वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 38
From जैनकोष
नवनिधिसप्तद्वयरत्वाधीशा: सर्वभूमियतयस्श्चक्रं ।
वर्तयितुं प्रभवंतिस्पष्टदृश: क्षत्रमौलिशेखरचरणा: ।।38।।
सम्यग्दृष्टि के स्वर्ग से चयकर मनुष्यभव में हुए चक्री को प्राप्त नवनिधि में कालनिधि का
निर्देश―सम्यग्दृष्टि जीव सागरोंपर्यंत स्वर्ग में सुख भोगकर वहाँ से आयु पूर्ण करके मनुष्यलोक में आते हैं तो उनमें कितने ही चक्रवर्ती बनते हैं, इस श्लोक में चक्रवर्ती का संकेत किया गया । चक्रवर्ती 9 निधि और 14 रत्न के स्वामी होते हैं, ये संपूर्ण भरत क्षेत्र के राजा होते हैं । जो कि 6 खंड में विभक्त हैं, इनमें मुख्य चक्ररत्न उत्पन्न होते हैं और उस चक्र रत्न के स्वामी होने से इन्हें चक्रवर्ती कहते है । जंबूद्वीप के दक्षिण किनारे भरत क्षेत्र है जो 526, 6⁄19 योजन है । एक योजन 2 हजार कोश का होता है, इतना विशाल क्षेत्र है जिसके बीच में विजयार्द्ध पर्वत होने से छह खंड हो जाते हैं उन समस्त छह खंडों के ये अधिपति होते हैं । इनके 9 निधियां उत्पन्न होती है जिनके नाम और कार्य इस प्रकार हैं । (1) काल―इस काल निधि के द्वारा उनको अपने ऋतु के योग्य द्रव्य प्राप्त होते रहते हैं । जैसे यहाँ लोग एयर कंडीशन, कूलर, हीटर आदिक ऋतुवों के अनुकूल रख लेते ऐसे ही जिन-जिन ऋतुवों में जो-जो पदार्थ चाहिए उन ऋतुवों के योग्य पदार्थ उन्हें इस कालनिधि से प्राप्त होते हैं । यहाँ यह जानना कि चक्रवर्तियों को जो निधियां उत्पन्न होती हैं उनकी रक्षा करने वाले, व्यवस्था करने वाले देवगण होते हैं । तीर्थंकर के बाद पुण्य वैभव का कोई स्वामी है तो ये चक्रवर्ती हैं । ये सब चक्रवर्ती स्वर्ग से आते हैं । ये सम्यग्दृष्टि होते हैं । भले ही चक्रवर्ती काल में कोई चक्रवर्ती मिथ्यादृष्टि रह जाय और कितने ही चक्रवर्ती मोक्ष जाते हैं, कितने ही चक्रवर्ती पुन: ऊर्ध्वलोक में जाते हैं, और कितने ही चक्रवर्ती तो नरक गए । जिसकी जैसी भावना होती उसके अनुसार वह फल पाता । कितने ही चक्रवर्तियों ने इतना विशाल चक्रवर्ती का वैभव पाया, यह बहुत बड़े पुण्य का फल है । भला बतलावो अपने ही नगर में कोई एक चेयरमैन हो गया तो उसका ही लोग कितना बड़ा महत्त्व मानते हैं, फिर जो पूरे जिले का नेता है, वह कितना बड़ा, फिर पूरे देश का नेता है वह कितना बड़ा, फिर पूरे विश्व का कोई अधिपति है वह कितना बड़ा, फिर कोई छह खंड का अधिपति है वह कितना बड़ा इसका विचार तो करो । ऐसा छह खंड का अधिपति होना यह बहुत बड़े, पुण्य का फल है । अब पुण्य के फल में हर्षित न हो, पुण्यफल पाकर भरत चक्रवर्ती जैसे उन सबमें उदास रहे यह उनका ज्ञानबल का काम था जो कि भविष्य के लिए उनको लाभदायक था, पर लोक में चक्रवर्ती का वैभव वर्तमान में बड़ा आनंददायक माना जाता है । ऐसा ऊंचा पुण्य सम्यग्दर्शन होने पर ही प्राप्त हो पाता है । चक्रवर्ती पूर्वभव में उस काल में सम्यग्दृष्टि थे और उस सम्यक्त्वकाल में रहने वाले भक्ति राग आदि के कारण ऐसा विशेष पुण्यबंध हुआ कि उनको छह खंड का वैभव प्राप्त हुआ ।
चक्री के महाकाल, पांडु व मानवनिधि का निर्देश―चक्रवर्ती की दूसरी निधि है महाकाल । इस निधि के द्वारा मनमाने भाजन वर्तन प्राप्त होते हैं । नहाने धोने के लिए, रसोईगृह के लिए, अनाथालय के लिए तथा अन्य कार्यों के लिए जहाँ जितने बर्तन चाहिए वे सब इस निधि के प्रताप से उन्हें प्राप्त होते हैं । भला बतलावो जिनके पुण्य के कारण देव उनके सेवक बनते उनका कितना विशाल पुण्य है । सो ऐसा विशाल पुण्य सम्यग्दर्शन होने पर ही प्राप्त होता है । मिथ्यादृष्टि को ऐसा विशाल पुण्य नहीं प्राप्त होता । यद्यपि पुण्य मिथ्यादृष्टि को भी प्राप्त होता मगर इतना विशाल नहीं । मिथ्यादृष्टि जीव के इतना ऊंचा परिणाम कहां है? (3) चक्रवर्ती की तीसरी निधि है पांडु । इस निधि के प्रताप से धान्यादिक की भारी उत्पत्ति होती है । अनाज की समस्या वहाँ नहीं रहती, प्रजाजनों में बड़ा सुख बर्तता है । (4) चौथी निधि है मानव । इसके प्रताप से सर्वप्रकार के आयुध याने शस्त्रादिक की प्राप्ति होती है ।
चक्रवर्ती के शंख, पद्य व नैसर्प निधि का निर्देश―(5) पांचवीं निधि है शंख, जिसकी वजह से वादित्व बाजों की प्राप्ति होती है । देखिये आत्मा के भावों को परिणाम । यह सब ठाठ किसका है? पुण्य का, और पुण्य बना कैसे है? आत्मा के उच्च भावों से । जिन्हें अपने आप पर दया हो अपने आपकी उन्नति की वांछा हो उनका कर्तव्य है कि वे अपने भावों को बिगड़ने न दें, भावों को ऊंचा बनायें । किसी भी जीव के प्रति विरोध की बात रंच भी चित्त में न रहे, यह सबसे बड़ी भारी विशुद्धि है । अपना विरोधी कोई है ही नहीं । जो विरोधी है वह अपनी शांति के लिए अपना प्रयास करता है । जब मेरे प्रति कोई कुछ कर ही नहीं सकता तो फिर वह मेरा विरोधी कैसे? यदि विरोध भावना जगती है तो वह उसका भाव है । उसकी योग्यता है, उसके लिए है, मेरे लिए नहीं । सब लोग अपने लिए सोचिये कि इस जगत में मेरा कोई विरोधी नहीं, ऐसी एक सद्भावना बने । सब जीवों में उस सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन हो, यह ही है उच्च भावना । हम भावना के सिवाय अन्य कुछ नहीं कर पाते । अपने ही भाव सही बनायें रहें बस यह ही हमारा वैभव है, यह ही मेरा सर्वस्व है । (6) चक्रवर्ती की छठी निधि है पद्य । इसके प्रताप से मनमाने वस्त्रों की प्राप्ति होती है । राजघराने को, सेवकों को, सेना को या जिस किसी को भी जितने वस्त्र चाहिए वे सब इस निधि के प्रताप से प्राप्त होते है । (7) सातवीं निधि है नैसर्प, इस निधि के द्वारा हम्यभवनों की प्राप्ति होती है । देखिये तो सही यह तो चक्रवर्ती की बात है । श्रीरामचंद्रजी को वन में एक बार ऐसी जगह भी ठहरना पड़ा जहाँ कि कोई पुरुष तो था नहीं, सिर्फ एक स्त्री थी, तो वहाँ उस स्त्री ने उन्हें बड़े अपशब्द सुनाया । वहाँ लक्षण तो उस स्त्री पर अत्यंत क्रुद्ध हुए पर श्रीराम ने लक्ष्मण को समझा बुझाकर शांत कर दिया । वही श्रीराम जब जंगल में जाकर ठहरे तो उनके पुण्य प्रताप से वहाँ नगरी बस गई, जिसका नाम रखा गया रामनगर । उसी नगरी में एक बार वह सी भी पहुंची तो वहाँ श्रीराम ने उस पर द्वेषभाव नहीं किया बल्कि क्षमाभाव रखा । देखिये―महापुरुष बड़े क्षमाशील हुआ करते है । यही गुण तो उनको बड़ा बनाता है । बड़े पुरुष छोटे लोगों से द्वेष नहीं रखते बल्कि उनके प्रति क्षमाभाव रखते । तो हम सदैव क्षमाशील रहे, किसी बात में घमंड न आये, मायाचारी से भरा हुआ हृदय न बनाये, लोभ लालच की बात अपने चित्त में न बसाये, समय-समय पर अपने में एक त्याग वृत्ति रखें । क्रोधादिक चारों प्रकार की कषायों के दूर होते ही अपने भावों में एक उदात्तपना आता है । भाव ही अपना एक धन है, जिसके कारण हम इस लोक में भी सुखी रह सकते और अन्य लोक में भी । यहाँ चक्रवर्ती की ऋद्धियां बतायी जा रही हैं कि सम्यग्दर्शन के प्रताप से अविशिष्ट राग के कारण कितना विशिष्ट पुण्यबंध हुआ करता है जिसके फल में ऐसा वैभव प्राप्त होता है ।
चक्री के पिंगल व नानारत्न निधि का वर्णन―(8) आठवीं निधि है पिंगल―इसके प्रताप से बड़े-बड़े स्वर्ण रत्न आदिक जड़ित आभूषण प्राप्त होते है । (9) नवमी निधि है नानारत्न―इस निधि के प्रताप से बड़े-बड़े रत्नसमूहों की प्राप्ति होती है । अब देखिये यह सब वैभव कितना कूता जायगा? क्या करोड़ों का, या अरब, खरब, नील आदिक का? अरे कुछ कह ही नहीं सकते । यह सब वैभव चक्रवर्ती के सामने पड़ा है, पर उससे चक्रवर्ती के आत्मा को क्या लाभ? ये सब बाहर पड़े हैं । पौद्गलिक ठाठ हैं, उनसे इस आत्मा का कौनसा हित होता है? मगर वह सब पुण्य वैभव है जिसके प्रति लोग ललचाते रहते हैं । यहाँ ललचाया जाने योग्य कोई वस्तु नहीं है । इनका लालच ही तो इस जीव को संसार में रुलाता है । हां देखिये यह भी एक विचित्र बात है कि ज्यों-ज्यों वैभव की चाह कम होती जाती हैं त्यों-त्यों वैभव की वृद्धि होती रहती है । इस आने वाले वैभव को देखकर उसमें मस्त न हों । उसके प्रति निर्लेप रहें ऐसा भाव रहता है भव्यात्मा का । चक्रवर्ती की ये 9 निधियां होती हैं । इतना विशाल पुण्य सम्यग्दृष्टि जीव के बंध करता है, इतने पर भी पुण्य का जो फल प्राप्त होता है वह रमने योग्य नहीं है । जो इनमें रमा सो संसार में रुला ।
चक्रवर्ती के 14 रत्नों में 7 सजीवरत्नों का निर्देश―चक्रवर्ती के 14 रत्न होते हैं, जिन में 7 रत्न तो सजीव हैं और 7 रत्न अजीव है । (1) पहला रत्न है पवनंजय―इसके प्रताप से पवन के समान उड़ने वाले अश्व (घोड़े) प्राप्त होते हैं । (2) दूसरा रत्न है विजयगिरि―इस रत्न के प्रताप से विशाल बलशाली गज (हाथी) प्राप्त होते हैं । वैसे लोग तो सिंह को हाथी से भी अधिक बलशाली बताते पर हाथी का बल और किस्म का है सिंह का बल और किस्म का । सिंह में फुर्तीलापन होता है, हाथी में गंभीरता होती है । सिंह को लोग पंचमुख कहते हैं । उसके 5 मुख होते, कैसे कि एक मुख तो रहता ही, बाकी चार पंजे भी उसके मुख का जैसा ही काम करते हैं । वे पंजे दांतों की तरह तीक्ष्ण नुकीले होते हैं, इससे सिंह हाथी पर भी हमला कर बैठता । वैसे बल में सिंह हाथी से कम होता है । हाथी एक गंभीर प्राणी है, उसमें बल बहुत अधिक होता है । (3) तीसरा रत्न है भद्रमुख । इसके प्रताप से गृहपति ऐसा मिलता है कि जो राज्य की सारी व्यवस्था बहुत सही बनाता है । बड़े घर के लोग राजागण या चक्रवर्ती ये स्वयं अपने घर की व्यवस्था में नहीं रहते, इनका तो एक विशाल कर्तव्य होता है । घर की व्यवस्था के लिए उनका एक सुपरिन्टेन्डेट (गृहपति) होता है जो कि गृहकार्य की व्यवस्था करने में बड़ा कुशल होता है । (4) चौथा रत्न है कामवृष्टि―इसकी वजह से स्थपति याने कुशल कारीगरों की प्राप्ति होती है । ऐसे-ऐसे कुशल कारीगर प्राप्त होते हैं जो कि लौकिक सब व्यवस्थायें तुरंत बड़ी कुशलता पूर्वक कर देते हैं । (5) पांचवां रत्न है अयोध्य―इसके प्रताप से ऐसा कुशल सेनापति प्राप्त होता है जो किसी दूसरे से जीता नहीं जा सकता । जैसे भरत चक्रवर्ती के समय में जो जय कुमार नाम का सेनापति था उससे किसी कारण से भरत चक्रवर्ती का पुत्र अर्द्धकीर्ति भिड़ गया था तो वह भी उससे हार गया था । वहाँ कोई वैतनिक सेनापति नहीं होता, स्वयं कोई बड़े राजघराने का होता है और चक्रवर्ती का सेनापति बनने में, अपना महत्त्व समझकर वह सेनापति बनता है । तो वह सेनापति अयोध्य होता याने वह किसी के द्वारा युद्ध में जीता नहीं जा सकता । (6) छठा रत्न है सुभद्रा―इस रत्न के प्रताप से सुभद्रा युवती याने कुशल सुभग पट्टरानी की प्राप्ति होती है, उसमें इतना बल होता कि कहो रत्नों का चूरा मुट्ठी में रत्न भरकर यों ही हाथ से मल देने में हो जाय और उस चूरा से चौक आदि पूर दे । इतना बल पट्टरानी में होता है । पट्टरानी के अतिरिक्त अन्य 16 हजार रानियाँ होती है । (7) सातवां रत्न है बुद्धि समुद्र―इस रत्न के प्रताप से बड़ा बुद्धिमान पुरोहित प्राप्त होता है जो सलाहकार का काम करे, मंत्री के साथ बैठकर मंत्रणा करे, जो सब प्रकार के कार्यों की बड़ी कुशलतापूर्वक व्यवस्था करे ऐसा पुरोहित प्राप्त होता है ।
चक्रवर्ती के 14 रत्नों में 7 अजीव रत्नों का निर्देश―उक्त 7 रत्न तो चक्रवर्ती के सजीव होते हैं और 7 ही अजीव रत्न होते है । (1) पहला रत्न है छत्र, उसमें सूर्य जैसी प्रभा होती है । यह छत्ररत्न उनकी आयुधशाला में उत्पन्न होता है । (2) दूसरा रत्न है असि जिसका नाम है भद्रमुख, ऐसी तलवार प्राप्त होती जिसके धारण करने से वह सुभट किसी दूसरे के द्वारा जीता नहीं जाता सकता । (3) तीसरा रत्न है दंड । चक्रवर्ती के पहरेदार बड़े बलशाली होते हैं वे ऐसे प्रवद्धवेग वाले दंड धारण करते हैं कि जिनकी वजह से शत्रु उन पर विजय नहीं पा सकते । (4) चौथा रत्न है चक्र―यह चक्रसुदर्शन ऐसा यंत्र होता कि यदि चक्रवर्ती किसी शत्रु का लक्ष्य करके उसे फेंक दे तो शत्रु उसके अधीन बन जाय । (5) पांचवां रत्न होता है काकिणी―इसके प्रताप से शत्रु के हृदय में ऐसा प्रभाव पड़ता कि उसमें चिंता व्याप जाती है जिससे वह पराजय को प्राप्त होता है । (6) छठा रत्न है चिंतामणि―यह चिंतामणि रत्न ऐसा अद्भुत होता है कि इसके प्रताप से जो कुछ मन में विचारा गया उस काम की सिद्ध हो जाती है । (7) सातवां रत्न है चर्म―यह एक बड़ा मजबूत विशाल पंडाल सा समझिये । इसका उपयोग चक्री कब करता है जबकि मानों वह चक्री अपनी विशाल सेना सहित कहीं जा रहा है । कहीं मानों मेघ वर्षा तेज होने लगी या बिजली चमकने लगी, ऐसी कोई परिस्थिति आये तो उस समय उस चर्मरत्न का उपयोग होता है । वह ऊपर बड़ा विशाल अनेकों कोशों तक ऐसा ऊपर छा जाता है कि उनको फिर कोई प्रकार की बाधायें नहीं होतीं । ऐसे 14 रत्न चक्रवर्ती को प्राप्त होते हैं । यह सब सम्यग्दर्शन के होते संते शुभ भावों का प्रताप है, जिसका सारे भरत क्षेत्र पर एकछत्र राज्य है । तो अब आप समझिये कि छह खंड के अंदर जो कुछ भी वैभव पड़ा है वह सब, उस चक्रवर्ती का है ।
चक्रवर्ती के अन्य वैभवों का दिग्दर्शन―चक्रवर्ती पर 32 यक्ष चमर ढोरते हैं । एक-एक यक्ष के बंधु कुल साढ़े तीन करोड़ हैं । ऐसे 32 यक्ष चक्रवर्ती पर चमर ढोरते हैं, एक-एक यक्ष के बंधुकुल साढ़े तीन करोड़ होते हैं । चक्री जब जाता है तो शंख ध्वनि होते मालूम पड़ता लोगों को । शंख 24 होते हैं जो कि दक्षिण की तरफ आवर्त किए हुए होते हैं । इनमें बड़ी ऊंची ध्वनि होती है जो 48 कोश तक सुनाई देती है । अब यहाँ चक्रवर्ती का और भी वैभव देखिये―जैसे यहाँ मान लो किसी किसान का वैभव बताना है तो कहते कि इसके इतने हल चलते हैं, मान लो चार हल चलते, 5 हल चलते । जब उससे बड़े जमींदार का वैभव बताना है तो बताते कि इस जमींदार के 20 हल चलते, 25 हल चलते, जब उससे बड़े किसी राजा का वैभव बताना है तो कहते कि इस राजा के हजारों हल चलते, ऐसे ही चक्रवर्ती का वैभव बताना है तो कितने बताये जायेंगे? एक कोड़ा-कोड़ी हल । याने एक करोड़ में एक करोड़ का गुणा करने पर जितनी संख्या आवे उतने हल । देखिये इतने बड़े छह खंड के राज्य में एक कोड़ा-कोड़ी हल चलना असंभव बात नहीं । चक्रवर्ती केवल भरतक्षेत्र में ही होते हों सो बात नहीं, भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती अलग है, ऐरावत क्षेत्र के अलग हैं और विदेह क्षेत्र के अलग है । जैसे बताया है कि 160 तीर्थंकर विदेह क्षेत्र में एक साथ हो सकते हैं । वैसे बताया है 20 तीर्थंकर, 20 से कम तीर्थकर तो होंगे नहीं, पहले 20 कह दिया है पर सभी नगरियों में जो वहाँ की महानगरियां हैं वे बड़ी विशाल हैं, वहाँ एकएक तीर्थकर एकएक नगरी में हो सकता है । एक समय में 160 तीर्थकर हो सकते हैं, उसी समय 5 भरत में 5 तीर्थकर होते, 5 ऐरावत में 5 तीर्थंकर होते, तो कोई समय ऐसा भी हो सकता है कि जिस समय ढाई द्वीप के अंदर 170 तीर्थकर विराजे हों । तो छह खंड की पृथ्वी पर जगह-जगह उनके फार्म्स हैं, सब कुछ उनकी व्यवस्था है । तो चक्रवर्ती के एक कोड़ाकोड़ी हल होते हैं । उनका राज्य छह खंड की पृथ्वी पर है ना? वहाँ रमणीक 12 भेरी बजती हैं । उनकी ध्वनि इतनी तेज होती है कि 48 कोश तक सुनाई देती है । चक्रवर्ती के पास गायें तीन करोड़ होती है । आखिर छह खंड में सर्वत्र उनके स्थान बने है उनके गायें 3 करोड़ होती हैं । अब जरा चक्रवर्ती के बर्तनों का अंदाज लगाइये―थालियां एक करोड़, जब केवल थालियां ही एक करोड़ होतीं तो फिर लोटा, कटोरी, गिलास, चम्मच आदि कितने होते होंगे इसका अंदाज तो लगाइये । देखिये कहां कहा होता है उस चक्रवर्ती का उपयोग । उसके पास 84 लाख हाथी, 84 लाख भद्ररथ, 18 करोड़ घोड़े, 84 करोड़ वीरपुरुष, कई करोड़ विद्याधर, 88 हजार म्लेच्छ राजा, 32 हजार मुकुटबद्ध राजा, 32 हजार नाट्यशाला, 32 हजार संगीतशाला, 48 करोड़ पदाति सेना, 32 हजार देश, ये सब वैभव होते हैं चक्रवर्ती के । ये सब वैभव जानकर हमें ललचाने की शिक्षा नहीं लेना है । ये सब बाहर पड़े हुए पौद्गलिक पदार्थ हैं । उनसे चक्री के आत्मा का क्या भला होता? पर सम्यक्त्व होने पर शुभ भाव होने के कारण ऐसा विशाल पुण्यबंध होता है जो कि मिथ्यादृष्टियों के नहीं हो सकता । ऐसे ये चक्री राजा जिनके राज्य में 96 करोड़ गांव थे, 75 हजार नगर थे और 16 हजार छोटे-छोटे खड़े थे, याने कितना विशाल उनका राज्य था जिनकी रक्षा की जगह 56 तो ऐसे अंतर्द्वीप थे कि समुद्र के बीच टापू वगैरह जहाँ हर एक का जाना अशक्य है, और 28 हजार दुर्ग थे । देखिये सभी जगह छह खंड मौजूद था, सब जगह की बराबर व्यवस्था बनी हुई थी । कहां कौन लोकपाल रहता है, किस राजा को कहां नियुक्त किया है, ऐसे विशाल वैभव वाले चक्रवर्ती इस सम्यक्त्व के प्रताप से उन शुभ भावों के कारण होते हैं । सम्यग्दर्शन का काम नहीं है वैभव दिलाना । वह तो मोक्ष का मार्ग है, पर उसके होते हुए जो शुभ भाव हुए भक्ति आदिक के उन्हें इतना विशेष पुण्य का लाभ होता है ।