वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 82
From जैनकोष
अक्षर्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमणाम् ।
अर्थवतामप्यवधौ रागरतीनां तनूकृतये ।। 82 ।।
भोगोपभोगपरिमाणव्रत का वर्णन―श्रावक के 12 व्रत यहाँ बताये जा रहे हैं । इनमें 5 अणुव्रत का कथन पहले हो चुका । उन अणुव्रतों के पोषण करने वाले पूरण करने वाले तीन गुणव्रत कहे जा रहे हैं, जिनमें (1) पहला गुणव्रत है दिग्व्रत । दिग्व्रत में दसों दिशावों के गमनागमन व्यवहार करने के क्षेत्र की सीमा किया, फिर उस सीमा के अंदर ही कोई अनर्थ दंड न हो, जैसे कोई सोचे कि हमने जितनी सीमा ली है उसके भीतर हम कैसा ही कुछ भी करें, जैन शासन का यह हुक्म नहीं है । उस सीमा के अंदर भी अनर्थदंड न कर सकेगा । निष्प्रयोजन न कर पायगा । अब इसी प्रकार भोगोपभोग परिमाण व्रत की बात कही जा रही है कि उस सीमा के अंदर उसे भोग और उपभोग का परिमाण भी रखना होगा । 5 इंद्रिय के विषयों का जो राग है उस राग की आसक्ति घटान के लिए भोगोपभोग परिमाण किया जाता है । संसारी जीव के इंद्रिय के विषय में अतीव अनुराग अनादि से चला आया है, जिस राग के कारण व्रत संयम दया क्षमा आदिक कोई गुण नही ठहर पाते । तो अब यह दुर्लभ मानवजन्म पाया, जैन शासन का सुयोग पाया और आत्म करुणा करके गृहस्थ ने अणुव्रत का धारण किया सो अब यह 5 पापों से उत्पन्न हुए अन्याय के विषय में प्रीति नहीं कर रहा और फिर यह न्याय के विषयों में भी तीव्र राग नहीं कर रहा । 5 इंद्रिय के विषयो को अन्याय से भोगे हड़पे यह तो व्रती श्रावक के संभव ही नहीं है, पर न्याय अनुकूल जो विषय प्राप्त हुए हैं गृहस्थी की नीति के अनुसार उनमें एक तीव्र राग नहीं रखता तो उन विषयों का राग कम करने के लिए जिसका प्रयोजन नहीं पड़ा सो इंद्रिय विषयों में भी वह सीमा में लगता है । भोग और उपभोग में परिमाण करता है । इंद्रिय के विषयों में निरर्गल प्रवृत्ति नहीं करता, इस ही का नाम है भोगोपभोग परिमाण ये सब व्रत आश्रव के कारण भी होते, सम्वर के कारण भी होते । जितने अंशों में राग है उतने अंशों में आश्रव चल रहा है, पर इन पापों से विरक्ति रूप जो परिणाम है उस परिणाम से तो सम्वर ही चलता है । अब भोग और उपभोग दोनों का परिमाण बताया गया तो भोग मायने क्या और उपभोग मायने क्या? इस बात को स्पष्ट करते हैं ।