वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-4
From जैनकोष
आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रांतरायाः ।।8-4।।
(240) द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय की विवक्षा में प्रकृतिबंध की सामान्यरूपता व ज्ञानावरणादि की विशेषरूपता होने से क्रमश: एक व बहुवचन में प्रयोग―अब प्रकृतिबंध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय ऐसी प्रकृति के मूल भेद 8 हैं । यहाँ एक शंका होती है कि इस सूत्र में पद दो दिए गए हैं । पहला पद है आद्य:, दूसरे पद में कर्म के नाम दिए गए । यहाँ प्रथम पद में है एकवचन में और द्वितीय पद में है बहुवचन । तो जब यहाँ समानाधिकरण्य की बात चल रही है अर्थात् बंध ये-ये कहलाते हैं तो इन दोनों पदों में वचन एक समान होने चाहिएँ थे । दूसरे पद में बहुवचन है तो पहला पद में भी बहुवचन में हो जाना चाहिए? उत्तर―यहां दो नयों की विवक्षा में दो पद दिये गए हैं इस कारण उनमें विरोध नहीं आता । द्रव्यार्थिकनय का विषय है सामान्य, सो जब सामान्य की विवक्षा से कहा तो प्रकृतिबंध एक ही है । सामान्य में तो एक स्रोतरूप चीज ली जाती है । इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से आद्य शब्द में एकवचन का प्रयोग किया गया है । अब उसका विशेष है ज्ञानावरणादिक 8 जो पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से कहे जाते हैं सो जब पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से कहा गया तो उन 8 पदों के समास से बहुवचन का प्रयोग किया गया है । लोक में भी समानाधिकरण होने पर भी वचन भेद देखा गया है । जैसे श्रोता लोग प्रमाण है, गाये धन है तो बहुवचन के साथ एकवचन का प्रयोग होना अनेक जगह सम्मत माना गया है ।
(241) ज्ञानावरण आदि का व्युत्पत्यर्थ―ज्ञानावरणादिक 8 नाम लिए गए हैं, उनकी व्युत्पत्ति यथासंभव कर्तृसाधन, कर्मसाधन और उभयसाधन में की गई है । जैसे आवरण का अर्थ है―आवृणोति आव्रियते अनेन इति आवरणं, जो आवरण करे, ढाके अथवा जिसके द्वारा वस्तु ढका जाये उसे आवरण कहते हैं । आवरण शब्द यहाँ दोनों में लगाया जाता हैं―ज्ञानावरण और दर्शनावरण । वेदनीय शब्द का अर्थ है वेद्यते इति वेदनीयं, जो वेदा जाये, अनुभवा जाये उसे वेदनीय कहते हैं । मोह शब्द की निरुक्ति है―मोहयति मुह्यते, जो मोहित करे, बेहोश करे उसे मोह कहते हैं । तो मोहनीय कर्म की प्रकृति है बेहोश करना । अब वह बेहोशी दो तरह की है―(1) एक तो पूरी बेहोशी जिसे मिथ्यात्व कहते हैं और (2) दूसरी कुछ प्रकाश रहते हुए भी बेहोशी, जिसे रागद्वेष कहते हैं । ये मोहनीय की प्रकृतियां हैं । आयु शब्द का अर्थ है जो नरकादि भवों में ले जाये उसे आयु कहते हैं । जैसे कोई अभी तिर्यंचभव में है और मर कर उसे नरक जाना है तो यहाँ की आयु समाप्त होने के बाद जो नरकायु लगेगी उस आयु की प्रकृति है नरक में ले जाना । इसकी व्युत्पत्ति है एति अनेन नारकादिभवे इति आयु: । नामकर्म का अर्थ है―नमयति आत्मानं इति नाम, जो आत्मा को निम्न कर दे सो नामकर्म है । नारकादि भवों में जो शरीर मिलता हे उस शरीर संबंधित सभी बातें नामकर्म की प्रकृति कहलाती हैं । गोत्र शब्द गु धातु से बना है, जिसका अर्थ है कहना, निर्देश करना, तो जो ऊंच और नीच रूप को बतलाये उसे गोत्र कहते हैं, गूयते शब्द्यते अनेन इति गोत्रं । अंतराय का अर्थ है अंतर करना अर्थात् विघ्न करना । कोई दो वस्तुओं का संबंध बनता हो तो उसके बीच आ पड़े तो यही तो उनमें विघ्न कहलाता है । इसका निरुक्ति अर्थ है अंतरं एति इति अंतराय: अथवा अंतरं ईयते अनेनेति अंतराय: । दाता और देय के बीच में पड़ जाना, अंतर करना अंतराय कहलाता है । इस प्रकार इन 8 कर्मों की प्रकृतियाँ उन कर्मों के नाम से प्रसिद्ध होती हैं । जैसे खाये हुए भोजन का अनेक प्रकार का विकार बनता है । वह भोजन वात, पित्त, कफ, खल, रस आदिक अनेक रूप से परिणम जाता है । तो भोजन किया, अब वहाँ अंतर में कोई कुछ प्रयोग तो नहीं करता, पर जठराग्नि का मेल होने से वह भोजन स्वयं अनेकरूप परिणम जाता है । इसी प्रकार बिना किसी प्रयोग के कर्म आवरण रूप से अनेक शक्तियों से युक्त होकर आत्मा में बंध जाते हैं ।
(242) ज्ञानावरण और मोह में भेद होने से दोनों का पृथक् पृथक् निर्देश―यहाँ शंकाकार कहता है कि मोह के होने पर भी हित अहित का विवेक नहीं होता और हित अहित का जहाँ विवेक नहीं है उसी का नाम मोह है, मोह का काम ज्ञान का ढकना है । तो ज्ञानावरण और मोहनीय में कुछ अंतर तो न रहा, फिर अलग क्यों कहा? उत्तर―पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का बोध होने पर भी यह ऐसा ही है इस प्रकार सद्भाव अर्थ का श्रद्धान न होना यह तो मोह है और ज्ञान न होना यह ज्ञानावरण है । तो ज्ञानावरण से वस्तु ग्रहण में ही नहीं आता, न सम्यक्रूप, न विपरीत रूप से । जहाँ ज्ञानावरण का उदय है वहाँ ज्ञान पैदा नहीं होता । यह तो है ज्ञानावरण का काम और ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर वस्तु का ज्ञान तो बनता है पर यथार्थरूप में यह वस्तु ऐसा ही है इस प्रकार का निर्णय नहीं बनता, सो यह मोह है । यों ज्ञानावरण में और मोह में अंतर है । अथवा जैसे बीज बोया, अंकुर उत्पन्न हो गए तो अंकुर तो हुआ कार्य और बीज हुआ कारण तो बतलावो बीज में और अंकुर में भिन्नता है या नहीं? स्पष्ट ध्यान आता कि भिन्नता है, उसी प्रकार अज्ञान मोह ये तो हैं कार्यभेद और उनका कारण है ज्ञानावरणादि व मोहनीय तो इस प्रकार उनमें भेद होना ही चाहिए । कार्य में अंतर भी देखा जाता है, अज्ञान का और मोह का कार्य और भाँति है, ज्ञानावरण आदिक का कार्य और भाँति है इसलिए ज्ञानावरण और मोहनीय में अंतर है ।
(243) ज्ञानावरण व दर्शनावरण का लक्षणभेद होने से पृथक् पृथक् ग्रहण―ज्ञानावरण व दर्शनावरण भी भिन्न-भिन्न हैं । जब ज्ञान और दर्शन में भिन्नता है, ज्ञान का काम है विशेष प्रतिभास, दर्शन का काम है सामान्य प्रतिभास अथवा ज्ञान का काम है स्वपर अर्थ का परिचय और दर्शन का काम है ज्ञानपरिणत आत्मा का प्रतिभास । तो जब ज्ञान और दर्शन में अंतर है तो ज्ञानावरण और दर्शनावरण का भी अंतर समझ लेना । यह ज्ञानावरण एक सामान्यरूप से आस्रव मात्र हुआ, लेकिन वही मति आवरण, श्रुत आवरण आदिक रूप से परिणमन कर जाता है । जैसे जल ऊपर से बरसा तो एक ही रूप है किंतु ताँबा, लोहा पीतल आदिक पात्र विशेष में वह जल पहुंचा तो अब उसका भिन्न रूप से परिणमन बन गया रस भी भिन्न-भिन्न रूप से हो गया, ऐसे ही ज्ञानावरण का काम है ज्ञान को रोकना, ज्ञान प्रकट न होने देना । तो इस स्वभावदृष्टि से तो ज्ञानावरण सब एक ही काम करते हैं, पर प्रत्येक आस्रव में सामर्थ्य भेद होने से मतिश्रुत आदिक के आवरण रूप से कहा जाता है । ज्ञानावरण का कार्य एक है―ज्ञान न होने देना, पर किस जगह कौनसी योग्यता वाला ज्ञान हुआ करता है और उसे न होने दे तो इस तरह ज्ञानावरण 5 रूपों से बन जाता है । यही बात दर्शनावरण आदिक में भी समझ लेना चाहिए ।
(244) पौद्गलिक कर्मस्कंधों की अनेकविपाकनिमित्तता―यहां शंकाकार कहता है कि पुद्गलद्रव्य जब एक है, ज्ञानावरणादिक 8 कर्मपुद्गल ही तो हैं तो एक पुद्गलद्रव्य में किसी का आवरण करने का निमित्त होना, सुख दु:खादिक में निमित्त होना, ऐसे भिन्न-भिन्न कार्यों में निमित्त होने का विरोध मालूम होता है, अत: एक पुद्गलकर्म अनेक कार्यों का निमित्त नहीं हो सकता । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह शंका युक्त नहीं है, क्योंकि उन पुद्गल कर्मों का ऐसा ही स्वभाव है । एक भी पदार्थ हो तो उसमें अनेक प्रकार का सामर्थ्य पाया जाता है । जैसे अग्नि एक है फिर भी उसी में दहन करने का सामर्थ्य है, पकाने का सामर्थ्य है, प्रकाश करने का सामर्थ्य है । इन सब सामर्थ्यों का अग्नि में कोई विरोध नहीं है, इसी प्रकार पुद्गलद्रव्य एक ही है तो भी वह ज्ञान के आवरण का निमित्त होता है, सुख दुःख आदिक का भी निमित्त होता है, कोइ विरोध नहीं है । दूसरी बात यह है कि उस एक पुद्गलद्रव्य में स्याद्वाद शासन में एकपना व अनेकपना माना गया है द्रव्यार्थिक दृष्टि से तो भी पुद्गलद्रव्य एक है और अनेक परमाणुवों के स्निग्ध रूक्ष बंध के कारण जो अनेक स्कंधरूप पर्याय हुई है उन पर्यायों की दृष्टि से भी पुद्गलद्रव्य अनेक रूप है, इस कारण एक पुद्गलकर्म अनेक बातों के लिए निमित्तपने का विरोध नहीं है ।
(245) एक में अनेक कार्यनिमित्तत्व की पराभिप्राय से भी सिद्धि―अब जरा इस ही बात को अर्थात् एक में अनेक का विरोध नहीं है, अन्य दार्शनिकों की दृष्टि से भी परखिये । पृथ्वी जल, अग्नि, वायु इनसे रची हुई जो इंद्रिय है वह भिन्न-भिन्न जाति की है । तो उन इंद्रियों का एक ही दूध या घी उपकारक होता है, पुष्ट करने वाला होता है । जैसे नासिका पृथ्वी तत्त्व से बनी है, रसना जलतत्त्व से बनी है, स्पर्शन वायुतत्त्व से बना है और नेत्र अग्नितत्त्व से बने हैं ऐसा किन्हीं दार्शनिकों ने माना है । उन्होंने भी यह स्वीकार किया है कि दूध घी आदिक के प्रयोग से सभी इंद्रियों का पोषण होता है । तो अब यहां देखिये कि एक ही दूध घी सभी इंद्रियों का अनुग्राहक देखा गया है । शायद कोई यह कहे कि वृद्धि तो एक ही चीज है अथवा घी दूध आदिक से जो बढ़वारी हुई है वह कार्य तो एक रूप हैं । उस एक वृद्धि का दूध घी ने उपकार किया है, इसलिए हमारी शंका ज्यों की त्यों रही । एक पुद्गल द्रव्यकर्म नाना प्रकार के कार्यों का निमित्त कैसे हो जाता? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि जितनी इंद्रियां हैं उन सबकी वृद्धियाँ हैं तो प्रत्येक इंद्रिय की वृद्धि जुदी-जुदी कहलाती है । जैसे कि इंद्रियाँ भिन्न हैं उसी प्रकार इंद्रियों की वृद्धियाँ भी भिन्न हैं । जिस प्रकार भिन्न जाति वाले तत्त्वों से अग्नि जाति वाले नेत्र का अनुग्रह होता है उसी प्रकार आत्मा और कर्म ये चेतन और अचेतन हैं, इनकी जाति एक नहीं है । तो असमानजातीय कर्म आत्मा का अनुग्रह करने वाला है यह सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार कर्म के मूल भेद 8 सिद्ध हुए हैं ।
(246) कर्म की तथा कर्मबंध की अनेक प्रकारता का दिग्दर्शन―अब जिज्ञासा होती है कि क्या 8 ही संख्या है या अन्य प्रकार कर्मों की संख्या हो सकती है? इसका समाधान―कर्म के कितने ही भेद बना लिए जायें―जैसे कर्म एक है, सामान्यरूप से सब पौद्गलिक कार्माणवर्गणायें हैं, यहाँ विशेष की विवक्षा न रही । जैसे सेना इतना कहने में हाथी, घोड़ा, प्यादे आदिक सब गर्भित हो जाते हैं, पर सेना शब्द के कहने में विशेषों की विवक्षा नहीं रहती । समुदाय की अपेक्षा एक ही सेना है, अथवा जैसे कह दिया―बगीचा तो उसमें आम, नींबू आदिक अनेक प्रकार के वृक्ष हैं, पर उनकी विवक्षा न होने से सामान्य आदेश से वन एक कहलाता है, ऐसे ही पुद्गलकर्म एक है, कर्म अब दो किस प्रकार हैं? पुद्गलकर्म दो प्रकार के हैं―(1) पुण्यकर्म और (2) पापकर्म । जैसे सेना एक कही गई पर उस सेना में पुछ अफसर हैं, कुछ सिपाही हैं तो जैसे वह सेना दो भागों में बँट गई―(1) सैनिक अफसर और (2) सैनिक सिपाही, इसी प्रकार वे पुद्गलकर्म दो भागों में बँट गए―(1) पुण्यकर्म और (2) पापकर्म । अथवा पुद्गलकर्म तीन प्रकार का है―(1) अनादि सांत, (2) अनादि अनंत और (3) सादिसांत । कर्म की संतति अनादिकाल से चली आयी है मगर किसी के कर्मों का अंत हो जाता है तो उसके कर्म अनादि सांत कहलाये । अभव्य जीवों के कर्म अनादि से चले आये हैं और अनंत काल तक रहे जायेंगे तो उनके कर्म अनादि अनंत कहलायेंगे । तथा किसी ज्ञानी जीव के कर्म संवृत हो गए, कुछ समय से नवीन बंध नहीं हो रहा, फिर परिस्थितिवश, अज्ञानदशा को पाकर कभी नवीन बंध होने लगे तो सादि कहलाता है और उन्हीं का अंत:प्रज्ञ दशा में कभी अंत हो जायेगा, इसलिए सांत भी कहलाये अथवा प्रत्येक कर्म किसी दिन बंधना, किसी दिन खिरता, सो सभी सादि सांत बंध है । अथवा वह कर्मबंध इस प्रकार भी तीन तरह का है―(1) भुजाकार बंध, (2) अल्पतर बंध, (3) अवस्थित बंध । बंध का और विस्तार बना लें तो वह भुजाकार बंध कहलाता है । कही कर्म अधिक बंध रहे थे उससे और कम-कम बंधे तो वह अल्पतर बंध कहलाता है तथा कर्मबंध जैसे हो रहा था वैसा ही होता रहे तो वह अवस्थित बंध कहलाता है । अथवा बंध 4 प्रकार का है―(1) प्रकृतिबंध, (2) स्थितिबंध, (3) अनुभवबंध और (4) प्रदेशबंध । इनका वर्णन इससे पहले के सूत्रों में आ ही गया है । अथवा बंध 5 प्रकार का है―(1) द्रव्यबंध, (2) क्षेत्रबंध, (3) कालबंध, (4) भवबंध और (5) भावबंध । यह बंध उनकी निमित्त दृष्टि से 5 प्रकार का बना है । अथवा बंध 6 जीवकायों के विकल्प से 6 प्रकार का होता है । अथवा बंध 7 तरह का है―(1) राग के निमित्त से होने वाला बंध (2) द्वेष के निमित्त से होने वाला बंध (3) मोह के निमित्त से होने वाला बंध (4) क्रोध के निमित्त से होने वाला बंध, ऐसे ही (5) मान के निमित्त से होने वाला बंध, (6) माया के निमित्त से होने वाला बंध और (7) लोभ के निमित्त से होने वाला बंध । अथवा कर्मबंध 8 प्रकार का है । ज्ञानावरण आदिक जिनके नाम इस ही सूत्र में कहे गए हैं । इनसे बढ़ा बढ़ाकर संख्यात भेद कर्म के बन जाते हैं । और अध्यवसाय साधन के भेद से असंख्यात कर्म हो जाते हैं और भेद चूंकि अनंतानंत हैं, उनकी दृष्टि से अनंत कर्मबंध कहलाता है अथवा इन ज्ञानावरणादिक कर्मों का अनुभाग अनंत शक्ति वाला होता है, उस दृष्ट से अनंत बंध कहलाता है ।
(247) आठ कर्मों के सूत्रनिबद्ध क्रम का प्रयोजन―इस सूत्र में 8 कर्मों का जिस क्रम से नाम लिया गया है उसका प्रयोजन है । इसमें सबसे पहले ज्ञानावरण नाम लिखा है । ज्ञान अर्थात् ज्ञान के द्वारा आत्मा का ज्ञान होता है इसलिए सर्वप्रथम ज्ञानावरण नाम रखा गया है, क्योंकि ज्ञान ही आत्मा की जानकारी का साधकतम है अर्थात् ज्ञान से ही आत्मा जाना जाता है और ज्ञान से ही सर्व पदार्थों की व्यवस्था मानी जाती है । ज्ञानावरण के बाद दर्शनावरण लिखा है । इसका कारण यह है कि दर्शन भी प्रतिभास स्वरूप है लेकिन अनाकार प्रतिभास रूप है, जो कि साकार उपयोग से कुछ लघु कहलाता है, क्योंकि दर्शन में स्पष्ट ग्रहण नहीं होता, ज्ञान में वस्तु का स्पष्ट ग्रहण होता है, सो ज्ञान की अपेक्षा तो दर्शन निकृष्ट रहा, लेकिन आगे कहे जाने वाले वेदनीय आदिक की अपेक्षा यह प्रकृष्ट है । इस कारण ज्ञानावरण के पश्चात् और वेदनीय आदिक से पहले दर्शनावरण का नाम लिया गया है । इसके बाद वेदनीय कर्म कहा गया है । वेदनीय में वेदना होती है और उस वेदना का संबंध ज्ञान दर्शन के साथ लगता है, क्योंकि वेदना ज्ञान दर्शन के साथ ही चलती है । जहाँ ज्ञान दर्शन नहीं है वहाँ वेदना नहीं हो सकती । जैसे घट पट आदिक पदार्थ वे अचेतन हैं, वहाँ ज्ञान दर्शन नहीं है । इस कारण वहाँ वेदना नहीं चलती । वेदनीय के बाद मोहनीय का नाम लिया है क्योंकि ज्ञान का, दर्शन का सुख दुःख का इन सबका विरोध है मोह से । जो मोही पुरुष है वह न तो जानता है, न देखता है, न सुख दुःख का वेदन करता है । यहाँ शंकाकार कहता है कि मूढ़ पुरुषों के भी जिनके मोह बसा है उन पुरुषों के भी सुख दु:ख ज्ञान और दर्शन पाये जाते हैं । यदि मोही जीव के साथ सुख दुःख ज्ञान दर्शन का विरोध हो तो मिथ्यादृष्टि और संयमी जीवों के फिर सुख दुःख ज्ञान दर्शन न रहना चाहिए, परंतु रहता है, फिर यह युक्ति देना कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय के बाद मोहनीय का नाम इस कारण लिखा है कि इसका उनसे विरोध है, यह बात संगत नहीं बैठती । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि मोह का जो ज्ञान दर्शन आदिक से विरोध कहा है सो उसका अर्थ है कि कहीं तो विरोध देखा जाता है । सर्वत्र विरोध न सही, पर जहाँ व्यामोह अधिक है या एकेंद्रिय आदिक जीव हैं उनके ज्ञान दर्शन अत्यंत कम पाये जाते हैं । फिर दूसरी बात यह है कि भले ही मोही जीवों के भी ज्ञान दर्शन मिले, पर मोह से जो दबा हुआ है उस प्राणी के हित और अहित का विवेक आदिक तो हो ही नहीं सकता । अब मोहनीय के समीप में आयु का नाम लिया है, वह यह सिद्ध करता है कि प्राणियों का सुख दुःख आदिक सब आयु के कारण से होता है । आयु के उदय में यह जीव शरीर में रहता है तो उसके सुख दुःख मोह आदिक सभी बनते हैं, यह संबंध बताने के लिए मोहनीय के पास आयु शब्द को रखा है । आयुकर्म के बाद नामकर्म का नाम लिया है । इसका कारण यह है कि नामकर्म का उदय आयुकर्म के उदय की अपेक्षा रखता है । अर्थात् जैसी आयु का उदय होता है उसके अनुरूप गति जाति आदिक नामकर्म का उदय चलता है । नाम के बाद गोत्र शब्द रखा है क्योंकि जिसको शरीरादिक प्राप्त हो गए हैं, आयु के कारण जीव शरीर में मिल रहा है ऐसे पुरुष के गोत्र के उदय के कारण ऊँच नीच का व्यवहार चलता है इस कारण नामकर्म के बाद गोत्रकर्म का नाम रखा है । इस प्रकार 7 कर्मों का क्रम कहा, अब बचा है अंतरायकर्म, सो उस बचे हुए कर्म को अंत में रखा गया है । अब यह जिज्ञासा होती है कि मूल प्रकृति बंध 8 प्रकार का कहा है । सो तो जानो । अब दूसरा उत्तर प्रकृतिबंध है, वह कितनी तरह का होता है इसका वर्णन करने के लिए सूत्र कहते हैं ।