वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-3
From जैनकोष
तत्स्थैर्यार्थं भावना: पंच पंच ।।7―3।।
(123) व्रतों की स्थिरता के लिये पाँच-पांच भावनावों की वक्ष्यमाणता का निर्देश―उन व्रतों की स्थिरता के लिए 5-5 भावनायें होती हैं । यही भावना शब्द कर्मसाधन में आया है जिससे अर्थ हुआ कि वीर्यांतराय के क्षयोपशम से और चारित्रमोह के उपशम से अथवा क्षयोपशम से एवं अंगोपांग नामकर्म के लाभ से आत्मा के द्वारा जो भायी जायें सो भावनायें हैं । यहाँ इस बात का संकेत किया है कि चारित्रमोह के उपशम क्षयोपशम से ये भावनायें बनती हैं । भावनाओं के बनने में मन आदिक अंगोपांग का साधन चाहिए और वीर्यांतराय के क्षयोपशम की आवश्यकता शक्ति के लिए है । शक्ति हो, कषाय मंद हो, मन आदिक उचित हो तो ये भावनायें बनती है, यही एक शंका होती है कि सूत्र में पंच-पंच शब्द देकर बताया है कि 5-5 भावनायें है, तो पंच-पंच दो बार न कहकर केवल एक बार पंच कह कर उसमें शस्लृ प्रत्यय लगा देना चाहिए जिससे पंचश: यह अव्यय पद बन जाता है । ऐसा करने से एक शब्द कम हो जाता है । सूत्र लघु बन जाता है फिर ऐसा क्यों नहीं किया गया? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यहाँ कारक का अधिकार है कि 5-5 भावनायें हैं । पहले से ही यह अर्थ चला आ रहा, क्या-क्या है, इस कारण यहाँ शस्लृ प्रत्यय वाली बात नहीं बनती । तो प्रश्नकर्ता कहता है कि हम यहाँ भावयेत् क्रिया का अध्याहार कर लेंगे अर्थात् ऊपर से लगा लेंगे तब बराबर वाक्य बन जायेगा । उस समय सूत्र का अर्थ इस प्रकार होगा कि व्रतों की स्थिरता के लिए 5-5 भावनायें भानी चाहिएँ । शस्लृ प्रत्यय भी डबल अर्थ में होता है । उत्तर में कहते हैं कि ऐसा किया जाना योग्य नहीं है, क्योंकि यहाँ विकल्प का अधिकार है, भेद बताया जाने का अधिकार है । दूसरा शस्लृ प्रत्यय विकल्प से हुआ करता है किया भी जाये न भी किया जाये और फिर यहाँ क्रिया का अध्याहार करना एक बुद्धि से ही सोचा जाता है । प्रकरण में कहीं शब्द अनुवृत्ति के लायक नहीं है कि भावना करना चाहिए और फिर क्रिया का अध्याहार करे उसका अर्थ लगाये इससे जानकारी कठिन हो जाती है । स्पष्ट अर्थ नहीं झलकता, इस कारण स्पष्ट अर्थ समझने के लिए पंच-पंच ऐसा स्पष्ट निर्देश करना उचित है । 5 व्रतों में से प्रथम व्रत जो अहिंसा व्रत है उसकी 5 भावनायें कहते हैं ।