वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 114
From जैनकोष
गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमाष्टिं खलु गृहविमुक्तानां ।
अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ।। 114 ।।
गृहविमुक्त साधुजनों की प्रतिपूजा से पाप की निर्जरा―श्रावक पात्र दान करके तत्काल क्या फायदा पाता है, इसका वर्णन इस छंद में किया है । गृह के जितने कार्य हैं चाहे आरंभ के हों अथवा उद्योग के हों, दोनों ही कार्यों में पाप का उपार्जन जरूर होता है । चाहे कितनी ही शुद्धता से वह कार्य करे, जीव हिंसा बचाकर व्यापार करे फिर भी गृहकर्म में पाप का बंध अवश्य है । कोई पूछे कि जो लोग सर्विस करते हैं वे आखिर अपने आफिस में गए, अपनी ड्यूटी बजाया और घर आ गए, उनको इस कार्य में क्या पाप है? तो भाई गृहकर्म में, उद्योग में जो परिणाम चलता हैं उस परिणाम में जो आत्म विपरीत कार्य किया जाता है, राग रहता है और अनेक प्रकार की कल्पनायें बनती हैं वे सब पाप का ही तो बंध कराती हैं । चाहे कोई सर्विस करता हो चाहे कोई व्यापार करता हो सभी कार्यों में और गृहकर्मों में पाप का उपार्जन अवश्य होता है । सो गृहकर्म के द्वारा उपार्जित किए हुए कर्मों को दूर करने, धोने का उपाय क्या है? जो गृह विमुक्त हैं, पात्र हैं, अपने धर्मध्यान में ही निरंतर रहा करते हैं ऐसे अतिथियों के बीच गृहकर्म से उत्पन्न हुए पाप को दूर कर देते हैं । बहुत कुछ उन पापों का प्रायश्चित हो जाता है और उनकी शुद्धि हो जाती है । जैसे कि जल खून को धो डालता है ऐसे ही पात्र की पूजा अतिथियों की सेवा गृहकर्म से उत्पन्न हुए पाप को दूर कर देती है ।