वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 59
From जैनकोष
न च परदारान्गच्छति न परान्गमयति च पापभीतेर्यत्।
सा परदारनिवृत्ति: स्वादारसंतोषनामापि ।। 59 ।।
ब्रह्मचर्याणुव्रत की पवित्र रूपता―ब्रह्मचर्याणुव्रत इतना पवित्र व्रत है कि जिसके पालने में आत्मा के अनेक अतिशय प्रकट होते हैं । यह गृहस्थ का ब्रह्मचर्याणुव्रत कहा जा रहा है । परस्त्री से गमन न करना न दूसरे को गमन कराना । इसको कहते हैं परदारनिवृत्ति अथवा स्वदार संतोष, अर्थात् ब्रह्मचर्याणुव्रत । यह ज्ञानी गृहस्थ पापों से भयभीत है, इसको डर है तो पाप का है, इष्ट वियोग से डर नहीं, अनिष्ट संयोग से डर नहीं । शरीर में वेदनायें आयें उनसे डर नहीं । भले ही शरीर में कोई कष्ट होने पर नहीं सहा जाता मगर इसको ऐसा डर नहीं कि जिससे इसका मन स्खलित हो जाय । पाप कार्य क्यों करना? जितने भी जग में संकट हैं वे सब पाप के फल हैं । पापों से भयभीत पुरुष ब्रह्यचर्याणुव्रत का पालन करते है । देह क्या है? मूत्र, विष्टा, कीट का घर द्वार । ‘‘पागल हो गए कविराज’’ इस भजन में आता है कि ‘‘अशुचितन को चंद्रमुख कहते न आयी लाज’’ पागल हो गए कविराज । याने जो कवि लोग वर्णन करते है शरीर के बड़े शृंगार और सुंदरता का उनको इस अशुचि शरीर को चंद्रमुख कहते हुए लज्जा नहीं आती । ‘‘देह क्या है मूत्र, विष्टा, कीट का घर द्वार । मांस पिंड उजोज कूँ दें, हेमघट उनहार । पागल हो गए कविराज’’... इस तरह कहते हुए आगे यह कहा कि ‘‘एक तो स्वयमेव अंधा, जगत जीव समाज । आंख में फिर राग धूली, डालते किह काज ।’’ पागल हो गए कविराज । तो इस भजन में यह बात आयी है कि यह शरीर समस्त मलों का घर है । आप लोग देखते हैं ना कि म्युनिसपलटी की ओर से कूड़ा, कचरा, विष्टा आदि भरने को जो टीन का बड़ा डिब्बा रख देते हैं उसमें वे सब गंदी चीजें भरी रहती हैं तो उससे कम गंदा नहीं है यह शरीर । इस शरीर के भीतर की गंदगी का जरा ध्यान तो कीजिए इसके अंदर सब अपवित्र ही अपवित्र चीजें मिलेंगे । चाम, खून, पीप, मांस, मज्जा, मल, मूत्र, पसेव, नाक, थूक, खकार, कानकनेऊ आदि सभी चीजें महा अपवित्र भरी हैं, इतना तो अशुचि है यह शरीर, फिर भी कामीजनों के कितना पाप का उदय है कि वे इस शरीर में आसक्त होते हैं ।
ब्रह्मचर्याणुव्रत के विरोधक विकार में व्यभिचार शब्द की रुढ़ि का कारण―देखिये―ब्रह्मचर्य का असली अर्थ क्या है? आत्मा में लीन होना, ब्रह्म मायने आत्मा उसमें चर्य मायने लीन होना और ब्रह्मचर्य के खिलाफ क्या हुआ? व्यभिचार मायने आत्मा-आत्मा में लीन न हो सके और बाहरी उपयोग का डोलना हो । तो अब आप बतलावो हिंसा व्यभिचार है कि नहीं? व्यभिचार है क्योंकि उपयोग बाहर-बाहर ही डोलता रहता है वैसे झूठ, चोरी वगैरह सभी पाप व्यभिचार हैं मगर केवल व्यभिचार का नाम चौथे पाप में क्यों रखा है? क्या हिंसा कुशील का व्यभिचार नहीं है? क्या आत्मा का स्वभाव हैं हिंसा करनेका? अरे ये सभी पाप व्यभिचार हैं, लेकिन चौथे पाप का ही नाम धरा गया कुशील या व्यभिचार तो उसका कारण यह है कि यह चौथा पाप इतना महान खोटा पाप है कि इस पाप में प्रवृत्ति करते हुए में आत्मा की सुध कभी रह नहीं सकती । आप परिग्रह के बीच रह रहे, भोजन कर रहे स्वाद ले रहे तो इसके बीच आत्मा की सुध हो सकती, पर व्यभिचार चौथा पाप का नाम रखा है कुशील व्यभिचार । और भी देखिये―वीर्य नाम है आत्मा की शक्ति का । कहते हैं ना कि भगवान अरहंत अनंत वीर्य के धनी है । चार अनंत चतुष्टय बोलते हैं उनमें एक अनंत वीर्य भी है । तो वीर्य मायने बल शक्ति । आत्मा का बल, ज्ञानबल, ज्ञान का ज्ञान में स्थिर होना यह आत्मवीर्य है । तो शरीर का बल है वह भी वीर्य है ।
अपना बल खोकर कामी जनों की अशुचिरति में मौज की मान्यता―देखिये कामीजन अपनी शक्ति को खोते हुए मौज मानते हैं, याने कितनी बेढव बात है । वहाँ तो हर समय खाना पीना अच्छा चाहते ताकि शरीर पुष्ट हो जाय । घी, दूध, फल, रस तथा शिलाजीत जैसी चीजों का सेवन इसलिए करते कि हमारा शरीर पुष्ट हो । मगर ब्रह्मचर्य का घात कर, अपने शरीर की ताकत को खोकर ये व्यामुग्ध जीव उसमें मौज मानते है यह कितने गजब की बात है । यदि मोक्षमार्ग पसंद है, संसार के संकटों से छुटकारा पाना है, आत्मा में लीन होने का पौरुष बनाना है तो पहले लौकिक ब्रह्मचर्य का पालन करो । जो लौकिक ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते वे अलौकिक ब्रह्मचर्य के अधिकारी नहीं हो सकते । इसी ग्रंथ में आगे आयगा कि यह शरीर कैसा है? मल का कारण है और मल इसका कार्य है । मल से पैदा हुआ है मल को निकालता है और स्वयं मल स्वरूप है । रोम-रोम से मल झड़ता है । दुर्गंधित है, भयानक है, ऐसे शरीर पर थोड़ा यह चमड़ा ढ का है । जो गंदगी है मास की, खून की, हड्डी की उस पर यह चामचादर पड़ी है, यह चामचादर किसी भी रूप का हो उसे देखकर अज्ञानी कामी पुरुष तो आत्मसुध भूलकर गंदे विचार करता है और ज्ञानीजन स्पष्ट समझते है कि यह शरीर यह है । ऐसे साफ सुथरे सब बैठे हैं, मुख भी बड़ा साफ लग रहा और जरासी नाक कोई सूत दो सूत ही नाक से बाहर निकल पड़े तो शरीर की सारी शोभा धरी रह जाती है।
इस दुर्लभ नरदेह को व्रत शील सदाचार में युक्त करके जीवन सफल बनाने का अनुरोध―तो यह शरीर मिला है इसको व्रत में, शील में और धर्म में, ज्ञान में, तपश्चरण में, संयमसाधना में लगा डालें । आखिर यह शरीर एक न एक दिन नष्ट होगा, जला दिया जायगा गाड़ दिया जायगा या छोड़ दिया जायगा, जो भी स्थिति बने ऐसे शरीर से अगर संयम व्रत आदिक के कार्य बनाये जायें और अपने आत्मा को शुद्ध भावों में रखा जाय तो इसमें आत्मा का लाभ है और यदि मनचाहा खाना पीना रमना, विषयसेवन अनेक पाप इनमें शरीर को जुटाये जायें तो इसका फल शरीर तो जड़ है, क्या भोगेगा । भोगना पड़ेगा बस आत्मा को । इससे गृहस्थजनों को कम से कम इतना पक्का नियम होना ही चाहिए कि स्वदार संतोषवृत्ति से रहें याने मात्र अपनी स्त्री में संतुष्ट रहें, बाकी समस्त पर स्त्रियों के प्रति भाव निर्मल रहें, रंच भी कुवासना का भाव न होना, यह है गृहस्थ का ब्रह्मचर्याणुव्रत । यह व्रती पुरुष समग्र स्त्रियों में राग नहीं करता, उनका संगम नहीं करता, विशेष वचनालाप नहीं करता, उनके अंगों को नहीं देखता, उनके अंगों को छूने का परिणाम नहीं करता । वही परस्त्री का त्यागी है और स्वदार संतोषी है । जो स्वदार संतोष व्रत का धारी है, ब्रह्मचर्याणुव्रत का धारक है उसकी बुद्धि सही काम करेगी और प्रत्येक कार्य में वह सफलता भी पायेगा ।
ब्रह्मचर्य का अंतस्तथ्य―गृहस्थ के 5 अणुव्रतों में ब्रह्मचर्याणुव्रत का प्रकरण चल रहा है । ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म में लीन होना । ब्रह्म नाम है आत्मा के सहज स्वभाव का । जगत के किसी भी अन्य पदार्थ में अपना दिल लगाया तो वह समय बेकार है, उसका परिणाम भी अनर्थ है । जैसे कोई मछली अपने जल के स्थान को छोड़कर बाहर चली जाय तो वह तड़फड़ाती है । उसके आत्मा को शांति का कोई उपाय नहीं है, ऐसे ही यह जीव अपने ज्ञानस्वरूप के स्थान की तजकर बाहर में किसी भी पदार्थ में पड़ जाय तो उसका फल झुँझलाहट है । उसका कोई उपाय नहीं है कि शांति पा सके । आत्मा को शांति मिलेगी तो खुद के ही स्वरूप में मिलेगी । बाहर से शांति पाना बिल्कुल असंभव है । तो वास्तव में ब्रह्मचर्य तो यह है अपने स्वभाव को निरखिए और उसमें लीन होइये । मेरा स्वभाव क्या है? चैतन्यमात्र, चैतन्यस्वभाव प्रतिभास । ज्ञानज्योति, अमूर्त । ऐसा यह आकाशवत् निर्लेप मेरा स्वरूप है । वर्तमान परिणति लेप की है, इस पर निगाह अभी न दीजिए । उसको मना नहीं किया जा रहा कि वर्तमान स्थिति लेप की नहीं है । कर्म से लिपे हैं, शरीर से घिरे हैं, विकार भी होते हैं पर ज्ञान में तो ऐसी कला है कि इस पर दृष्टि न दें, आत्मा के स्वभाव पर दृष्टि दें । जैसे कि एक्सरायंत्र हड्डी की फोटो लेता है । उसके सामने चाम, खून, मांस, मज्जा आदि सभी आते, पर वह उन सबको छोड़कर सीधे हड्डी का फोटो ले लेता है । तो देखो जब इस अचेतन पदार्थ में यह कला आ गई तो क्या इस चेतन में यह कला नहीं आ सकती कि इस वर्तमान पर्याय पर भी दृष्टि न दे और आत्मा के सहज स्वभाव पर दृष्टि दे । आ सकती है वह कला । यद्यपि यह सब है पर हम उस ओर दृष्टि न दें यह तो हो सकता है । तो अपने स्वभावपर दृष्टि देकर निरखिये कि मैं स्वयं आनंदधाम हूँ, मेरे स्वरूप में कष्ट नहीं, स्वरूप को निरखिये, अगर स्वरूप में कष्ट होता । स्वभाव अगर कष्ट का होता तो कभी मोक्ष हो ही न सकता था । कष्ट से छुटकारा हो ही न सकता था । मेरा स्वरूप कष्ट का नहीं है, पर कर्म के उदय आते हैं, उनकी छाया पड़ती है, यहाँ वे सब विकार प्रतिबिंबित होते हैं, हम उनको अपना लेते हैं और कष्ट में आ पड़ते हैं ।
स्वरूपदर्शन कर दुर्लभ सत्संग को सफल करने का अनुरोध―देखो भैया, हम आपने कितना आज दुर्लभ समागम प्राप्त किया है । अनंत काल तो निगोद में रहे, एकेंद्रिय आदिक भव लहे, कीड़ा मकोड़ा हुए, पंचेंद्रिय भी हुए तो जैसे रोज-रोज देखते है ना सड़कों पर जुतने पिटने वाले झोंटो को, गधों को, खच्चरों को तो वहाँ भी क्या फायदा मिला? ये सभी स्थितियां हम आप सभी ने बहुत-बहुत भोगा । आज सुयोग से मनुष्य पर्याय में आये है और यह पर्याय भी एक जैन शासन से संबंधित मिली । यह बहुत बड़ा पुण्य का उदय समझिये जो जैन शासन का सुयोग मिला है, जिसमें अहिंसा और स्वभावदृष्टि का आचरण पाया जाता है । ऐसे दुर्लभ समागम को पाकर यदि हम दुर्भावों में रहें, पापों में रहे व्यसनों में रहे धर्म के विरुद्ध कल्पनाओं में रहें तो हमारी वह दशा होगी जिसे भोगकर आये । इसलिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी का यह भव है । यदि यहाँ न चेते तो आगे पता नहीं कब चेतने का मौका मिले । तो यहाँ के मिले हुए समागमों को कर्म की छाया जानकर अपने को इनसे भिन्न परखकर इनमें आस्था न बनाये और अपने स्वरूप में आस्था करें । मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह है भगवान? यह बात पर्यायदृष्टि से नहीं कही जा रही । पर्याय में तो भगवान में और मुझ में बहुत अंतर है । वे वीतराग है और यहाँ राग का फैलाव है, मगर स्वभाव को निरखा जा रहा है । भगवान भी कहीं अलग से नहीं हुए हैं, वे भी हम आप जैसे ही संसारी जीव थे । उन्होंने मनुष्यभव प्राप्त किया, उनको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का सुयोग मिला, अपने आत्मा में लीन हुए और भगवान बन गए । तो यह ही काम तो हम आपको करना है । जैसे आज जो लोग देश के बड़े अधिकारी नेता बने बैठे है ये कहीं बाहर से नहीं आये, हम आप में से ही जिनको सुयोग मिला वे अधिकारी बन गए, पर उससे भी इस आत्मा का हित क्या? मुझे बनना है अरहंत सिद्ध जैसा । वे प्रभु अरहंत सिद्ध कहीं बाहरी द्रव्य नहीं है, हम आप जीवों में से उन्होंने ऐसा सुयोग पाया कि रत्नत्रय प्राप्त किया और प्रभु हो गए । तो क्या हम आप नहीं हो सकते वैसे प्रभु? हां हो सकते हैं, हम आप भी अष्ट कर्मों से मुक्त होकर परमात्मा बन सकते, पर स्वभाव की ओर कुछ दृष्टि लाना होगा, अपने आप वह स्वभाव संचेतन में आने लगेगा । जो लोग इस ब्रह्मस्वरूप का मनन करते हैं, उसमें लीन होते हैं उनके हैं ब्रह्मचर्य का पालन।
परमार्थधर्मपालन में ही वास्तविक आत्मदया―देखिये धर्म करना यह कुछ दूसरे पर एहसान नहीं है और न धर्म करके कुछ ऐसा भीतर में बड़प्पन निहारना है दूसरों को निरखकर कि मैं ऐसा हूँ । धर्म करने का प्रयोजन केवल अपने आप पर दया करना है, क्योंकि अधर्म के ही कारण, अशुभ भावों के ही कारण हम संसार में नाना दुर्गतियों में जन्मते हैं, भटकते है । तो ऐसे जन्मों में भटकना पसंद है क्या? यदि नहीं पसंद है तो धर्म का सहारा लीजिए? धर्म ही एक शरण है । धर्म को छोड़कर अन्य कुछ जगत में शरण नहीं है । वह धर्म कहां मिलेगा? अपने आत्मस्वरूप में । वास्तविकता तो यह है । हम भगवान को मंदिर में जाकर पूजते है तो कहीं मंदिर की उन भींटो में से निकलकर धर्म न आयगा और यहाँ तक कि उस मूर्ति से निकलकर भी धर्म न आयगा । कदाचित् साक्षात् रूप में भगवान विराजे तो भी वहाँ से निकलकर मेरे में धर्म न आयगा, पर प्रभु की भक्ति करने से, उनके गुणों का चिंतवन करने से मेरे गुणों में उच्चता आती है, स्वच्छता आती है, सुध होती है और मेरा धर्म मेरे को मिल जायगा । जैसे कोई पुरुष थोड़ा बरसात के दिन थे, छाता लेकर जा रहा था, किसी दुकान में बैठ गया, फिर उठकर चला गया । दुकान में छाता भूल गया । कुछ दूर जाकर किसी दूसरे को सामने से छाता लगाये आते देखकर उसे याद आया कि मैं अपना छाता उस दुकान पर छोड़ आया । अब वह जल्दी-जल्दी वापिस चलकर अपना छाता पा लेता है । तो ऐसे ही हम अपने धर्म को भूल गए हम अपने धर्म में लीन नहीं हो पा रहे तो हम प्रभु की उस शांत मुद्रा को देखकर वहाँ सर्व ओर विचार करें कि यह है धर्म । यह है कष्टों से छूटे हुए की स्थिति । वहाँ ज्ञानादिक गुणों का विचार कर हमें अपने गुणों की याद आ जाती है स्वरूप की याद आ जाती है, ओह यही है मेरा स्वरूप । मैं व्यर्थ ही यहाँ वहाँ भटकता फिरा, इस तरह वह अपने स्वरूप में पहुंच जाता है और स्वरूप में मग्न हो सकता है । हम आपकी आज की स्थिति प्रभुभक्ति सिवाय, स्वाध्याय सिवाय, सत्संग सिवाय कोई उपाय नहीं है कि हम धर्म मार्ग में चल सकें, उस पर सच्चा ज्ञान रखते हुए हमारे ये तीनों काम चलें―प्रभुभक्ति, सत्संग और स्वाध्याय । तो हम आसानी से सफल हो सकते हैं, और यदि यही पता न हो कि प्रभु क्या कहलाते हैं तो हम धर्म को प्राप्त न कर पायेंगे । भले ही किन्हीं वासनाओं से, किसी भावना से हम धर्म के कार्य में लगे हैं । मंदिर में प्रभु पूजा आदिक सब सम्हाल में लगे हैं, मगर धर्म तो वह चीज कहलाती है जो मोक्ष में पहुंचा दे । तो मोक्ष में पहुंचा देने वाली कुंजी यदि नहीं मिली है तो उसे पालें, यदि वह कुंजी अपने पास रहेगी तो प्रभुभक्ति, स्वाध्याय आदिक से हमारा स्पष्ट मार्ग बन जायगा ।
प्रभु की वीतरागता का आदर्श―प्रभु क्या है? जो मेरा स्वभाव है वैसा ही स्वभाव उनका है । उस स्वभावपर आवरण न रहे कर्म न रहे सो उनका स्वभाव एकदम पूरा प्रकट हो गया है । स्वभाव क्या है? ज्ञान स्वभाव । वह ज्ञानस्वभाव पूर्ण प्रकट हुआ है । लोकालोक सबके ज्ञाता हो रहे हैं, भगवान लोकालोक के सारे विश्व को जानते हैं इस कारण हम प्रभु को महत्त्व नहीं दे रहे, वह तो ऐसा होता ही है, पर प्रभु पर आवरण न रहा, दोष न रहे इसलिए उनको आकुलता रंच भी न रही, यह है महत्त्व की बात । भगवान सारे लोकालोक को जानते हैं इस कारण हम अपने लिए आदर्श मानें सो बात नहीं है । यहाँ भी कोई थोड़ा जानता कोई बहुत । भगवान ने सारे लोकालोक को जान लिया इस कारण से भगवान हमारे लिए आदर्श नहीं, किंतु भगवान में दोष रंच भी नहीं रहे, जन्ममरण आदिक कष्टों से छूट गए, जो उनका सहज स्वभाव है वही प्रकट हो गया जिसके कारण अब जरा भी उनमें अपवित्रता नहीं है और रंच भी आकुलता नहीं है, और स्वभाव में लीन हो गए हैं इस कारण प्रभु आदर्श है । यद्यपि प्रभु सर्वज्ञ हैं, सबको जानते हैं मगर प्रभु की सर्वज्ञता का गुणानुवाद करके हम क्या पालेंगे? हां प्रभु की निर्दोषता का मनन करके हम पा लेंगे तो प्रभु वीतराग है और सर्वज्ञ है पर सारी महिमा वीतरागता से है । सर्वज्ञता से हम कोई उपाय वाली महिमा नहीं समझते । यद्यपि जो सर्वाधिक बड़ा होता वह सर्वज्ञ होता ही है, यह गुण का पूर्ण विकास है, मगर ज्ञान गुण का पूर्ण विकास होने से ही वे हमारे आदर्श हो गए हों सो मात्र यह कारण नहीं है, किंतु वीतराग होने से, निर्दोष होने से, पवित्र होने से निज आनंदरस में लीन होने से प्रभु हमारे लिए आदर्श हैं । एक बात और निहारो । किसी मनुष्य से पूछो कि आप यह बतलावो कि आप क्या चाहते हैं? तो वह यह न कहेगा कि मैं सारे विश्व को जान लूँ, यह चाहता हूँ, वह तो यह कहेगा कि मेरे में कष्ट, आकुलता, क्षोभ आदि रंच भी न रहें, मुझे पूर्ण शांति मिले, यह चाहता हूँ, वह तो यह कहेगा कि मेरे में कष्ट, आकुलता, क्षोभ आदि रंच भी न रहें, मुझे पूर्ण शांति मिले, यह चाहता हूँ । यदि कदाचित सारे लोकालोक को जाने बिना शांति मिल जाती होती तो कोई जरूरत न थी कि इतना बड़ा ज्ञान करले । चाहिये तो शांति मगर जिन महान आत्मा को शांति मिलती है वह सर्वज्ञ हो ही जाता है उसके लिए क्या करें? वह अनिवारित बात है, मगर सर्व को जान लेने से प्रयोजन सिद्ध हो गया सो बात नहीं, किंतु वीतरागता आ जाने से, निराकुलता हो जाने से प्रयोजन सिद्ध होता है, और यही कल्याण है कि मेरे में आकुलता रंच मात्र न रहे ।
मुक्ति की प्राप्ति के उपाय में प्रारंभिक पौरुष सम्यग्दर्शन―देखिये―जैसे लोक में पुरुषार्थ योग मिलने से अनेक काम बन जाते हैं ऐसे ही नियम से मुक्ति का पुरुषार्थ और योग करने से मुक्ति मिलेगी ही, कहीं भागेगी नहीं, मिलनी ही पड़ेगी मुक्ति, उसके अनुसार पुरुषार्थ होने दो । वह पौरुष क्या है? तो आचार्यों ने स्पष्ट बताया―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनकी संपूर्णता होना मुक्ति का पुरुषार्थ है । सम्यग्दर्शन मेरा जो सहजस्वरूप है अपने आपकी सत्ता के कारण उस रूप में अपने को मान लिया जाय कि मैं यह हूँ, यह सम्यग्दर्शन हो गया । मैं मनुष्य हूँ ऐसा विश्वास मिथ्यात्व है, क्योंकि मनुष्य होना मेरा सहजस्वरूप नहीं है । मैं मनुष्य मात्र नहीं हूँ, मनुष्यपना मिटे बाद में मैं मिट जाऊं, ऐसी बात नहीं है । इस मनुष्यदेह में रहकर भी मैं इस देह से निराला एक ज्ञानस्वरूप परम पदार्थ हूँ । तो जो मैं अपने आप सहज हूँ दूसरे के संबंध के बिना, उस रूप में अपने को मान लीजिए कि मैं यह हूँ । सम्यक्त्व हो गया । सम्यक्त्व हुए बिना कितने ही पौरुष कर लिए जाय, पर मोक्ष का मार्ग नहीं मिलता । और मोक्षमार्ग अत्यंत सुगम है, आप अपना सही विश्वास बना लीजिए ।
सहजात्मस्वरूप के सिवाय अन्य भावों में आत्मत्व की आस्था में मिथ्यादर्शन―जो कुछ विश्वास आज लोग बना रहे है वे देखिये स्वरूप के खिलाफ हैं, इस कारण मिथ्यात्व हैं । मैं व्यापारी हूँ, अमुक चंद हूँ, अमुक लाल हूँ, अमुक काम करने वाला हूँ अथवा मैं पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, अमुक का पिता हूँ, अमुक का पुत्र हूँ, अगर यह भीतर में विश्वास पड़ा हुआ है कि मेरा ऐसा ही स्वरूप है, तो वह सब मिथ्यादर्शन है । यहाँ तक कि धर्म के नाम पर भी यदि यह विश्वास पड़ा है कि मैं पुजारी हूँ, मैं सद्गृहस्थ हूँ, मैं मुनि हूँ, यहाँ तक भी यदि इस देह में आस्था चलती है तो वह भी मिथ्यादर्शन है । तब कैसा विश्वास होना चाहिए अपने बारे में तब सम्यक्त्व कहलायेगा? मैं ज्ञानस्वरूप एक परम पदार्थ हूँ । ये अवस्थायें आयी है, मैं जैन हुआ हूँ, गृहस्थ हुआ हूँ, व्रती हुआ हूँ, त्यागी बना हूँ, मुनि हुआ हूँ, ये पर्यायें आयी हैं, पर इन पर्यायों मात्र मैं नहीं हूँ । अगर मैं इन पर्यायों मात्र ही हूँ तो फिर भगवान बनने का कोई उपाय न करना था, फिर इनको छोड़कर कैसे आगे बढ़ना होगा? तो अपने स्वरूप पर दृष्टि दीजिए । बड़े-बड़े मुनिजन अपने मुनिव्रत को पालते हुए भी उनके भीतर में यह श्रद्धा बनी रहती है कि मैं मुनि नहीं हूँ, किंतु मैं ज्ञान स्वरूप परम पदार्थ हूँ । यह पर्याय बीच में आयी है जिसमें से गुजर मैं आत्मा के धर्म का पालन करता हूँ । तो बड़े-बड़े ऋषिराज जो अपनी अवस्थावों से उपयोग हटाकर ज्ञानस्वरूप आत्मा में उपयोग ले जाते है । तो अब गृहस्थजनों का क्या कर्तव्य है कि जो कुछ समागम हैं उन समस्त समागमों को कर्मजनित जानें, मायाजाल जाने उनमें अटके नहीं और एक जो अपना सहज ज्ञानस्वरूप है, जिसको ब्रह्म कहते हैं उसका दर्शन करें उसमें लीन हों ।
सहजात्मस्वरूप को अनुभवने का अनुरोध―भैया, एक बार तो आत्मीय आनंद पा लें, स्वानुभव करें, इसके लिए चाहे सारे तन, मन, धन, वचन, प्राण भी अर्पित करने पड़ें फिर भी एक बार आत्मा के सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभव तो जरूर हो जाना चाहिए । जिसको एक बार सम्यक्त्व हुआ उसका सम्यक्त्व चाहे छूट भी जाय तो भी वह पुन: रत्नत्रय पायगा और मोक्ष जायगा । जो चीज अब तक नहीं पायी उसकी धुन बनाना चाहिए । संसार के वैभव अनेक बार प्राप्त कर लिए, आज कितना धन है, कितनी प्रतिष्ठा है, इससे अनगिनते गुने प्रतिष्ठा विभूति हम आपने अनेक बार प्राप्त की, पर उससे क्या काम बना? मरे फिर इन भवों में घूमते रहे । आज मौका है मुक्ति का उपाय बनाने का, अपने आत्मा के स्वरूप की पहिचान का । उसका उपाय है ज्ञानार्जन करना ।
ज्ञान के प्रतिसातिशय भक्ति की अद्भुत महिमा―देखिये, ज्ञान के प्रति बड़ी तीव्र भक्ति होनी चाहिए, तब केवलज्ञान का उपाय मिलेगा । और आत्मा का सच्चा वैभव प्राप्त ज्ञान ही है जो हमारा रक्षक है वह ज्ञान ही है अन्य कुछ नहीं है । तो इस ज्ञानस्वरूप की भक्ति जितनी बने, अपूर्व की जाय तो इस धारा में चलते-चलते हम निकट काल में केवलज्ञान प्राप्त कर लेंगे और ज्ञान से यदि विमुख रहे, कि ज्ञान कठिन चीज है, यह हम से नहीं होता, तो साधारण रूप से कोई कितने ही अन्य काम करले मगर ज्ञान की उपेक्षा कर देने से तो उसे सही रास्ता न मिल पायगा । इसलिए ज्ञानार्जन अवश्य करना चाहिए । चाहे कितना ही कठिन विषय हो मान लो अस्वस्थ भी रहते, अधिक मेहनत नहीं कर सकते, फिर भी ज्ञानार्जन करने के लिए निरंतर उत्सुक रहना चाहिए । चूँकि ज्ञानस्वरूप में रमना है इसलिए ज्ञान के प्रति बड़ी उमंग होनी चाहिए । वह ज्ञान क्या है? मेरा ही तो स्वरूप है ज्ञान । हम अपने आपके स्वरूप में रम सकें यह कोई कठिन बात नहीं है । ज्ञानस्वरूप अपने आत्मा में संतोष पाना, बाहर में किसी भी जीव के प्रति कुभाव न करना, ईर्ष्या, बैर विरोध न करना और अपने आपके स्वरूप को देखकर प्रसन्न रहना, अपने ही समान दूसरे जीवों का स्वरूप निरखना, ये है अपनी प्रगति के उपाय । बुरे भाव करके हम किसी दूसरे का बुरा नहीं करते । स्वयं अपना बुरा करते है । तुरंत कर्मबंध होते है, तुरंत आकुलता भीतर जगती और भगवान की वाणी की श्रद्धा न होने से याने उनकी आज्ञा न मानने से दर्शनमोह तक का बंध हो जाता । तो खोटे भाव मेरे में कभी न जगे, देव, शास्त्र, गुरु के प्रति हमारी निष्कपट भक्ति बने, ऐसा अपने भीतर में भाव रहे, पौरुष रहे और हमारी अनुरागी जीवा के जितना अनुराग पिता का बेटे पर होता है उससे अधिक अनुराग देव, शास्त्र, गुरु के प्रति होता है ।
देवशास्त्र गुरु के प्रति सातिशय भक्ति का कर्त्तव्य व परीक्षण―देखिये कुटुंब बच्चे आदिक ये हमारे रक्षक न बन पायेंगे, ये हमारी विपत्ति में मददगार न होंगे । मरण के बाद हमारे प्रेम का संस्कार हम को दुर्गति में ही ले जायगा, मगर देव, शास्त्र, गुरु के प्रति जो अनुरागी होगा वह पुण्यरस बढ़ायेगा । पापरस घटायेगा । वर्तमान में भी रक्षक है और मरण के बाद सुगति मिलेगी तो वहाँ यह रक्षक रहा । और आप तोलिये कि कुटुंबीजन, मित्रगण ये आपके लिए प्रिय होने चाहिए या देव, शास्त्र, गुरु ये प्रेय होने चाहिए । किसी का भी प्रेम अपेक्षा से निरखा जाता है । मान लो आपके पास दो बेटे हों तो इस पर प्रेम अधिक है यह बात आपने कैसे जाना? अपेक्षा से । उस दूसरे की अपेक्षा इस पर प्रेम अधिक है । ऐसे ही देव, शास्त्र, गुरु में आपकी भक्ति है यह कैसे जाना अपने कुटुंब से, अपने परिजन से कितना प्रेम है उससे अधिक प्रीति हो, अनुराग हो, भक्ति हो तो समझिये कि हम को देव, शास्त्र, गुरु में भक्ति है । साधारण भक्ति को भक्ति न कहेंगे किंतु अन्य की अपेक्षा अधिक भक्ति हो तो उसे भक्ति कहेंगे । और अनुराग का परीक्षण यह है कि जिस पर विशेष अनुराग है उसके लिये यह अपना तन, मन, धन, वचन, सर्वस्व अर्पित करने के लिये तैयार रहता है । यदि देव, शास्त्र, गुरु में विशेष भक्ति न जगे, कुटुंबजनों के प्रति ही भक्ति जगे तो समझो कि हम धर्म मार्ग में नहीं बढ़ पा रहे । यदि हमारी भक्ति सबसे अधिक प्रभु के स्वरूप में, शास्त्रों के ज्ञान में, शास्त्रों की आज्ञा मानने में, गुरुजनों की सेवा में है तो हम संसार से पार हो सकेंगे । यदि उन देव, शास्त्र, गुरु की अपेक्षा कुटुंबीजनों में हमारा प्रेम अधिक है तो समझो कि पार होने का अभी उपाय नहीं प्राप्त कर पाया ।
व्यवहार धर्मों का प्रयोजन आत्मधर्मपालन―भैया, यथोचित सब व्यवहार धर्मों के उपाय से हमें अपने आत्मा के धर्म में आना है, इसी को कहते हैं ब्रह्मचर्य । अब जो ब्रह्मचर्य को चाहते हैं उनका कर्त्तव्य है कि शरीर के ब्रह्मचर्य का पालन करें । कोई मान लो शरीर से ब्रह्मचर्य नहीं पाल रहा, कामासक्त है, विषयाभिलाषी है तो वह परमार्थ ब्रह्मचर्य के पालन का अधिकारी नहीं हो सकता, इसलिए संकल्पपूर्वक बड़ी दृढ़ता के साथ हमारा ब्रह्मचर्य व्रत पलना चाहिए । जो गृहस्थ ब्रह्मचर्यव्रत को दृढ़ता से पालेगा उसके वचन सब इस अनुकूल बनेंगे कि वह आत्मा के वास्तविक धर्म का पालन कर सकता है । तो गृहस्थ का ब्रह्मचर्याणुव्रत जहाँ समस्त स्त्रियों का त्याग है और अपनी पत्नी में संतुष्ट है उस गृहस्थ की धुन और दृष्टि अपने इस आत्मविकास पर रहा करती है । ऐसा शुद्ध सद्गृहस्थ ब्रह्मचर्याणुव्रत का पालन करता है ।