वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-37
From जैनकोष
जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबंधनिदानानि ।।7-37।।
(209) सल्लेखना के अतिचार―सल्लेखना के अतिचार इस प्रकार हैं―[1] जीविताशंसा―अर्थात् जीने की इच्छा करना, आशंसा अभिलाषा करने को कहते हैं । सल्लेखना व्रत तो धारण किया, पर मन में जीने की याद लग रही है―मैं और जीता रहूं । वैसे जीना कौन नहीं चाहता? संसार के सभी जीवों को जिंदगी प्यारी है, किंतु यहाँ जब काय और कषाय से एकदम विरक्ति कर ली गई जिसे सल्लेखना कहते हैं तो ऐसी उच्च स्थिति पाने पर जीने की इच्छा होना यह दोष है । यह शरीर अवश्य नष्ट होगा, यह जल के बुदबुदे के समान अनित्य है, यह कैसे ठहर जाये ऐसा जीवन के प्रति आदरभाव होना जीविताशंसा कहलाती हे । [2] मरणाशंसा―रोगों के उपद्रव होने से चित्त आकुलित हो गया है और जीवन में संक्लेश बन गया है और धार्मिक वातावरण रहने से समाधिमरण का भी भाव कर लिया है, अब वहाँ मरण के प्रति उपयोग जाना कि न जाने कब मरण होगा, यह तो बड़ी वेदना है, इस प्रकार की अभिलाषा को मरणाशंसा कहते हैं । [3] मित्रानुराग―पहले जिसके साथ मित्रता थी, धूल में खेले, बड़ी अवस्था में भी प्रेम रहा, सलाह रही तो उनके इन संबंधों का स्मरण करना यह मित्रानुराग कहलाता है । इसने मेरे पर विपत्ति आने के समय बहुत रक्षा की, ऐसी-ऐसी विपत्तियों में इसने मेरा बहुत साथ दिया आदिक का भी स्मरण करना मित्रानुराग कहलाता है । अब सल्लेखना बात तो धारण किया, कुछ ही समय बाद इस शरीर को छोड़कर जाना है तो ध्यान किया जाना चाहिए सहजपरमात्मतत्त्व का, पर आत्मा और परमात्मा पर ध्यान तो खचित होता । और लौकिक मित्र जनों का चित्त में चित्रण कर रहा है तो यह मित्रानुराग समाधिमरण का दोष है । [4] सुखानुबंध―जो-जो सुख भोगे थे बचपन में, बड़े में, उन सब सुखों का स्मरण करना―मैंने ऐसा खाया, मैं ऐसा आराम करता था, इस तरह खेलता था आदिक प्रीति विशेष के प्रति स्मृति करना सुखानुबंध कहलाता है । अब मरण समय तो आ रहा है शरीर छोड़कर जाना है तो परमार्थतत्त्व का चिंतन चलता था, पर वह चिंतन न चलकर जो भोगे गए सुखों का चिंतन चल रहा है वह यहाँ दोषरूप है । [5] निदान―विषयसुखों की उत्कर्षिता चाहना भोगाकांक्षा कहलाती है । भोगों की इच्छा से नियत चित्त दिया जा रहा है भोगो में तो वह निदान कहलाता है । निदान शब्द में नि तो उपसर्ग है और दा धातु है, जिससे अर्थ बनता है कि भोगों की अभिलाषा के द्वारा नियत चित्त जिसमें दिया जाये वह निदान कहलाता है । ये 5 सल्लेखना के अतिचार है । अब जिज्ञासा होती है कि तीर्थंकरप्रकृति के बंध के कारणों में शक्तित: त्याग, शक्तित: तप―ये दो बातें कही गई थीं और फिर शील व्रत के विधान में अतिथिसम्विभाग व्रत बताया है । अतिथियों के लिए दान करना अतिथिसम्विभाग व्रत है । तो दान का सही लक्षण ज्ञात न हुआ सो वह कहा जाना चाहिए, ऐसी जिज्ञासा होने पर सूत्र कहते हैं ।