वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 15
From जैनकोष
स्वयंशुद्धस्य मार्गस्थ बालाशक्तजनाश्रयां ।
वाच्यतां यत्प्रमार्जंति तद्वदंत्युपगूहनं ।।15।।
उपगूहन अंग के पालक ज्ञानी की आंतरिकता―मोक्ष का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रक एकत्व है । अर्थात अपने सहज आत्मस्वरूप को यह मैं हूँ, इस रूप से श्रद्धा करना और सहज अंतस्वरूप का ज्ञान रहना और इस दिशा ही में रमण करना यह एकत्व मोक्ष का मार्ग है। संसार में सर्वत्र ही संकट हैं, इस कारण संसार से छुटकारा पाने में ही अपना कल्याण हैं । दूसरी बात चित्त में न रहनी चाहिए । जो कुछ इस भव में संयोग वियोग चल रहा है और आजीविका के प्रकरण में जो कुछ भी लाभ-अलाभ चल रहा है । वह सब पर पदार्थों की परिणति है । पर पदार्थों के विषय में हठ न होना चाहिए कि मुझ को तो इतना ही वैभव चाहिए । मुझे इतना ही कमाकर रहना है, तब ही मेरे को सुख होगा यह हठ न करना, किंतु यहाँ यह कला प्रकट करना है कि पुण्योदयवश जैसा जो कुछ हमारे साधारण परिश्रम से लाभ हो, हम में वह कला चाहिए कि उस ही परिस्थिति में हम गुजारा प्रसन्नता से कर सकें। बाह्य पदार्थों पर हमारा अधिकार क्या, कुछ अधिकार नहीं किंतु अपने आपको अपने ही सामर्थ्य से उसही में गुजारा कर लेने की कला का अधिकार है । क्योंकि यह मैं स्वयं हूँ । मैं अपने आपको समझा सकता हूं। मेरा स्वयं पर अधिकार है। अत: मैं अपनी ज्ञानकला का आलंबन लूंगा । किसी पर पदार्थ की हठ न करूंगा यह निर्णय अंतरंग में रहना चाहिए तब ही यह जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र के मार्ग में लग सकता है।
उपगूहन अंग की प्रयोजकता―यह रत्नत्रयभाव संसार से छुटकारा पाने का मार्ग है । यह मार्ग प्रशस्त रहे निर्दोष रहे जगत के जीव समझें कि मार्ग तो बस यही है । उत्थान का उपाय यही है । ऐसी जैनशासन की निर्दोषता चले इसके लिए उपगूहन अंग का पालन होता है । मार्ग तो स्वयं सिद्ध है मार्ग में स्वयं में दोष नहीं है, किंतु इस मार्ग में लगे हुए कोई बालक या असमर्थ पुरुषों के द्वारा कोई दोष का काम हो जाय तो उस दोष को दूर करना अर्थात् इस जैनशासन में दोष है, ऐसा लोगों की दृष्टि में न आये, ऐसा उपाय करने का काम उपगूहन अंग है । वह उपाय क्या है? तत्काल तो यह है कि बालक असमर्थ मनुष्य द्वारा कोई दोष हुआ है तो उस दोष का आच्छादन करना, ढाकना, प्रकट न होने देना, जैसे कि यह प्रसिद्ध है कि किसी धर्मात्मा पुरुष से कदाचित कोई अपराध हो जाय तो उसे ढाकना, उसका अर्थ यह नहीं है कि उस पुरुष को दोष करने के लिए बढ़ावा देना । प्रयोजन यह है कि लोग यह न जानें कि वाह यह जैन धर्म या यह शासन तो ऐसा ही चल रहा है, इसमें ऐसे ही दोष रहा करते हैं । यह धर्म लोगों की दृष्टि में शुद्ध बना रहे इसके लिए यह उपगूहन अंग है । तो इस ज्ञानी पुरुष ने उस दोष करने वाले से प्रेम नहीं किया किंतु उसमें जैन शासन पर प्रीति करके दोष करने वाले के दोषों को ढाका । कहीं लोगों में यह न प्रसिद्ध हो कि यह जैन शासन तो ऐसा ही दोषमय हुआ करता है । इसके लिए असमर्थ जीव के आश्रय होने वाली वाच्यता को, निंद्यता को शुद्ध करने का काम उपगूहन अंग है । इसके साथ ही यह भी कर्तव्य है कि जिससे दोष हो उसे चेतावनी दे देना चाहिए समझाना चाहिये । भय न करना चाहिए कि मैं कैसे इसको कहूँ । यह बड़ा भारी प्रेम है कि दोष होने पर उसके दोषों को उस ही से एकांत में बताया जाय कि इसमें आपका कल्याण है और वह दोषों से दूर हो सके ऐसी विधि बनावें, इसे कहते हैं उपगूहन अंग इसका दूसरा नाम है उपवृंहण अंग, अर्थात गुणों से बढ़ना सो उपवृंहण कहलाता है । उस उपवृंहण अंग से यह लाभ है कि जगत में भविष्य में भी संसार संकटों से मुक्ति पाने के मार्ग की परंपरा चलती रहेगी । ऐसा यह मोक्ष का पथिक पुरुष मोक्षमार्ग को निर्दोष निरखना चाहता है।
धर्मात्माजनों से कदाचित् दोष होने पर उसके संबंध में एक चिंतवन―किन्हीं धर्मात्माजनों के दोषों को देखकर यह विचार करना चाहिए कि कर्म का उदय बड़ा विचित्र है । यह जीव भी तो अपना आनंद चाहता है । मेरे आत्मा को वास्तविक आत्मीय आनंद मिले, शांति मिले, मोक्ष मिले, लेकिन करोड़ों भवों में पहले के बद्ध कर्म भी आज उदय में आते हैं और उस उदय में कैसी बुद्धि कैसी शारीरिक दशा होती है ऐसे ही मुझ पर भी आ सकती है । मुझ पर भी आयी है, ऐसा निरखकर उस दोष करने वाले के आत्मा से ग्लानि न उत्पन्न होने देना । किंतु उसके उद्धार के लिए उन दोषों को उपस्थित करना । बताना कि ऐसे दोष न होवे तो आपका कल्याण है और जैन शासन की प्रभावना है । यह कर्मदशा क्या चीज है? पूर्वबद्ध कर्म जब आत्मा से निकलते हैं तो जो कुछ प्रकृति का कोई पुरुष हो तो वह निकलते समय अपनी दुष्टता का अधिक से अधिक प्रयोग करके जाया करता है तो अनुभाग बंध जिन कर्मों का विचित्र था तब यह आत्मा से निकल रहा था तो बड़े तेज विकट फल ये अपने में प्रकट करते है । जैसे चूने का डला―जब उसकी म्याद पूरी होती है अथवा कोई उस पर पानी डाल दे उदीर्णा कर दे, तो जैसे वह डला फूलकर एक विचित्र रूप रख लेता है, ऐसे ही ये कर्म उन विपाकों को भुलाकर ऐसी विचित्र रूप रखते हैं कि जिसका अक्स आत्मा पर पड़ता ही है । प्रतिफलन होता है तो उससे आक्रांत होकर यह आत्मा अपने स्वरूप की सुध छोड़कर विकल्प में लग जाता है ।
अपना आंतरिक ज्ञान व यथार्थ परिचय के लाभ में प्रगति की मुद्रा―ध्यान तो यहाँ ही देना है वास्तविक, इसे भेद विज्ञान कहते है । यह मैं आत्मा हूँ ज्ञानमात्र । केवल जाननस्वरूप निराला । केवल जाननस्वरूप में कोई विकार नहीं हुआ करता । पर कर्म फिल्म का यह प्रतिफलन, यह विकार मुझ पर छाता है । और मैं उसे अपनाता हूँ और अपने को दुःखी कर लेता हूँ । यह स्थिति ज्ञान होने पर भी कुछ चलती है । तो उसे भेद विज्ञान से दूर करना और दूसरे के दोषों को भी भेदविज्ञान से दूर कराने का यत्न यह ज्ञानी पुरुष करता है । जब तक विकार से, विकार के आश्रय से उपेक्षा न होगी तब तक मार्ग निर्दोष न चल पायगा । वह उपेक्षा कैसे हो? तो देखिये जितने भी विकार हुआ करते हैं उन विकारों के दो प्रकार हैं । व्यक्त विकार ओर अव्यक्त विकार । जैसे हम मंदिर में बैठे हैं, पूजा कर रहें हैं स्वाध्याय सुन रहे हैं काम अच्छा कर रहे और चित्त लगाकर कर रहे फिर भी पाप कर्म का उदय भी निरंतर अभी चल रहा है । चारित्र मोहनीय का उदय अभी भी चल रहा है । लेकिन उपयोग हैं प्रभु के गुणों में । उपयोग है तत्त्व के श्रवण में, तो उदित हुये वे पापकर्म फल दिखाकर तो चले जाते है किंतु वह फल अव्यक्त रहता है । हमारी बुद्धि में नहीं आ पाता इसे कहते है अबुद्धिपूर्वक । तो आप यह देखें कि शुभोपयोग की प्रक्रिया में कितनी सुविधा मिलती है । जिसने शुद्ध अंतस्तत्त्व का परिचय किया है और उस ही लक्ष्य में रहना हुआ शुभोपयोग में परिणत हो रहा है तो उदय में आने वाले पापकर्म अव्यक्त फल देकर निकल जाते हैं । एक लाभ दूसरे लाभ में शुभोपयोग से अपने आत्मा को ऐसा बचाया, उन पाप विकारों से दूर किया इतनी पात्रता जगी कि यहाँ चाहे एक क्षण दृष्टि दें अपने कारण समयसार की ओर तो हम इसको प्राप्त कर सकते हैं । पात्रता बने यह दूसरा उसका लाभ है । तीसरा लाभ―उस शुभोपयोग की प्रकर्षता में जैसे प्रभु के गुणों में हमारा चित्त बढ़ता जाता है तो गुणों की समानता के कारण कभी वहाँ भी विकल्प को छोड़कर निर्विकल्प अंतस्तत्त्व को पा सकते हैं फिर ज्ञानी जीव शुभोपयोग को उपादेय नहीं मानता अत्यंत उपादेय नहीं मानता । चल रहा है उस विधि में, अगर शुभोपयोग कथंचित उपादेय न हो तो वह चले कैसे । फिर भी वह मानता है कि यद्यपि इस परिस्थिति में शुभोपयोग को उपादेय बताया है तथापि शुद्ध तत्त्व के पाने पर वह स्वयमेव छूटता है । ऐसे निर्दोष मार्ग को बताने वाले शासन में लोग कलंक न ला सकें इसके लिए ज्ञानीजीव उपगूहन अंग का पालन करते हैं ।