वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-6
From जैनकोष
तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेष: ।।6-6।।
(26) आस्रव में विशेषता करने वाले हेतुवों का वर्णन―तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरणविशेष और वीर्यविशेष के कारण आस्रवों में विशेषता होती है । तीव्र भाव का अर्थ है कि बाहरी और भीतरी कारण मिलने पर उदीरणा और तीव्र उदय में आया हुआ तीव्र परिणाम जिसमें संक्लेश बसा है वह तीव्रभाव कहलाता है । तीव्र शब्द में तीव्र धातु है, जिसका अर्थ है संक्लेशपरिणाम । 'तीवनं तीव्र:,' तीव धातु स्थूल अर्थ में आता है, मोटे परिणाम अर्थात् संक्लेश परिणाम को तीव्र परिणाम कहते हैं । मंदभाव तीव्र भाव से उल्टे भाव मंदभाव कहलाते हैं, ये भी बाह्य और आभ्यंतर कारण से होते हैं, पर कषायों की यहाँ मंदता पायी जाती है । यहाँ कषायों की उदीरणा नहीं है । ऐसे साधारण कारणों के सान्निध्य में उत्पन्न हुआ अनुद्रिक्त परिणाम अर्थात् मंदकषाय वाला परिणाम मंद कहलाता है । मंद शब्द मंद धातु से बना है । मंद धातु का अर्थ है प्रसन्न होना, सुस्त पड़ना, मंद चाल से चलना । मंदनात्मंद:, ऐसी उसकी विरुक्ति है । ज्ञात भावका अर्थ है ज्ञानमात्र भाव अथवा जान करके प्रवृत्ति होना । मारने के परिणाम न होने पर भी हिंसा हो जाने पर मैंने मारा, ऐसा जान लेना ज्ञात भाव है अथवा इस प्राणी को मारना चाहिए, ऐसा जानकर प्रवृत्ति करना ज्ञातभाव है । ये ज्ञातभाव के उदाहरण हैं । जैसे लोकव्यवहार में कहते हैं कि यह जान बूझकर पाप कर रहा है । अज्ञातभाव―प्रमाद से या कुछ बेखबरी से क्रियावों में बिना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञातभाव है । जैसे कि लोग कहते हैं कि यह बेचारा जानता नहीं है, बिना जाने कर रहा है, अधिकरण―अर्थात् आधारभूतद्रव्य । किस पदार्थ का आश्रय करके वह प्रवृत्ति कर रहा है, किस पदार्थ पर उसकी दृष्टि लग रही है वह कहलाता है अधिकरण । वीर्यभाव द्रव्य की शक्तियों को कहते हैं । यहाँ भाव शब्द प्रत्येकके साथ लगाना चाहिए तीव्र भाव, मंदमाव आदिक ।
(27) सूत्रोक्त भावशब्द का प्रकृतार्थ―इस सूत्र में जो भाव शब्द कहा है उसका अर्थ सत्ता नहीं है । सद्भाव, सत्त्व यह भावका अर्थ नहीं है । यदि सत्ता मात्र भावका अर्थ होता तो सत्ता की सामान्यरूपता होने से इसके तीव्र आदिक भेद नहीं हो सकते थे, किंतु भाव का अर्थ यहां बौद्धिक व्यापार है । उपयोग का व्यापार इस भाव का अर्थ है । इन भावों के होने में परद्रव्य आश्रयभूत होते हैं । तो जो आश्रयभूत हुए उन्हें नोकर्म भी कहते हैं । उनके भाव दो प्रकार के निरीखये―(1) एक तो परिस्पंदरूप और (2) अपरिस्पंद रूप । अपरिस्पंद रूप भाव तो अस्तित्वादिक है और वह अनादि है । जिसमें हलन-चलन नहीं, क्रिया नहीं, वह अपरिस्पंद कहलाता है । परिस्पदात्मक भाव उत्पाद व्यय रूप है और आदिमान है । अपरिस्पंद भाव तो सामान्यात्मक है और उस दृष्टि से तीव्र आदिक का भेद नहीं हो सकता, किंतु कामादिक क्रियारूप जो भाव है वह तीव्र आदिक के भेद के हेतु होते हैं । मतलब यह है कि तीव्र आदिक भावों से, बौद्धिक व्यापारों से विशेषता आती है अथवा ये सभी भाव उस काल में आत्मा से अभिन्न हैं सो तीव्रादिक भाव ही तो हैं । एक एक कषाय आदिक के स्थान में असंख्यात लोक प्रमाण भाव हैं । सो परिणमन परिणाम ही भाव शब्द के अर्थ हैं । सत्तारूप भाव यहां नहीं लिया गया है ।
(28) आत्मा का परिणाम होने पर भी वीर्य शब्द के पृथक् ग्रहण का प्रयोजन―एक शंका होती है कि वीर्य तो आत्मा का परिणाम है । उसको पृथक् ग्रहण क्यों किया है ? उत्तर―वीर्य विशेष जिनके पाया जाता है उनकी क्रियावों में हिंसा आदिक व्यापारों में, आस्रव में हल्का भारीपन आ जाया करता है । यह बात दिखाने के लिए वीर्य का पृथक् ग्रहण किया है । जैसे कोई बलवान पुरुष है तो वह हजारों आदमियों को मार डालता है तो उसका आस्रव विशेष बनेगा । कोई कम वीर्य वाला है वह उपद्रव नहीं कर सकता है तो उसका आस्रव कम होगा अथवा केवल वीर्य से ही बात न चलेगी । शक्ति और शक्ति न होने पर भी जैसा भीतर में परिणाम हो उस तरह से आस्रव बनेगा । जिसके शक्ति कम है और परिणामों में ईर्ष्या, बुरा विचारना आदिक तीव्रता से हो रहे हैं तो उसके तीव्र आस्रव होगा । आस्रव के जो हेतु बताये जा रहे हैं उनमें ऐसा तो है नहीं कि एक ही भाव किसी जीव के हो, जैसे तीव्र मंद में से कुछ एक होगा, पर उसके साथ ज्ञाता द्रष्टा आदिक में से भी होता है, इस कारण एक भाव की ओर से पूरा निर्णय न बनेगा कि इसके आस्रव कम होगा या अधिक होगा । जब कार्यभेद है तो कारणभेद भी सब सिद्ध हो जाता है, जब कि आस्रव के भेद अनंत हैं अनुभाग की दृष्टि से तो उसके कार्य भी अनंत हो गए और कार्य अनंत हुए, तो कारण भी अनंत हैं, ऐसा अनुमान बनता है, यहां सूत्र का प्रयोजन है आस्रवभेद बताकर फलभेद बताना याने तीव्र आदि से भावों को जो आस्रव होगा उसका फल कठोर होगा । और ऐसी आस्रवविधि जानकर भव्य पुरुष उसके साधनों से हटेगा । यदि वीर्य को आत्मपरिणाम मानकर यहां ग्रहण करने की जरूरत न समझे तो ऐसा ही विचार अन्य के प्रति भी हो सकता है । वह भी आत्मपरिणाम होता है । तो इस प्रकार तो सिर्फ अधिकरण शब्द से ही कार्य चल जाता, क्योंकि तीव्र मंद ज्ञात आदिक जो भाव हैं वे जीवाधिकरणरूप हैं, फिर तो सूत्र ही बनाने की आवश्यकता न थी । आगे स्वयं ही ऐसा सूत्र आने वाला है, ‘अधिकरणं जीवाजीव’, मगर यहां विशेषता बताना आवश्यक है । यह ग्रंथ मोक्षमार्ग का है, भव्य जीव मोक्ष में प्रगति कर सकें, उस मार्ग पर चल सके, इसके लिए ही तो सारा विवरण है । तो जब विशेषतावों के साथ आस्रव आदिक बताये जायेंगे तब ही तो आस्रव से हटना और स्वभाव में लगना यह अभीष्ट होगा । अब यह जिज्ञासा बनती है कि अधिकरण भी कहने पर उसका स्वरूप ज्ञात नहीं हुआ, उसका विशेष ज्ञान कराया जाना आवश्यक है, सो उसके विषय में वर्णन करना चाहिए । उसी के समाधान में सर्वप्रथम भेद अधिकरण के भेद बनाकर उसका ब्योरा बतायेंगे । सो यहां भेद के निरूपण के द्वारा अधिकरण का स्वरूप जानने के लिए सूत्र कहते हैं―