वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-19
From जैनकोष
अगार्यनगारश्च ।।7-19।।
(168) भावागार होने न होने के आधार पर व्रती के भेद―व्रती दो प्रकार के गृहस्थ और मुनि । गृहस्थ को यहाँ अगारी कहा गया है । अगार का अर्थ है घर । अगार का घर अर्थ कैसे निकला ? तो अगार शब्द बना है अंग धातु से । आश्रय चाहने वाले मुनि के द्वारा जो ग्रहण किया जाये, अंगीकार किया जाये उसे आगार कहते हैं । वह है घर । और जिसके अगार नहीं है उसे अनगार कहते हैं । यहाँ एक शंका होती है कि जिसके घर हो, जो घर में रहता हो वह गृहस्थ है । जो घर में नहीं रहता वह मुनि है, ऐसा नियम बनाने से तो दोष आयगा । कैसा? यदि कोई गृहस्थ किसी कारण से जंगल में चला गया तो वहाँ वह घररहित है तब तो उसे मुनि कहना चाहिए । अथवा कोई मुनि धर्मशाला में, मंदिर में या किसी घर में निवास करे तो उसे गृहस्थ कहना चाहिये । तो यह नियम तो न बना कि जिसके घर हो वह गृहस्थ है । जो घर में नहीं है वह मुनि है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यहाँ अगार का अर्थ भींत वाला घर न लेना, किंतु भाव का अगार लेना । जिसके भाव में घर बसा है उसे कहते हैं गृहस्थ, अगारी और जिसके भाव में घर नहीं बसा उसे कहते हैं अनगार । चारित्रमोह का उदय होने पर घर के संबंध के प्रति जिसका परिणाम नहीं निवृत्त हुआ, घर से जो नहीं हट सकता ऐसा पुरुष तो अगारी है । वह चाहे किसी कारण से वन में भी चला जाये अथवा कुछ धार्मिक भी हो, जिसको विषयों में तृष्णा लगी है वह जंगल में चला जाये तो भी अभी घर से उसका परिणाम हटा नहीं है, संस्कार मिटा नहीं है । अभिप्राय पूर्वक दृढ़तापूर्वक उसका अलग होने का निर्णय नहीं है, इसलिए वह अगारी है और जिसके अगार नहीं अर्थात् भाव में घर नहीं उसे अनगार कहते हैं।
(169) एकदेश व्रत पालन करने पर भी व्रतित्व का उपदेश―अब एक शंका और होती है कि जो गृहस्थ व्रती है उसके समस्त व्रत नहीं है । जब समस्त व्रत नहीं हैं तो उसको अव्रती कहना चाहिए । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यहाँ व्रती का कथन नैगम, संग्रह और व्यवहाररूप से है । जैसे कि कोई नगर के किसी एक कोने में रहता है और उससे पूछा जाये कि तुम कहां रहते हो ? तो वह कहता है कि नगर में रहते । अब नगर तो है कोई मील दो मील भर का, उस सबमें कहाँ रहेगा कोई? तो नगर के एकदेश में रहने पर भी जैसे उसे नगरवासी कहते हैं इसी प्रकार समस्त व्रत न होने पर भी कुछ नियम किये तो भी वह व्रती कहलाता है अथवा जैसे कोई 32 हजार नगरों का अधिपति है तो वह सार्वभौम राजा है । और यदि कोई एक देश का ही पति है, राजा है तो क्या वह राजा नहीं कहलाता? अर्थात् कहलाता । इसी प्रकार 18 हजार शील और 84 लाख उत्तर गुण का जो धारी है वह तो अनगार है, महाव्रती है, पर संयमासंयम गृहस्थ भी अणुव्रतधारी होने से क्या व्रती नहीं कहलाता? कहलाता ही है । इस सूत्र में यह बताते कि जिसके भाव घर हैं वह गृहस्थ है और जिसके भाव घर नहीं है वह मुनि है । अब अगारी का लक्षण कहते हैं―