वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-2
From जैनकोष
सकषायत्वाजजीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंध:।।8-2।।
(229) सूत्र में कथित कषाय शब्द से बंधविशेष व विपाकविशेष की सूचना―सकषायपना होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । यही बंध कहलाता है । यहाँ शंकाकार कहता है कि कषाय का तो प्रकरण ही चल रहा है । प्रथमसूत्र में भी कषाय शब्द आया था, फिर यहाँ कषाय का ग्रहण करना पुनरुक्त हो गया अर्थात् कषाय शब्द बोलने की आवश्यकता इस सूत्र में नहीं है । यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ कषाय शब्द देने से कुछ विशेष विपाक का आशय सिद्ध होता है जठराग्नि की तरह । जैसे जठराग्नि की योग्यता के अनुरूप आहार का पचना होता है । जिसमें जैसी जठराग्नि है, याने किसी की पाचन शक्ति उदर की उतनी तीव्र है कि उसमें अनेक कठोर आहार भी पक जाते हैं, किसी की मंद है तो वैसा पाक होता है, ऐसे ही तीव्र, मंद और मध्यम कषाय के अनुसार कर्म की स्थिति और अनुभाग पड़ता है यह एक तथ्य बताने के लिए, यद्यपि बंध के कारणों में कषायों का निर्देश किया जा चुका था तो भी कषाय को यहाँ पुन: ग्रहण किया गया है, जिससे यह सिद्ध होता कि जिसके जैसी कषाय है उसके वैसी ही पुद्गल कर्म की स्थिति और अनुभाग पड़ता है ।
(230) प्राणधारी जीव के बंध की उपपत्ति―इस सूत्र में प्रथम पद है जीव: । इस जीव शब्द से यह अर्थ ध्वनित होता है कि जो आयु सहित हो सो जीव है अर्थात् आयु सहित जीव ही कर्मबंध करता है । आयु से रहित सिद्ध भगवान है, उनके कर्मबंध नहीं होता । यद्यपि 14 वें गुणस्थान में भी आयु है पर उस प्रभु को सिद्ध की तरह ही समझना चाहिए । तो जो संसारी जीव है, दस प्राणकर जीता है, आयु करके सहित है वह जीव कर्मबंध करता है, यह अर्थ होता है जीव: शब्द कहने से । जीव शब्द का अर्थ भी धातु की दृष्टि से प्राणधारी है । जीव प्राणधारणे ऐसा धातु पाठ में बताया है । अर्थात् जो प्राणों को धारण करे सो जीव है । प्राणों में आयु भी प्राण है, अन्य भी प्राण हैं । जिसके आयु है उसके साथ में संभव सब प्राण होते ही हैं । केवल एक 14 वां गुणस्थान ऐसा है कि जिसमें केवल आयु है, अन्य प्राण नहीं है, पर वह आगमसिद्ध बात है । इसलिए समझ लेना चाहिए कि 14 वें गुणस्थान में बंध नहीं । पर अन्य सभी संसारी जीवों के बंध चलता है ।