वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 83
From जैनकोष
भुक्त्वा परिहातव्यो भोगोभुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य: ।
उपभोगोऽशनवसन-प्रभृतिःपंचेंद्रियो विषय: ।। 83 ।।
भोग और उपभोग के पदार्थों का विश्लेषण―जो एक बार भोग कर के छोड़ने ही योग्य होता है उसे तो कहते है भोग और भोग कर के फिर भी भोगने योग्य होवे उसे कहते है उपभोग । अर्थात् जो एक बार ही भोगने में आ सकें ऐसी वस्तुवों को कहते हैं भोग और जो अनेक बार भोगने में आये उसे कहते हैं उपभोग । जैसे भोजन एक बार खा लिया तो क्या उसे फिर खाया जा सकता? जैसे जल से स्नान किया तो स्नान किए गए जल से कोई नहा सकता है क्या? नहीं नहा सकता, ऐसे ही जो चीज एक बार भोग ली उसे दुबारा न भोगना यह है भोग । जैसे तेल मालिश एक बार शरीर में किया, अधिक अगर तेल लग गया तो उस तेल से कोई दूसरा भी मालिश कर लेगा क्या? अरे खुद भी न करेगा । अगर अधिक तेल लग गया तो इसको थोड़ा पोंछ कर कटोरी में रख ले, कल फिर इसे लगायेंगे ऐसा भी कोई करना पसंद करता क्या? कोई नहीं पसंद करता । फूलमाला किसीने एक बार पहिन लिया हो तो उसे दुबारा कोई पहनना पसंद नहीं करता । ऐसे ही उपभोग बार-बार भोगने में आये―जैसे वस्त्र । वही कमीज कल पहिनकर आये, वही आज पहने है । पहनते जावो जब तक जी चाहे, ऐसे ही चारपाई तखत चश्मा आदिक अनेक चीजें है जो बारबार काम में आ रही है उनका नाम है उपभोग । जो एक बार ही भोगने में आये फिर भोगने योग्य न रहे ऐसे तो भोग है जैसे भोजन, चंदन का लेप, फूल की माला, इतर लगाना और जैसे गहने, वस्त्र, स्त्री, आसन, पलंग, घर, बगीचा चित्राम आदिक ये बारबार भोगने में आते है । तो ये उपभोग कहलाते हैं ।
भोग व उपभोग के परिमाण की प्रक्रिया―भोग व उपभोग का परिमाण व्रती श्रावक के होता है परिमाण होने से राग घट जाता है, बस इतना ही तक विकल्प रहा । इसी व्रत के आधार पर हरी का त्याग किया जाता । जैसे 50 हरी रख ली जीवनभर के लिए, 25 रख ली, 10 रख ली तो उससे यह होता है कि शेष जो लाखों करोड़ों जाति की वनस्पतियां है उनकी हिंसा का दोष नहीं आया । बस 10-20 हरी के सिवाय बाकी सबका त्याग हो गया, पर उन सबका नाम लेकर हो तब है । कोई कहे कि जिंदगीभर मैं 10 हरी खाऊंगा और उनका नाम न लें तो उन 10 में सब आ गए । तो हरी का नाम लेकर जो त्याग करने की पद्धति है वह भोग में ही प्रमाण किये जा रहे हैं, ऐसे ही उपभोग का परिमाण करें, इतने वस्त्र रखेंगे,, इतने बर्तन रखेंगे, उसका परिमाण होता है । यद्यपि सहज वृत्ति से लोग ज्यादह नहीं रखते बर्तन आदिक, जितनी आवश्यकता है उतने ही रखते, आवश्यकता नहीं है सो नहीं रख रहे । प्राय: हो रहा है सब घर, पर जिसके नियम नहीं है, परिमाण नहीं हैं वह किसी भी वस्तु को देखकर मन चला सकता है और ला भी सकता है, उसके चित्त में एक नियंत्रण नहीं है कि इतने से ही मेरा संबंध रहेगा । अन्य से मतलब नहीं । तो ये सब भोगोपभोग परिमाण व्रत हैं । इन भोगोपभोग का परिमाण रखना । अब यह बतला रहे है कि परिमाण करने वाला जीव अभक्ष्य चीजों का कभी सेवन नहीं करता उनके बारे में यावज्जीव त्याग करता है सो तीन श्लोकों में बतला रहे हैं ।