कोई समझ में ही नहीं आ पाया, क्योंकि लगा था उपयोग दूसरी ओर । सम्यग्दृष्टि के लिये जब वह स्वानुभव में है तो उपयोग तो सहज शुद्ध आत्मस्वरूप में लगा है, कर्मोदय तो निरंतर चल रहा है और उनका प्रतिफलन भी निरंतर हो रहा है । तो वहाँ हो गया अव्यक्त विकार । तो अव्यक्त विकार में तो दो कारण हैं―(1) उपादान कारण और, (2) निमित्त कारण, किंतु व्यक्त विकार में तीन कारण होते हैं―(1) उपादान कारण, (2) निमित्त कारण और, (3) आश्रयभूत कारण । किसी भी इंद्रिय के विषयभूत पदार्थ पर उपयोग लग रहा हो तब वह विकार व्यक्त होता है, नहीं तो उसकी क्या मुद्रा? कुछ उसका रूपक नहीं बन पाता । ऐसा यह विकार परिणमन निमित्त सन्निधान में हुआ करता है । वहां भी यह ही बुद्धि रखना कि निमित्त के सन्निधान में तो हुये विकार अगर निमित्त की परिणति से उपादान में विकार नहीं हुये ।
प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त―निमित्त के प्रकार बनते―(1) प्रेरक निमित्त, (2) उदासीन निमित्त । जो अनुरूप व्यापार कर रहा है वह है प्रेरक निमित्त और जो व्यापार नहीं कर रहा किंतु उपस्थित है वह है उदासीन निमित्त । जैसे घड़ा बनाया कुम्हार ने । लोक वचन ऐसे ही कहे जाते हैं । सो कहते ना । कुम्हार निमित्त कारण है घड़ा बनने का । और यदि कुम्हार चाक के पास बैठा है, लेटा है, आराम कर रहा है तो वह कुम्हार निमित्त बनता क्या? नहीं बनता । घड़ा भी नहीं बन रहा । बैठा है, जैसे गधा या लड़के बच्चे जैसे वहाँ खेलते हैं वैसे ही कुम्हार भी बैठा है तो कुम्हार यदि उदासीन है तो घड़ा क्यों नहीं बन रहा? तब यह ही तो कहा जायेगा कि जिस प्रकार घड़ा बन सकता है उस प्रकार का व्यापार करता हुआ कुम्हार, हाथ चलाता हुआ कुम्हार हो तो वह निमित्त कारण है, तब इसका अर्थ क्या हुआ कि प्रेरक निमित्त कारण है । जैसे प्रकाश हो रहा है इस समय सूर्य के सान्निध्य में तो सूर्य तो जमीन पर प्रकाश होने का निमित्त कारण है पर क्या वह प्रेरक कारण है या उदासीन कारण है? वह उदासीन कारण है । उपस्थित भर है और प्रकाश हो रहा है । सूर्य कुछ ऐसा व्यापार नहीं कर रहा है कि इस जीव के भीतर अपनी कुछ चेष्टा करके प्रकाश करूं । वह तो केवल उपस्थित मात्र है । जो कोई व्यापार नहीं कर रहे, ऐसा निमित्त तो कहलाता है उदासीन और जो व्यापार करते हुये हो, जिस व्यापार संपन्नता के होने पर विचार भाव होता हो जीव में या पुद्गल में वह कहलाता है प्रेरक निमित्त ।
क्रियावती शक्तिमान पदार्थों में ही क्रिया की संभवता―यह प्रकरण चल रहा है कि आत्मा क्रियावान है । यदि यह क्रियावान न होता तो शरीरादि के अंगों में क्रिया न हो सकती थी, क्योंकि सक्रियता का निमित्त कारण सक्रिय होता है । इस प्रकरण में एक शंका हो रही है कि आत्मा को सक्रिय सिद्ध कर दिया । जीव क्रियावान है, और सिद्धांत भी यह बताता है कि जीव में क्रियावती शक्ति और भाववती शक्ति दोनों ही हैं, ऐसे ही पुद्गल में भी क्रियावती शक्ति और भाववती शक्ति दोनों ही हैं । शेष द्रव्यों में सिर्फ भाववती शक्ति है, क्रियावती नहीं । जिसमें क्रियावती शक्ति नहीं वह निष्क्रिय है । जिसमें क्रियावती शक्ति है वह कभी निष्क्रिय होता कभी सक्रिय होता । खैर जब यह शक्ति सिद्ध कर दिया तो एक शंका हुई कि जीव अगर सक्रिय है तो मोक्ष होने पर भी जीव को सक्रिय रहना चाहिये, चलते रहना चाहिये । उसका उत्तर यह है कि यह बात तो इष्ट ही है―जीव अष्ट कर्मों से मुक्त होने पर ऊर्द्धगमन स्वभाव से ऊपर जाता है, अब यह बात अन्य है कि धर्म-अधर्म द्रव्य का सद्भाव जहाँ तक है वहाँ ही तक इसकी गति स्थिति है । किंतु यहाँ एक बात ध्यान में लेना कि जिस प्रकार की क्रिया संसारी जीवों में होती है उस तरह की नहीं होती क्रिया । कर्मों के प्रेरे ये संसारी जीव तिरछे चलते, नचते फिरते । विग्रह गति हो तो भी ये किन्हीं दिशाओं में चलते । पर मुक्त जीव केवल ऊर्द्ध गमन स्वभाव से ऊपर ही जाते हैं । अथवा यह समझना चाहिये कि फिर आगे क्रिया का निमित्त न होने से जाना भी नहीं जाता । क्रियावती शक्ति का अब वहाँ स्वभाव परिणमन हो रहा है, विभाव परिणमन नहीं है, सो जैसे पुद्गल की क्रिया में, शरीर के अंग की क्रिया में कारणभूत यह आत्मा क्रियावान है, तो पुद्गल भी सक्रिय हुआ और जीव भी सक्रिय हुआ, और इसमें क्रिया स्वपर निमित्तक होती है, उत्पाद व्यय स्वपर निमित्तक होता है जैसे पदार्थ में अपनी योग्यता से और अन्य का निमित्त सन्निधान होने पर कर्म व उत्पाद व्यय हुआ करता है ।
क्रिया और क्रियावान में सर्वथा भेदैकांत की असिद्धि―यहाँ यह बात बतायी गई कि धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य ये तीन तो निष्क्रिय हैं अस्तिकाय, काल द्रव्य भी निष्क्रिय हैं उसका वर्णन आगे होगा और जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य ये क्रियावान हैं, तो वैशेषिकों की शंका यह चल रही थी कि क्रिया पदार्थ से अलग वस्तु है । देखो किसी को अलग समझ में नहीं आ रहा कि हाथ अगर चला तो हाथ की क्रिया हाथ से अलग है । कोई मान सकता क्या यह बात? हाथ की क्रिया हाथ में ही है । तो बात तो ऐसी ही है कि जीव की क्रिया जीव में ही है । उस काल जीवमय है । मेरे जीव से निराली मेरी क्रिया नहीं है । पर विशेषवाद में तो जरा भी शब्द का फर्क हुआ तो भेद कर डालते । ऐसा उन्होंने व्रत ले रखा है । यह हाथ क्रिया कर रहा है तो ऐसा शब्द सुनकर यों लगेगा कि जैसे कोई कहता है कि यह बालक पेंसिल बना रहा है । तो बालक अलग है, पेंसिल अलग है ऐसे ही हाथ क्रिया कर रहा है तो हाथ अलग है, क्रिया अलग है । यों कुछ समझ भेद से क्रिया को क्रियावान से अलग बताते हैं । लेकिन क्रिया से क्रियावान अलग है ऐसा किसी की समझ में नहीं आता । अगर क्रियावान अलग है, क्रिया अलग है, क्रिया करने वाला हाथ अलग है और क्रिया अलग है तो अब न क्रिया कुछ रही न हाथ कुछ रहा, पदार्थ यह निष्क्रिय हो गया । जैसे अग्नि में उष्णता यह अलग है क्या? इसे भी वैशेषिक लोग अलग मानते हैं । उनका कहना है कि गर्मी के संबंध से अग्नि गर्म हुई । अगर गर्मी अलग है और अग्नि अलग है तो गर्मी तो दूर है, अग्नि दूर है तो अग्नि तो गर्मी बिना रह गई ना? तो फिर अग्नि क्या? और गर्मी अग्नि बिना रह गई अथवा दोनों ही न रहे अग्नि बिना गर्मी कैसे रहे, गर्मी बिना अग्नि कैसे रहे? ऐसी ही क्रिया की बात है । क्रिया बिना क्रियावान पदार्थ क्या कहलायेंगे और क्रियावान बिना क्रिया क्या कहलायेगी? इस प्रकार के व्यापार के होते हुये पदार्थ में यह व्यवहार देखा जाता है ।
किसी भी युक्ति से क्रिया व क्रियावान में सर्वथा भेद की सिद्धि की अशक्यता―कुछ यहाँ वैशेषिक लोग, अन्य मतावलंबी भेद सिद्ध करने को कहते हैं कि क्रिया और क्रिया का आश्रयभूत पदार्थ ये दोनों भिन्न हैं, क्योंकि इनका भिन्न-भिन्न रूप से ज्ञान हुआ ना? क्रिया, क्रिया कहलाती है पदार्थ, पदार्थ कहलाता है । जैसे दो पर्वत दूर-दूर हों तो उनका भेद रूप से ज्ञान हुआ ना? जैसे हिमालय पर्वत या विंध्याचल पर्वत दो अलग-अलग हैं तो अलग-अलग ही हैं, इसकी अलग समझ बनती है । तो ऐसे ही क्रिया और पदार्थ इनकी समझ जुड़ी बनती है । ज्ञान में तो आ रहा कि क्रिया, क्रिया कहलाती, पदार्थ, पदार्थ कहलाता । अगर ये एक होते तो सदा क्रिया चलती जैसे घोड़ा में घोड़ा है, कोई क्रिया नहीं हो रही, अब चलने लगा क्रिया हो गई । तो जब इनमें भेद है ऐसी समझ बने तो ये जुदे ही हैं, पर यह शंका यों ठीक नहीं कि क्रिया क्रियावान से सर्वथा भिन्न नहीं हो सकती । कथंचित भेद है । जैसे अभी मनुष्य खड़ा, अब चल दिया । अगर एक ही होता तो ये दो रूप न बनते कि अभी खड़ा था, अभी चल दिया, पर भेदपूर्वक जाने नहीं जाते ये, इसलिये इनमें भेद न समझना और फिर सर्वथा एकांतवाद तो कहीं भी नहीं है । दो पर्वत जुदे-जुदे पड़े हैं मगर सर्वथा भिन्न नहीं है वे । सत्त्व सामान्य से एक हैं, यह भी सत् है, वह भी सत् है । कहीं ऐसा नहीं है कि यह तो सत् है वह असत् है । लो सत् से अभेद तो रहा । तो मतलब यह है कि सर्वथा एकांत के अभिप्राय में किसी भी वस्तु की सिद्धि नहीं होती ।
अभिन्नैकदेश स्थितत्व हेतु से क्रिया को क्रियावान से सर्वथा अभिन्न मानने की एक आरेका―एक शंकाकार यह कह रहा है कि क्रिया से क्रियावान भिन्न नहीं है । तो सर्वथा अभिन्न ही मान लो, क्योंकि वहीं क्रिया है, वहीं पदार्थ है, हाथ चला तो वहीं पदार्थ है, वहीं क्रिया है तो उन्हें एक मान लीजिये । शंका किस बात की चल रही है? देखो―द्रव्य, गुण, पर्याय, इन तीन के बोध बिना तत्त्वज्ञान स्पष्ट नही होता । जैसे आत्म द्रव्य है तो आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदिक गुण हैं । और, आत्मा में उन गुणों की अवस्थायें बनना, यह भाववान पर्याय है और एक देश से दूसरे देश में जाना, यह क्रियावान पर्याय है । तो इसी के बारे में शंका चल रही है कि गुण और क्रिया, गुण और पर्याय ये द्रव्य से अभिन्न हैं । उत्तर―सर्वथा अभिन्न भी नहीं, कथंचित् अभिन्न हैं, किंतु वैशेषिक यह मानते हैं कि ये तीन चीजें बिल्कुल अलग-अलग हैं । द्रव्य अलग पदार्थ है, गुण अलग पदार्थ है, कर्म अलग पदार्थ है, तो उस ही की यहाँ चर्चा चल रही । कोई कठिन या नया विषय नहीं है, जैसे रोज-रोज बोलते रहते हैं, द्रव्य, गुण, पर्याय, उस ही की यह चर्चा है । चर्चा यहाँ यह चल रही है कि पर्याय द्रव्य से अत्यंत जुदी हैं या एकमेक है ऐसा कोई-कोई मानते हैं, पर्याय दो किस्म की होती है―एक एक भाववान, दूसरी क्रियावान पर्याय । तो यह क्रिया पर्याय की बात चल रही है कि क्रिया क्रियावान पदार्थ से सर्वथा अभिन्न है । ऐसा एक नया शंकाकार कह रहा है, तो उसका हेतु दे रहे कि भिन्न देश में स्थित हैं । जहाँ ही क्रिया है वहाँ ही वे पदार्थ हैं ।
लोकदृष्टि से क्रिया को क्रियावान से सर्वथा अभिन्न मानने की आरेका समाधान―उक्त शंका का समाधान यह है कि यह जो हेतु दे रहे हो यह एक ही देश में है, एक ही प्रदेश में है, क्षेत्र में है इस कारण दोनों एक हैं । तो एक ही देश में रहते हैं यह आप लौकिक दृष्टि से कह रहे हैं या शास्त्रीय दृष्टि से? अगर लौकिक दृष्टि से कह रहे हो जैसे कि एक गिलास में शर्बत बनाया, पानी है, बूरा है, काली मिर्च है, इलायची है, कई चीजें डाली है उसमें तो यों कह दिया करते लोग कि वह एक चीज है, क्योंकि एक ही जगह है सब । मगर लोकदृष्टि से भी देखें तो भी एक जगह नहीं हैं वे सब । चाहे कितना ही घुल-मिल गई हों वे सब चीजें हैं गिलास में, मगर काली मिर्च के अंश काली मिर्च में ही हैं, इलायची के अंश इलायची में ही हैं । वे इतने सूक्ष्म हो गये हैं कि जुदे एकदम नहीं मालूम पड़ते, मगर जुदे-जुदे जानने की मशीनें हैं, जीभ से भी चखकर जाना जा सकता कि यह तो काली मिर्च है, यह इलायची है, यह बूरा है वहाँ स्वाद भेद है ना? एक तो शर्बत को पीकर भी उनमें भेद जाना जा सकता, दूसरे मशीनों द्वारा भी इनको अलग-अलग किया जा सकता । तो जैसे शर्बत में मिल जुलकर भी सब चीजें अलग-अलग हैं ऐसे ही अन्य-अन्य चीजें भी जान लें कि जीव है तो एक देश में रहने के कारण एक हो जाये इसके लिये दृष्टांत दिया सो यह बात नहीं बनी ।
शास्त्रीय दृष्टि से क्रिया को क्रियावान से अभिन्न मानने की आरेका का समाधान―अगर शास्त्रीय विधि से पूछते हो तो शास्त्रीय विधि का अर्थ यह हैं कि जैसे एक ही जगह पर हवा भी चल रही, धूप भी हो रही । अब यह बतलाओ कि एक ही आकाश प्रदेश में धूप भी है, हवा भी है, धूप में हवा है । हवा में ही धूप है । तो शर्बत की अपेक्षा इनमें अधिक मिक्सचर है, मगर धूप अपने धूप अवयवों में रहती है और वायु अपनी वायु में रहती है कभी बड़ी धूप भी पड़ रही हो, और हवा भी चल रही हो, कुछ ठंड के दिन हो और आप कोई खेस ओढ़कर बैठ जायें तो आपको हवा न लगेगी धूप लगेगी । उसके जानने के उपाय भी हैं । तो ऐसे ही समझिये कि क्रिया है क्रियावान के आश्रय में और क्रियावान पदार्थ है अपने अवयवों के आश्रय में । जैसे घोड़ा चल रहा है तो चलना तो घोड़े में है और घोड़ा अपने अवयवों में है, ऐसा आश्रयभूत भी भिन्न मिल गया, इससे भी जाना जाता कि वह एक नहीं है ।
क्रिया व क्रियावान के भेद अभेद की समस्या का स्याद्वाद से समाधान―स्याद्वाद का सहारा लिये बिना कोई भी तत्त्व सिद्ध नहीं किया जा सकता है । अब यह बतलाओ कि प्राण जीव से भिन्न हैं या अभिन्न? अगर कहो कि जीव से भिन्न हैं प्राण तो फिर जीव को कुचलते जाओ, प्राण का क्या बिगड़ेगा? वह तो न्यारा पड़ा है, हिंसा कुछ नहीं होने की । अगर कहो कि जीव से प्राण न्यारा नहीं है तो जीव तो अमर है सो कुचलने से प्राण भी कभी खतम न होंगे, क्योंकि वे एक हो गये । क्या उत्तर बनेगा? तो उत्तर देंगे स्याद्वादी कि कथंचित भिन्न हैं कथंचित अभिन्न हैं । क्रिया क्रियावान से भिन्न है या अभिन्न? कोई कहता है कि भिन्न है तो उसमें भी दोष और कोई कहता है कि अभिन्न है उसमें भी दोष । स्याद्वाद उत्तर देता है कि कथंचित भेद हैं और कथंचित अभेद । तो यह भी सिद्ध न हो सकेगा कि क्रिया क्रियावान से अत्यंत अभिन्न होती है ।
क्रम प्राप्त अजीव द्रव्यों के वर्णन के प्रसंग में निष्क्रिय अजीवकायों का प्रकृत सूत्र में कथन― निष्क्रियाणि च, यह सूत्र कहा जा रहा है, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य ये तीन अस्तिकाय तो निष्क्रिय हैं, रंच भी हिलते-डुलते नहीं । आकाश अनंत है, सर्वव्यापी है उसमें हिलना डुलना बोलने का क्या सवाल? धर्म अधर्म द्रव्य भी लोकाकाश प्रमाण हैं, लोकाकाश में सर्वव्यापी हैं, उसकी भी क्रिया कुछ नहीं । तो ये तीन अस्तिकाय निष्क्रिय बताये गये तो उसका अर्थ यह हुआ कि शेष बचे दो अस्तिकाय, जीव और पुद्गल । ये क्रियावान पदार्थ हैं । मोक्ष शास्त्र में 7 तत्त्वों का विवेचन किया गया है । जैसे कि प्रथम अध्याय में बताया था कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्ष मार्ग है । और सम्यग्दर्शन क्या? प्रयोजनभूत तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है तो वह तत्त्व क्या है? कितना है । उत्तर बताया गया था कि जीव, अजीव आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये 7 तत्त्व हैं । इन 7 तत्त्वों में से जीव का वर्णन चतुर्थ अध्याय तक हुआ था, यह पंचम अध्याय चल रहा है । इसमें अजीव तत्त्व का वर्णन है । अजीव पदार्थ कैसे-कैसे होते हैं यह बात यहाँ समझायी जा रही है । कहीं ऊल जूलूल विषय नहीं आ रहा कि क्यों यह विषय रख दिया, उसका नंबर है, क्रम प्राप्त है, सो इन अजीव पदार्थों के बारे में यह सब कथन चल रहा है ।
जीव व पुद्गलों की सक्रियता व धर्म अधर्म, आकाश व काल द्रव्य की निष्क्रियता―इस पंचम अध्याय में अजीव पदार्थों का वर्णन चल रहा है । अजीव पदार्थ हैं 5 । (1) पुद्गल, (2) धर्म, (3) अधर्म, (4) आकाश और, (5) काल । अजीवों में से अस्तिकाय हैं 4―पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । और जीव द्रव्य भी अस्तिकाय है । तो यों अस्तिकाय की दृष्टि से 5 द्रव्य हैं (1) जीव, (2) पुद्गल, (3) धर्म, (4) अधर्म और, (5) आकाश । इनमें जीव और पुद्गल तो क्रियावान हैं, धर्म, अधर्म, आकाश ये क्रियावान नहीं हैं । जीव क्रियावान है, इस संबंध में बहुत चर्चा चली, पर अंत में यह बात निष्कर्ष में आयी कि जीव अगर निष्क्रिय होता तो शरीर के अंगों में क्रिया का कारण न बन सकता था । तो जीव भी सक्रिय है और मुक्त हो जाने पर एक समय का ऊर्द्धगमन स्वभाव से क्रिया करके मोक्ष में पहुँचता है । तो वह है स्वाभाविक गति । मोक्ष में अब क्रिया तो नहीं होती । तो यों समझिये कि क्रियावती शक्ति का शुद्ध परिणमन चल रहा है । पर अन्य गुणों में परिणमन रूप क्रिया हो रही है । इस तरह से कथंचित् सक्रिय वहाँ भी कह सकते, पुद्गल भी सक्रिय है और उनमें क्रिया स्वाभाविक भी होती है और प्रयोग के कारण भी होती है । जैसे एक पुद्गल अणु गति करता है, स्वभाव है । ये स्कंध ढेला पत्थर ये चलाये चलते हैं, फेंकने से फिकते हैं । तो यह प्रायोगिक हुआ । प्रायोगिक कैसा कि जैसे स्पष्ट दिखता है कि इन्जन चल रहा एक की क्रिया में दूसरा निमित्त हो रहा, यह सब प्रयोग की क्रिया कहलाती है ।
क्रियावान से क्रिया का कथंचित् भेद व कथंचित् अभेद―इस क्रिया के बारे में बतलाया कि यह क्रिया क्रियावान से सर्वथा भिन्न नहीं है कि क्रिया कहीं पड़ी हो और क्रिया होने वाला अलग हो । यदि भिन्न हो तो क्रिया हो ही नहीं सकती, क्योंकि उनमें संयोग तो होता नहीं । समवाय की टेक करते हैं वैशेषिक । तो वह समवाय एक तरह का तादात्म्य है अभेद है । कथनमात्र का भेद है । तो सर्वथा अभेद भी नहीं बनता, क्योंकि एक ही हो जाये तो क्रिया और क्रियावान ये संज्ञा नहीं हो सकती । सर्वथा भेद भी नहीं है कि क्रिया अलग पड़ी हो, क्रियावान अलग पड़ा हो । जैसे डंडा और डंडी ये अलग है तो संयोग बन जाने पर एक कहां से हो?
क्षणिक पदार्थों में क्रिया की असंभवता की आरेका―अब एक शंका और हो सकती है क्षणिकवादियों की ओर से । एक क्षणिकवाद सिद्धांत है । यह मानता कि प्रत्येक पदार्थ एक समय को रहता है और नष्ट हो जाता है । नया ही उत्पन्न होता है और उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है । यों क्षणिकवाद का कहना है कि जब सर्व पदार्थ अनित्य हैं एक क्षण को हुये और बाद में मिट गए तो उनमें क्रिया कैसे बनेगी? क्रिया तो तब बने जब कुछ समय ठहरे । तो यह चल रहा, परंतु पदार्थ तो ठहरता ही नहीं, क्षण-क्षण में नया-नया होता जाता है । जैसे कि जैन सिद्धांत में मानते ना कि क्षणिकवर्ती पर्याय एक क्षण को पर्याय हुई और वह मिट गई तो वह पर्याय में ही पदार्थ है, ऐसा क्षणिकवादियों का कथन है और वह क्षण भर को हुई और खतम हो गई । फिर क्रिया कैसे बनेगी, इसलिये सभी पदार्थ क्रियारहित हैं । सिद्धांत के अनुसार जो कि सभी पदार्थ क्षणिक हैं, तो जैसे कोई एक घोड़ा दौड़ रहा है, तो वहाँ यह बात नहीं है कि कोई एक घोड़ा है और वही दौड़ रहा है । इस प्रदेश में घोड़ा है, वह दूसरा है । दूसरे प्रदेश में घोड़ा है वह दूसरा पैदा हुआ, तीसरे अंगुल पर घोड़ा आया तो अन्य पैदा हुआ । इस तरह नये-नये घोड़े पैदा होते रहते हैं और लोगों को भ्रम हो रहा है कि एक ही घोड़ा जा रहा है । यह सब शंकाकार की तरफ से कह रहे हैं, वह कैसी युक्ति दे रहा । उसकी एक युक्ति और भी देखें जैसे सनीमा के पर्दे पर दौड़ते हुये चलते हुये चित्र नजर आते मगर वे चित्र जो नजर आये वे क्या फिल्म की रील पर दौड़ रहे? जैसे एक यह हाथ है, इसको इधर से उधर करके 100 बार उस हाथ के फोटो लिये गए तो 100 तरह के फोटो नजर आये मगर वह फोटो रील में अपनी जगह निष्क्रिय हैं । उनका चलाव नहीं है, पर उनको जो लगातार दिखाया जाता है तो चलता हुआ नजर आता है । तो चलते हुये जो नजर आता है वह तो भ्रम है कि सच है? वह भ्रम है । एक-एक फोटो में एक-एक ही फोटो है और अपनी जगह उतनी ही है वहाँ क्रिया रंच भी नहीं है । तो उनका जो चित्रण हुआ सनीमा के पर्दों पर तो वहाँ पर भी एक-एक ही अक्स आ रहा है । उनकी क्रिया नहीं हो रही है मगर जो पास-पास के वे चित्र हैं सो एक संतान लगने लगते हैं कि हाँ चलो ऐसे ही जो पदार्थ चल रहे हैं सो हर एक प्रदेश पर नया-नया पदार्थ उत्पन्न हुआ है और वे निकट-निकट होने से उसमें भ्रम हो गया कि ये चलते हैं । क्षणिकवादी कहते हैं कि सभी पदार्थ क्षणिक हैं । सो निष्क्रिय ही हैं, क्रिया किसी में नहीं है ।
सर्वथा क्षणिकत्व का निराकरण होने से पदार्थों की सक्रियता का समर्थन―उक्त शंका का समाधान यह है कि ऐसा किसी को प्रतीति में नहीं आ रहा कि पदार्थ क्षण-क्षण में नष्ट होता है । वही-वही पदार्थ है, उसका परिणाम बदलता है । जैसे आप यह एक जीव हैं । बचपन गुजरा, जवानी गुजरी, बुढ़ापा आया और उस बीच घंटे-घंटे में हजारों तरह के विचार, चले तो ये परिणमन तो हुए आपके पर ये अलग पदार्थ नहीं हैं । यदि ये अलग-अलग पदार्थ हों―8 बजे दूसरा जीव, 8 बजकर एक मिनट बाद दूसरा जीव, तो उस एक मिनट पहले वाले जीव की बात दूसरे मिनट में होने वाले जीव को याद क्यों रहती है? और उससे अपना सिलसिला क्यों जोड़ता है? जैसे कि दूसरे शरीर में रहने वाले जीव की बात दूसरे में कुछ नहीं है क्योंकि वह अलग-अलग हैं । ऐसे ही यहाँ भी अलग-अलग हैं, फिर तो कुछ व्यवहार ही नहीं हो सकता । लेन-देन दूकान, आपसी व्यवहार बोलचाल सब खतम हो जायेगा । वस्तुत: पदार्थ क्षणिक नहीं है । अब सिद्धांत क्या निकला कि सभी पदार्थ द्रव्य दृष्टि से नित्य हैं, पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं, प्रत्येक पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है, सर्वथा नित्य भी कुछ नहीं है । कोई सोचे कि सर्वथा नित्य मान लें निष्क्रिय बन जाएगा तो ऐसा कोई पदार्थ होता ही नहीं है कि पर्याय शून्य हो । उसका कोई व्यक्त रूप नहीं होता । तो सभी पदार्थ कथंचित् सक्रिय हैं और कथंचित् निष्क्रिय हैं, और इस दृष्टि में परिणमन को क्रिया मानना ।
क्रिया की अपेक्षा सक्रिय निष्क्रिय द्रव्यों का परिचय―यह प्रकरण चल रहा है एक देश से दूसरे देश में पहुँचने वाली क्रियाओं का । क्रिया की अपेक्षा सभी सक्रिय नहीं हैं किंतु धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो निष्क्रिय हैं और जीव पुदगल ये दो द्रव्य सक्रिय हैं, इस प्रकार अजीव पदार्थ में निष्क्रिय और सक्रियपने का एक निर्णय हुआ । अब सर्वप्रथम सूत्र में बताया था किसी अध्याय में कि ये अजीवकाय हैं धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल अस्तिकाय हैं, उससे यह तो जानने में आ गया कि यह बहुप्रदेशी हैं जो बहुप्रदेशी होता है उसको अस्तिकाय कहते हैं । तो यह तो ज्ञान हो गया पर यह नहीं मालूम पड़ा कि किस द्रव्य में कितने प्रदेश होते हैं । सो अब प्रदेशों की इयत्ता याने परिमाण बताने के लिये सूत्र कहते हैं ।