वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-5
From जैनकोष
पंचनवद्वष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशदि्द्वपंचभेदो यथाक्रमम् ।।8- 5।।
(248) प्रकृतिबंध के उत्तरप्रकृतिबंधों की संख्या का निर्देश―वे ज्ञानावरणादिक कर्म क्रम से 5, 9, 2, 28, 4, 42, 2 और 5 भेद वाले हैं । इस सूत्र में दो पद हैं । प्रथम पद में तो सर्व संख्यावों का द्वंद्व समास किया गया है, फिर भेद पद के साथ बहुब्रीहि समास किया गया है । जिससे अर्थ होता है कि 5, 9 आदिक हों भेद जिसके ऐसा वह प्रकृतिबंध है । यहाँ कोई शंका कर सकता है कि इस सूत्र में द्वितीय शब्द ग्रहण करना चाहिए था, इससे स्पष्ट सिद्ध हो जाता कि पहले जो भेद बताये गए थे वे तो मूल प्रकृतिबंध के थे । अब जो भेद बताये जा रहे हैं सो उत्तर प्रकृति के बंध हैं । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह शंका यों ठीक नहीं कि जब पहले मूल प्रकृति के भेद बता दिये और अब मूल प्रकृतियों में ही ये भेद बताये जा रहे हैं तो अपने आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि यह उत्तर प्रकृति बंध का विवरण है । इस सूत्र में कहे गए भेद शब्द का प्रत्येक संख्या के साथ संबंध रखाना, जैसे ज्ञानावरणकर्म 5 भेद वाला है, दर्शनावरण कर्म 9 भेद वाला है, वेदनीय कर्म दो भेद वाला है, मोहनीय कर्म 28 भेद वाला है, आयुकर्म 4 भेद वाला है, नामकर्म 42 भेद वाला है, गोत्रकर्म दो भेद वाला है और अंतराय कर्म 5 भेद वाला है । इन कर्मों के साथ इन संख्यावों का क्रम से संबंध जोड़ना चाहिए । यह सूचना देने के लिए सूत्र में यथाक्रम शब्द दिया गया है । नामकर्म की जो 42 प्रकृतियाँ बतायी है सो उनमें पिंड प्रकृतियों को एक-एक माना है । जैसे गतिनामकर्म । उसको एक ही मान लिया । यद्यपि उसके चार भेद हैं लेकिन यहाँ उन प्रभेदों की विवक्षा नहीं की गई और जिसके भेद नहीं हैं ऐसी कर्म प्रकृतियाँ भी इस गिनती में हैं । इस प्रकार पिंड और अपिंड सर्व प्रकृतियां मिलकर 42 हैं । यदि पिंड के भेद गिने जाये तो नामकर्म की सब प्रकृतियाँ 93 होती हैं । अब यहाँ जिज्ञासा होती है कि यदि प्रथम आवरण अर्थात् ज्ञानावरण 5 का आवरण करता है तो वे 5 कौन से हैं जिनका आवरण यह प्रथम कर्म करता है ।