वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-15
From जैनकोष
अदत्तादानं स्तेयम् ।। 7-15 ।।
(150) चौर्य पाप का लक्षण―अदत्त का ग्रहण करना चोरी है । जो किसी के द्वारा दिया गया नहीं है, बिना दिए हुए को ग्रहण कर लेना चोरी है । यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि कर्मों को तो कोई देता नहीं है और उसे यह आत्मा ग्रहण करता है । अपने शुभ अशुभ परिणामों के द्वारा आत्मा कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है वहाँ आस्रव होता है । तो लो यह बिना हुए ही ले लिया । तो उसे चोरी का पाप लग जाना चाहिए और ऐसे कर्मों का ग्रहण वीतराग मुनि संतों के भी चलता है और शरीरवर्गणाओं का ग्रहण भी चलता रहता है, शरीर वर्गणावों का ग्रहण तो सशरीर परमात्मा के भी चल रहा है, तो क्या ये सब चोरी पाप कहलायेंगे? इस जिज्ञासा के समाधान में कहते हैं कि अदत्त शब्द का अर्थ यह है कि जिसके विषय में दिया गया, नहीं दिया गया का व्यवहार होता है । जिसके देने में और लेने में प्रवृत्ति और निवृत्ति देखी जाती है । जैसे किसी ने स्वर्ण, भोजन आदि दिया तो उससे वह निवृत्त हो गया । किसी ने ग्रहण किया तो वहाँ देने लेने की और प्रवृत्ति निवृत्ति की जहाँ संभवता है, वहाँ ही बिना दिया हुए को ग्रहण करना चोरी कहलाता है । इससे कर्म आते हैं उनसे चौर्य पाप की व्यवस्था नहीं की गई । कोई यह न समझे कि ये अपनी इच्छा से ही अर्थ लगाये जा रहे हैं । अदत्तादान शब्द ही इस बात को जतला रहा है याने जिसमें देने का प्रसंग है उसी को न देने पर अदत्त कहलाता है । जैसे वस्त्रपान भोजन आदिक हाथ आदिक के द्वारा दिये जाते, लिए जाते उस तरह कर्म का देने लेने का व्यवहार नहीं है । कर्म तो अत्यंत सूक्ष्म हैं । उनके हाथ आदिक के द्वारा देना लेना नहीं होता । वहाँ तो केवल यह व्यवस्था है कि जीव के रागद्वेषरूप परिणाम होते हैं तो उसका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणायें कर्मरूप परिणम जाती हैं । सो सर्व पदार्थों का परिणमन स्वतंत्र है, उसमें देन लेन का संकल्प नहीं है । नैमित्तिक भाव है, उनमें अदत्तादान की बात नहीं आती । वह तो सब निमित्त-नैमित्तिक भाव का परिणाम है । जीव के रागादिक भाव होते हैं, कर्मों का आस्रव होता है । जब गुप्ति आदिक संवर भाव होते हैं तब आस्रव का निरोध हो जाता है । यहाँ लौकिक लेनदेन का व्यवहार नहीं है । जहाँ लेनदेन का व्यवहार है वहाँ ही बिना दिए हुए का ग्रहण करने में चौर्य पाप होता है ।
(151) प्रमत्तयोग के बिना पाप की असंभवता―अब एक शंकाकार कहता है कि इंद्रिय के द्वारा शब्दादिक विषयों का ग्रहण देखा जाता है और यह बात साधु महाराज के भी बन रही है, मगर के दरवाजे आदिक से साधु गुजरता है तो वह भी बिना दिए हुए द्वार को प्राप्त करता है तब तो साधु को भी चौर्यपाप लगना चाहिए । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि जैसे हिंसा लक्षण वाले सूत्र में प्रमत्त योग शब्द दिया, था कि कषायसहित परिणाम होने से हिंसा होती है, तो उसकी अनुवृत्ति इसके पूर्व सूत्र में भी आयी कि कषायसहित होने से असत् का कथन करना झूठ है सो उसकी अनुवृत्ति इस सूत्र में भी आती है । कषायभाव से बिना दिए हुए को ग्रहण करना चोरी है । तो जो साधु यत्नवान है, देख-भालकर चलता है, किसी के प्रति बुरा भाव रखता नहीं, अप्रमत्त है, आगम में कही हुई विधि से आचरण कर रहा है यदि उसके कान में शब्दादिक सुनने में आ गए तो इसमें चोरी का दोष नहीं है । जो वस्तु सबके लिए दी गई है वह अदत्त नहीं कहलाती और इसी कारण साधु उन दरवाजों में प्रवेश नहीं करता जो सार्वजनिक नहीं हैं, किसी एक व्यक्ति का द्वार है अथवा बंद है उसमें प्रवेश नहीं करता । तो जिसमें दिया लिया जाने का व्यवहार है और सार्वजनिक साधारण विधि नहीं है वहाँ बिना दिए का ग्रहण करना चोरी पाप कहलाता है । यों तो कोई यह भी कह सकता है कि साधु वंदन, सामायिक आदिक शुभ क्रियायें करता है और उसके पुण्य का संचय होता है तो उस पुण्य को ग्रहण करने में भी तो बिना दिया हुआ लिया । भले ही शुभ चोरी हुई पर यह भी तो चोरी है । यह आशंका बिल्कुल बेसिर पैर की है, क्योंकि जब एक बार बता दिया कि जहाँ देने लेने का व्यवहार होता है वहाँ ही बिना दिए हुए का ग्रहण करना चोरी है और फिर प्रमत्त योग का संबंध भी तो हो तब चोरी होती है । वंदना आदिक क्रियादों में सावधानीपूर्वक आचरण करने वाले साधु के प्रमत्तयोग नहीं है इसलिए चोरी का प्रसंग नहीं है । किसी पुरुष के प्रमत्तयोग हो, खोटे परिणाम हों, किसी की चोरी करने का भाव बना लिया हो और चोरी भी न कर सके तो भी दूसरे को पीड़ा का कारण तो सोचा । वहां पाप का आस्रव होगा ही । यहाँ कोई ऐसी भी शंका कर सकता कि कोई डाकू किसी के घर पर डाका डालता है तो वह बिना मालिक के दिए हुए नहीं लेता, मालिक से ही तिजोरी खुलवाता, उसके ही हाथ से सारा सामान निकलवाता, तो उसमें उस डाका डालने वाले को चोरी का दोष तो न लगना चाहिए । क्योंकि उसने दिया हुआ ही तो लिया? तो भाई ऐसी शंका ठीक नहीं । कारण यह है कि अभिप्राय से मैं दे रहा हूँ, मुझे देना चाहिए, ऐसा हर्ष वाला अभिप्राय उसके कहां है? तो वह दिया जाकर भी न दिया हुआ ही है । ऐसा धन ग्रहण करना भी चोरी कहलाता है । चोरी पाप का लक्षण कहते हैं ।