वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 138
From जैनकोष
निरतिक्रमणमणुव्रतपंचकमपि शीलसप्तकं चापि ।
धारयते नि:शल्यो योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिक: ।।138।।
अर्थ―निरतिचार पाँचों अणुव्रतों और सप्तशीलों को भी जो तीनों शल्यों से रहित धारण करता है वह व्रतियों में व्रतिक पद का धारी माना गया है।
व्रतप्रतिमाधारी श्रावक का स्वरूप―इस आर्याछंद में दूसरी प्रतिमा के धारण करने वाले दार्शनिक का निरूपण किया गया है जो अतिचार रहित 5 अणुव्रत को तो लिखा है निरतिचार, पर 7 शीलों को अपि शब्द कह कर कहा गया है । इससे यह प्रसिद्ध होता है कि 7 शीलों के अतिचार तो कदाचित् लगते रहते है दूसरी प्रतिमाधारी श्रावक को, किंतु 5 गुणव्रत निरतिचार ही रहते है, 5 अणुव्रत है―(1) अहिंसाणुव्रत (2) सत्याणुव्रत (3) अचौर्याणुव्रत (4) ब्रह्मचर्याणुव्रत और (5) परिग्रह परिमाणाणुव्रत । तीन गुणव्रत हैं, (1) दिग्व्रत (2) अनर्थ दंडवत और (3) भोगोपभोग परिमाणव्रत । 4 शिक्षाव्रत है―(1) सामायिक (2) प्रोषधोपवास (3) अतिथि सम्विभाग और (4) सल्लेखना । इस प्रकार से इन 12 व्रतों का जो पालन करता है वह व्रती श्रावक माना गया है ।
ज्ञानी की दृढ़चित्तता व क्षमाशीलता―यह व्रती श्रावक दृढ़ चित्त है, जो प्रतिज्ञा ली है उससे चलित नहीं होता । कुछ उपसर्ग उपद्रव भी आये तो उन्हें भी समता से सह लेता है । इसके परिणाम क्षमाशील है, उसने सर्व जीवों को अपने समान स्वरूप वाला निरखा है और जाना है कि आत्मा तो सहज निरपराध है, जो कुछ विकार है वह सब कर्म का प्रतिफलन है । इस आत्मा का क्या अपराध? यद्यपि कर्मोदय में इस आत्मा के ही गुण विकृत हुए मगर स्वभाव से तो ऐसा विकृत नहीं होता । तो स्वभावदृष्टि से दूसरे जीवों को निरखता है इस कारण यह क्षमाशील बना रहता है ।
(1) व्रती श्रावक की दयाप्रवृत्ति व महारंभ से निवृत्ति―यह व्रती श्रावक दया सहित अपनी प्रवृत्ति करता है । किसी भी जीव को मेरे द्वारा आघात न पहुंचे, ऐसा भाव रखता है, क्योंकि उसने सर्व जीवों को अपने समान माना इस कारण जैसे किसी दूसरे की चेष्टा में अपना दिल दु:खे तो ऐसे ही दूसरे का भी दिल दुखता है, विघात होता है, इस कारण वह अपने समान ही पर को मानने वाला व्रती श्रावक कोई भी व्यापार प्रवृत्ति ऐसी नहीं करता जिसमें दूसरे जीवों को कोई बाधा पहुंचे और कदाचित् कभी थोड़ा प्रमाद हो जायतो उसकी निंदा और गर्हा करता है, अपने आप में पछतावा करता है और गुरु के समक्ष दोषों का निवेदन करता हुआ और उनका प्रायश्चित लेता हुआ उसका पालन करता है । यह व्रती श्रावक महान् आरंभ वाले कार्यों का त्याग कर देता है, जैसे खेत जोतने का व्यापार, भूमि खोदने का व्यापार, पत्थर निकालने का, संगमरमर निकालने का और-और भी धातु उपधातु निकालने का व्यापार, कोयला निकालने का ऐसे व्यापार को नहीं करता । और भट्टा लगाना, जंगल फुकवाना, तालाब सुखवाना, जंगल काटना, ऐसे महान आरंभ वाले व्यापार को व्रती श्रावक नहीं करता, क्योंकि इस व्यापार में बड़ी हिंसा है ।
व्रती श्रावक की त्रसघात से दूरवर्तिता―यह व्रती श्रावक त्रस जीवों के घात को न तो स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है, न करते हुए को अनुमोदता है, याने कृतकारित अनुमोदना से उसके त्रस घात का त्याग है और वह मन, वचन, काय से स्वयं अपने ही द्वारा मन से विचारकर त्रस जीवों के घात को नहीं करता, मायने त्रस घात का वह मन में विचार नहीं करता । दूसरे पुरुष को भी प्रेरणा करे उसका घात कराये, ऐसा मन में चिंतन नहीं करता । कोई जीव त्रस घात करता हो तो उस पुरुष की मन से अनुमोदना नहीं करता कि मन में सोच ले कि इसने अच्छा किया । इसी प्रकार वचन से भी त्रस घात का परिहार करता है । वचन से स्वयं त्रस कायिक जीवों का घात नहीं करता । खोटे वचन बोलने से जीवों को तकलीफ होती है । तो वचनों से हिंसा नहीं करता अथवा हिंसा संबंधी वचन नहीं बोलता । तुझे मारूंगा, हिंसा करूंगा, आदिक वचनों से वह दूर रहता है । वचन से त्रस घात की हिंसा नहीं कराता । जैसे दूसरे की वचनों द्वारा प्रेरणा दे कि तू यह काम करले जिसमें कि त्रस घात होता है इसी तरह वचनों से अनुमोदना भी नहीं करता, किसी का किसीने घात किया हो तो उसका वचनों से समर्थन करे, शाबासी दे, अनुमोदना करे, यह प्रवृत्ति व्रती श्रावक की नहीं होती । इसी प्रकार शरीर से भी न त्रसघात करता है न शरीर से कराता है और न करते हुए को शरीर से अनुमोदता है । जैसे मुख हिलाना, हाथ हिलाना आदि इस प्रकार की काय चेष्टाओं से समर्थन नहीं करता है । यों कोटि से त्रस घात का, हिंसा का त्याग करने वाला जीव व्रती श्रावक कहलाता है ।
(2) व्रती श्रावक के सत्याणुव्रत का पालन―सत्याणुव्रत में यह जीव अपने वचनों का बड़ा नियंत्रण रखता है । हिंसा के वचन न बोलेगा । जैसे कि लोग जरासी भी बात में, दिल दु:खने की कह देते हैं मारने छेदने आदिक की बातें ऐसे कर्कश वचन किसी को न बोलना । जो वचन दूसरे को चुभे ऐसे वचनों को व्रती श्रावक नहीं बोलता । जैसे कि तू मूर्ख है, तू बैल है, तू कुछ नहीं जानता है, तू बड़ा दुष्ट है, मैं तुझे मारूंगा, छेदूँगा, ऐसे वचन व्रती नहीं बोलता । यह दूसरे की गुप्त बातों को भी नहीं कहता । जैसे किसी का कोई गुप्त वार्तालाप हो तो उसे प्रकट करने में यह तो मानता है कि इसे क्लेश होगा, कष्ट होगा, ऐसा जानकर वह गुप्त बात को प्रकट नहीं करता, किंतु दूसरों का जिससे हित हो ऐसे प्रिय वचन परिमित शब्दों में बोलता है । यह व्रती श्रावक धर्म संबंधी वार्ता ही अधिक करता है । चूँकि यह गृहस्थी में है इस कारण कभी आजीविका आदिक संबंधी वार्ता करता है और आत्मा का अनुभव करने में जो अलौकिक आनंद पाया है उसका निरंतर स्मरण करने से धर्म संबंधी वचन बोलने में इसकी प्राय: वृत्ति रहती है । यह कभी धन आदिक संग्रह करने के लिए, दूसरों को ठगने वाला मिथ्या उपदेश नही करता । यह कभी भी पुरुषों के रहस्य की एकांत की बात प्रकाशित नहीं करता । किसी पुरुष ने कोई बात कही हो अथवा न कही हो, वह एक की दूसरे से चुगली नहीं करता, और कभी ऐसे वचन नहीं बोलता कि जिसमें धरोहर का अपहरण हो । जैसे कोई मानो 5 हजार रुपये किसी के पास रख गया, अब मांगते समय उसे 4 हजार का ही याद है, तो वह कहता है कि जो मैं 4 हजार रुपये तुम्हारे पास रख गया था वे दे दो, तो वह बड़ा प्रसन्न होकर बोलता, हां-हां ले जावो । उसे मालूम है कि 1 हजार यह भूल रहा है लेकिन उसे न बोलना, ऐसा काम व्रती श्रावक नहीं करता । ऐसे ही दूसरे के कोई अभिप्राय जान ले और ईर्ष्या के कारण उसके अभिप्राय को प्रकाशित करे, यह होती है ईर्ष्या वाले पुरुष की चेष्टा, ऐसे वचन व्रती श्रावक नहीं कहता, इस प्रकार यह व्रती श्रावक सत्याणुव्रत का करता है ।
(3) व्रती श्रावक का अचौर्याणुव्रत―अचौर्याणुव्रत में दूसरे की धरी, पड़ी, गिरी चीज को नहीं ग्रहण करता, यह तो है ही, पर बहुत मूल्य की चीज अल्प मूल्य में नहीं ग्रहण करता । यद्यपि देखने में ऐसा लगता है कि वहतो एक रोजगार है वह दे रहा है, खुश होकर भी दे रहा है, पर यह तो जानता है कि यह बहुत मूल्य की चीज है, मैं इसे चौथाई में ही ले रहा हूँ तो इसको तो पूरा चोरी का दोष है । व्रती श्रावक इस तरह से अल्पमूल्य में चीज ग्रहण नहीं करता । किसी की चीज भूली पड़ी हो उसे भी नहीं लेता । थोड़ा भी लाभ हो अपने रोजगार में उसमें भी वह संतुष्ट रहता है । इस व्रती श्रावक ने अपने जीवन का लक्ष्य धन का संग्रह करना नहीं बनाया, लक्ष्य बनाया है कि मैं आत्मा के सहज स्वरूप का अनेक बार अनुभव करता रहूं और इस सहज ज्ञानस्वभाव के ज्ञान के अभ्यास से संसार के संकटों से छूट जाऊं यह ही लक्ष्य रहता है । जब धन संचय का लक्ष्य नहीं है तो यह अपने आप ही वृत्ति बनती है कि थोड़ा भी लाभ हो तो उसमें भी संतोष रहता है । यहँ व्रती श्रावक मायाचार से अथवा लोभवश होकर या क्रोध, मान के कारण किसी दूसरे के द्रव्य का हरण नहीं करता । इसकी मति विशुद्ध है अपने लक्ष्य में दृढ़ चित्त है, इस प्रकार यह व्रती श्रावक अचौर्य व्रत का पालन करता है ।
(4) व्रती श्रावक का ब्रह्मचर्याणुव्रत―ब्रह्मचर्याणुव्रत में इस व्रती श्रावक की अविकार ब्रह्मस्वरूप पर दृष्टि होने से निरंतर आत्मतत्त्व की धुन रहती है । और ऐसे ही परमार्थ ब्रह्मचर्य की साधना में उमंग रहती है । यह फिर बाह्य ब्रह्मचर्य की भी सुरक्षा रखता है । यह शरीर अशुचिमय है । हाड़, मांस, लोहू, चाम, दुर्गंधमय ऐसे देह को देखकर उसका रूप और सुंदरता जो कि मन की मुग्ध करने वाली है, उसको दुर्गंध और अशुचि के रूप में ही देखता है, शरीर पर जो चमक दमक है सो शरीर में रहने वाले मल रु आदि दुर्गंधित चीजें उनके ऊपर चमड़ी होने से यह ऊपर कुछ सुंदरता नजर आती है । उसका कारण ये दुर्गंधित पदार्थ ही है । सो इस प्रकार अशुचिमय देह को निरखकर यह विकार के भावों से रहित रहता है, पर स्त्री को बहिन बेटी की तरह मानता है और किसी भी स्त्री में मन, वचन, काय से किसी भी प्रकार का विकारभाव नहीं लाता और स्व स्त्री में ही यह संतोष भाव से रहता है । ऐसा यह व्रती श्रावक ब्रह्मचर्याणुव्रत का पालन करता है । इन सब व्रतों के संबंध में जब व्रती श्रावक का वर्णन चला था इसी ग्रंथ में वहाँ विशेषतया वर्णन किया गया था, कैसे वह निरतिचार पालन करता है? अपने पुत्र पुत्री आदिक को छोड़कर अन्य मित्र स्वजन, परिजनों का यह विवाह करने कराने में अपना उपयोग नहीं लगाता । यह व्रती श्रावक अनंग अर्थात् कामसेवन के अंग से भिन्न प्रकार क्रीड़ा नहीं करता, अयोग्य वचन नहीं बोलता, स्वस्त्री में भी अतीव तृष्णा नहीं रखता और जो कुशील स्त्री हैं उनसे रंचमात्र भी वचन व्यवहार नहीं रखता । उनके यहाँ आना-जाना, यह प्रवृत्ति नहीं करता । बाड़ बतायी गई है, उनके विरुद्ध प्रसंगों का परिहार करता हुआ बाड़ों की रक्षा करता हुआ यह आत्मधुन में रहकर अपने ब्रह्मचर्याणुव्रत का पूर्ण पालन करता है ।
(5) व्रती श्रावक का परिग्रह परिमाणाणुव्रत―व्रती श्रावक जिन्होंने इन पौद्गलिक पिंडों को, अपने से भिन्न निरखा है और उन पौद्गलिक पिंडों से अपने में कुछ भी नहीं आता । सुख-दुख सब कुछ खुद की कल्पना से ही होते हैं, जिनका ऐसा निर्णय है वे बाह्य पदार्थो में तृष्णा कैसे करेंगे? लोभ का नाश कर संतोष रसायन से ही यह व्रती निर्दोष रहता है । यह समस्त जगत के समागम को विनश्वर जानता है अतएव उसके तृष्णा न रही, लेकिन जब तक यह गृहस्थी में है तब तक कुछ परिग्रह रहे बिना जीवन नहीं चल सकता, अतएव परिग्रह तो है किंतु उनका परिमाण कर लेता है । मुझे अधिक परिग्रह की आवश्यकता ही नहीं है ऐसे निर्णय के कारण वह वर्तमान परिस्थिति के अनुसार परिग्रह का परिमाण करता है, और कभी भी यह अतिचार नहीं लाने देता कि कभी कोई परिग्रह परिमाण को कम करले । उसके एवज में किसी दूसरे प्रकार का परिग्रह बढ़ा ले या कोई भीतर की सीमा तोड़कर उसे परिमाण समझकर कुछ बढ़ा ले ऐसी वृत्ति व्रती श्रावक की नहीं होती । तो निरतिचार 5 अणुव्रत जिस श्रावक के पलते और 7 शील का भी जिसके पूर्ण अभ्यास चलता है, कुछ-कुछ अतिचार भले ही लगें मगर उनकी प्रतिज्ञा को निभाता है वह पुरुष व्रती श्रावक है । मुख्य 7 शीलों में यदि पूर्णतया निरतिचार तो फिर अगली प्रतिमा किसलिए धारण करता है? दूसरी प्रतिमा से आगे की जो प्रतिमायें हैं, परिग्रह त्याग प्रतिमा से पहले-पहले की वे 7 शीलों की पुष्ट करने के लिए ही हैं । जैसे तीसरी प्रतिमा से सामायिक शिक्षा व्रत का पूर्ण पालन है, चौथी प्रतिमा में प्रोषधोपवास व्रत का निरतिचार पालन है । ऐसे निरतिचार शील अगली प्रतिमा में पलते हैं, फिर भी यह व्रती श्रावक निरतिचारों को पालने का ही ध्यान रखता है । यों बारह व्रत पालन कर अपने जीवन में आत्मतत्त्व की दृष्टि का दृढ़ अभ्यास बनाता है ।
(6) व्रतीश्रावक का दिग्व्रतनामक अणुव्रत―अब 5 अणुव्रत के बाद 3 गुणव्रत का निरूपण आ रहा है । उन गुण व्रतों में प्रथम गुणव्रत है दिग्व्रत । इस व्रती श्रावक ने अपने लोभ कषाय के विनाश के लिए सर्व दिशावों का परिमाण कर लिया है कि मैं अमुक-अमुक दिशा में इतने क्षेत्र से बाहर न जाऊंगा, न संबंध रखूँगा, ऐसा दिग्व्रत लेने का प्रयोजन है लोभ का विनाश । कभी यह तीर्थयात्रा के लिए अथवा अन्य धार्मिक कार्यों के लिए कुछ मर्यादा से बाहर भी जाता है, पर वहाँ लोभ की अगर प्रवृत्ति रखेगा या साथ ही यह सोचेगा कि यहाँ तक तो आये ही हैं, यहाँ यह चीज सस्ती मिलती है, इसे लेते चलें, काफी लाभ मिल जायगा, तो ऐसा करने पर उसके दिग्व्रत का भंग हो जायगा । दिशावों की मर्यादा करने के लिए प्रसिद्ध क्षेत्रों का निर्देश इसके लिए बहुत स्मृति रखने वाला होता है । जैसे उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत तक, दक्षिण में कन्याकुमारी महानदी तक, इस प्रकार किसी प्रसिद्ध क्षेत्र का या किसी पर्वत का नाम लेकर मर्यादा कर ली जाती है । अथवा मील कोश का परिमाण की मर्यादा कर ली जाती है । जो मर्यादा की है उसमें बाहर न जाना यह दिग्व्रत कहलाता है । उस मर्यादा के बाहर यह पत्र भी न डालेगा, वहाँ किसी अपने आदमी को भी न भेजेगा । कोई सोचे कि मेरा तो नियम है कि मैं हिंदुस्तान से बाहर न जाऊंगा, किसी काम के लिए दूसरे आदमी को भेज दे विदेश तो ऐसा यह व्रती नहीं कर सकता है, क्योंकि दिग्व्रत का प्रयोजन तो लोभ कषाय का विनाश करना है । लोभवश ही तो वह दूसरे को भेजता है । तो जो दिशावों की मर्यादा की उससे बाहर न तो किसी को भेजेगा, न वहाँ से कोई चीज मंगायगा, न पत्र व्यवहार करेगा, न किसी समय ऐसा सोचकर कि चलो पूर्व दिशा में मर्यादा कम कर ले, पश्चिम दिशा में मर्यादा बढ़ा लें, क्षेत्र उतना का ही उतना रहेगा, ऐसा सोचकर किसी दिशा की मर्यादा बढ़ा लेना यह व्रती श्रावक न करेगा । यह तो कभी-कभी दिग्व्रत के अंदर भी कुछ दिन की मर्यादा लेकर सीमित क्षेत्रों में ही आना जाना रखेगा । इसकी दृष्टि तो और कम क्षेत्रों में अपने आपकी वृत्ति रखना है । वह मर्यादा से बाहर क्षेत्र बढ़ाये यह तो कभी सोच ही न सकेगा । तो इस प्रकार दिग्व्रत में जो मर्यादा की है उसे कभी भूलेगा नहीं । उससे बाहर जाने की इच्छा करेगा नहीं, और कितना ही प्रयोजन हो, उससे आगे जायगा नहीं । हां कोई धर्म कार्य हो, तीर्थ यात्रा आदिक हो, विशुद्ध धर्म कार्य जहाँ अन्य कषाय का कोई विचार स्थान रंच नहीं है, कभी बाहर ऐसा जाना पड़े तो यात्रा कर सकेगा । जब ऐसा सोच ले कि अमुक तीर्थ इतनी दूर है तो भला यह हैं कि वहाँ तक ही दिग्व्रत की मर्यादा रख ले ताकि किए हुए व्रत में कभी भी किसी प्रकार की कोई त्रुटि न आ सके ।
(7) अनर्थदंड विरति नामक द्वितीय गुणव्रत और उसके प्रकार―व्रती श्रावक के अनर्थ दंडव्रत की अब चर्चा की जा रही है । अनर्थ दंड का अर्थ है―जो कार्य कुछ भी प्रयोजन को सिद्ध नहीं करता और नित्य पाप को ही करता है वह सब अनर्थ कहलाता है और दंड भी है, अर्थात् बिना प्रयोजन पाप को अनर्थ दंड कहते है । इन अनर्थ दंडों का त्याग करना अनर्थ दंड व्रत कहलाता है, ऐसे अनर्थ दंड 5 हुआ करते हैं । जिन अनर्थ दंडों में कोई इष्ट धन धान्य का लाभ हो या अनिष्ट शत्रु आदिक का नाश हो ऐसा कोई भी कार्य सिद्ध नहीं है और उसके संकल्प में, संस्कार में निरंतर पाप का बंध होता है । ऐसे अनर्थ दंड 5 है, और 5 ही नहीं, अनेक हैं । उन अनर्थ दंडों को जुदे रूप में 5 कह दिया है, किंतु हैं अनेक प्रकार के, और उन सब में अनेक प्रकार के अनर्थ हैं, ऐसे अनर्थ 5 तरह के हैं । अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और दु:श्रुति । इनके त्याग को अनर्थदंड विरति कहते है, सो ये विरति भी पांच प्रकार के हैं ।
(क) अपध्यान अनर्थदंडविरति―अपध्यान का अर्थ है कि दूसरे के दोषों को ही ग्रहण करना, दूसरे के धन संपत्ति आदिक की चाह रखना, पर स्त्री का अवलोकन करना, दूसरे के झगड़े को देखना, ऐसा कार्य करने में जो ध्यान बिगड़ता है वह अपध्यान नामक अनर्थदंड है । दूसरे पुरुषों के दोष ही दोष देखना और उन दोषों को चर्चा करने में दिल बहलाना ऐसी क्रिया करने से इस करने वाले का कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता? न आजीविका में सहयोग मिले, न धर्म में । दूसरे की लक्ष्मी को, धन संपदा को, निरख निरखकर चाह करना, ईर्ष्या करना, बुरा चिंतन करना, इस विचार में इस जीव को कौनसा प्रयोजन सिद्ध हुआ? कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं है । तो यह अनर्थ दंड है, परस्त्री को देखना, इसमें कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता? व्यर्थ दूसरे का लगाव रखा, लौकिक दृष्टि से भी परस्त्री उसकी बन न जायगी, उस पर कुछ अधिकार नहीं है और न कभी कोई उसका लाभ होगा, अथवा कदाचित् छिपे-छिपे लाभ भी हो जायतो आत्मा को उससे कौनसा लाभ होता? उल्टा पाप का बंध है, तो यह ऐसा कार्य है कि जिसमें अनर्थ बहुत है । दूसरे झगड़ रहे हैं तो उनका झगड़ा देखने में बड़ा दिल लगता है, और कभी उनका झगड़ा शांतसा होता दिखाई दे तो यह खेदसा मानने लगता कि अब हमारा देखने का मजा मिट रहा है, तो दूसरे के झगड़े को देखना यह अपध्यान है । दूसरे का बुरा चिंतन करना, विनाश का या बरबादी का भाव रखना यह सब अपध्यान अनर्थदंड है । इन अनर्थदंडों को व्रती श्रावक के त्याग रहता है । अपध्यान के त्याग को अपध्यान विरति नामक अनर्थदंड विरति कहते हैं ।
(ख) पापोपदेशविरति नामक अनर्थदंडविरति―दूसरा अनर्थदंड है पापोपदेश । जो कृषि, पशु पालन, वाणिज्य आदि का उपदेश किया जाता अथवा किसी पुरुष स्त्री के संयोग विषयक उपदेश किया जाता है वह पापोपदेश नाम का अनर्थदंड है । दूसरे को खेत जोतने का उपदेश करना अथवा बताना कि यह इस तरह जोता जाता है, इस तरह पानी निकाला जाता है, यों जंगल में आग लगायी जाती है, तृण घास आदिक इस तरह उखाड़े, जाते हैं आदिक आरंभ का उपाय बताना यह आरंभ विषयक उपदेश वाला पापोपदेश है । पशुवों के बोलने अथवा पशु विषयक वार्ता करना इन उपायों से गाय, भैस, घोड़ा, हाथी, ऊँट, गधा आदिक पाले जाते हैं और उनकी संख्या में वृद्धि की जाती है आदिक कथन करना यह सब पापोपदेश है । वाणिज्य विषयक वार्ता करना, खरीदने बेचने की वार्ता बताना इस देश से गाय, भैंस, बैल, ऊँट, हाथी आदिक लाये जायें और इस अन्य देश में बेचे जायें तो बड़ा लाभ होता है । इस तरह पशुओं के व्यापार का उपदेश करना पापोपदेश है । पहले समय में नौकर बेचे जाते थे, जो जिनके नौकर हैं बस वे वहीं रहेंगे, दूसरी जगह न रहेंगे । यदि एक दूसरे की बेच देवे तो वह नौकर दूसरी जगह रहने लगेगा । जैसे गाय, भैंस जिसके हैं उसके ही घर रहेंगे । यदि दूसरे को बेच दें तो फिर उस दूसरे के घर रहेंगे । तो ऐसे तिर्यंचों का या नौकरों का व्यवसाय बताना, इस देश से लाये, इस देश में बेचे तो इसमें लाभ होता है, ऐसा वाणिज्य का उपाय बताना अनर्थ दंड है । ऐसे अनेक प्रकार के उपदेश सब पापोपदेश कहलाते हैं । अथवा जाल बनाने की तरकीब बताना जिस जाल में मछली, चिड़िया आदिक फांसकर मारी जाती हैं । पापकार्य से जो आजीविका करने वाले लोग हैं उनको उपदेश करना कि इस प्रदेश में हिरण, सूकर, तीतर, मछली आदिक बहुत है तो यह बधिकों के लिए उपदेश किया यह भी अनर्थदंड है । पुरुष और स्त्री के संयोग विषयक, विवाह विषयक, उनके भोग विषयक उपदेश करना यह पापोपदेश नामक अनर्थ दंड है । इन सब अनर्थ दंडों का परिहार करना अनर्थदंड स्थान कहलाता है । मनुष्य को इतनी साधना तो रखना ही चाहिए कि जिनसे अपना कोई प्रयोजन नहीं सिद्ध होता है, ऐसे व्यर्थ के कार्य न करना, यह भी एक तपश्चरण जैसा ही रहेगा । तो व्रती श्रावक पापोपदेश नामक अनर्थ दंड का त्यागी रहता है ।
(ग, घ, ङ) प्रमादचर्याविरति, हिंसादानविरति एवं दु:श्रुति नामक अनर्थदंडविरति―तीसरा अनर्थदंड है प्रमादचर्या । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के व्यापार में निष्प्रयोजन प्रमाद करना, बिना प्रयोजन वनस्पति को काटना आदिक प्रमादचर्या अनर्थ दंड कहलाता है । अपने घर में कुत्ता, बिल्ली, तोता, मैना वगैरह पालना यह भी अनर्थ दंड है, क्योंकि ऐसे जीवों के पालने से खुद का कुछ प्रयोजन नहीं, दूसरे वे हिंसक जीव है । उनको हिंसा में इसने सुविधा दी, यह सब अनर्थ दंड है । कोई प्रयोजन नहीं, भूमि खोद रहे हैं, पत्थरों को चूरा किया जा रहा है, बिना प्रयोजन जल बिखेरा जा रहा है । अग्नि और वायु का व्यापार करना आदिक कार्य प्रमादचर्या कहलाते हैं । ऐसे अनर्थ दंडों का त्याग करना अनर्थ दंडवत है । हिंसादान नामक अनर्थदंड जैसे बिलाव, कुत्ते आदिक को रखना, शस्त्र, लोहा आदि का विक्रय करना लाख, खल आदिक का ग्रहण करना ये सब अनर्थ दंड हैं, क्योंकि बिलाव आदिक हिंसक जंतुवों के पालन करने से उनके द्वारा हिंसा बनती । सो पालन करने वाला हिंसा का समर्थक कहलाता है । लोहा आदिक शस्त्र, लाख, विष वगैरह इनको देना, इनका ग्रहण करना ये सब अनर्थदंड कहलाते है । घातक जीवों को पालने से उनकी प्रकृति घात करने की जो बनी है उसका प्रयोग करते हैं, अनेक जीवों की हिंसा करते है । तलवार आदिक दूसरे को देना, लाख, अफीम, चरस, गांजा आदि का व्यापार करना यह सब अनर्थ दंड कहलाता है । इनका त्याग व्रती श्रावक के होता है । पांचवां अनर्थ दंड है दु:श्रुति । पुस्तकों में गंदी बातें लिखी हैं, वशीकरण, काम भोग वगैरह का वर्णन है उनका सुनना और दूसरे के दोष की चर्चा वार्ता सुनना यह दुश्रुति नाम का अनर्थ दंड है । दुःख का अर्थ है बुरी बात, श्रुत का अर्थ है सुनना । विषय कषाय वर्द्धक रागमोह बढ़ावनहार वार्तावों को सुनना दु:श्रुति अनर्थदंड है । जिन शास्त्रों में मिथ्यात्व की चर्चा हो, काम भोग का वर्णन हो, स्त्री पुरुष विषयक वार्ताओं का वर्णन हो या उनका नग्न चित्रण हो, जिनके देखने सुनने से मन में विकार पैदा होता है वे सब अनर्थ दंड कहलाते है । और सिनेमा देखना, गंदे-गंदे गायन सुनना ये सब भी अनर्थदंड कहलाते है । इनका त्याग व्रती श्रावक के रहता है । इस प्रकार अनर्थदंडों का त्याग होना दूसरा गुणव्रत है, जिसका नाम है अनर्थ दंड व्रत ।
(7) भोगोपभोग परिमाणव्रत नामक तृतीय गुणव्रत―अब भोगोपभोग परिमाण नाम का गुणव्रत कहते है । भोजनपान वस्त्रादिक का परिमाण करना, उससे अधिक इनका सेवन न करना सो भोगोपभोग परिमाण है । इनका परिमाण अपनी शक्ति के अनुसार मनुष्य रखते हैं, भोजन आदिक के मर्यादा की संख्या रखते हैं, आज इतनी बार भोजन करूंगा आदिक । तो उनका परिमाण बनाना सो भोगोपभोग नाम का गुणव्रत है । यहाँ भोग और उपभोग दो शब्द दिए गए हैं जिसमें भोग का अर्थ है वह वस्तु जिसका एक बार सेवन किया जायतो फिर आगे सेवन के योग्य न रहे । जैसे जो भोजन खाया है वह पुन: खाने लायक नहीं रहता । जो इष्ट तेल लगाया है शरीर में वह यदि कुछ अधिक भी हो तो उस सबको पोंछ कर कोई नहीं लगाता । तो जो बारबार भोगने में आयेंगे उपभोग कहलाते है जैसे वस्त्र आदिक उनका परिमाण करना यह तीसरा गुण व्रत हुआ ।
(8) सामायिकनामक प्रथम शिक्षाव्रत व सामायिक योग्य स्थान व आसन―अब शिक्षाव्रत में सामायिक नाम के प्रथम शिक्षाव्रत का स्वरूप कहते हैं । सामायिक कहते है समता परिणाम रखने को । गृहस्थ निरंतर समतापरिणाम नहीं रख सकता । अथवा समता परिणाम रखना कठिन हो रहा । कभी कुछ हो पाता है तो समता का अभ्यास करने के लिए क्षेत्र काल आसन आदिक बातों को सही समझें कि किस क्षेत्र में बैठकर सामायिक करना, किस आसन से सामायिक करना, किस समय में सामायिक करना । कैसे मन, वचन, काय को शुद्ध रखना आदिक बातें जानकर अपने मन, वचन, काय की शुद्धि करनासो सामायिक नाम का शिक्षा व्रत है । कैसा स्थान होना चाहिए जहाँ सामायिक की शुद्धि हो? तो इतना तो स्थूल निर्णय है कि कुछ एकांत स्थान होना चाहिए, जहाँ वार्तालाप हो रहा हो, स्वयं भी कुछ संकेत से कर दे ऐसे स्थान पर सामायिक शुद्ध नहीं होती है । कर्कश शब्द न होना चाहिए, वह स्थान सामायिक के लिए प्रशंसनीय है, बहुत जनों का आवागमन भी जहाँ न हो, वह स्थान सामायिक के योग्य है । जहाँ मच्छर आदिक का प्रकोप न हो वह सामायिक के योग्य स्थान है । ऐसा सामायिक करने वाला पुरुष स्थान का निर्णय रखता है ।
सामायिक के समय―समय में तीन समय सामायिक के बताये गए हैं―सुबह, दोपहर और सायंकाल । इन तीन समयों में उत्कृष्ट यथा 6-6 घड़ी काल बताया गया है सामायिक करने का । सो विनयपूर्वक सामायिक में आदरभाव रखते हुए सामायिक करना चाहिए । जहाँ 6 घड़ी का समय बताया है उसका अर्थ यह है कि सूर्योदय से पहले तीन घड़ी, और सूर्योदय के बाद तीन घड़ी यह समय है सुबह की सामायिक का । इसी प्रकार ठीक दोपहर से तीन घड़ी पहले और 3 घड़ी बाद यह दोपहर के सामायिक का काल है, इसी प्रकार सूर्यास्त से तीन घड़ी पहले और तीन घड़ी बाद का ऐसा 6 घड़ी सामायिक करने का समय है । सामायिक के काल में सामायिक में विनयभाव रखते हुए सामायिक करना ऐसा उत्कृष्ट विनय वाला गणधर देव ने सामायिक का स्वरूप कहा है । विनय का अर्थ है जो विशेष रूप से ले जाय । अपने आपके गुणों में आदर होना, यह वास्तविक विनय है ऐसा विनययुक्त महापुरुषों ने सामायिक का काल बताया है ।
सामायिक में आत्मस्वरूप का चिंतन―सामायिक के योग्य आसन भी होना चाहिए । वह आसन
पर्यंक आसन है अथवा कायोत्सर्ग है । ऐसे आसनों में ध्यान धरना । ऐसे आसन को लगाकर सामायिक के काल प्रमाण तक इंद्रिय व्यापार से जुदा होना चाहिए, क्योंकि धर्म नाम है आरंभ परिग्रह से रहित जीवन बिताते हुए अपने अविकार ज्ञानस्वभाव से उपादेय बुद्धि रखना । तो भले प्रकार आसन लगाकर समय का परिमाण करके इंद्रिय के व्यापार से रहित होकर समता परिणाम का आलंबन करना । पर्यंक आसन मांडकर या कायोत्सर्ग से खड़े होकर इंद्रिय व्यापार को तजकर जो समता परिणाम रखने का अभ्यास करता है वह अपने ज्ञानस्वभाव को विकास की ओर ही ले जाता है । यह सामायिक शिक्षा व्रत का नियम रखने वाला जिन वचनों में एकाग्रता से श्रद्धालु है । सामायिक में अपने शरीर का सम्वरण रहता है, अपनी ओर झुका हुआ रहता है । सो बारबार अंजुलि करके जो कि श्रद्धा का विशेष गुण है अपने, स्वरूप में लीन होकर आत्यस्वरूप का विचार करे । यह सामायिक शिक्षा व्रती क्षेत्र का परिमाण ले लेता । क्षेत्र परिमाण में अवधि है अपने शरीर प्रमाण की । कदाचित खड़े हुए सामायिक करते में ऐसी निद्रा आये या कुछ बेसुधी हो जाय और कदाचित वह एक निज देह प्रमाण स्थान में ही तो गिरा । तो कभी ऐसी संभावना की भी बात हो तो भी अपने देह प्रमाण जगह से आगे व्यापार न करना चाहिए । अर्थात् कोई चेष्टा न करे, ऐसी द्रव्य, क्षेत्र, काल, आसन की मर्यादा रखकर अंतस्तत्व का जो ध्यान करते हैं वे पुरुष- सामायिक व्रत को सफलता से प्राप्त करते हैं । सामायिक शिक्षा व्रत में प्रथम बार जमीन पर मस्तक झुकाकर पंचगुरु को प्रणाम किया जाता है । और वंदना करने की मुद्रा में अंजुली को आवर्त से घुमाकर चारों दिशाओं में चार प्रणामों को करता है और मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक आत्मध्यान में लगता है । तो ऐसा प्रतिदिन तीन समय सामायिक करने का संकल्प और यत्न इस व्रती श्रावक के होता है ।
सामायिक का निरुक्त्यर्थ―सामायिक शब्द समय से बना है । समय नाम है आत्मा का । समय में जो होवे अर्थात् आत्मा में जो होवे उस भाव को सामायिक कहते है अथवा समय में सन् और अय् ये दो शब्द पड़े हैं, जिनका अर्थ है कि भले प्रकार से एक रूप से गमन करना सो समय है याने आत्मा अपने अभेद रूप से परिणमे ऐसी वृत्ति को सामायिक कहते है । जहाँ आत्मा की एकरूपता बने अर्थात् रागद्वेष की दुविधता न बने ऐसे भाव को सामायिक कहते हैं । अथवा आत्मा को एक रूप करना जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है । इस छंद में सामायिक करने वाला पुरुष जाप भी जपेगा, स्तुति भी करेगा, बारह भावनायें भी भायेगा, कभी आत्मतत्त्व को निरखने का अभ्यास भी रखेगा, पर ये सब अपने आत्मा को अभेदरूप करने के प्रयोजन से हैं । अथवा सामायिक का अर्थ है सर्व प्राणायाम समताभाव रखना । देव वंदना करते समय संक्लेशरहित मन से समस्त प्राणियों में साम्यभाव रखना सामायिक है । सभी प्राणी मेरे स्वरूप के ही समान हैं, ऐसा निरखकर समता भाव रखना, जिससे कि किसी प्राणी के प्रति रागद्वेष की वृत्ति न जगे, उसे सामायिक कहते हैं ।
सामायिक में ज्ञातव्य प्रयोग―सामायिक करने के लिए कुछ बातें जानना आवश्यक है । जिन ज्ञातव्य बातों में तीन बातों का वर्णन किया । (1) एक तो सामायिक कैसे स्थानपर की जानी चाहिए? इस संबंध में बताया गया कि जहाँ कोलाहल के शब्द न हों, लोगों की भीड़भाड़ न ही डांस मच्छर आदिक न हों, ऐसे क्षेत्र में सामायिक करना योग्य है, क्योंकि ऐसे क्षेत्र में चित्त की क्षोभ न हो ऐसी स्थिति बनती है । (2) दूसरी सामायिक किस समय करना चाहिए? सामायिक के तीन काल कहे गए हैं―प्रात:, मध्याह्न और सायं । (3) तीसरी बात बतायी है कि सामायिक के लिए किस प्रकार से बैठना का चाहिए? तो इसके उत्तर में बताया गया है कि जो आसन ध्यान करने में साधन हों उन आसनों से बैठना । उन आसनों में दो आसन प्रसिद्ध और उपयोगी हैं (1) एक तो पद्मासन और (2) दूसरा कायोत्सर्गासन । इन आसनों में तारीफ यह है कि हाथ या पैर के तल भी अपने शरीर को या अन्य को नहीं छू रहे हैं । चित्त का क्षोभ हाथ के तल अथवा पैर के तल भाग से किसी वस्तु को छूने से होता है । तो यह आसन इसी मुद्रा का है कि तल भाग से किसी का स्पर्श नहीं हो रहा ।
सामायिक में तन्मय होने के अभिलाषियों का कर्त्तव्य―उक्त तीन बातों को बताकर अब चौथी बात यह बतायी जा रही है कि सामायिक में तन्मय कैसे हुआ जाता है? सामायिक करने वाले कल्याणार्थी को प्रथम तो समस्त पापपूर्ण व्यापार का त्याग करना चाहिए । कोई पुरुष अन्याय की आजीविका करे, अनेक लोगों को धोखा देकर सताकर परिग्रह संचय करने की इच्छा रखे और ऐसा ही प्रयोग करे तो उसके चित्त से शल्य नहीं जा सकता । और जब तक नि:शल्यता नहीं होती तब तक समता परिणाम नहीं बनता । तो आत्मा में तन्मयता चाहने वाले पुरुष प्रथम तो अन्यायपूर्ण कार्यों को छोड़े, फिर किसी एकांत स्थान में चैत्यालय गुफा, खाली मकान आदिक में सामायिक का, समता परिणाम बर्तने का पौरुष करें, वहाँ क्षेत्र की मर्यादा कर लें कि मैं इतने क्षेत्र में ठहरूँगा, फिर पद्मासन या कायोत्सर्ग आसन बनाये वहाँ काल की मर्यादा कर ले, मैं इतने काल तक सामायिक करूंगा । सामायिक योग्य स्थिति में अपने को रखकर इंद्रिय व्यापार को रोक दें याने स्पर्शन इंद्रिय से किसी चीज का स्पर्श न करें, रसना इंद्रिय से किसी वस्तु का स्वाद न लें, गंध न लें, देखें नहीं, सुनें नहीं और मन को यहाँ वहाँ चलायें नहीं, जिनेंद्र प्रभु ने जो तत्त्व बताया है उसी तत्त्व के स्वरूप का चिंतन करें अंत: सहज अविकार स्वरूप के निरखने में उपयोग लगायें तो ऐसी स्थिति होने में यह मन विकल्प को छोड़ देगा और आत्मस्वरूप में तन्मय होने का अवकाश मिलेगा । 5वां अभ्यास मन को निर्मल रखने का है । जब किसी वस्तु को यह पुरुष इष्ट या अनिष्ट समझता है तब उसके मन में निर्मलता नहीं रह पाती । सो सर्व पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जानकर रागद्वेष से रहित होकर मन को निर्मल बनायें । छठी बात यह कि अपने वचन को निर्मल बनायें, धर्मयुक्त वचन ही निकले और किसी के दिल को कष्ट न पहुंचे ऐसे ही वचन निकलें । कोई काय से चेष्टा संकेत आदिक न करें और अपने स्वरूप में उपयोग जाय इसके लिए काय की स्थिरता बनाये तो ऐसे उपायों से यह आत्मा अपने स्वरूप के दर्शन में तन्मय हो जाता है ।
(10) प्रोषधोपवास नामक द्वितीय शिक्षाव्रत का निर्देशन―अब शिक्षाव्रत में प्रोषधोपवास नामक दूसरे शिक्षा व्रत का स्वरूप कहते हैं । दूसरा शिक्षा व्रत है प्रोषधोपवास । पर्व के दिनों में उपवास करना अथवा एकाशन करना, नीरस आहार लेना और उन समयों में धर्मध्यान की विशेषता करना यह प्रोषधोपवास है । आहार का त्याग किसलिए किया? इसलिए किया कि इन विकल्पों से छूटकर मैं सतत् आत्मस्वरूप की आराधना में रहूं, तो ऐसे लक्ष्य वाले पुरुष उपवास के दिन स्नान का त्याग रखते हैं । स्नान से क्या प्रयोजन? मुनियों की शिक्षा पाने के लिए प्रोषधोपवास लिया है । उपवास के दिन विलेपन न करें । शरीर में किसी चीज का विलेपन करना यह उपवास में योग्य नहीं है क्योंकि इसमें चित्त को क्षोभ ही रहता है । आभूषण आदिक पहिनना, स्त्री संबंध रखना, गंधकुटी आदिक लेना ये सब राग बढ़ाने वाली घटनायें हैं। प्रोषधोपवास का व्रत रखने वाले पुरुष इन सब संस्कारों को छोड़ते हैं, उनका आभूषण वैराग्य ही है । सो ऐसे सात्विक व्रत को दोनों ही पर्वों में यह जीव उपवास करता है । इस ही को प्रोषध नाम का शिक्षा व्रत कहते है ।
(11) अतिथि संविभाग नामक तृतीय शिक्षाव्रत का निर्देश―अब तीसरा शिक्षा व्रत है अतिथिसंबिभाग । अतिथि कहते हैं साधु संतजनों को, जिनके जाने-आने रहने की कोई तिथि नहीं है । जब मन हुआ आये मन हुआ चले गए, ऐसे तिथि रहित महापुरुषों को अतिथि कहते हैं । और अतिथियों के लिए जो अपने भोजन आदिक में सम्विभाग किया जाय और अतिथियों को आहार आदिक वैयावृत्य किया जायतो यह सब अतिथि सम्विभाग कहलाता है । पात्र तीन प्रकार के होते हैं । उत्तम पात्र है मुनि, मध्यम पात्र है श्रावक और जघन्य पात्र हैं सम्यग्दृष्टि । इन तीन प्रकार के पात्रों को आहार, शास्त्र, औषधि, अभयदान करना सो अतिथि सम्विभाग है ।
अतिथि संविभागव्रती दातार के सप्तगुण―साधु संतों को आहार कराने वाले श्रावक श्रद्धा आदिक 7 गुणों से युक्त होते हैं । मैं बड़ा पुण्यवान हूँ । आज मैंने एक वीतराग पात्र पाया है, अर्थात् जिसके रागद्वेष विशेष नहीं हैं, व्यक्त नहीं हैं, ऐसे पात्र को पाया है, ऐसा निरखकर अपने अंतरंग में उमंग और श्रद्धा रखना यह श्रावक का प्रथम गुण है । दूसरा गुण है पात्र के समीप बैठकर उनकी भक्ति करना । तन, मन, धन, वचन से उनकी आवश्यक सेवाओं में रहना । दातार में तीसरा गुण है निर्लोभता । इस श्रावक के मन में किसी भी वस्तु का लोभ नहीं है । इस वस्तु से मेरा काम है इसलिए यह न दूं और यह मुझे आवश्यक विशेष नहीं है इसे दूं, इस प्रकार का भाव दातार श्रावक में नहीं होता । श्रावक का चौथा गुण है दया । घर में चींटी वगैरह देखकर सावधानी से काम करता है ऐसा दातार दयालु है । चौथा गुण है शक्ति । पात्र की सेवा में कितना ही धन व्यय हो, उसमें असमर्थता न जाहिर करना, कायर न बनना यह उसका शक्ति नामक गुण है । छठवां गुण है क्षमा । स्त्री पुत्र वगैरह कितने ही अपराध करले फिर भी दान के समय उन पर क्रुद्ध न होना यह दातार का क्षमा गुण है । 7वां गुण है ज्ञान । यह पात्र योग्य है, यह योग्य नहीं है इस प्रकार का विवेक और ज्ञान श्रावक के रहता है । सो ऐसे 7 गुणों से सहित श्रावक श्रेष्ठ दाता कहलाता है । सो यह दाता योग्य पात्र को भक्ति पूर्वक आहारदान, अभय दान औषधि दान और शास्त्रदान करता है । अतिथि सम्विभाग व्रतधारी साधुजनों के आहार कराने की सर्व विधि जानता है ।
दान की नव विधियां―साधुसंतों को आहार कराने वाले श्रावक के द्वारा दान की 9 विधियां होती है । प्रथम है प्रतिग्रह । भक्ति पूर्वक सद्वचन बोलते हुए साधु को बुलाना इस प्रतिग्रह में यह श्रावक अपने घर के द्वार पर पात्र को देखकर या कुछ अन्य जगह खोजकर भक्ति पूर्वक लाकर नमोस्तु-नमोस्तु तिष्ठ-तिष्ठ कहकर उनका प्रतिग्रह करता है, फिर दूसरी विधि में वह अपने घर ले जाकर ऊंचे आसन पर बैठाता है । तीसरी विधि में साधु के पैर धोता है, चौथी विधि में अक्षत, फल, नैवेद्य आदिक से पात्र की पूजा करता है । फिर चरणों के समीप झुककर नमस्कार करता है । श्रावक के मन की शुद्धि, वचन की शुद्धि और काय की शुद्धि रहती है । सब ओर से अपनी काय कषाय को संकोच कर यह श्रावक शुद्धि पूर्वक साधु संतों को आहार देता है । ऐसे दाता के 7 गुण होते हैं । जिनके कारण यह पुण्य उपार्जन करने वाली विधियों सहित चार प्रकार का पात्र को दान देता है ।
दान का महत्त्व―अब आहार आदिक दान की महिमा बतलाते हैं । दान चार प्रकार का होता है । (1) आहारदान (2) औषधिदान (3) ज्ञानदान और (4) अभयदान । जब जिस दान की वृत्ति में चले तब उसकी महिमा दिखती है । आहारदान करने पर तीन दान हो ही जाते हैं । जिस साधु को आहार दिया तो उसमें इतनी सामर्थ्य तो आयी कि वह स्वाध्याय आदिक कर्मों को निर्विघ्न करे । वह आहार भी एक औषधि है, क्षुधा एक तीव्र रोग है, उस रोग की शांति हुई तो यह औषधिदान भी बन गया । और आहार आदिक देने से मुनि को अभय की प्राप्ति हुई । वह भयरहित होकर धर्मसाधना में लगता है । औषधिदान देने से रोग शांत हो जाया करते हैं, उससे संत जनों की आत्मस्वरूप की सिद्धि में उमंग रहती है । अभयदान करने से जब साधक को भय न् रहा तो अपने आप में अपने उपयोग को जोड़ना सरल हो जाता है । शास्त्रदान की तो बड़ी ही महिमा है । ज्ञान और शास्त्र से जो अपना लगाव रखता है वह कभी केवल ज्ञान को पाले, ऐसा बीच में विकास बना हुआ है । शास्त्रदान का फल है केवल ज्ञानलाभ व निर्वाण लाभ । ऐसा यह श्रावक सद्गुण भावना सहित चार दानों में अपना प्रवर्तन करता है । उसे न इस लोक में कोई इच्छा है दान देकर, न परलोक में कोई इच्छा है । यह श्रावक तो भक्ति से रत्नत्रयधारियों का वैयावृत्य करता है । जो पुरुष इहलोक और परलोक की इच्छा न रखता हुआ भक्तिपूर्वक दान करता है वह श्रावक मानों समस्त संघ को रत्नत्रय धारण में स्थापित करता है । भक्तिपूर्वक किसी भी दिन अल्प दिया हुआ दान इंद्रादिक पदों को प्राप्त कराता हुआ परंपरया आत्मा को आत्मा में मग्न कराकर निर्वाण को प्राप्त कराता है, इस प्रकार पात्र विशेषों की वैयावृत्ति करना यह तीसरा शिक्षाव्रत है ।
(12) चतुर्थ शिक्षाव्रत―अब चतुर्थ शिक्षाव्रत का स्वरूप कहते हैं । चौथे शिक्षाव्रत का नाम है किसी ग्रंथ में सल्लेखना और किसी ग्रंथ में देशव्रत । जो सातों दिशाओं की मर्यादा की हुई थी उसमें से कुछ अवधि लेकर कम मर्यादा करना, उससे बाहर न आना-जाना यह देशव्रत है । और सल्लेखना को चौथा शिक्षाव्रत कहते है । तो सल्लेखना के अभ्यास में पहले से ही काय और कषाय का सल्लेखना भाव रहता है । अथवा जीव के आवीचिमरण तो सतत् चलता रहता है । सो प्रति समय में अपनी सावधानी रखना, विषय कषाय की इच्छा न जगे ऐसी सल्लेखना प्रतिदिन निभती रहती है । तो कहीं सल्लेखना बताया, कहीं 1 2वें व्रत में देशव्रत बताया । और सल्लेखना तो अंत समय में विशेषतया की ही जायगी । यह देशावकाशिक व्रत वाले इंद्रिय के विषयों के भोगों का परिमाण घटाता है । जब यह विषयों से विरक्त होगा, मन के विषय से भी विरक्त होगा तब ही यह देशावकाशिक व्रत में बढ़ सकता है । किसी-किसी ग्रंथ में कहीं-कहीं शिक्षा व्रत का अंतिम भेद सल्लेखना कहा है । जहाँ सल्लेखना नहीं कहा बारह व्रतों में वहाँ बारह व्रत पालन करने वाले को अंत में सल्लेखना का उपदेश किया है । सल्लेखना मरणकाल आने पर की जाती है । सल्लेखना का अर्थ है सल्लेखना, भले प्रकार से क्षीण करना । शरीर और कषायों को क्षीण करने को सल्लेखना कहते हैं । शरीर को क्षीण करना बाह्य सल्लेखना है और कषाय को क्षीण करना यह अंतरंग सल्लेखना है । यह व्रती जब किसी कठिन उपसर्ग वृद्धता रोग के आने पर मरणकाल निश्चित समझ लेता है तब यह आहारादि का त्याग कर बाह्य सल्लेखना करता है । अंतरंग सल्लेखना तो जीवनकाल में भी करना कर्त्तव्य है और वैसे आवीचिमरण तो प्रतिसमय हो रहा है । जो आयु निकली वह फिर वापिस नहीं आती । इसी प्रकार प्रत्येक समय आयु का क्षय हो रहा है, सो प्रति समय कषाय का सल्लेखन करना आवश्यक है । सल्लेखना व्रतधारी सर्व जीवों को क्षमा करता है, जो किसी का कुछ हर लियाहो वह उसको वापिस करता है । धर्म ध्यान में अपना उपयोग लगाता है और ऐसा समाधिपूर्वक मरण करके यह जीव स्वर्गादिक उत्तम स्थानों में उत्पन्न होता है ।