वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-9
From जैनकोष
आकाशस्यानंता: ।। 5-9 ।।
आकाश के प्रदेशों का परिमाण―आकाश द्रव्य के अनंत प्रदेश होते हैं । सूत्र में दो पद हैं― आकाशस्य और अनंता जिसका अर्थ है कि आकाश के अनंत हैं । अब क्या अनंत हैं? तो यहाँ प्रदेश शब्द लेना । इससे पहले जो सूत्र था उसमें प्रदेशा: आया है और वहाँ से अनुवृत्ति ली गई है । अनुवृत्ति लेने का लोक में भी कायदा है और शास्त्रों में भी कायदा है । जैसे कहा कि शिखर जी अमुकचंद, अमुकलाल जायेंगे और मैं भी, बस इतना बोला तो अर्थ निकल आया कि मैं भी जाऊंगा । तो जो पहले शब्द बोले जाते हैं उस वाक्य से जिन-जिन शब्दों की आवश्यकता है अनुवृत्ति कर ली जाती है । तो पहले सूत्र में प्रदेशा: शब्द आया था । उस प्रदेश शब्द की अनुवृत्ति यहाँ की गई । और यही कारण हैं कि पूर्व सूत्र में असंख्येय प्रदेशा: ऐसा समास न करके अलग-अलग शब्द रखे गये हैं । जैसे कि उसी पूर्व सूत्र के कथन में यह बात बतायी गई थी । अनंत का अर्थ क्या है? जिसका अंत नहीं, अवसान नहीं, समाप्ति नहीं उसे अनंत कहते हैं । आकाश के उतने प्रदेश हैं जो अनंत हैं । जिस जगह यह अंगुली खड़ी है उस जगह में असंख्यात प्रदेश हैं, अनंत नहीं, क्योंकि उसका अंत है । और समूचे आकाश के कितने प्रदेश हैं? अनंत । उसका अंत नहीं । अनंत भी अनेक प्रकार के होते हैं, और देखिये आकाश प्रदेश का अंत नहीं है, सो अनंत है । मगर इस अनंत से भी बड़ा अनंत कोई है क्या? तो केवल ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद, ये आकाश से भी अधिक अनंत हैं । अंत दोनों का नहीं है फिर भी कमी बेशी है । केवल ज्ञान में इतने अविभाग प्रतिच्छेद हैं कि ऐसे लोकालोक कितने ही होते तो भी ज्ञान उन्हें जानता ।
आकाश के प्रदेशों के कथंचित् भेद का दिग्दर्शन―आकाश के अनंत प्रदेश हैं । ऐसा कहने में भेद जंच रहा है । जैसे कोई कहता कि यह इसका लड़का है, तो इसमें भेद जंचा ना? वह पुरुष अलग है, लड़का अलग है । आकाश के अनंत प्रदेश हैं । ऐसा कहने में भेद जंचा । वह भेद कथंचित् है, सर्वथा नहीं है । प्रदेश और प्रदेशी इन दो बातों को समझने के लिये भेद डाला है । प्रदेशी तो है आकाश और प्रदेश हैं उसके अनंत । समग्र आकाश पर दृष्टि देने से जो ज्ञेय बना और आकाश के इन असंख्यात प्रदेशों पर दृष्टि देने से जो ज्ञेय बना उसमें अंतर है या नहीं? अंतर है । यह हिस्सा-हिस्सा है, वह पूरा है, पर सर्वथा भेद यों नहीं है कि अनंत प्रदेश होने पर भी आकाश एक ही द्रव्य है । उसके हिस्से नहीं हैं टुकड़े नहीं हैं । भाग जंच रहे हैं फिर भी आकाश के टुकड़े नहीं हैं । तत्त्व ऐसा ही है और भले प्रकार समझने से ज्ञात भी होगा कि बात सही यही है । आकाश एक है, उसके अनंत प्रदेश हैं, फिर भी हिस्से नहीं हैं । तो आकाश के अनंत प्रदेश हैं, ऐसा कहने में भेद का निर्देश हुआ सो जैसे आकाश के प्रदेश सर्वथा भिन्न नहीं हैं ऐसे ही आकाश और प्रदेश सर्वथा अभिन्न भी नहीं है । यह भी एक अनोखा तत्त्व देखिये―अगर आकाश और उसके प्रदेश अभिन्न हो जायें, एक ही चीज सर्वथा हो जाए तो इसका अर्थ यह हुआ कि प्रदेश और प्रदेशी दोनों एक कहलायें । चाहे तो प्रदेश कहो, चाहें आकाश कहो, सर्वथा अभेद ही गया । जब सर्वथा अभेद हो गया तो मानो एक प्रदेश आकाश के बराबर कहो या सारा आकाश एक प्रदेश के बराबर कहो, जो सर्वथा अभिन्न है वह पूर्णतया एक कहलाता है । सो अगर आकाश पूरा एक प्रदेश हो गया तो आकाश प्रदेशी न रहा । प्रदेशी उसे कहते हैं जिसके बहुत प्रदेश हों । जब प्रदेशी न रहा तो प्रदेश भी न रहा । फिर कुछ भी न रहा । फिर चर्चा किस बात की?
आकाश अन्य अमूर्त पदार्थों जैसा अमूर्त पदार्थ है, फिर भी आकाश के बाबत कुछ-कुछ परिचय चलाया तो है । जैसे अन्य अमूर्त में उतनी गति नहीं कुछ समझने की विशेष । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य इनके बारे में कुछ अनुमान करते हैं, भीतर को अधिक नहीं समझ पाते, हाँ जीव के बारे में हम खूब समझ लेते हैं क्योंकि जीव हम खुद हैं ना? हम पर सब बातें बीतती है । तो अमूर्त होने पर भी जीव के बारे में समझ बहुत अच्छी बनती है । तो अमूर्तों में समझ का दूसरा नंबर आकाशद्रव्य का बनता है, बाकी तो सब उतना स्पष्ट मन द्वारा नहीं बन रहा, पर हाँ अनुमान द्वारा बन रहा है । यही तो आकाश है । जिसे लोग पोल कहते हैं, कुछ ध्यान में आया मगर पोल कहने से लोग सोचते ऐसा कि जो कुछ नहीं है यही तो आकाश है किंतु आकाश एक सत्तात्मक पदार्थ है । सद्भूत है और एक द्रव्य है । अब इस समझ में कुछ बुद्धि चक्कर खा जाती है । जब इसको हम एक सत् स्वरूप कहते हैं और उसमें अगुरुलघुत्व गुण की सद्गुण हानि वृद्धि रूप परिणमन कहते हैं तो कुछ अधिक विचार करने की जरूरत पड़ जाती है । यह आकाश एक पदार्थ है और उसके अनंत प्रदेश हैं । यहाँ भेद निर्देश करके बताया है, पर सर्वथा भेद न समझना । यदि आकाश जुदा है और प्रदेश बिल्कुल जुदे हैं तो इसके मायने भिन्न-भिन्न सत् हो गये । अब भिन्न-भिन्न सत् हो गये तो ये प्रदेश क्या कहलाये?
वैशेषिक दर्शन और स्याद्वाद―वैशेषिक दार्शनिकों को समझाया जा रहा है, वे लोग 7 पदार्थ मानते हैं―(1) द्रव्य, (2) गुण, (3) कर्म, (4) सामान्य, (5) विशेष, (6) समवाय और, (7) अभाव । नाम कुछ अटपट से लग रहे होंगे मगर ये सब जैन दर्शन ने भी माने हैं, किंतु पदार्थ रूप में नहीं माना । जैन दर्शन ने किस तरह माना कि द्रव्य वह है जो सत् है । चाहे जीव हो, परमाणु हो, कुछ भी हो, वह द्रव्य है । उस द्रव्य में रहने वाला जो स्वभास है, शक्ति है स्वरूप है वह गुण है । जैसे आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद ये गुण हैं, मगर ये गुण अलग पदार्थ नहीं, किंतु वैशेषिकों ने कहा कि जब कुछ समझ में आ रहा कि ये कुछ एक-एक हैं तो ये अलग-अलग ही हैं, उन्होंने पदार्थ मान लिया, यह अंतर आया । आत्मा में गुण है और आत्मा में क्रिया भी है, आत्मा में पर्याय भी हैं, परिणमन भी है तो वह परिणमन और क्रिया वैशेषिकों के यहाँ जुदे पदार्थ हैं । देखो जो अन्य दार्शनिकों ने माना सो एकदम गलत न थे । जो कहा वह एक समझने की बात है, और वहाँ वह बात बनती है, समझ भी आती है, पर स्याद्वाद का सहारा छोड़ने से वे अत्यंत अंधकार में पहुँच गए । जो दार्शनिक मानते हैं उसमें बल न हो, तथ्य न हो, वह बात तो नहीं है, पर तथ्य होकर भी स्याद्वाद के बिना अतथ्य बन गया ।
स्याद्वादसम्मत द्रव्य गुण पर्यायों का वैशेषिक दर्शन में भेदभ्रांति से कथन―पदार्थ के बारे में जो वैशेषिक सिद्धांत ने कहा है वह सब जैन सिद्धांत में भी कहा है, और उसका घटन इस तरह है―द्रव्य जैसे जीव―इसमें गुण है इसमें सदा रहने वाली शक्ति । ज्ञान दर्शन आदिक उन गुणों को वैशेषिकों ने अलग मान लिया स्याद्वाद में द्रव्य गुणमय कहा । पर्याय क्रिया एक देश से अन्य देश में पहुंचे यह कहलाती है क्रिया । और देशांतर में तो न जाये, किंतु बदल चलती रहे उसे कहते हैं एक भाव वाला परिणमन । भाव वाले परिणमन को कुछ को तो गुण में डाला वैशेषिकों ने और क्रिया के परिणमन को एक अलग पदार्थ माना सो यों पर्याय को भी अलग पदार्थ माना । पर जैन सिद्धांत बतलाता है कि जो द्रव्य जिस काल में जिस पर्याय से परिणम रहा है वह पर्याय उस काल में उस द्रव्य में अभेद है ।
स्याद्वादसम्मत सामान्य विशेष नित्यतादात्म्य व अनित्य तादात्म्य का वैशेषिकदर्शन में भेद भ्रांति से कथन―अब रहे वैशेषिकों के सामान्य, विशेष समवाय । जैन सिद्धांत ने सामान्य बुद्धि गोचर तथ्य माना है । अलग पड़ा हुआ पदार्थ नहीं है । जो धर्म अनेक में पाया जाये वह सामान्य है । जरा ध्यान से सुनेंगे बात स्पष्ट होगी । आप में जो बात पाई गई वही हम में पायी गई, वही और में पाई गई, वह धर्म सामान्य कहलाता है । जैसे चैतन्य ज्ञानस्वरूप आपमें भी है, हममें भी है । सब जीवों में है तो ज्ञानस्वरूप सामान्य कहलाता है । मगर यहाँ भी यह बात देखियेगा कि एकांत करने में यह सिद्ध होगा कि जो ज्ञानस्वरूप आप में है वही ज्ञानस्वरूप हममें है, ऐसा तो नहीं है । आपका ज्ञानस्वरूप आपमें तन्मय है । आपके प्रदेशों से बाहर नहीं है । हमारा ज्ञानस्वरूप हममें तन्मय है । हमारे प्रदेश से बाहर नहीं है । तो फिर सामान्य का अर्थ क्या है? समाने भवं सामान्यं, समान में होने वाली बात को सामान्य कहते हैं समान कोई एक चीज न हुई, किंतु बुद्धि में एक बोध जगे कि ऐसा यहाँ भी है, ऐसा यहाँ भी है, यह तो है सामान्य का अर्थ । और वही एक, यह सामान्य का अर्थ नहीं है सामान्य को वैशेषिकों ने अलग पदार्थ माना कि सामान्य एक है, सर्वव्यापी है, उसका संबंध होता है द्रव्यादिक में । तो जो वैशेषिक बाद में माना गया है वह कुछ तथ्य पर है मगर किस प्रकार है,यह स्याद्वाद समझायेगा । विशेष पदार्थ―कोई बात हमसे आपमें अधिक दिखी तो वहाँ विशेष आ जाता है । इससे यह चीज विशेष है । गाय से भैंस विलक्षण है । और वह विलक्षणपना, वह विशेषपना वैशेषिकों के यहाँ एक पदार्थ माना गया है, पर यह विशेष कोई पदार्थ है क्या? सत् है क्या? एक बुद्धि में आया हुआ तथ्य है । यह धर्म इसमें नहीं पाया जाता, इसमें पाया, जाता । जब ये बातें वैशेषिकों ने अलग-अलग मान ली तो अलग-अलग पड़े रहने से तो कुछ बात बनेगी नहीं । कोई बताये कि गुण कहां अलग पड़े हैं, द्रव्य कहां अलग पड़ा है, अनेक दोष आते हैं । उन दोषों को दूर करने के लिये माना समवाय हैं तो न्यारे-न्यारे, मगर समवाय संबंध है । इसको जैन शासन ने कहा तादात्म्य संबंध । तादात्म्य कोई संबंध नहीं । संबंध तो वह कहलाता है कि पहले तो अलग-अलग हो और फिर मिल गये हों, ऐसा तो है ही नहीं । हां कथंचित तादात्म्य होता है पर्याय के साथ । तो इस तरह ये वैशेषिकों में पदार्थ माने गये हैं और स्याद्वाद में द्रव्य की तारीफ मानी गई है ।
स्याद्वादसम्मत अभावधर्म का वैशेषिक दर्शन में भेदभ्रांति से कथन―एक माना है अभाव पदार्थ वैशेषिकदर्शन में । घट नहीं है, घट का अभाव है । जो नहीं है उसका अभाव है । तो ऐसा अगर अभाव पदार्थ वैशेषिकों ने माना तो कुछ गलती की क्या? आपको नहीं जंचता क्या कि अभाव है । यह घट का अभाव है यहाँ हाथी का अभाव है? हां समझ में आता है कि अभाव है मगर वैशेषिकों ने अभाव को एक भिन्न पदार्थ माना । यह अभाव एक वस्तु है । जब कि जैन शासन ने अभाव को अलग पदार्थ नहीं माना किंतु अभाव को अन्य के भावस्वरूप माना है जैसे कि हाथी का अभाव है । मंदिर में हाथी नहीं है तो हाथी के अभाव का अर्थ क्या हुआ? हाथी से रहित यह मंदिर । हाथी शून्य इस मंदिर का नाम हाथी का अभाव है । अभाव किसी अन्य के सद्भावरूप है । जहाँ अभाव बतला रहे वह वस्तु । जिसका अभाव बतला रहे हैं उससे शून्य वह वस्तु उस अभाव का विषय है । जैसे किसी से कहा कि जरा जाकर देख आना कि इस हाल में चाँदी का कलश रखा था कि नहीं? तो वह जाता है, वहाँ रखा था नहीं, सो देख करके आता और कहता कि वहाँ कलश नहीं है ।..... तो क्या अच्छी तरह देख आये ।..... हां, हाँ अच्छी तरह देख आये ।.... बताओ अच्छी तरह क्या देखा ? जिसको देखने के बाद यहाँ आकर कह रहे कि वहाँ कलश नहीं है । वहाँ आँख से क्या देखा? फर्श, किवाड़, भींट, रोगन, भवन भवन ही देखकर आया और यहाँ कहता है कि हम खूब देख कर आये कि वहाँ कलश नहीं है । तो इससे सिद्ध हुआ कि कलश से रहित जो भवन है उस भवन का नाम कलश का अभाव है । जैन शासन में अभाव के विषय में बहुत बड़ा वर्णन है अष्टसहस्री में, मगर आजकल तो जैनों में भी कुछ लोग ऐसे बन गये अज्ञानवश कि उस अभाव की चर्चा तुच्छभावरूप में करने लगे जैसा कि अन्य दर्शन में की जाती है । जैसे पूर्वपर्याय संयुक्त द्रव्य उत्तर पर्याय का कारण नहीं, क्योंकि उत्तर पर्याय के समय में वह पूर्व पर्याय है ही नहीं । जब है नहीं तो कारण माने कैसे? यह प्रश्न उठने लगा जैन सिद्धांत की अनभिज्ञता से । और इसके लिये क्या कहा जाये? यह कोई निर्णय नहीं है कि बहुत सा धनिक वर्ग असंयम में ही मोक्ष मिलने की कल्पना करके किसी बात को कहने लगे तो वह बात ठीक ही है । जो ठीक है सो ठीक है ।
ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में भाव क्षणवर्ती पर्याय का ही परिचय―एक दृष्टि है जैन सिद्धांत में ऋजुसूत्रनय की । और ऋजुसूत्रनय की विवक्षा में बड़ी हैरान बुद्धि हो जाती है । कुछ कह नहीं सकते । कुछ व्यवहार ही नहीं चल सकता । जैसे कहीं रुई जल रही है किसी की दुकान में और वह स्याद्वादी नहीं है । वह आजकल का जैसा नये दिमाग का जैन हो या क्षणिक बादी बौद्ध हो तो मुख से यह न कह सकेगा कि रुई जल रही है । उसकी रुई खतम हो जायेगी । क्यों नहीं कह सकता? इसलिये कि जो रुई है वह जल नहीं रही और जो जल रही वह रुई नहीं । बताओ जो जल रही उसे आप रुई कह सकते क्या? अरे वह तो आग है, रुई नहीं है, और जो रुई है वह जल नहीं रही । तो लोग कहेंगे कि यह तो झूठ बक रहा । रुई कभी जल नहीं सकती । जो रुई है वह जल नहीं रही और जल रही वह रुई नहीं । स्याद्वाद का कितना उपकार है । आज उसके विरोध के कारण लोग चंचल बन गये । उनका मार्ग एक नहीं रह सका । वे लक्ष्य में क्या लेवें? हमको एक भींट दिख रही है सामने की । तो सामने की भींट दिखने से यदि हम ऐसा एकांत कर बैठें कि दूसरी भींट इस कमरे में है ही नहीं और ऐसा कहने के अनुसार बात हो जाये तब तो फिर छत गिर जायेगी और हम आप सब भी दबकर मर जायेंगे । तो जरा ढंग से सोचो कि इस भवन में चारों तरफ भींट है । खंभा है सब कुछ है मगर यह भींट हमें अधिक पसंद आयी, क्योंकि इसका चित्राय अच्छा है । ढंग अच्छा है, इसलिये देख रहे हैं तब तो गुजारा चल जायेगा और अगर यह कहा जाये कि अन्य भींट है ही नहीं और अगर भवन भी हमारी आज्ञा में हो कि जैसा हम कहें वैसा हो जाये तो बस अभी गिर जायेगा सब भवन । यह हालत चलेगी ।
स्याद्वादशासन के अनभ्यस्त की हालत―वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक है इसके विषय में जैसा अन्य दार्शनिकों ने किया कि किसी ने पर्याय को न मानकर द्रव्य को ही मानकर वर्णन किया और किसी ने द्रव्य को न मानकर पर्याय का ही वर्णन किया । ऐसा ही आज के प्रसार में है कि कोई पुस्तकरूप लंबा कथन द्रव्य को न मानकर केवल पर्याय को ही मान करके कहा । जैसे―सारे जीवन रटन लगाना―पर्याय अकारण का है । उसका कोई कारण नहीं है, क्योंकि अन्य चीज है ही नहीं, जिस समय जो पर्याय है उस समय में पूर्व पर्याय है ही नहीं । यह कथन क्षणिकवादियों का है । जिसे अपनी प्रसिद्धि के लिये यह बात जरूरी है वह कुछ विचित्र कहेगा तभी मनोरथ पूरा होगा तो यहाँ द्रव्य को बिल्कुल नहीं माना, केवल पर्याय को ही पूरा पदार्थ मानकर कथन है । और कहीं वह आत्मतत्त्व अपरिणामी ध्रुव है, जिसमें पर्याय है ही नहीं, पर्याय व्यवहार है और व्यवहार सब झूठा है वहाँ कुछ परिणमन ही नहीं ऐसा एकांत करके कहना तो वहां पर्याय नहीं माना । सिर्फ द्रव्य माना । यही बात अन्य दार्शनिकों ने की । वे अन्य दार्शनिक उल्टे तो चले । पर पागल न बने क्योंकि उन्होंने एक ही बात कही । जो पर्याय नहीं मानता और केवल द्रव्य ही मानता उसने शुरू से लेकर अंत तक वही बात कही । मगर यहाँ द्रव्य को न मानकर अन्वय का निषेध कर पर्याय को ही पूर्ण वस्तु बनाकर बात कहना, कभी पर्याय को न मानकर द्रव्य की ही कल्पना की बात करना, जैसे कभी माँ की स्त्री कहना, स्त्री को मां कहना । हाँ गौण मुख्य का तो उपदेश है पर जैन शासन में द्रव्यपर्यायात्मक सत् में एक का न करके दूसरे का ही करने का उपदेश नहीं है । इस जगह आप ऐसा विश्वास करके बैठें कि इस भवन में चारों तरफ उसका आधार है और फिर एक को देखते रहें तो आप आराम से मौज लेंगे । आपकी प्रतीति तो है कि चारों तरफ आधार है, पर अन्य का निषेध करके केवल एक को ही मान कर चलने में एक भीतर की शल्य खतम नहीं हो सकती ।
आकाश और आकाश के प्रदेशों की चर्चा―यहाँ बात चल रही है कि वैशेषिक लोग 7 पदार्थ मानते हैं । द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव और इन सबके सबको जैन शासन भी बताता है, मगर सातों के सातों एक ही पदार्थ हैं । ये 7 पदार्थ नहीं हैं । द्रव्य की ही शक्ति गुण है, द्रव्य की ही परिणति कर्म है, द्रव्य की समानता सामान्य है, द्रव्य की विलक्षणता विशेष है, और भेद है ही नहीं और भेद करके समझाया जा रहा तो ऐसा भेद करने पर भी अभेद समझना । यह संकेत समवाय का है । और विवक्षित द्रव्य अन्य सबके अभावरूप हैं सो यह अभाव बन गया । एक ही चीज 7 रूप से समझी जाती है मगर वैशेषिकदर्शन में पृथक-पृथक रूप से माना उसके आधार पर यहाँ आकाश के प्रदेशों के बारे में चर्चा चल रही है । आकाश में कितने प्रदेश हैं, कितना विस्तार है, यह वर्णन चलेगा ।
आकाश से आकाश प्रदेशों को सर्वथा भेष मानने वालों के भिन्न प्रदेश को द्रव्य मानने की असिद्धि―जो दार्शनिक आकाश के प्रदेशों को आकाश से सर्वथा भिन्न मानते हैं वे यह बतायें कि आकाश के प्रदेश जो आकाश द्रव्य से भिन्न हैं वे प्रदेश क्या द्रव्य कहलाते हैं या गुण, कर्म आदिक कहलाते हैं । यदि उन प्रदेशों को द्रव्य माना जाये तो इसका अर्थ यह हुआ कि जितने भी प्रदेश हैं वे सब एक-एक आकाश द्रव्य हैं । और यों अनेक आकाश द्रव्य बन जायेंगे । क्योंकि यहाँ भेद करने पर एक-एक प्रदेश का आदि अंत बन गया । जब आदि अंत बन गया तो प्रत्येक प्रदेश एक-एक आकाश द्रव्य हो गये किंतु शंकाकार ने भी आकाश को एक द्रव्य माना है । अनेक द्रव्यों से मिलकर कोई एक द्रव्य नहीं कहलाता है । तो इन प्रदेशों को द्रव्य तो कह नहीं सकते । द्रव्य तो वह एक आकाश ही है । प्रदेश तो उसका माना गया अवयव है । अवयव दो किस्म से निरखा जाता है―(1) एक तो द्रव्यरूप से अवयव―जैसे घट, पट आदिक में 1-1 परमाणु उसका भाग है । कुछ-कुछ परमाणुओं के छोटे-छोटे स्कंध के घट के अवयव हैं तो वे सब स्वतंत्र-स्वतंत्र पदार्थ हैं । किंतु एक अखंड द्रव्य जो बहुत विस्तृत हो उसके स्वक्षेत्र के अवयव माने जाते हैं । लेकिन यहाँ शंकाकार प्रदेशों को आकाश से सर्वथा भिन्न मान रहा है । तो उनके यहाँ यों अनेक आकाश द्रव्य बन बैठेंगे ।
आकाश से आकाश प्रदेशों को सर्वथा भेद मानने वालों के यहाँ भिन्न प्रदेश को गुण मानने को असिद्धि―अब शंकाकार यदि यह कहे कि हम उन प्रदेशों को गुण मानते हैं । आकाश एक है और उसके अनंत प्रदेश हैं अर्थात अनंत गुण हैं, तो यह कहना बिल्कुल युक्त नहीं है । कारण यह है कि दो द्रव्य पदार्थों का संयोग माना जाता है । जो भी पदार्थ आकाश में हैं तो आकाश भी द्रव्य है, पदार्थ भी द्रव्य है, उन दो का संयोग माना गया है । तो एक विस्तृत आकाश के साथ दूसरे पदार्थ का संयोग हो सकता नहीं । ऐसा कोई मूर्तिमान पदार्थ है ही नहीं जो सारे आकाश में पड़ा हुआ हो, और यह देखा जाता है कि जैसे कलश यहाँ रखा है । अब और उठाकर दूसरे प्रदेश में रख देवें तो यह सब देखा ही जा रहा है । तो उन प्रदेशों के साथ संयोग देखा जा रहा है ना । अभी यह घट इस कमरे के आकाश में है, तो यह ही उठाकर दूसरे कमरे में रख दिया तो वह उन प्रदेशों पर आ गया । तो यों प्रदेश पर संयोग हो रहा है, किंतु अब प्रदेश को मान लिया गया गुण, तो गुण में और गुण या द्रव्य का संयोग नहीं हुआ करता । आकाश प्रदेश को गुण मान लिया गुणांतर का आश्रय फिर गुण में नहीं बन सकता । वैशेषिकों ने संयोग, वियोग, संख्या, परिमाण, द्रव्यत्व, परत्व, अपरत्व इन्हें साधारण गुण माना है । और ये सब साधारण गुण आकाश प्रदेश में पाये जाते हैं । लेकिन शंकाकार के इस पक्ष से कि आकाश के प्रदेश गुण हैं तो उन प्रदेशों में फिर ये गुण नहीं बन सकते हैं ।
आकाश के प्रदेशों को आकाश से सर्वथा भिन्न और गुणरूप मानने पर प्रदेशों में संयोग विभाग आदि की असिद्धि का संक्षिप्त विवरण―प्रदेशों में संयोग किस तरह हो रहा कि एक कलश यहाँ रखा है । उसे उठाकर दो हाथ दूर रख दिया तो अभी इन प्रदेशों में संयोग था अब उन प्रदेशों में संयोग हो गया तो यह संयोग स्पष्ट दिखता है । पर प्रदेशों को गुण मानने पर फिर संयोग न बन सकेगा । विभाग की भी बात देखिये । कोई दो चीजें इकट्ठी रखी हों या हाथ से कलश पकड़ा हुआ है । बाद में छोड़ दिया तो यह विभाग बन गया । इन विभागों का अर्थ यह ही तो रहा कि घड़ा उन प्रदेशों में रहा अब यह हाथ इन प्रदेशों में आ गया । तो विभाग भी उन प्रदेशों के साथ लग रहा है, लेकिन विभाग गुण अब प्रदेश में बन न सकेगा । क्योंकि शंकाकार ने प्रदेश को गुण मान रखा है । संख्या की भी बात देखो, आकाश का एक प्रदेश, आकाश के दो प्रदेश, संख्या प्रदेश आदिक संख्यायें भी तो हुआ करती हैं । संख्या को वैशेषिकों ने गुण माना है और आकाश के प्रदेशों को यहाँ गुण मानने का पक्ष कर रहे हैं तो कैसे अब प्रदेशों की संख्या बन सकेगी? संख्या द्रव्य की हुआ करती । जैसे संयोग और विभाग द्रव्यों में हुआ करता है ऐसे ही संख्या भी द्रव्य की होती है । गुणों में संख्या का संयोग नही बनता । प्रदेशों में पृथक्त्व भी देखा जाता है । जैसे मान लो दिल्ली अपनी जगह के आकाश प्रदेशों में है तो कानपुर अन्य आकाश प्रदेशों में है । तो प्रदेश पृथक-पृथक हैं ना, लेकिन अब शंकाकार जिस प्रदेश को गुण समझ रहा है तो अब वहाँ पृथक्त्व न पाया जा सकेगा, क्योंकि वैशेषिकों के यहाँ पृथक्त्व एक गुण है और गुण द्रव्य में ही रहते हैं, गुणों में गुण नहीं रहते । उन्होंने स्वयं माना है―निर्गुणा गुणा: और साथ ही यह भी कहते हैं―गुणादिनिर्गुण: क्रिया याने गुण आदिक कर्म सामान्य समवाय आदिक ये गुण रहित होते हैं और क्रियारहित होते हैं । तो अब प्रदेशों को गुण मानने के बाद इसमें कोई गुण न होना चाहिये और देखा जाता है अगर न हो तो कोई सिद्ध ही नही बन सकता । आकाश प्रदेशों में परिमाण भी देखा जाता है । जैसे इस चौकी के आकाश प्रदेशों से तखत का आकाश प्रदेश महान है । परिमाण भी स्पष्ट नजर आ रहा है, पर परिमाण शंकाकार के यहाँ गुण है । और अब प्रदेशों को भी गुण मानने का पक्ष किया है तो प्रदेशों में परिमाण नहीं बन सकता है । परत्व अपरत्व गुण भी प्रदेशों में नहीं बन सकते । जैसे विदित होता है कि अमुक नगर इस नगर से पास है, इस नगर से दूर है । ऐसा जो उनमें परत्व अपरत्व मालूम हो रहा है सो अब यह बात न मालूम हो सकेगी, क्योंकि आकाश के प्रदेशों को शंकाकार ने गुण मानने का पक्ष लिया है । तो गुणों में परत्व अपरत्व ये गुण नहीं आ सकते हैं । तो यों प्रदेशों को गुण मानने पर कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता । तो यों आकाश के प्रदेशों को आकाश से भिन्न मानने वाले शंकाकर प्रदेशों को गुण भी सिद्ध नहीं कर सकते ।
अवयव संयोगपूर्वक अवयवी संयोग होने के कारण आकाश प्रदेशों के साथ पदार्थों का संयोग होने पर अवयवी आकाश में पदार्थों के अवगाह की सिद्धि―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि जो संयोग विभाग आदिक गुण ऊपर चर्चा में लाये हैं वे गुण तो प्रदेशी आकाश में रहते हैं । प्रदेशों में नहीं रहते, फिर यह संयोग विभाग न बन सकेगा, यह दोष कैसे दिया जायेगा? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि प्रदेश तो हैं अवयव और प्रदेशी आकाश है एक द्रव्य । तो अवयव के संयोगपूर्वक अवयवी का संयोग देखा जाता है, तो अवयवों में संयोग होने के मायने अवयवी से ही संयोग हुआ । जैसे हाथ से किसी ने पुस्तक ग्रहण की, तो पुस्तक का संयोग हाथ के अवयव से हुआ, पर इसी के मायने यह हुआ कि पुस्तक का संयोग शरीर से हुआ । तो पुस्तक और हाथ इनका संयोग तो कहलाया अवयव सो चूंकि अवयव अवयवी से पृथक नहीं है इस कारण वह संयोग अवयवी से ही कहलाया । तो ऐसे ही आकाश के प्रदेशों में ये संयोग विभाग आदिक देखे जाते हैं, कहीं समूचे आकाश में नहीं देखे जाते । तो अवयव के संयोगपूर्वक अवयवी का संयोग स्वयं शंकाकार ने माना है तो वह अवयवों का ही संयोग कहलाया यदि प्रदेशी का ही संयोग कहा जाये, अवयवों का संयोग न कहा जाये तो संयोग बन ही नहीं सकता है ।
आकाश से आकाशप्रदेशों को सर्वथा भिन्न मानने पर व उन्हें गुण मानने पर पदार्थों के साथ तीनों ही प्रकार के संयोगों की अनुपपत्ति―संयोग वैशेषिक दर्शन में तीन प्रकार के माने गये हैं । कर्म जन्य संयोग, उभयकर्मजन्य संयोग और संयोगज संयोग । जैसे कोई पक्षी आकर वृक्ष की डाल पर बैठ गया तो यह एकान्यतर कर्मजन्य संयोग हुआ । पक्षी ने कर्म किया, क्रिया की, उड़कर आया पक्षी और इस आकाश प्रदेश पर ठहर गया । तो यहां क्रिया एक ही ओर से हुई । प्रदेश तो जहाँ था वहाँ ही है । तो यह कहलाया एक ही ओर से क्रिया जन्य संयोग, किंतु जो प्रदेशों में संयोग न माने और पूरे प्रदेशी आकाश में संयोग माने उनका यह संयोग बन ही नहीं सकता । दूसरा संयोग माना है उभयकर्मजन्य संयोग । जैसे दो बकरे दूर-दूर खड़े हैं और एकदम चले और लड़ने लगे तो उन दो बकरों का जो संयोग हुआ है या उस आकाश में जो दो का संयोग बना है सो दोनों बकरों की क्रिया के बाद बना है । दूर-दूर खड़े थे वे बकरे और दोनों ही क्रिया करके आये और यह संयोग बना । तो यह प्रदेशों में ही तो संयोग रहा । अगर प्रदेशों में संयोग न माने और एक प्रदेशी आकाश में ही संयोग माने इस पूरे आकाश को व्यापकर संयोग होता तो प्रदेशी का संयोग कहा जाता । सो जो आकाश के प्रदेशों को आकाश से भिन्न मानते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं कि पदार्थों का संयोग प्रदेशी में होता है प्रदेश में नहीं । तो यह एकदम प्रत्यक्ष विरोध है । तीसरा संयोग होता है संयोगज संयोग । जैसे हाथ का संयोग चौकी से हुआ तो इसके मायने शरीर से ही संयोग हुआ, यह कहलाया अवयव संयोगपूर्वक अवयवी का संयोग । तो यह तो तब माना जाए जब पहले अवयवों में संयोग समझ लिया जाये । तो जो आकाश के प्रदेशों को आकाश से सर्वथा भिन्न मानते हैं उनका यह संयोग विभाग आदिक नहीं बन सकता ।
आकाश प्रदेशों को आकाश के सर्वथा भिन्न मानने वालों के प्रदेशों को कर्म आदि भी मानने की असिद्धि―प्रदेशों को सर्वथा भिन्न मानने वाले प्रदेशों को द्रव्य माने तो युक्त नहीं है, प्रदेशों को गुण माने तो युक्त नहीं है । अब यदि शंकाकार उन प्रदेशों को कर्म माने तो यह तो बिल्कुल ही अयुक्त है । इन प्रदेशों में क्रिया कहां हो रही? वे तो नित्य अवस्थित हैं, तो उनकी क्रिया भी नहीं कह सकते हैं । सामान्य भी नहीं कह सकते । कहीं कोई प्रदेश अनुगत नहीं हो रहे । किसी एक पूरे में वही नहीं जा रहा है विशेष भी नहीं मान सकते, समवाय भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जैसे उन प्रदेशों में यह प्रदेश यही प्रदेश है, अनुवृत्ति नहीं बनती, ऐसे ही यह इससे जुदा है, यह इससे जुदा है, यह विशेष भी नहीं बनता । ये सब बातें द्रव्य में हुआ करती हैं, और जब यह कुछ नहीं बन रहा तो समवाय की जरूरत क्या रही? अभाव तो कहा ही नहीं जा सकता । तो आकाश के प्रदेश आकाश से भिन्न नहीं माने जा सकते हैं, और यह भी नहीं माना जा सकता कि वह कोई अन्य पदार्थ है, क्योंकि शंकाकार वैशेषिक ने पदार्थ 6 ही माने हैं । 7वां कोई भावात्मक पदार्थ नहीं है ।
निरंशत्व ब व्यापकत्व दोनों की एक द्रव्य में संभवता न होने से व्यापक आकाश के सांशत्व की सिद्धि―अब शंकाकार कहता है कि पदार्थ 6 ही होते, उसके नियम का विरोध नहीं है और वे द्रव्य, गुण, कर्म आदिक भी नहीं हैं प्रदेश, सो इसीलिए यह मान लीजिए कि आकाश के प्रदेश मुख्य चीज नहीं हैं, वे कल्पित हैं, उपचरित हैं । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि यह कहना बिल्कुल अयुक्त है कि आकाश के प्रदेश मुख्य नहीं हैं, क्योंकि मुख्य कार्य देखा जा रहा है । प्रदेशों का मुख्य कार्य है पदार्थों का अवगाह । सो जब पदार्थ अवगाहित हैं, आकाश में चौकी रखी, तखत रखा, पुस्तक रखी, यों जब इन पदार्थों का अवगाह है तो उन्हें उपचरित पदार्थ कैसे कहा जा सकता? अगर प्रदेशों को मात्र कल्पित माना जाये तो मुख्य कार्य जो अवगाहन है फिर उसका योग नहीं बन सकता है । कहीं कल्पित अग्नि से रोटी बन सकती है क्या? नहीं । ऐसे ही कल्पित प्रदेशों में कहीं पदार्थों का अवगाह हो सकता है क्या? नहीं । इस कारण यह तो न कहना कि आकाश के प्रदेश मुख्य नहीं हैं किंतु उपचरित हैं । अब शंकाकार कहता है कि आकाश तो निरंश है और निरंश होने पर भी व्यापक है इसलिए पदार्थों का आकाश में अवगाह हो जाया करता है । तो उत्तर इसका यह है कि कोई पदार्थ निरंश हो और फिर व्यापक हो, इन दोनों बातों का विरोध है । शंकाकार पुन: कह रहा है कि यह बात तो प्रमाण सिद्ध है । आकाश व्यापक है, इसका कोई निषेध नहीं कर सकता । और साथ ही वह निरंश भी है । आकाश निरंश है, क्योंकि यह सर्व जगह में व्यापक है । जो निरंश नहीं होता वह सर्वलोक में व्यापक नहीं हो सकता । जैसे घट पट आदिक ये निरंश नहीं हैं, इनके अलग हिस्से हैं । तो ये व्यापक भी नहीं हैं । आकाश सर्व जगह में व्यापक है तो वह निरंश है, ऐसी शंका को पुष्ट करने के लिये शंकाकार कहे तो वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि देखो परमाणु निरंश है ना । परमाणु के और अंश नहीं होते मगर वह शंकाकार व्यापक कहता है तो जो यह प्रतिज्ञा कर रहे थे कि जो निरंश है सो व्यापक है देखो व्यभिचार, परमाणु तो निरंश है, पर वह व्यापक नहीं है । यदि शंकाकार उस परमाणु को भी मानने लगे याने उसे भी पक्ष बना लिया जाए जिससे कि हेतु में दोष न आये तो यह कहना भी अयुक्त है । परमाणु एक प्रदेशी है । यह परमाणु पूर्ण शुद्ध है और जब अनंत परमाणुओं का पिंड वह सांत देखा जा रहा है तो उनमें एक परमाणु कैसे व्यापक कहला सकेगा? तो यह नहीं कहा जा सकता कि आकाश व्यापक है और निरंश है । आकाश व्यापक तो है मगर एक प्रदेशी नहीं है । वह अनंत प्रदेशी है ।
आकाश प्रदेशों के अकल्पित मुख्यत्व की सिद्धि―शंकाकार कहता है कि आकाश के प्रदेश मुख्य नहीं हैं क्योंकि वे स्वयं स्वतः प्रतिपाद्य नहीं हो सकते परमाणु की तरह । जैसे परमाणु स्वयं समझा नहीं जा सकता ऐसे ही आकाश के प्रदेश भी स्वयं समझे नहीं जा सकते । प्रदेश तो मुख्य घट पट आदिक पदार्थ जो सामने भौतिक नजर आ रहे हैं उनमें तो मुख्य प्रदेश कहे जा सकते हैं । शंका के समाधान में कहते हैं कि यदि आकाश के प्रदेश मुख्य नहीं हैं, तो फिर परमाणुओं का समूह रूप स्कंध भी, उसके अवयव भी फिर मुख्य न होना चाहिये । तो यह नहीं कहा जा सकता कि जो प्रदेश स्वत: समझ में न आये वे मुख्य नहीं कहलाते । यदि यह कहा जाए कि परमाणु का एक प्रदेश अत्यंत परोक्ष है, वह हम लोगों को स्वत: समझ में नहीं आता तो यह ही उत्तर तो आकाश प्रदेश में है । आकाश प्रदेश भी अत्यंत परोक्ष है । वह भी हमको स्वत: समझ में नहीं आ सकता । सर्वज्ञ देव को जो अतींद्रिय पदार्थों की दृष्टि है उनको तो जैसे परमाणु में प्रदेश हैं ये स्वत: ज्ञान में आ रहा है ऐसे ही आकाश आदिक के प्रदेश भी स्वत: ज्ञान में आ रहे हैं । तो इससे ही सिद्ध हुआ कि आकाश के प्रदेश मुख्य हैं और वे सब अंश हैं । जरा शंकाकार यह बतायें कि जैसे उन्होंने माना है कि कर्णेंद्रिय आकाश है याने कर्णबिल में अदृष्ट जो सद्भूत आकाश के प्रदेश हैं उनको श्रोत्र माना है, तो वे यह बतलाये कि उस कर्णेंद्रिय में सारा आकाश है या नहीं? यदि कहो कि सारा आकाश है तो सारी दुनिया के शब्द सुनाई देना चाहिए, क्योंकि उन्होंने शब्द को आकाश का गुण माना है, और यदि कहो कि सारा आकाश नहीं है तो प्रदेश सिद्ध हो ही गया । प्रतिनियत प्रदेश है । थोड़े प्रदेश हैं, और भी देखिये कि एक परमाणु सारे आकाश से संयुक्त है या नहीं । अगर कहो कि सारे आकाश से संयुक्त है तब तो आकाश परमाणुमात्र रहे या परमाणु आकाश बराबर हो जाये । सो यह कुछ भी नहीं है । यदि कहो कि सारे आकाश से संयुक्त नहीं है तो उसका यह ही तो अर्थ हुआ कि वह भी प्रदेशों से संयुक्त है । तो यों प्रदेश मुख्य ही तो कहलाया । स्पष्ट ही तो देखा जाता कि कुछ प्रदेशों से हटकर पीछे अन्य प्रदेशों में पहुँच गया तो सारा आकाश का संयोग तो नही कहलाया । जिन प्रदेशों का संयोग हुआ वे उतने ही प्रदेश हैं । तो इस प्रकार आकाश के प्रदेश बहुत हैं, और इस दृष्टि से आकाश सांश है । अनुमान से भी सिद्ध होता है कि आकाश कथंचित् अंशों से सहित है, क्योंकि अनेक परमाणु आकाश के एक-एक प्रदेश करके संयुक्त होते रहते हैं । घट कहीं है, यह कही है, वहाँ यह सिद्ध होता है कि आकाश सांश है और कुछ अवयवों में वे पदार्थ रूखे हैं । यदि आकाश को सांश न माने तो अनेक आकाश मानने पड़ेंगे । घट किसी अन्य आकाश में रह रहा, पट किसी अन्य आकाश में रह रहा तो यों आकाश ही आकाश पूरा अनेक अनंत द्रव्य बन जायेगा । इससे यह मानना ही चाहिये कि आकाश तो द्रव्य है और उसके अनंत प्रदेश हुआ करते हैं । उन अनंत प्रदेशों में जितनी जगह में सारा लोक पड़ा हुआ है वह तो असंख्यात प्रदेश है और उससे अतिरिक्त लोक के बाहर जितना भी आकाश पड़ा है वह अनंत प्रदेशी है । इस प्रकार सूत्र में जो कहा जा रहा है कि आकाश के अनंत प्रदेश हैं वह पूर्णतया सही कथन है ।
आकाश तत्त्व विषयक, सिद्धांत―सिद्धांत यह है कि आकाश व्यापक एक अखंड पदार्थ कथंचित् अंश सहित होता, क्योंकि परमाणुओं कैसा एक देश से उनका संयोग है स्कंध की तरह, जैसे चौकी चटाई आदिक स्कंध आकाश के एक देश में संयुक्त हैं इसी प्रकार परमाणु भी आकाश के एक हिस्से में संयुक्त है, इससे जाना जाता है कि आकाश अंश सहित है । तो परमाणु का समस्त आकाश के साथ संयोग मानने पर दो दोष आते हैं, या तो समग्र आकाश परमाणुमात्र बराबर हो जायेगा या आकाश असंख्यात हो जायेंगे । जितने-जितने एक प्रदेश हैं अर्थात् परमाणु के द्वारा रोके गये क्षेत्र हैं उतने ही उतने आकाश मानने पड़ेंगे । अत: यह ही स्वरूप है कि आकाश है तो एक अखंड द्रव्य किंतु वह है अनंत प्रदेशी । एक अखंड द्रव्य का परिचय यह है कि एक परिणमन उस पूरे द्रव्य में होता है । आकाश में जो भी परिणमन होते, होते सूक्ष्म अगुरुलघुत्व गुण के हानि वृद्धि रूप से, पर जो भी परिणमन है वह समग्र आकाश का परिणमन है । जैसे यहाँ देह में एक अंगुली में कुछ परिणमन हो तो पूरे देह में नही होता । अंगुली सड़ गई और-और सारा देह नहीं सड़ा या चौकी का एक हिस्सा जल गया तो सारी चौकी भस्म नहीं हुई, इससे यह जाना जाता है कि देह चौकी आदिक एक पदार्थ नहीं हैं, यह अनेक पदार्थों का संयोग है, किंतु आकाश या अन्य अखंड द्रव्य में ऐसा न हो सकेगा कि कोई परिणमन उसके एक हिस्से में हो और बाकी हिस्से में न हो, यह है एक द्रव्य के समझने की कुंजी । तो इस तरह यहाँ आकाश एक द्रव्य है, साथ ही वह अंश सहित है।
आकाश को बहुप्रदेशी माने बिना संयोग विभाग क्रिया सभी के अभाव का प्रसंग―अब यहाँ वैशेषिक शंकाकार शंका करता है कि हम न तो परमाणु के साथ आकाश को एक देश से संयुक्त मानते और न सर्वरूप से संयुक्त मानते किंतु है उसका संयोग घट आदिक के साथ । जैसे कि कोई अवयवी अवयव के साथ संयुक्त है अथवा सामान्य अपने आश्रयभूत पदार्थ के साथ संयुक्त है इसी तरह आकाश भी घटपट आदिक के साथ संयुक्त है । इसके समाधान में कहते हैं कि यह बात तो ज्यों की त्यों रही । उदाहरण में भी यही बात समस्या की बनी रहती है कि अवयवी का अवयवों से जो संयोग मानते हो तो अवयवी को मान रहे निरंश और अवयवों के साथ मान रहे संबंध, तो प्रथम तो यह ही बात गलत है और फिर अवयव रहे भिन्न, अवयवी रहा भिन्न, मायने कोई एक पदार्थ वह तो रहा जुदा और उसका हिस्सा रहे जुदा तो जो एकांत से भिन्न है उसमें संबंध सिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ पर भी ये ही विकल्प उठेंगे कि एकदेश के साथ अवयवों का संयोग हुआ है या समग्र अवयवी के साथ हुआ है? अगर अवयवी के एकदेश में संयोग हुआ है तो वह अंश सहित सिद्ध हो गया और यदि सर्वदेश मे संबंध है तो पहले दिये गये दोष आते हैं ।
अखंड बहुप्रदेशी द्रव्य के प्रदेशों का कथंचित् तादात्म्य मानने में विवाद की समाप्ति―उक्त दोषों के भय से यदि शंकाकार कहे कि हम तो कथंचित् तादात्म्य मानते हैं और उसी को ही संबंध स्वीकार करते हैं तो यह तो स्याद्वाद का सिद्धांत हुआ । सामान्य और सामान्यवान में कथचित् तादात्म्य माना गया है । तादात्म्य ही है मगर जब संज्ञा दो कर दी, सामान्य और सामान्यवान, तो संज्ञा आदिक की दृष्टि से कथंचित् भेद बना और इसीलिए कथंचित् तादात्म्य कहा जा रहा । इसी प्रकार अवयव और अवयवी का कथंचित् तादात्म्य माना गया है । जैसे आकाश एक द्रव्य है और उसके अवयव मायने प्रदेश अनंत हैं तो उन अनंत प्रदेशों का आकाश से तादात्म्य संबंध है और इस तरह जब कि आकाश सांश बन गया तो आकाश के किसी हिस्से में परमाणु स्कंधों का संयोग बन जाता है । इस प्रकार सिद्ध हुआ कि आकाश अंश सहित है । अब अन्य घटनाओं से आकाश को अंश सहित समझियेगा । आकाश अंश सहित है, अन्यथा पक्षी मेढ़ा आदिक का कर्मजन्य संयोग विभाग नहीं बन सकता । अर्थात् कोई एक पक्षी किसी वृक्ष से उड़कर दूसरे वृक्ष पर बैठ गया तो जिस वृक्ष से हटा उन आकाश प्रदेशों से वियोग हुआ और जिस वृक्ष पर बैठा वहाँ के आकाश प्रदेशों से संयोग हुआ । तो आकाश के प्रदेश अनेक हैं, और आकाश अंश सहित है, यह माने बिना संयोग वियोग नहीं बन सकता । अथवा दो बकरे दूर-दूर खड़े हैं । उन दोनों को क्रोध आया तो एकदम एक दूसरे से भिड़ने लगते हैं, लड़ने लगते हैं, कुछ देर लड़कर फिर हटकर वैसे ही पीछे लौट जाते हैं, तो दो मेढ़ों में जो कर्म हुआ, क्रिया हुई संयोग के लिए तो वह क्रिया यह सिद्ध करती है कि आकाश के अंश हैं, और आकाश के अन्य अंशों में वे दोनों ठहरे थे । अब क्रिया करके उन अंशों को बदलकर अन्य अंशों में पहुँच गए, फिर वहाँ से भी हटकर अन्य आकाश के प्रदेशों पर पहुँच गए तो यदि आकाश में अंश न होते, केवल एक ही निरंश आकाश होता तो यह एक की क्रिया से संयोग वियोग होना न बनता और न दोनों की क्रिया से संयोग वियोग होना बनता । एक बात यह भी देखिये कि यदि आकाश में प्रदेश न होते तो कोई भी क्रिया न बनती । क्रिया का अर्थ यह है कि एक देश से अन्य देश में पहुँच जाने का जो उपाय है उसका नाम क्रिया है । जब प्रदेश ही नहीं मानते कोई तो एक देश और अन्य देश ये घटित ही नहीं हो सकते और इसी कारण यह गाँव पहले हैं वह गाँव, बाद में है या इस पर्वत से दूसरा पर्वत बहुत अलग है, यह कोई भी व्यवहार न बन सकता था । तो भले प्रकार से विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि आकाश आदिक अंश सहित हैं ।
आकाश के अनंत प्रदेशों का परिचयन―अब प्रश्न होता है कि आकाश के अनंत प्रदेश हैं यह किस तरह सिद्ध होता है? प्रदेश तो कहीं संख्यात भी होते कहीं असंख्यात भी होते, पर यहाँ आकाश के अनंत प्रदेश कह रहे हैं यह कैसे सिद्ध हो सकेगा? तो इसके समाधान में कहते हैं कि सब ओर से आकाश के प्रदेश अनंतानंत होते हैं, क्योंकि तीन लोक से बाहर कोई नियत प्रांत नहीं है, अर्थात् लोक से बाहर कुछ पदार्थ नहीं । जो अनंत प्रदेशी नहीं होता उसका तीनों लोकों से बाहर सब ओर प्रांत का अभाव नहीं पाया जाता । जैसे परमाणु घटपट आदिक ये सब पदार्थ नियत स्थान में ही रहते हैं । तात्पर्य यह है कि लोक की सीमा है, आगे कुछ पदार्थ पाया नहीं जाता, फिर इसके मायने यह ही हुआ कि आकाश पाया जाता । यदि आगे आकाश न पाकर और कुछ है तो उसका नाम बताओ क्या है? अगर कोई द्रव्य है तो उसका भी आखिर है, जो पदार्थ हैं द्रव्य रूप परिमित उनका अंत होता है । तो उन द्रव्यों के बाद भी कुछ है, वह आकाश है अन्यथा बताओ क्या हे । कोई कहे कि और कोई पदार्थ है तो उनका भी अंत है । आखिर यह मानना ही पड़ेगा कि लोक के बाहर केवल आकाश ही आकाश है । कल्पना में यह लाओ कि चाहे कितने ही लोक हों―अर्द्धलोक, मध्यलोक अधोलोक था अन्य लोगों के द्वारा माने गये तीन लोक, 14 लोक हैं वे मान लिये जायें हजारों, लाखों भी मान लिये जायें तो भी इनकी अवधि जरूर मानी जायेगी । ये मूर्तिक पिंडभूत पदार्थ हैं ये अवधि सहित हैं । तो जब अवधि सहित हैं तो उन अवधि सहित पदार्थों का जो समूह है वह हो गया लोक, तो उससे बाहर क्या है ? अगर लोक है तो उसका भी अंत है, उसके बाहर क्या है? तो मानना ही पड़ेगा कि लोक के बाहर कोई भावात्मक अनंत प्रदेशी पदार्थ है ।
लोकवहिर्गत आकाश प्रदेशों का अखंडाकाश स्वरूपता―लोक के बाहर मात्र अभाव है, इतने से काम न चलेगा, क्योंकि लोक के बाहर जो कुछ भी भावात्मक पदार्थ हैं उनमें यह योग्यता है कि वहाँ कोई लोक पहुँचे तो अवगाह कर सकता । पहुँचता नहीं यह बात अलग है, क्योंकि लोक से बाहर धर्म द्रव्य व किसी अधर्मद्रव्य का सद्भाव नहीं है, मगर अवगाहन की योग्यता कहीं नहीं चली गई और इसी कारण वह अर्थ क्रिया करने में समर्थ है । अगुरुलघुत्व गुण की हानि वृद्धि के कारण होने वाली अर्थ क्रिया तो चलती ही रहती है, पर अवगाहन योग्यता का अभाव भी नहीं हो सकता । वह भावात्मक पदार्थ है । तो इस अवधि सहित लोक के बाहर जो भी भावात्मक है वह आकाश के सिवाय अन्य कुछ द्रव्य नहीं हो सकता क्योंकि अन्य द्रव्य मानेंगे तो उसका भी अंत है । फिर आगे क्या है यह प्रश्न चलता जायेगा । तो लोक से बाहर यदि गुण ही माना जाये, द्रव्य कुछ न माने तो वह गुण किसके आश्रय है जिसके आश्रय हो वह मानना ही पड़ेगा । सो जो माने कि बाहर द्रव्य कुछ है ही नही तो गुण भी नहीं है । इसी तरह कर्म सामान्य विशेष कुछ भी न माना जा सकेगा? आकाश द्रव्य ही सीधा है और फिर आकाश के नाते सामान्य विशेष प्रदेश से उसके ये सब चल सकते हैं । परिणमन भी चलेगा मगर द्रव्य नहीं है कुछ और गुण कर्म आदिक हैं वहाँ यह बात बिल्कुल संगत नहीं है । तो जब वैशेषिक सम्मत गुण कर्म आदिक नहीं हो सकते लोक से बाहर तो वहां यह बात सिद्ध हुई कि लोक से बाहर आकाश है ।
अनंत लोक धातुओं के होने पर आकाश की अनावश्यकता―अब शंकाकार कहता है कि लौकिक धातुयें अनंतानंत हैं, संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अनंत हैं । वहाँ आकाश ही है, यह बात कैसे कहते हो? सब चीजें हैं और अंत तक हैं । जैसे चलते जा रहे हैं तो वहाँ यह स्थान प्रमाण साथ है, क्योंकि अनंत लोक धातु हैं । इनकी सिद्धि में कोई प्रमाण नहीं । जो प्रमाण, प्रमाण से दूर हों उनका निश्चय करना संभव नहीं है, यदि प्रमाण के बाद सिद्ध हुये बिना अपने मन से किसी भी पदार्थ का सद्भाव मान लिया जाए तो फिर चाहे जो कुछ कह दो उसी में ही प्रमाण मानना पड़ेगा । तो प्रत्यक्ष से या अनुमान से लोकाकाश की सिद्धि नहीं है । पंच द्रव्यों का समुदाय या कहो 6 द्रव्यों का समुदाय बस यही लोक है और इसकी मर्यादा है । इससे बाहर कोई लोक नहीं है और कहना कि कुछ भी नहीं है ऐसा ही मान लो, सो ऐसा तुच्छाभाव भी नहीं है, किंतु आकाश द्रव्य है ।
अनगिनतलोक धातुओं के होने पर भी अंतराल से आकाश पदार्थ की सिद्धि―अब एक बात का विचार करो कि जिन्होंने अनगिनत लोक माना है और निषेध करते हैं कि आकाश सर्वव्यापी कहीं नहीं है । पदार्थ पड़े हैं, लोक पड़े हैं वे यह बतावें कि मान लो हजारों, लाखों लोक हों तो उनमें एक लोक का दूसरे लोक के बीच कुछ अंतराल पड़ा है या नहीं? है, क्योंकि यदि अंतर रहित है तो उनके मध्य में पड़े हुये अंतराल की प्रतीति न होनी चाहिये । जैसे इस चौकी से दूसरी चौकी के बीच में अंतर पड़ा है तो यहाँ भी अंतर मालूम हो रहा । और फिर यदि वे सारे लोक एक दूसरे से अंतर रहित हो जायें तो फिर एक ही लोक रह गया, फिर तुम हजारों लोक कैसे कहते? मान लो किसी जगह 12 केले रखे हैं तो एक केले के बाद दूसरे केले के बीच में कुछ अंतर है ना? चाहे मामूली अंतर हो चाहे अधिक । यदि अंतर बिल्कुल न हो तो वे 12 केले न कहलायेंगे । ये तो एक ही कहलायेंगे । ऐसे ही कितने ही लोक मान लिए जायें तो भी एक लोक से दूसरे लोक के बीच में कुछ अंतर है ना, नहीं तो वे अनेक न कहलायेंगे, एक ही लोक कहलायेगा, क्योंकि जब अंतर रंच भी नहीं है तो एक में सबका प्रवेश हो गया, और यदि एक लोक से दूसरे लोक के बीच में एकदेश रूप से अंतर माने तो सिद्ध हो गया कि आकाश अंत सहित है । आकाश के उतने अंशों में कोई चीज नहीं पड़ी हुई है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि आकाश द्रव्य एक है और वह अनंत प्रदेशी है । वही प्रदेश में कुछ अन्य पदार्थ रहे और लोक से बाहर के प्रदेशों में कोई भी अन्य पदार्थ नहीं पाया जाता और एक लोक से दूसरे लोक के बीच जो अंतर मालूम पड़ता है उससे आकाश ही सिद्ध होता है । अब यहाँ शंकाकार कहता है कि एक चीज में और दूसरी चीज रूप में जो अंतर है सो आकाश नहीं है वहाँ किंतु प्रकाश है । अंधकार है इसका अंतर पड़ा हुआ है । जैसे इस चौकी से उस चौकी में अलग प्रकाश का अंतर है । अगर रात्रि है तो अंधेरे का भी अंतर है । वहाँ कैसे आकाश सिद्ध करोगे ? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि वह प्रकाश न तो कोई अलग तत्त्व है, न उसका कोई अंतर देखा जाता है । प्रकाशमय परमाणु पुद्गल द्रव्य ही हैं अंधकार के परमाणु भी पुद्गल हैं । उनका भी अंतर होगा । अगर अंतर न हो तो सब एक हो जायेंगे । और जो उसके अंतर हैं सो ही आकाश के प्रदेश कहलाये ।
अनंत आकाश को अनंत रूप से ही जानने में सर्वज्ञता―अब यहाँ एक शंका उपस्थित होती है कि कोई यह बतलाये कि समग्र आकाश को किसी ने सर्वज्ञ ने जान पाया या नहीं? अगर भगवान ने आकाश को जान लिया तो उसका अंत आ गया और आकाश को यदि न जाना तो वह सर्वज्ञ ही न रहा । तो चूंकि सर्वज्ञ देव के द्वारा समस्त पदार्थ ज्ञात हैं तो इसके मायने है कि उनका अंत है । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि यह कोई व्यक्त नहीं है कि जो-जो ज्ञान के द्वारा जान लिया जाये उसका अंत जरूर होता है । स्वयं शंकाकार ने वेद को अनंत कहा है और उस वेद का ज्ञाता ब्रह्म या कुछ उपदेश हैं तो लो खुद के वचन के विरूद्ध है । जान गये वेद पर उसका अंत नहीं मानते या इसमें प्रकृति यह भी ज्ञात है और इसे अनंत भी मानते फिर दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञदेव ने आकाश को जाना तो है, पर जैसा है वैसा जाना । आकाश अनंत प्रदेशी है याने जिसका कहीं भी अंत नहीं है, इस ही रूप को जाना है । अनंत को अनंत रूप से जानना सम्यग्ज्ञान है और अनंत का सांत रूप से जानना मिथ्याज्ञान है । सो ज्ञान में आ जाने से पदार्थ अंत सहित नहीं कहलाता । पहले सूत्र में बताया था कि धर्मादिक पदार्थों में असंख्यात प्रदेश होते हैं । यहाँ कह रहे हैं कि आकाश के अनंत प्रदेश होते । तो असंख्यात और अनंत में अंतर है, एक न कहलायेंगे । असंख्यात का तो अंत होता है मगर वह गिनती में नहीं आ सकता कि इतना है, और अनंत गिनती में भी नहीं आ सकता और उनका अंत भी नहीं हो सकता । तो आकाश के अनंत प्रदेश हैं । मान लो कोई बहुत बड़ा समर्थ आकाश में किसी ओर चलता चला जाये ऐसे वेग से तो क्या उसका अंत मिल जायेगा? कल्पना करो कि यदि आकाश का अंत है तो क्या है सो बतलाओ? अगर आकाश का अंत है तो कहेंगे कि कोई ठोस पदार्थ है । तो जहाँ पदार्थ ठोस है वही तो आकाश है और फिर उस ठोस पदार्थ का भी अंत है तो उसके बाद फिर क्या है? आकाश है, आकाश को कितना ही निरखते चले जाओ उसका कही अंत हो ही नहीं सकता । ऐसा अपरिमित आकाश अनंत प्रदेशी है । सर्वज्ञदेव ने यह सब अत्यंत स्पष्ट जाना है । तीन लोक, तीन काल का स्पष्ट ज्ञेय सर्वज्ञ के ज्ञान में होता है । सर्वज्ञ ने अपनी इच्छा से कुछ नहीं जाना या जैसा कुछ जान डाला वैसा पदार्थ बनना पड़ेगा, ऐसा नियम नहीं है, किंतु जो पदार्थ जितना जैसा अवस्थित है उतना वैसा ही पदार्थ सर्वज्ञ द्वारा जाना गया है । तो आकाश के प्रदेश अनंत हैं और आकाश अविभागी पदार्थ है, इस प्रकार परम विज्ञान के द्वारा जाना गया है । यहाँ तक धर्म, अधर्म एक जीव और आकाश इन चार अमूर्त द्रव्यों के प्रदेशों का परिमाण बताया जा चुका है । अब मूर्त पुद्गलों के प्रदेशों का परिमाण कितना है, ऐसी जिज्ञासा होने पर सूत्रकार सूत्र कहते हैं ।