वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-13
From जैनकोष
दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ।। 8-13 ।।
(296) अंतरायकर्म की उत्तरप्रकृतियों का वर्णन―दान लाभ भोग उपभोग और वीर्यों का, सूत्र का अर्थ इतना ही होता है, पर अंतराय के भेद कहे जाने से सबके भेद पूर्ण हो चुके, अब शेष रहे अंतराय के ये भेद है इसलिए अंतराय शब्द इसमें लिया जाता है । दान का अंतराय दानांतराय, लाभांतराय इस तरह इन सभी को षष्ठी विभक्ति में कह कर इसके साथ अंतराय शब्द जोड़ा जाता है । दानांतराय कर्म के उदय से दान देने की इच्छा करते हुए भी दे नहीं सकते हैं । लाभांतराय नामकर्म के उदय से लाभ पाने की इच्छा करते हुए भी लाभ नहीं पाता । भोगांतरायकर्म के उदय से भोगने की इच्छा करते हुए भी भोग नहीं भोग पाता । उपभोगांतराय कर्म के उदय से उपभोग की इच्छा करते हुए भी उपभोग नहीं कर सकता । वीर्यांतराय कर्म के उदय से उत्साह की इच्छा करते हुए भी सत्य पूर्ण किसी कार्य को करने का भाव रखते हुए भी उत्साह नहीं बन पाता है । ये 5 अंतराय कर्म के नाम कहे गए । वहां शंका होती है कि भोगांतराय और उपभोगांतराय में तो कोई फर्क न डालना चाहिए, क्योंकि भोग और उपभोग में भी कोई विशेषता नहीं । भोग में भी सुख का अनुभवन है और उपभोग में भी सुख का अनुभवन है, इस कारण जब भोग और उपभोग में कोई भेद न रहा तो इनके नाम में भी भेद न होना चाहिए । उत्तर―भोग और उपभोग में भेद है । भोग कहते हैं उसे जो वस्तु एक बार भोगने में आये दुबारा भोगने में न आये―जैसे स्नान किया हुआ जल, भोजनपान, पुष्पमाला आदि । वे एक बार भोगे जाने पर दुबारा भोगने में नहीं आते, या बड़े पुरुष इन्हें दुबारा नहीं भोगते । और वस्त्र, पलंग, स्त्री, हाथी, घोड़ा, बग्घी, मोटर आदिक ये उपभोग की सामग्री कहलाती हैं । इन्हें अनेकों बार भोगते रहते हैं । तो जब भोग और उपभोग में अंतर है तो इसके अंतराय भी दो प्रकार के कहे गए हैं । यहाँ तक 8 कर्म की प्रकृतियों का वर्णन किया ।
(297) प्रकृतिबंध के वर्णन का उपसंहार व स्थितिबंध के वर्णन की भूमिका―ज्ञानावरण कर्म की ये सभी उत्तर प्रकृतियाँ इतनी ही नहीं किंतु संख्यात हो सकती हैं और ज्ञानावरण नामकर्म, इस जैसे कर्मों की प्रकृतियाँ असंख्यात भी हो जाती हैं, क्योंकि ज्ञान अनेक वस्तुओं का होता है और स्पष्ट, अस्पष्ट आदिक विधियों से अनेक तरह का होता है । जितनी तरह से ज्ञान बनता है उन ज्ञानों का न होना यही तो ज्ञानावरण है । तो ज्ञानावरण भी उतने ही हो गए । यही बात नामकर्म के फल में देखी जाती है । जैसे करोड़ों मनुष्यों का चेहरा एक दूसरे से नहीं मिलता । यद्यपि नाक, आँख, कान आदि सभी मनुष्यों के करीब-करीब एक परिमाण के होते हैं, उसी स्थान पर होते हैं फिर भी उनकी बनावट में कितना भेद पाया जाता । तो उनके निमित्तभूत नामकर्म भी उतने ही हो जाते हैं । और विशेष जीवों पर दृष्टि दीजिए तो कितने ही तरह के पशुपक्षी कीट पतिंगे, कितनी ही तरह की वनस्पतियाँ हैं, कैसे-कैसे विचित्र शरीर हैं, जिस ढंग के जितने प्रकार के शरीर हैं, उनके कारणभूत निमित्त कर्म भी उतने ही हैं । यों नामकर्म में भी असंख्यात भेद बन जाते हैं । इस प्रकार बंध के जो 4 भेद कहे गए थे उनमें प्रकृति बंध का वर्णन किया गया इसके बाद स्थितिबंध का वर्णन आवेगा सो उसमें यह जिज्ञासा होती है कि यह जो स्थिति बंध है सो जिसका लक्षण पहले कहा गया ऐसे प्रकृतिबंध से जिसका कि भली प्रकार विस्तार बताया गया उससे क्या भिन्न कर्म विषयक स्थिति बंध है या उस ही प्रकृतिबंध के बारे में कोई स्थितिबंध बताया जाता है अथवा प्रकृतिबंध ही स्थितिबंध है ऐसा क्या पर्यायवाची शब्द है? इस शंका के उत्तर में इतना ही समझना चाहिए कि जो ये प्रकृतियाँ बतलायी गई हैं ज्ञानावरणादिक कर्मों की, सो वे प्रकृतियाँ यथायोग्य समय पर आत्मा से दूर होने लगती है । सो जब तक वे दूर नहीं होती तब तक का काल कितना हुआ करता है? सो यह काल उन ही प्रकृतियों में बताया जाता है । तो उन ही प्रकृतियों में स्थितिबंध की विवक्षा है । सो वह स्थिति किसी के उत्कृष्ट रूप से है और किसी के जघन्य रूप से । अर्थात् वे कर्म आत्मा में अधिक से अधिक रहें तो कितने समय तक और कम से कम रहें तो कितने समय तक? यों उन कर्मप्रकृतियों में उत्कृष्ट और जघन्य की स्थिति बतायी जायेगी । तो उनमें से सबसे पहले कर्म की उत्कृष्ट स्थितियां बतायी जायेगी । तो उसी संबंध में सबसे पहले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय, इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।