वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-2
From जैनकोष
स आस्रव: ।। 6-2 ।।
(6) आस्रव का स्वरूप―इससे पूर्व सूत्र में तीन प्रकार की क्रियावों को योग कहा गया है । वह योग ही आस्रव है, ऐसा बताने के लिए यह सूत्र कहा गया है कि वह जो मन, वचन, काय का कर्मरूप योग है सो आस्रव है । यहाँ यह जानना कि वास्तविक आस्रव तो प्रदेशपरिस्पंद मन, वचन, काय इनमें से जिसके अभिमुख हो रहा है, जिसके लिए प्रदेशपरिस्पंद हो रहा है उस उस नाम से उनकी क्रियावों को उपचार से योग कह देते हैं । प्रदेशपरिस्पंद आस्रव है, इसका भी अर्थ यह जानना चाहिए कि योग नवीन कार्माण, स्कंधों में कर्मत्व होने का निमित्तभूत है यों निमित्त में आस्रवपने का उपचार किया है, अथवा जीव के लिए देखें तो जीवास्रव में यही आस्रव है । जीव का स्वभाव है निष्क्रिय रहना, निस्तरंग प्रदेश परिस्पंद से रहित रहना, सो यह स्वभाव अभिभूत होकर क्रिया परिस्पंद जीव में हो रहा, इसलिए यह आस्रव जीवास्रव है ।
(7) षष्ठ अध्याय के प्रथम और द्वितीय सूत्र को एक सूत्र न बनाने का कारण―यहां एक शंकाकार कहता है कि पूर्व सूत्र को और इस सूत्र का एक मिला दिया जाये तो योग शब्द न कहना पड़ेगा व शब्द भी न कहना पड़ेगा और संधि होने से एक अक्षर और भी कम हो जायेगा । ऐसा करने पर सूत्ररूप होगा―'कायवांङ्मन कर्मास्रव:' और सूत्र का लघु होना विद्वानों के लिए शुद्धि और प्रसन्नता का कारण होता है । इसके समाधान में कहते हैं कि यदि ऐसा सूत्र बनाया जाता और वहाँ योग शब्द न आता तो लोग योग से अपरिचित रहते और फिर सीधा ही यह ही जानते कि काय, वचन, मन की क्रिया ही आस्रव है । निमित्तनैमित्तिक भाव और वास्तविक आस्रवभाव का परिचय नहीं रहता । तो योग शब्द आगम में प्रसिद्ध है और उसका अर्थ यहाँ न कहा हुआ हो जाता, जिससे अर्थ में भी बाधा आती और योग शब्द का कथन न रहने का दोष भी रहता । अब शंकाकार कहता है कि योग शब्द भी रख लिया जाये फिर भी दोनों सूत्रों को मिला देने से सः शब्द न रखना पड़ेगा तो भी लघु हो जायेगा । उस समय सूत्र का रूपक होगा 'कायवांङ्मन कर्मयोग: आस्रव:' । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि दोनों को एक मिला देने से समस्त योगों में आस्रवपना आ जायेगा । यद्यपि मिला देना भी शाब्दिक दृष्टि से ठीक बैठना है फिर भी न मिलाया तो यह पृथक्करण इस बात को सूचित तो करता है कि योग आस्रव के हेतु है, परंतु सर्व योगमें समान आस्रवपना नहीं है और स्थिति की दृष्टि से 13वें गुणस्थान में सयोगकेवली के केवली समुद्धात में बड़ा योग होने पर भी आस्रव नहीं होता । वीतराग आत्माओं के सांपरायिक आस्रव नहीं कहा गया और सांपरायिक आस्रव ही वास्तव में आस्रव है । ईर्पापथास्रव तो निष्फल है, उसका तो एक समय भी ठहरना नहीं होता । यद्यपि सयोगकेवली में सूक्ष्मकाययोग है और उसके निमित्त से जो आस्रव है वह अत्यंत अल्प है, स्थिति ऐसी है मगर दोनों सूत्रों को एक मिला देनेसे उनका भी आस्रवपना सिद्ध हो जाता ।
(8) सानुभाग व निरनुभाग आस्रव के हेतुभूत योग को जानने के लिये सूत्रपार्थक्य―और भी देखिये―वर्गणावों का आलंबन के निमित्त से योग होता है और उसे आस्रव कहा है, मगर जिस समय दंड आदिक समुद्धात होते हैं वे वर्गणावों के आलंबन के निमित्त से नहीं होते । इस कारण सयोगकेवली के आस्रवपना नहीं माना गया । अब शंकाकार कहता है कि सयोगकेवली गुणस्थान में दंडादिक समुद्धात होने पर अन्य आस्रव नहीं माने गए तो सर्वथा निर्बंध हो जायेंगे, निरास्रव हो जायेंगे, पर करणानुयोग में सयोगकेवली गुणस्थान तक अथवा 11वें, 12वें, 13वें तीनों वीतराग आत्मावों के ईर्यापथास्रव कहे गए हैं, अथवा प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध नाम का बंध माना गया है तब तो यह आगम के विरुद्ध हो जायेगा । इसके समाधान में कहते हैं कि वहां जो भी आस्रव हो रहा, बंध हो रहा, स्थिति अनुभाग से रहित जो कार्माणवर्गणायें आ रहीं उसमें दंडादि योग निमित्त बंध नहीं है । तो क्या है? कार्माणवर्गणा के निमित्त से आत्मप्रदेश का परिस्संद है और तन्निमित्तक वहां बंध है सो भी स्थिति अनुभागरहित है । शंकाकार कहता है कि जैसे केवली भगवान के इंद्रिय होने पर भी इंद्रिय का व्यापार न होने से इंद्रियजंय बंध नहीं हो रहा है उसी प्रकार दंडादिक समुद्धात होने पर भी तन्निमित्तक बंध न होने से इसका आस्रवपना न हो सकेगा । तो पूर्वोक्त आपत्ति न आने से दोनों सूत्रों को एक बना देने पर भी तो कुछ हर्ज नहीं है । इसके उत्तर में कहते है कि भिन्न-भिन्न सूत्र बनाने में यह अर्थ निकलता है कि शरीर वचन और मन की वर्गणावों के आलंबन से जो प्रदेश परिस्पंद है वही योग है और वही आस्रव कहलाता है अर्थात् कोई ऐसा भी योग है कि जिस योग से आस्रव नहीं होता, यह बात सब ही तो शुद्ध बनेगी जब दो सूत्र भिन्न कहे जायेंगे । यह आस्रव में मुख्य सांपरायिक आस्रव लेना ।
(9) आस्रव शब्द का शब्दार्थ, निरुक्त्यर्थ व प्रकृतार्थ―अच्छा अब देखो आस्रव नाम क्यों रखा गया है कर्म में कर्मत्व आने को ? आस्रव कहते हैं किसी द्वार से चूकर निकलने को । जैसे किसी पर्वत में किसी स्थल पर चूकर पानी निकलता है तो ऐसे ही योग की नाली के द्वारा आत्मा के कर्म आते हैं, इस कारण वह योग आस्रव नाम से कहा जाता है जैसे कोई गीला कपड़ा वायु के द्वारा लायी गई धूल को अपने प्रदेशों में ग्रहण कर लेता है अर्थात् चारों ओर से चिपटा लेता है, ऐसे ही कषायरूपी जल से गीला यह आत्मा योगरूप वायु के द्वारा लायी गई कर्मधूल को अपने सर्व प्रदेशों से ग्रहण कर लेता है अथवा जैसे कोई गर्म लोहे का गोला पानी में डाल दिया जाये तो वह गोला चूंकि बहुत तेज लाल गर्म है सो वह चारों तरफ से पानी को खींच लेता है, ऐसे ही कषाय की महती अग्नि से संतप्त हुआ यह जीव योग से लाये गए कर्मों को सर्व प्रदेशों से ग्रहण कर लेता है और इस प्रकारके आस्रव होने में आत्मप्रदेश परिस्पंद साक्षात् निमित्त है और वह हुआ मन, वचन, काय के अभिमुख होकर, इस कारण यहां तीन योगों को आस्रव कहा गया है । अब यहां भी जिज्ञासा होती है कि कर्म दो प्रकार के माने गए है―(1) पुण्यकर्म और (2) पापकर्म । तो क्या वहां अविशेषता से वह योग आस्रवण का कारण है या कुछ उन दोनों में भेद है? अर्थात् पुण्यकर्म का आस्रव हो, पापकर्म का आस्रव हो, दोनों एक समान विधि से हैं अथवा इनमें कुछ अंतर है इसके उत्तर में सूत्र कहते हैं―