वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-22
From जैनकोष
योगबक्रता विसंवादनं चाऽशुभस्य नाम्न:।।6-22।।
(83) अशुभनामकर्म के आस्रव के कारणों का प्रतिपादन―योगों की कुटिलता और विसम्वाद करना ये सभी नामकर्म के आस्रव के कारण हैं । योग 3 होते हैं―काय, वचन और मन, उनकी कुटिलता परस्पर असामंजस्य अर्थात् मन में और, वचन में और करे कुछ और तथा इनका दुष्ट रूप से प्रवर्तन करना ये अशुभ नामकर्म का आस्रव कराते हैं । विसम्वाद अन्याय प्रवृत्ति को कहते हैं । कोई कुछ चाहता है उसके विरुद्ध प्रवृत्ति करने लगना वह विसम्वाद कहलाता है । विसम्वाद का अर्थ प्रसिद्ध है झगड़ा करना । तो वास्तव में झगड़ा करना अर्थ नहीं है, पर दूसरे के मन के विरुद्ध प्रवृत्ति जो करेगा सो उससे झगड़ा होगा ही । तो झगड़ा तो फल है और विसम्वाद कारण है । तो यों विसम्वाद करना अशुभ नामकर्म का आस्रव कराता है, योगवक्रता में तो सरलतारहित उपयोग करने की बात थी और विसम्वाद में दूसरे के प्रति अन्य प्रकार से प्रवर्तन करने व प्रतिपादन करने की बात है, यही विसम्वाद कहलाता है । यद्यपि कुछ कारण अनेक प्रकृतियों का आस्रव करते सो ठीक ही है । किस किस कर्म के लिए क्या-क्या कारण चाहिए सो उन कारणों का वर्णन किया है, पर उस कारण में ज्ञान के विषय में आस्रव करना, नामकर्म का आस्रव करना सभी बातें बसी हुई हैं । यहां अशुभ नामकर्म के आस्रव में योगवक्रता और विसम्वाद को आस्रवहेतु बताया गया है ।
(84) योगवक्रता व विसंवादन में अंतर―यहाँ शंकाकार कहता है कि केवल योगवक्रता ही शब्द देना चाहिए। क्योंकि विसम्वाद में भी योगवक्रता ही तो है अन्यथा प्रवृत्ति करना यह ही तो योगों की कुटिलता कहलाती हैं । तब विसम्वादन शब्द अलग से न कहना चाहिए । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यहां कुछ एक नया प्रयोजन सिद्ध होता है विसम्वादन शब्द अलग देने से एक तथ्य ज्ञात होता है और वह क्या है कि अन्य आत्मावों में भी विसम्वाद भाव का प्रयोजन बना है । सच्ची स्वर्ग और मोक्ष वाली क्रियावों में कोई प्रवृत्ति कर रहा हो उस अन्य पुरुष को काय, वचन, मन से विसम्वाद कर देना, बिचका देना, ऐसा मत करें, ऐसा करें, इस प्रकार कुटिलता से प्रवृत्ति करना विसम्वादन हैं और योगवक्रता―केवल अपने आपमें योग की कुटिलता है, वह अर्थ है तो इस प्रकार योगवक्रता और विसम्वादन में भेद हो गया । तो जब ये सर्वथा एक न रहे तो इनका अलग प्रयोग करना उचित ही है।
(85) अशुम नामकर्म के आस्रवों के कारणों में मिथ्यादर्शन, पिशुनता, अस्थिरचित्तस्वभावता व कूटमानतुलाकरण का निर्देश―इस सूत्र में च शब्द भी दिया हुआ है जिससे अन्य कारणों का समुच्चय कर लिया जाता है वह अन्य कारण क्या है जिससे अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है । वह इस प्रकार है―मिध्यादर्शन―जिनके मिथ्यादर्शन का परिणाम है उनके नामकर्म अशुभ ही आस्रव में आयेंगे । किसी भी भाव के होते हुए 7 कर्मों का आस्रव तो होता ही है । आयुकर्म का आस्रव 8 अंशों में होता है जिनका कि कथनों के हिसाब से अलग-पलग विधान है, पर 7 कर्मों का तो सदैव आस्रव होता है तो वह परिणाम अमुक कर्म का किस तरह आस्रव करता अमुक कर्म का कैसे आस्रव का कारण है वह सब बताया जा रहा है । तो मिथ्यात्व का परिणाम अशुभ नामकर्म का आस्रव करता है । पिशुनता―चुगली करना, गुपचुप किसी का परिवाध करना यह सब पैसून्य कहलाता है । अब खोटे परिणाम अशुभ नामकर्म का आस्रव कराते हैं, चित्त का अस्थिर होना―ऐसी प्रकृति बन जाये कि चित्त स्थिर ही न हो सके, ऐसे समय में जो परिणाम चलते हैं वे परिणाम अशुभनामकर्म का आस्रव करते हैं । झूठे बाट, तराजू आदिक रखना, व्यापार में लेने के समय अन्य प्रकार के बाट, देने के समय अन्य प्रकार के बाट अथवा तराजू में कोई अंतर डाल देना ।
(86) अशुभ नामकर्म के आस्रवों के कारणों में सुवर्णमणिरत्नाद्यनुकृति कुटिलसाक्षित्व आदि का प्रतिपादन―कृत्रिम स्वर्ण मणि रत्न आदिक बनाना, ऊपर से जचे कि यह सोना है, उसके भीतर ताँबा पीतल है, ऊपर स्वर्ण का पानी चढ़ाया है और उसे सच्चे स्वर्ण के रूप में बेचना चाह रहा है तो ऐसे ही मणि रत्न आदिक झूठे बनाना, नकली बनाना ये सब परिणाम क्रियायें नामकर्म के आस्रव का कारण भूत हैं । झूठी गवाही देना, अंगोपांग का छेदन कर देना, पदार्थों के रस, गंध आदिक का विपरीत परिणमा देना, यंत्र पिंजरा आदिक बनाना, जिनमें जीव फांसे जाते, हैं, माया की बहुलता होना ये सब अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारणभूत हैं । दूसरे पुरुष की निंदा करना, अपने आपकी प्रशंसा करना, मिथ्या वचन बोलना, दूसरे का द्रव्य हरना, ऐसी अनर्थ क्रियायें अशुभ नामकर्म का आस्रव करती हैं । बहुत आरंभ करना, आरंभ उसे कहते हैं जिसमें हिंसा होती हो, ऐसी काय आदिक की चेष्टायें करना, महान् आरंभ करना, महान् परिग्रह भाव रखना, बाह्य पदार्थों में लगाव रखना, भेष को शौकीन बनाना प्राय: लोग नाना प्रकार के भेष बनाते हैं, अनेक कमीजें हैं, अनेक साड़ियाँ हैं, अनेक ढंग के आभूषण हैं, उन्हें बदल बदलकर पहिनना और पहिनकर अपने आपमें मैं कितना अच्छा लगता हूं इस प्रकार का भाव बनाना, दूसरों को दिखाना ये सब अशुभनामकर्म के आस्रव कराते हैं, जिसके उदय में अशुभ शरीर अशुभ अंग इनकी प्राप्ति होगी । रूप का घमंड करना । कोई गौर रूप मिल गया उसे निरखकर अभिमान करना, कठोर और असभ्य वार्तायें करना, बुरे वचन बोलना और निर्दयता वाले वचन बोलना, गाली बकना, व्यर्थ बकवास करना, अधिक बोलने की प्रकृति रखना ये सब अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं । वशीकरण प्रयोग, दूसरे को वश करने के लिए मंत्र तंत्र, जादू आदिक का प्रयोग करना, कहना । सौभाग्य का उपभोग तो कुछ धन वैभव मिला, रूप मिला तो उसका उपभोग शौक शान जैसी वृत्तियों से रहना, दूसरों में कौतूहल उत्पन्न करना, कोई बात ऐसी छेड़ी जिससे लोगों को जिज्ञासा बढ़े, उनका खेल बढ़े, कौतूहल बढ़े, ये सब अशुभ नामकर्म के आस्रव कराते हैं । आभूषणों में रुचि होना, गहनो को देखकर खुश होना, मंदिर की माला, धूप आदिक कुछ वस्तुवें चुराना, लंबी हँसी करना, घटना में लंबी अथवा काल में लंबी या उसकी लंबी पीड़ा वाली हँसी करना, ईंटों का भट्टा लगाना, वन में अग्नि जलाना, प्रतिमा के जो आयतन हैं मंदिर आदिक उनको तोड़ देना ये सब क्रियायें अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारणभूत हैं । किसी के आश्रय का नाश कर देना जैसे चिड़ियों ने घोसला बनाया, वे चिड़िया वहां रहेंगी, उसे आश्रय बनाया, उसमें बच्चे उत्पन्न करेंगी तो उन आश्रयों का विनाश कर देना आश्रय विनाश कहलाता है । आराम उद्यान का विनाश करना, अधिक क्रोध, मान, माया, लोभ करना, पाप कर्मों से अपनी आजीविका चलाना ये सब अशुम नाम कर्म के आस्रव के कारणभूत है । अब शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण कहे जाते हैं ।