वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-16
From जैनकोष
विंशतिर्नामगोत्रयो: ।।8-16 ।।
(302) नामकर्म व गोत्रकर्म के उत्कृष्ट स्थितिबंध का वर्णन―नामकर्म और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 20 कोड़ाकोड़ी सागर है । यह 20 कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त जीवों के होती है अर्थात् संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त जीव नामकर्म व गोत्र कर्म के आस्रव के कारण रूप तीव्र भावों में रहे तो वह ज्यादह से ज्यादह इन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति 20 कोड़ाकोड़ी सागर की बाँधता है । एकेंद्रिय आदिक जीवों के नाम गोत्र की स्थिति का बंध कितना होता है यह आगम से जानना । जैसे एकेंद्रिय पर्याप्त जीव नाम और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधे तो एक सागर के 7 भाग में से दो भाग प्रमाण बाँधता है । दोइंद्रिय पर्याप्तक जीव नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 25 सागर के 7 भाग में से दो भाग प्रमाण बाँधता है । तीन इंद्रियपर्याप्तक जीव नाम गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति 50 सागर के 7 भाग में से दो भाग प्रमाण बाँधता है, चौइंद्रिय पर्याप्तक जीव नाम गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 100 सागरोपम काल के 7 भाग में से दो भाग प्रमाण बांधता है । असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तक जीव नाम और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति एक हजार सागरोपम काल के 7 भाग में से दो भाग प्रमाण बांधता है । संज्ञीपंचेंद्रिय अपर्याप्तक अंत: कोड़ाकोड़ी के भीतर की स्थिति को बाँधता है । एकेंद्रिय जीव अपर्याप्तक हो तो वह उतनी उत्कृष्ट स्थिति बांधेगा जितनी एकेंद्रिय पर्याप्तक बांधता था, उसमें से एक पल्य के असंख्यात भाग कम करके जो शेष रहे । दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय पंचेंद्रिय अपर्याप्तक असंज्ञी जीवों की जो स्थिति है उसमें पल्य के संख्यातभाग कम करने पर जो शेष रहे उतनी उत्कृष्ट स्थिति बँधती है ।
(303) स्थितिबंध से बद्ध कर्मों के विपाक के प्रभाव की विधि―यहां उत्कृष्ट स्थिति बंध के संबंध के वर्णन से यह बात ज्ञात होती है कि अधिक स्थिति का कर्म बाँधने की सामर्थ्य संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त में है । हम आप जिस भव में हैं वह भव संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त का है और यहाँ कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बाँधी जा सकती है । जब कर्म अधिक स्थिति के बँधते हैं तो उसके मायने यह नहीं है कि उस पूरी स्थिति के बाद ही यह एक समय में बद्ध पूरा कर्म उदय में आयेगा । स्थिति तो बंधी पर आबाधाकाल के बाद याने थोड़े ही समय के बाद वे कर्म उदय में आने लगते हैं, और उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तक उदय में आते रहते हैं । सो उसमे जितने परमाणु बँधे थे उन परमाणु में विभाग हो जाता है कि आबाधाकाल के बाद इतने परमाणु उदय में आयेंगे, उसी के दूसरे समय में इतने परमाणु उदय में आयेंगे । ऐसे ही वे अंश उदय में आते रहते हैं और उनकी परंपरा फल देने की संतति उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तक चलती रहती है । ऐसा यह संसारचक्र है । सो अपने भाव प्रतिक्षण निर्मल उचित कर्तव्य वाले रखना चाहिये । अब आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं ।