वर्णीजी-प्रवचन:शांतिभक्ति - श्लोक 1
From जैनकोष
न स्नेहाच्छरणं प्रयांति भगवन् पादद्वयं ते प्रजा: ।
हेतुस्तत्र विचित्रदु:खनिचय: संसारघोराणव: ।।
अत्यंतस्फुरदुग्ररश्मिकिरणव्याकीर्णभूमंडलो ।
ग्रैष्म: कारयतींदुपादसलिलच्छायानुरागं रवि: ।।1।।
(1) दु:खपीड़ित प्राणियों की प्रकृति--दु:खों से पीड़ित प्राणियों की प्रकृति ऐसी है कि वे किसी की शरण में जाया करें जैसे व्यवहार में जब किसी विषयजन्य पीड़ा होती है तो उसका ऐसा यत्न होता है कि वह विषयसाधनों की शरण में जाय। जब रसीले भोजन की आकांक्षा होती है तो उस पीड़ा को बरदाश्त न करके यह मनुष्य रसीले स्वाद वाले भोजन के स्थान पर, दूकान पर अपनी शरण लेता है और वहां कुछ विश्राम सा अनुभव करता है या घर पर ही उन चीजों को बनवाकर चखकर अपने को विश्राम में अनुभव करता है। इसी प्रकार सभी विषयों की बात है। स्पर्शन इंद्रिय के वश होकर यह पुरूष अपने उस विषयसाधन की शरण लेता है, इसी तरह घ्राण के विषय से पीड़ित होकर गंध की शरण में बाग में पहुँचता है, इतर वगैरह के साधन जुटाता है। चक्षु इंद्रिय की जब विषय पीड़ा हुई तो रूप अवलोकन के लिए दौड़ता फिरता है। सिनेमाघरों में जहां इष्ट रूप मिले वहाँ जाय रूपावलोकन के लिए दौड़ता है और विषयसाधन मिलने पर विश्राम सा अनुभव करता है। यों विषयसाधन की शरण लेता है। कर्ण इंद्रिय का विषय हुआ तो राग रागिनी के साधनों की शरण लेता है, उनके गाने वालों की संगति में जाता है। जब मन का विषय प्रबल होता है तो जहां मनोरथ सिद्द हो उन-उन यत्नों को गहता है और उनकी शरण लेता है।
(2) विषयसाधनों की शरण से अशांति की वृद्धि--यह जीव की प्रकृति है कि जब दु:ख आये तो दु:ख निवृत्ति के लिए वह किसी की शरण गहता है किंतु यह पता नहीं कि हम पर वास्तव में दु:ख क्या लदा हुआ है ? जो लोकव्यवहार में दु:ख बताये गए है वे तो दु:ख हैं इसका तो सबको अनुभव है उन दु:खों को मेटने के लिए किसकी शरण गहना चाहिये यह निर्णय ठीक नहीं किया। उनके अतिरिक्त और भी दु:ख हैं और समस्त दु:खों में सरताज दु:ख है अज्ञानपरिणाम, जिसका विस्तार है मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र जिनमें सब प्रकार के दु:ख गर्भित हो गए। यह जीव अनादिकाल से अज्ञानभाव से पीड़ित है। इसको अब तक चैन नहीं मिली। किसी विषय का दु:ख हो उसको मेटने के लिए विषयसेवन का इलाज समझा पर तृप्ति तो वहां होती ही नहीं। जैसे समुद्र की तृप्ति नदियों के जल से नहीं होती। क्या समुद्र कभी मना करेगा कि मैं अब पूरा भर गया, हे नदियों ! तुम अब मुझमें मत गिरो अथवा जैसे अग्नि की तृप्ति ईंधन से नहीं होती क्या अग्नि मना करेगी कि ऐ ईंधन तुम अब मुझ में मत आवो मैं तृप्त हो गया। अरे अग्नि को तो जितना ही ईंधन मिलता जायगा उतनी ही अग्नि बढ़ेगी। सारा का सारा ईंधन आ जाय फिर भी अग्नि का पेट नहीं भरता । इसी तरह इन अज्ञानी प्राणियों को विषयसाधनों में कहां तृप्ति हो सकेगी ? कभी न हो सकेगी। तो मिथ्यात्व एक महान विपदा जीवों पर मंडराई हुई है और उसी से जितना ज्ञान बन रहा है वह मिथ्याज्ञान बन रहा है। कभी ऊँचा भी ज्ञान हो तो उस ज्ञान का उपयोग विषयप्रवृत्ति के लिए होगा। कुछ साहित्यिक, शारीरिक अथवा बोलने आदि की क्रियायें सीख ली गईं तो उनका उपयोग इस ढंग से करेंगे जिससे इन छहों विषयों की पूर्ति हो।
(3) मिथ्यात्व के योग में ज्ञान की भी विडंबना--मिथ्यात्व के साथ यह अच्छा ज्ञान भी मिथ्याज्ञान बन गया। भगवान ऋषभदेव के पूर्व जन्मों से संबंधित किसी जीव की एक कथा है कि एक अरविंद नाम का राजा था। उसे ज्वर बहुत तेज हो गया। एक बार वह ज्वर में पड़ा हुआ था कि ऊपर दो छिपकलियाँ लड़ गई और एक छिपकली की पूछ टूट गई। तो खून के दो-चार छींटे उस राजा के शरीर पर गिर गए। राजा को उससे बड़ी चैन मिली। तो राजा ने अपने दोनों बालकों को आज्ञा दी , कि ऐ बालकों! मेरे लिए एक खून की बावड़ी भर दो मैं उसमें स्नान करके आराम पाऊगाँ। वे दोनों बालक बहुत घबड़ा गए। वे दोनों धार्मिक प्रकृति के थे। लेकिन पिता की आज्ञा थी अब उसको कैसे टाला जाय । पर उन बालकों ने पूछा कि पिताजी इतना खून कहां से लाया जाय ? अरविंद ने कहा कि अमुक जंगल में जावो वहां बहुत से हिरण हैं उनको मारकर उनका खून लावो और बावड़ी भरो । वे बालक उस जंगल में गए। जंगल में चलते-चलते एक जगह मुनिराज मिले। मुनिराज के दर्शन, पूजन, वंदन आदि करके वे बालक उदास होकर बैठ गए तो मुनिराज ने स्वयं ही कहा कि ऐ बालकों ! तुम उदास क्यों होते हो ? तुम्हारे बाप का भवितव्य खोटा है उसे तो नरक जाना है। उसकी आज्ञा पाकर तुम प्राणियों का वध क्यों करने आये हो ? मुनिराज की बातों का उन बालकों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। सोचा ओह ! यह तो बिना मेरे कहे ही सारी बात जान गए । वे बालक बोले-महाराज इस समय हम बड़े दु:खी है लेकिन पिता की आज्ञा है उसे हम कैसे टालें ? तो मुनिराज बोले-देखो पिता की आज्ञा वही मानी जाने योग्य है जो न्याय नीति से संबंध रखती हो। तुम्हारे पिता का तो भाग्य ही खोटा है। तो महाराज ! उन्होंने कैसे बता दिया कि अमुक जंगल में पशु मिलेंगें सो उनको मारकर लावो ? हमारा पिता तो ज्ञानी है। मुनिराज बोले -हाँ ज्ञान है मगर उसको कुअवधिज्ञान है। बालकों ने कहा-हम कैसे समझे कि हमारे पिता को कुअवधिज्ञान है? अच्छा जावो लौटकर और अपने पिता से पूछो कि उस जंगल में और क्या-क्या है ?जो उत्तर कह दें उसे सुनकर हमारे पास आना। वे बालक गए और पिताजी !जिस जंगल में आपने हमें भेजा था वँहा और क्या-क्या है ? तो बाघ, चीता, शेर, हिरण, खरगोश आदिक पशुवों के नाम बता दिये।
और कोई भी है क्या वहाँ ? हां वनगायें भी मिलेगी। यों और-और पशुओं के नाम लेते गए। पिता का उत्तर सुनकर वे दोनों बालक उसी जंगल में मुनिराज के पास आये और पिता द्वारा दिये गए उत्तर को सुनाया तो मुनिराज बोले-देखो उसने पशुवों के नाम तो गिना दिये पर यह नहीं बता सका कि वहाँ पर अनेक मुनिराज भी तपश्चरण कर रहे है। तो उसका खोटा ज्ञान है। उसकी खोटी श्रद्धा है। अब उन बालकों ने पशुवों को तो न मारा किंतु लाख के रंग से बावड़ी भर दी। (लाख का रंग भी खून जैसा मालूम होता है) । जब पिता ने उस बावड़ी में स्नान किया तो उसके स्वाद से ही पहिचान लिया कि यह खून नहीं बल्कि लाख का रंग हैं मुझे धोखा दिया गया है। तो राजा को क्रोध उमड़ आया और उन बालकों को मारने के लिए नंगी कटारी लेकर दौड़ा। वे बालक भगे। कुछ दूर जाकर राजा को ठोकर लगी। गिर गया और उसकी ही कटारी उसके पेट में समा गयी। वहीं उसका मरण हो गया। मरकर नरक गया । तो जब मिथ्या श्रद्धा होती है तो जितने भी ज्ञान होते है वे सब मिथ्या ज्ञान के रूप में परिणत हो जाते है।
(4) मानवों द्वारा बुद्धि का दुरुपयोग--मनुष्यों में आज-कल क्या कम ज्ञान है, मगर धर्म करने के लिए ये मनुष्य इस तरह से कंधा डाले हुए है जिस तरह गाड़ी में जुते हुए बैल कंधा डाल देते हैं। जिस बुद्धि में इतनी ताकत है कि वर्षों के बड़े ऊँचे-ऊँचे हिसाब लगा लें। देखो भारतीय रेलवे के कितने हिस्से है-- उत्तर रेलवे, पूर्व रेलवे, पूर्वपश्चिम रेलवे, दक्षिण पश्चिम रेलवे ,पूर्वोत्तर रेलवे आदि। इनका कहीं भी किसी जगह का टिकट ले लो इसकी सारी व्यवस्थायें है कौन-कौन से डिब्बे कहा जायेंगे इसकी सारी व्यवस्थायें है। इन सबका बिल्कुल ठीक हिसाब-किताब ये मनुष्य रखे हुए हैं जैसे इस टिकट से इन-इन प्रांतों की रेल में सफर किया दाम सब बट जावेंगें। यों सर्व प्रकार की व्यवस्थायें करने अनेक प्रकार के आविष्कार आदि करने की बुद्धि जिस मनुष्य में है क्या वह मनुष्य अपने आत्मस्वरूप को जानना चाहे तो जान नहीं सकता ? अवश्य जान सकता है। लेकिन इन मनुष्यों को जब मिथ्याज्ञान हो रहा है, परपदार्थो की ओर आकर्षण हो रहा है तब फिर आत्मस्वरूप की बात इन्हें कैसे सुहा सकती है ? उसकी जानकारी करने की उनके पास फुरसत ही नहीं है। लेकिन उन्हें यह जानकारी अवश्य रखनी चाहिए कि जिन चीजों में ये प्राणी लग रहे हैं, जिनमें अपनी चतुराई समझ रहे है, बड़ा मौज मान रहे हैं वे सब धोखा हैं विपत्ति के जाल हैं। वे कोई अपने शरण नहीं हैं। अपना शरण तो अपना ही आत्मस्वरूप है। अपना ही भगवत्स्वरूप हैं। तो यह प्राणी मिथ्या श्रद्धान करके जन्म-जंमांतरों के देहों का धारण कर-करके दु:खी हुआ। प्रभु की तरह शुद्ध सहज निरन्जन ज्ञानांदस्वरूपी होकर भी यह जीव नरक निगोद, पशु-पक्षी, कीट-पतिंगा आदिक खोटी योनियों में देह धारण करता है और दुरूह क्लेश भोगता है।
(5)क्लेशपूर्ण जगत में श्रावकों का कर्त्तव्य--संसार के भयावह दु:खों से पीडि़त पुरूष किस जगह जायें कि उनको कुछ शरण मिले विश्राम मिले ? जरा लोक में ऐसी जगह खोजिये तो सही। अधिक वैभव बढ़ा लिया गया तो क्या आत्मा को शरण मिल जायगा ? वैभव वालों की दशा भी देख लो। वैभव भी मिला, जीवनभर वैभव के लिए दु:खी भी हुए अंत में फल क्या मिलता है ? सम्यग्ज्ञान नहीं है तो जिंदगी भर दु:खी रहना पड़ेगा और मरण के समय भी बड़ा कष्ट मिलेगा। तो ऐसे क्लेश और संक्लेश भोगने का परिणाम क्या है ? दुर्गतियों में देह धारण करना । संसार में सर्वत्र दु:ख ही दु:ख छाये है सुख का कहीं रंच नाम नहीं है। विषयों में यह जीव सुख समझता है लेकिन विषयों में सुख है कहाँ ? बल्कि आत्मा की बरबादी है। आत्मा के स्वभाव की दृष्टि नहीं सो बाह्य पदार्थो को ही सर्वस्व मानकर उनके ही आकर्षण में व्यग्र रहकर यह जीव अपनी ही बरबादी करता है। इन परिग्रहों को जिन्हें लोग लक्ष्मी कहकर पुकारते हैं यह तो इस जीव के लिए विपदा है। हिम्मत तो ऐसी करना चाहिए कि अगर हम गृहस्थ में हैं तो हमारा कर्तव्य है कि नियत समय पर धनार्जन का भी ध्यान रखें सो वहाँ परिजनों के पुण्योदय के माफिक धन आयगा। जिनको धन भोगना है उनका उदय भी उसमें काम कर रहा है तो जो धन आये आने दो उसमें हम और ज्यादा कर ही क्या सकते है ? अब जो भी आया हो उसमें अपना विभाग बना लें कि हमें तो इतने में ही गुजारा करना है अधिक धन आये तो अधिक गुज़ारे की बात न सोचे । मध्यम वर्ग के लोगों जैसा गुज़ारे का बजट रखें। धन अगर छप्पर फाड़़कर मनमाना अधिक आता है तो आने दो उसका सदुपयोग यह नहीं है कि अपने विषयों के आराम मौज, शोक, श्रृंगार आदिक में लगाये। उस धन से अपना रहन-सहन तो मध्यम वर्ग के लोगों की तरह रखें और शेष धन का व्यय दीन-दुखियों के उपकार में व धार्मिक कार्या में लगायें। जब सरकार की ओर से आजीविका का समय भी नियत है तो उतने समय तक प्रयत्न करके धनार्जन के काम को शेष समय में तथा उस धनार्जन के समय भी आत्महित करने की बात ध्यान में रखें । हर स्थितियों में यह तो ध्यान रखना ही चाहिए कि हम जिन कामों में फँसे हुए हैं वे काम हमारे लिए कारणभूत नहीं है। मैं आत्मा तो एक सत् पदार्थ हूँ केवल इतना ही मात्र नहीं हूँ कि जितना इस नर देह में हूँ। इससे पहिले भी था इसके बाद भी रहूंगा।
(6) इस जीवन में भी अंतस्तत्व की बात में शांति की प्रतीति--कोई पुरूष यदि इस बात पर विश्वास न करे कि मैं इससे पहिले भी था और बाद में भी रहूंगा उन पुरूषोंसे यह कहता है कि उन्हें इतना विश्वास तो है ही कि जब तक यह जीवन है तब तक तो मैं कुछ हूँ। तो जाने दो आगे पीछे की बात इस ही 40-60 वर्ष के जीवन में ऐसा कौनसा करने का काम है जिससे शांति व सुख की प्राप्ति हो सकती है ? खूब खोज करके देख लो। व्यग्र हो रहे है सभी लोग। बाह्य को सुख का साधन माना है पर बाह्य पर अपना अधिकार है नहीं। चाहते है हम बाह्य पदार्थो को अपनी इच्छा के अनुसार रखना पर उन परपदार्थो का परिणमन हमारी इच्छा के अनुसार होता नहीं तो दु:खी होना तो स्वाभाविक ही है। हम चाहते है कि इतने धन की प्राप्ति हो जाय और उतने धन की प्राप्ति होती है नहीं तो हम दु:खी होते है इसके अलावा भी कितनी कितनी प्रकार के झगड़ा झंझट लगे हैं। कही पुत्र प्रतिकूल हो गया, कहीं भाई प्रतिकूल हो गया, कहीं पड़ोसी प्रतिकूल हो गए, कहीं कई-कई पार्टियाँ बन रही हैं एक दूसरे की जान लेने पर तुले हुए हैं। यों कितने ही प्रकार के झंझट हैं। तो इस ही जीवन की शांति की बात तो सोच लो। और कोई यह कल्पना करे कि आत्मा और आत्मा के स्वरूप की बात यह तो सब झूठ है तो झूठ ही सही पर थोड़ा इस ओर बात तो करो । कुछ चर्चा तो करो कुछ इस पर दृष्टि तो दो। आधी-आधी कुछ बात सही भी लगेगी और उसकी चर्चा में उसकी ओर उपयोग लगाने में संदिग्ध पुरूष भी यह अनुभव करने लगेगा कि ओह ! शांति जितनी इस ओर मिलती है उतनी अन्यत्र नहीं। इसकी चर्चा से भी प्राप्त होती है शांति । बाह्य पदार्थो के आकर्षण में तो शांति का लेशमात्र भी लाभ नहीं।
(7) शरण का अन्वेषण--खूब खोज डालो लोक में ढूंढ-ढूंढ करके - मुझ दु:खिया के लिए शरणभूत कौन है जिसकी शरण गहें और शांति पायें? शरण गहने का नमूना क्या है ? यह बात तो छोटे-छोटे बच्चों से सीख लो। कोई दो-तीन वर्ष का बच्चा जब कोई अपने पर उपद्रव आता हुआ देखता है-जैसे कोई उसे जबरदस्ती पकड़ना चाहे मारना चाहे परेशान करे आदि तो वह बच्चा झट अपनी माता या पिताजी की गोद में पहुंचकर अपने में निर्भयता का अनुभव करता है ओर इस गोद में पहुंचने में ही वह अपना सारा शरण समझता है। तो इसी तरह से ये संसार के प्राणी अनेक दु:खों से पीड़ित है ये किसका शरण गहे किसे अपना सर्वस्व समर्पण करें कि जिससे इनकी सारी व्यथायें दूर हों ? उस सार शरण तत्त्व की चर्चा आगे की जावेगी।
(8)संसार की भयावहता--संसार इतना भयावह है, इतना दु:खमय है कि हज़ारों जिह्वा वाला मुख भी उन दु:खों का वर्णन नहीं कर सकता। लेकिन वे सारे दु:ख है कहां ? वे दु:ख हैं सबकी अपनी-अपनी भीतर की कल्पना में। दु:ख की सारी समस्यायें यहाँ हल होती हैं। किसी भी प्राणी को क्या है दु:ख ? विशेष करके मनुष्यों की बात कही जा रही है। वह दु:ख है अज्ञान, मोह ,यही अज्ञानता सर्व दु:खों का कारण है। कभी वैभव में कुछ टोटा आ गया, कुछ कमी आ गयी।पुण्य से बढ़कर वैभव तो पास में न रहेगा, वह तो किसी न किसी बहाने खतम होगा ही। तो उस समय यह मोही प्राणी क्लेश मानता है - हाय! यह गया, यह मिटा। अरे क्लेश क्या मानते हो? तुम्हारा था ही क्या ? तुम तो केवल अपने आत्मा के ज्ञेय मात्र हो। जितने में तुम हो, जितना पिंड है, प्रदेश है, रह रहे हो, बस तुम तो उतने ही हो, तुम्हारा घर इतना ही है और उस घर में जो बात पड़ी हो वही तुम्हारी है, बाहर में तुम्हारा है क्या ? पर अज्ञान लगा हुआ है, उस धन को अपना रखा है तो उसका कुछ भी वियोग हो, कुछ भी टोटा हो तो उसमें दु:खी होता है। तो समझिये कि हम सब संसारी प्राणी दु:खी तो हो रहे हैं, मगर बिना बात के दु:खी हो रहे हैं। कुछ बात भी हो सो नहीं, और दु:ख इतना बढ़ा रखा है कि बड़ा भारी बोझ और बहुत बड़ी विडंबना रूप बन गया है। और बात कितनी है ? मायारूप बात। कुछ पिंडरूप हो, तत्वरूप हो, साररूप हो, तब तो बताया जाय कि इस बात पर हम दु:खी हो रहे। केवल एक कल्पना पर दु:खी हो रहे, यों कह लीजिये। भीतर आज ही ज्ञानप्रकाश जगे और यह साफ-साफ ज्ञात हो जाय बात कि मेरा मात्र मैं ही हूँ, मेरा मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है, ऐसी दृढ़ श्रद्धा हो जाय, यह सारी बात चित्त में आ जाय तो इसका सारा बोझ अभी हट जायगा। क्लेश रंच भी नहीं है।
(9) बाह्य समागम की चिंता न करके आत्महित करने के यत्न की आवश्यकता–भैया ! बाह्य परिग्रहों की इतनी चिंता क्यों ? कोई जीव किसी करोड़पति के घर जन्म लेता है, जन्म लेते ही उसने क्या हाथ-पैर पीटा जो वह बच्चा भी करोड़पति कहलाने लगा ? उसने कौनसी कला की, बताओ ? तो कमाई का श्रम करने से धन जुड़ता है यह बिल्कुल भ्रम की बात हैं। धन का तो पुण्योदय से अविनाभाव है लोगों के श्रम से नहीं। लेकिन ज्ञानी पुरूष इस पर भी दृष्टि नहीं देता कि पुण्योदय पर निर्भर है संपदा, पुण्य करना चाहिये। ओ वह तो पुण्य को भी, संपदा को भी धूलवत् समझता है। तो आत्मा का पूरा कहां पड़ेगा किसी संपदा से ? ऐसा दुर्लभ नरजीवन पाकर अगर आत्म कल्याण की बात न जगायी तो बताओ, फिर कब अवसर मिलेगा कि हम आत्मकल्याण की बात में लगने का उपाय बना सकेंगे। मरकर अगर कीड़ा मकोड़ा हो गए, फिर क्या कर लोगे ? कोई हित का साधन बना लोगे क्या ? यहां के ये स्त्री ,पुत्र, मित्रादिक कुछ भी मददगार न होंगे। ये सब खुद स्वार्थी है। सारा संसार धोखे से ही भरा हुआ है। यहां किसी की शरण न पावोगे, सब जगह से ठोकरें ही लगेगीं।
(10) स्वयं की भावना से स्वयं की उलझ-सुलझ--भैया ! दूसरा कोई ठोकर नहीं मारता, आघात नहीं करता, लेकिन वहाँ कल्पना से ही शरण गहते, कल्पना से ही ठोकर लगती ओर कल्पना से ही दु:खी होते हैं। जैसे हवा के निमित्त से ध्वजा स्वयं ही उलझती है ओर स्वयं ही सुलझती है, ऐसे ही ये संसारी प्राणी बाह्य पदार्थो का आश्रय लेकर स्वयं ही उनके प्रति अपनी कल्पनायें बनाते है और स्वयं ही दु:खी होते हैं। कहाँ बाहर में शरण मान रहे हो ? क्यों ऐसी टेक बनायी है कि धनसंचय के लिए, परिवार को सुखी करने के लिए, रिशतेदारों को सुखी रखने के लिए , परिजनों में अपने को, अच्छा कहलवाने के लिए तो 24 घंटे लगाये जाते है और अपने हित के लिए , कल्याणमार्ग में लगने के लिए कितना ? जिससे कि संसार के संकट सदा के लिए समाप्त हो जाये, जैसा कि परमात्मा ने किया था। वे भी संसारी थे, वे भी मनुष्य थे, उन्होने सम्यक्त्व प्राप्त किया, आत्महित में लगे, समस्त परद्रव्यों से उपेक्षा की, अपने को आकिंचन अनुभव किया, केवल ज्ञानानंदमात्र, उससे ही लबालब भरा हुआ उन्होंने अपने आप को देखा और ऐसा देखने में ही तृप्त रहे, इसके प्रसाद से उन्हें परमात्मापद मिला है जिनकी भक्ति करने हम आप अपने हज़ारों रूपये खर्च करके अपने को धन्य समझते हैं, अपने परिजनों को उस धर्ममार्ग में लगाकर आप अपने को बड़ा कृतार्थ समझते हैं। वे परमात्मा, प्रभु किस उपाय से हुए उस उपाय में लगने की बात सोचियेगा। भैया ! ढूंढा शरण लोक में, कोई शरण न मिला । जिसको देखे वही दु:खी। जिन परिजनों की शरण गहते है वे परिजन स्वयं अशरण हैं, वे स्वयं हमारा आश्रय तक रहे हैं, उनकी हम क्या शरण गहें। पड़ोसियों के पास गए तो वे स्वयं स्वार्थ से भरे हुए हैं, वे अपने संकट मिटाने की बात देखेंगे कि हमारी ? तो किसकी शरण में जायें जिससे शांति प्राप्त हो सके।
(11) सत्य शरण का अन्वेषण--यहाँ लोक में तो कोई शरण न मिला, तब फिर अब चले कुछ अलौकिक पुरूषों की ओर। जो संसार के समस्त दु:खों से सदा के लिए छूट गए है। जिन दु:खों से भरे हुए ये प्राणी हैं, जिन दु:खों से भरा हुआ मैं हूँ, उन दु:खों से जो छूट गए हों, उन के निकट पहुंचेंगे, उनकी शरण गहेंगे, उनकी सुध भी लेंगे, उनके ध्यान में भी आयेंगे तो अपने आप में अपने आपकी शरण पा लेंगे। तो लोक में बाहर में शरण गहने की बात तो बहुत की, लेकिन अब सच्चे शरण की बात बना लीजिए इस नरजीवन में। यह मानवजीवन यों ही बार-बार नहीं मिल जाता, बड़ी कठिनाई से मिलता है। जैसे गाड़ी में जो जुवा बैलों पर रखा जाता है उसमें चार या दो छेद होते हैं, जिनमें लकड़ी फंसा दी जाती है जिससे कि बैल बाहर न जा सकें।उस जुवें को गाड़ी से अलग करके जुवें से लकड़ी निकाल ली जाय और किसी बड़ी नदी के एक कोने पर जुवा छोड़ा जाय व किसी दूसरे कोने पर वह लड़की छोड़ी जाय, कदाचित् वे दोनों बहते-बहते कभी एक जगह आ जावें और उसी छिद्र में वही लकड़ी आ जाय तो यह अति दुर्लभ बात है, ठीक इसी तरह इस मानव जीवन का पाना भी अति दुर्लभ है। यह मानव जीवन कोई आसानी से नहीं मिल जाता। इस दुर्लभ मानव जीवन को व्यर्थ के कार्यो में न खोइये, विषयों से दूर रहिये परिग्रह के कीचड़ में मत फंसिये। ये सब इस जीव को भव भव में भटकाने वाली, रूलाने वाली चीजें हैं। तो यहाँ अन्य किसी को अपना शरण न समझें। बाह्य में हम आपको कोई शरण न मिलेगा। शरण मिलेगा तो वहीं, जो इन झंझटों से छूट गए हैं और इन झंझटों से छूटने का जो मार्ग बता रहे हैं। अब उनकी ही शरण में चलने को हम आप अपना ध्यान बनायें।
(12) भक्ति की पद्धति--हम आप संसारी प्राणियों को इस लोक में यदि कुछ शरण है तो परमात्मा की भक्ति शरण है। कभी सही ज्ञान भी हो जाय और व्रत तप संयम में भी प्रवृत्ति अच्छी रहे, इतने पर भी जब तक परमात्मा में तीव्र भक्ति नहीं जगती है तब तक मोक्ष में किवाड़ जो बंद हैं उसकी अर्गला नहीं हटती। प्रभु भक्ति का इस जीवन में शुद्ध प्रभाव बढ़ाने के लिए बड़ा महत्व है। जितनी आसक्ति और तीव्रता से परिजनों की भक्ति की है अब तक, उस वेग से प्रभुभक्ति यदि करते तो विश्व संकट कभी का समाप्त हो जाता। भक्ति का अर्थ है जिनकी भक्ति की जा रही है उन्हें अपना शरण समझना और उनसे ही अपना हित समझना, और उनके लिए ही अपना तन, मन, धन, वचन सर्वस्व अर्पित करना। इस ही का नाम तो भक्ति है। केवल सिर नवा देना और हाथ जोड़ लेना, थोड़ी स्तुति पढ़ लेना यह भक्ति नहीं है। भक्ति तो असल में प्राय: लोग अपने परिवार की करते हैं। भगवान की भक्ति तो झूठ-मूठ की जा रही है। भक्ति में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया जाता है। सब कुछ मेरे यहीं हैं, इनके बिना मैं सूना हूँ, इस प्रकार का भाव भक्ति में भरा हुआ है और उनकी सेवा-सुश्रूषा करके अपने को बड़ा भाग्यशाली समझते हैं। भक्ति के इतने चिन्ह हैं। अब आप बतलावो कितने मनुष्य इन चिन्हों से सहित प्रभु की भक्ति करते हैं और कितने मनुष्य इन चिन्हों से सहित अपने स्त्री पुत्रादि परिजनों की सेवा करते हैं। भक्ति तो भक्ति ही कहलाती है। तो जैसी लगन के साथ लोग कुटुंब की भक्ति कर रहे हैं वैसी लगन के साथ, धुन के साथ अपना सर्वस्व मानकर, अपना शरण मानकर प्रभु की शक्ति की भक्ति करें तो समझिये कि भक्ति वह है।
(13) भक्तिपरीक्षा--देखो भैया! झूंठी और सांची भक्ति की परीक्षा भी तो कई जगह हो ही जाती है। जो लौकिक थियेटर होते है जैसे एक पहिले लैला मजनू का ही थियेटर चलता था। तो लैला की प्राप्ति के लिए अनेक लोग मजनू बन गए थे। औरमजनू को यह छुट्टी दे दी थी राजा ने कि जिस चाहे दूकान पर खाये, और उसका जो बिल हो वह राजकोष से लिया जाये। तब तो अनेक लोग मजनू बन गए। तो परीक्षा हुई। किस तरह कि मानो एक बड़े खंभे पर ऊँचे लैला को बैठा दिया नीचे थोड़ी थोड़ी जगह में आग लगा दी, और सभी मजनूवों को बुलाया परीक्षा करने के लिए, उनमें से जितने सारे बनावटी मजनू थे वे हिचक गए, और जो असली मजनू था वह आग को पार करके लैला के पास पहुंच गया। यह दृष्टांत लगन का वेग बताने के लिये कहा है। इनमें हमें और कुछ ग्रहण नहीं करना। यहाँ भक्ति के संबंध में कह रहे हैं। लोग भक्ति शब्द को बड़े पवित्र रुप में लेते है इसलिए यह दृष्टांत इस जगह कुछ अनिष्ट सा जँचता है लेकिन इस दृष्टांत से यह शिक्षा लें कि भक्ति का मूल अर्थ है सेवना। भक्ति का जो मूल अर्थ है उस पर दृष्टि दें तो यह विदित होगा कि हम लोग वैभव की, परिजन की, स्त्री-पुत्रादिक की भक्ति आंतरिक ढंग से कर रहे हैं।
(14)मोहियों की भक्ति में होड़--देखो कि बड़े-बड़े ज्ञानी योगी पुरूष बड़े-बड़े आरंभ परिग्रहों को छोड़कर जंगल में जाकर प्रभु की भक्ति करते हैं। इसी तरह ये मोही पुरूष आत्मोन्नति का लाभ तजकर, सुगतियों का लाभ तजकर बड़े ऊँचे पवित्र लाभों पर भी लात मारकर स्त्री पुत्रादिक की सेवा करते हैं। यदि उन बड़े-बड़े चक्रवर्तियों का यह बड़ा बलिदान था कि छह खंड का वैभव छोड़कर, बहुत बड़े राज-पाट को भी तिलान्जलि देकर जंगल में पहुंचकर निर्ग्रंथ भेष में प्रभु की सेवा में आसक्त हो गए तो यहां ये मोहीजन भविष्य में सुरसुंदरियों सदृश सुंदरियाँ प्राप्त होगी, उनका भी लगाव छोड़कर और आगे बहुत ऊँचे पद मिलेंगे, देव हो, इंद्र हो, राजा हों, महाराज हों, चक्री हों, तीर्थंकर भी हो सकेगा ऐसे सारे उच्च पदों पर लात मारकर ये मोहीजन स्त्री-पुत्रादिक परिजनों में आसक्त हो रहे है। देख लो-इन मोहियों का बलिदान। उन विवेकियों ने साधुओ ने तो असार चीजों का त्याग किया, पर इन मोहियों ने तो इतना बड़ा बलिदान किया कि सार, शरण, धर्म, तप, व्रत, सम्यक्त्व आदिक सबका त्याग किया, एक स्त्री-पुत्रादिक परिजनों की भक्ति के लिये (हँसी) । तो अब देखिये-भक्ति की दौड़ किसकी किस तरफ हो रही है।
(15) भक्तिपात्रता--अब इसमें यह खोज आप सबने कर ही ली होगी कि कौनसी वास्तविक भक्ति इस आत्मा को शरणभूत है ? जो संसार के समस्त दु:खों से छूट गए और जो इन समस्त दु:खों से छुटकारा पाने का उपाय उपदेश दे रहे हैं, ऐसे परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करना, प्रभु की भक्ति करना, यही है शरण। ज्ञानी पुरूषों ने सब कुछ परखकर, कुछ विवेक जगाकर वास्तविक तथ्य समझ लिया कि मेरे आत्मा से बाहर के जितने भी विषय हैं इंद्रिय के और मन के उन विषयों में लगाव रखना अपने जीवन के क्षणों को बरबाद करना है । इस दुर्लभ जीवन के क्षणों का सदुपयोग यही है कि रूप, रस, गंध, स्पर्शसे, शब्दसे, लोकेषणा से, इन 6 विषयों से उपयोग मोड़कर आत्मस्वरूप, परमात्मस्वरूप शुद्ध अंतस्तत्व के निकट रहकर तृप्त रहना यह बात जितने क्षण बनती है समझ लीजिए कि मनुष्य जीवन के उतने क्षण सफल हैं और इस को छोड़कर बाकी जो गप्पों में समय जाता है, परिजनों की सेवा में समय जाता है, अन्य बाह्य बातों में समय जाता है वह समय व्यर्थ है। लेकिन जिस गृहस्थ को धुन है अपने अंतस्तत्व की, उसको इन असार व्यवहारों के बीच फंसने पर भी, पड़कर भी वह दृष्टि रहती है, प्रतीति रहती है जिसके कारण वह गुप्त ही गुप्त, अंदर हो अंदर अपना काम बनाये रहता है।
(16) प्राप्त सुअवसर खोने का खेद--भैया ! एक धुन की बात है। एक बार सही जँच जाने की बात है। इस बात को यदि कोई नहीं जँचाता, अपने आपके स्वरूप की दृष्टि के लिए यदि अपना जीवन नहीं लगाता तो पहिली खेद की बात तो यह है कि मनुष्य होकर भी उसने अवसर खोया। और उससे अधिक खेद की बात यह है कि योग्य बुद्धि पाकर, ज्ञान योग्यता पाकर अपनी भलाई का अवसर खोया, और सबसे अधिक दु:ख की बात यह है कि ऐसा मोक्षप्रद पवित्र जैनशासन का समागम पाकर उसने उस अवसर को व्यर्थ खोया। बहुत दिल लगाया, बहुत आकर्षण किया वैभव और परिजनों में और इसी कारण बहुत क्लेश भी सहे। अब तो सही ज्ञान करके मूलत: उनसे प्रतीति हटाकर एक परमात्मस्वरूप की प्रतीति करना है।
(17) भक्ति में लगने की रूपरेखा--जब उपयोग भक्ति समाती है, प्रभु अरहंत सकलपरमात्मा, जो इस पृथ्वी से 5 हजार धनुष पर विराजमान हैं, जिनकी वीतरागता, सर्वज्ञता, प्रभुता से प्रभावित होकर असंख्य देव अपने स्थान को तजकर प्रभु की सेवा के लिए आ रहे हैं। और उस समय जिस देव के पास जितना बड़ा वैभव है, जितना बड़ा श्रृंगार है, जितनी उच्च कलायें है, वे देव उस ठाट-बाठ सबसे युक्त होकर अपनी संगीतकला, नृत्यकला, रूप का गायब करना, प्रकट करना आदिक जितनी कलायें हैं उन सब कलावों सहित बड़ी उमंग से प्रभु के दर्शन करने के लिए आ रहे हैं। प्रभु की भक्ति में जो-जो कुछ भी अदभुत कार्य, अदभुत ठाठ किये जा सकते हैं वे सब कुछ देव कर रहे हैं। इतने बड़े मनोहारी चमत्कारी समवशरण की रचना है कि जिसके मानस्तंभ को निरखकर बड़े-बड़े अभिमानियों का मान चूर हो जाय, और आगे भी रचनाओं को करते-करते द्वादश सभाओं की रचना, उसके भीतर गंधकुटी की रचना जिस पर सिंहासन, स्वर्णकमल, जिस पर प्रभु का विराजमान होते, आदि सारी रचनायें वे देव इंद्र कुबेर सब अपना पूरा बल लगाकर रच रहे हैं। उनकी भक्ति देखिये कितनी अटूट है। ये मनुष्य लोग उन इंद्रों की यहाँ नकल करते हैं। इंद्रों की तरह मुकुट लगाकर, तिलक लगाकर, हाथों में कंगन पहिनकर, कमर में करधनी लटकाकर यहाँ मूर्ति का अभिषेक करने की बात करते हैं। वह क्या है ? वह है इंद्रों की नकल। तो इंद्र तो देवगति के जीव है, संयमरहित हैं, वे अधिक से अधिक भगवान की भक्ति के लिए क्या कर सकते हैं ? मनुष्यों की तरह संयम धरण कर लें और उस पद्धति से वैराग्य को बढ़ा लें, यह शक्ति इंद्रों में नहीं है। तो जो उनमें बल था, जो कला थी, जो साज-श्रृंगार था, उस सबका उपयोग उन देवों ने किया। मनुष्य यदि भक्ति में बढ़ता है और वह देव इंद्रों की भक्ति तक रहता है तो यह तो मनुष्य की त्रुटि है। उसे तो अपने में जो योग्यता मिली, जो कला मिली उसका पूरा उपयोग करना था, अपना चित्त ज्ञान वैराग्य से वासित बनाना और बढ़ाना यह काम था।
(18) वीतरागता के नाते का आकर्षण--खैर अब आगे देखिये-प्रभु अरहंत विराजे हैं समवशरण में, चारों ओर से देव देवियाँ नृत्य करती हुई आ रही है। संगीत की कलायें जो देवों के पास है वे मनुष्यों के पास नहीं है। नृत्य की कलायें जो देवों के पास है वे मनुष्यों के पास नहीं है। यहाँ के मनुष्यों की ऊंची कलावों को निरखकर लोग दंग रह जाते हैं, लेकिन इनसे हज़ारों लाखों गुनी ऊंची कलायें देवों में हैं। वे अपने आपको भूलकर एक प्रभु की भक्ति में ही अनुरंजित होकर कैसा समवशरण में भक्ति प्रदर्शित करते हैं। भला बतलावो तो सही, वे देव भगवान के कुछ रिश्तेदार लगते हैं क्या ? क्यों वे देव अपना सर्वस्व अर्पित कर प्रभु के चरणद्वय के निकट मंडरा रहे हैं। वह सब प्रताप है वीतरागता का। वीतरागता का नाता इन जीवों के आकर्षण के लिए एक सच्चा नाता है। इतना पवित्र आकर्षण राग के नाते में नहीं हो सकता। इतना सामूहिक आकर्षण यहाँ के माने हुए रिश्तेदारों में नहीं हो सकता।
तब सुविदित होता है कि ऐसे वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा की भक्ति ही हम आपका शरण है। अपने दिल को थामकर विषयों से निवार-निवार कर प्रभु की भक्ति में अधिकाधिक अपने दिल को लगाइये। वही एकमात्र शरण है। तो ऐसे प्रभु की शरण में जो प्राणी जाते है वे अपने कर्ममल, पापमल को धो डालते हैं, अपने को पवित्र कर लेते हैं। यह भक्ति का नाता बडा़ पवित्र नाता है।
(19) भक्ति के प्रसंग में लाभ और अलाभ―देखिये―प्रभु भी परद्रव्य हैं, उनका भी आत्मा मेरे आत्मा से जुदा है, लेकिन प्रभु की भक्ति से हमें अपनी निधि मिलती है और परिजनों की भक्ति से हमारी निधि नष्ट होती है। ज्ञानी पुरूष प्रभु भक्ति के लिए चल रहा है, भक्ति कर रहा है और वैसी ही भक्ति में सारी प्रजा भी दौड़ रही है। प्रभु की महिमा गाते हुए वह ज्ञानी भक्त कह रहा है―हे प्रभो ! तुम्हारे चरणों में भक्ति करने के लिए यह जो सारी प्रजा खिंची चली आ रही है वह आपके स्नेह से नहीं। स्नेह का तो इन भक्तों ने बंधन तोड़ा है तब आपके पास आ सके। स्नेह बंधन में बँधा हुआ प्राणी प्रभु के निकट आ ही नहीं सकता। हे प्रभो! यह सब प्रजा, ये सब भक्त लोग स्नेह के कारण आपकी शरण में नही आते, आपसे इनका कोई नाता रिश्ता नहीं। आप में वीतरागता व सत्यानंदधामता निरखकर अपने दु:खों से ऊबकर आपकी शरण में आते हैं।
(20) प्रभुप्रसंग में रिश्ते नाते का बिल्कुल अप्रभाव--नाते रिश्ते की बात देखो-तो ऋषभदेव स्वामी या महावीर भगवान जो भी तीर्थंकर केवलज्ञान अवस्था में परमातमअवस्था में विराजमान है समवशरण में गंधकुटी पर। उस नगर में, उस समवशरण में उनके भी तो रिश्तेदार होंगे। गृहस्थी के माता-पिता, स्त्री-पुत्रादिक वे भी तो समवशरण में आते होंगे, लेकिन वे लोग अन्य मनुष्यों से ज्यादा कुछ कर भी सकते हैं क्या जितना अन्य साधारण जन कर सकते उतना ही वे कर सकते। वहाँ तो सब जन एक समान हैं। क्या यह हो सकेगा कि वहाँ के प्रभु का पुत्र उन सबको पारकर गंधकुटी में जाकर थोड़ा अपने पिता के चरण छू ले ऐसा कर तो नहीं सकता। यहाँ चाहे जो इस प्रभु की प्रतिमा को छू ले, चाहे जो उसका अपमान कर ले। प्रभु की यह प्रतिमा तो दूर से दर्शन करके अपने भावों को निर्मल बनाने के लिए थी, लेकिन लोग उस प्रतिमा को छूकर उसे अपने घर की जैसी चीज समझकर सस्ता सौदा समझकर उसका अपमान कर लें यह बात अलग है। अगर कोई गुरू अपने यहाँ आ जाये तो उसके भी असर और विनय से लोग कुछ दूर से ही नमस्कार करते है, पर लोग प्रभु की प्रतिमा को हाथों से छूकर उसका क्या, अपना अपमान करते है। तो समवशरण में प्रभु का पुत्र इतनी हिम्मत नहीं कर सकता कि वह प्रभु के निकट पहुंचकर उनके पैर छू ले। इंद्र का शासन सबके लिए समान है। वहाँ जरा भी तो बात नहीं रह गयी राग और पक्ष की। ऐसे प्रभु की जब भक्ति की जाती है उनके स्वरूप का स्मरण किया जाता है उस समय आत्मा के अंत: पड़े हुए वैभव की समृद्धि देखिये –कितना ही अनोखा आनंद प्रकट होता है, कर्म तड़ातड़ टूटते हैं।
(21) पाना और खोना―प्रभुभक्ति में हमने अपने आप को पाया और परिजनों की भक्ति में हमने अपने आपके वैभव को खोया। इतना महान अंतर है परिजनों की भक्ति में और प्रभु की भक्ति में। जब परिजनों के बीच मोह ममता करके रह रहे हैं तो यह तो होगा ही कि उनमें से किसी न किसी का वियोग होता ही रहेगा। मरण तो सबका होता ही है। तो उस वियोग के काल में कितना दु:खी होना पड़ता है। लेकिन उनकी इस बेवकूफी पर हँसे कौन जब सभी इस संसार में वैसे ही बस रहे हैं, सभी मोही हैं, मलिन है तो फिर उनकी इस बेवकूफी को बेवकूफी कौन समझे? हां, जिन्होंने अपने आपके एकत्व चैतन्यस्वरूप की अनुभूति की है, बस वे ही विजयी पुरुष हैं, वे ही समस्त विपदाओं को पार करके अपने विशुद्ध आनंदामृत का पान कर सकेंगे। बाकी तो सब रुलते ही रहेंगे। स्नेह एक जाल है।
(22) प्रभु शरणग्रहण का कारण―हे प्रभो ! आपके स्नेह से ये समस्त भक्त जन आपके चरणद्वय की शरण में नहीं आये हैं। इनके आने का कारण तो दूसरा ही है। वह कारण यह है कि यह संसाररूपी घोर समुद्र भयानक सागर नाना प्रकार के दु:खों से भरा हुआ है। यहाँ के दु:खों की क्या चर्चा करें। ये संसारी जीव विकल्पमूसलों से रात-दिन कुट रहे है। यहाँ से मरण करते ही तुरंत दूसरा नया देह धारण कर लेते हैं। यों जन्ममरण की परंपरा में फँसे हुए ये प्राणी घोर दु:ख सह रहे हैं। जन्ममरण करते हुए जब जिस जगह पहुँचे वहाँ के समागमों को अपना मान लेते हैं। परद्रव्यों को अपना मानने के बराबर संकट दुनिया में अन्य कुछ भी नहीं है। सर्व संकटों का मूल यही भूल है। फिर शरीर के साथ रोग व्याधियों के, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदिक के अनेक संकट लगे हुए है। जहाँदेखो लोक में सर्वत्र दु:ख ही दु:ख छाया हुआ है। यही कारण है कि ये भक्त जन आपके चरणद्वय की शरण में आये हुए है। जैसे यहाँ भी जो लोग कभी चंद्रमा की शीतल किरणों को सेवने के लिए अथवा ठंडे जल में स्नान करने के लिए अथवा वृक्षों की छाया में बैठकर आराम करने के लिए आते हैं सो वे उन चंद्रमा की किरणों के प्रेम से या जन वृक्ष आदिक के प्रेम से नहीं आते हैं, बल्कि अपनी गर्मी की आताप मेटने के लिए आते है।(23) पर के स्नेह से शरण ग्रहण करने की अयथार्थता―पर से स्नेह कर सकना और परस्नेह से पर की शरण गहना तो जीवों की प्रकृति ही नहीं है। चाहे ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी, सबकी यही बात है। अज्ञानी जन अगर विषयप्रसंगो में लगते हैं तो वे भी कहीं विषयसाधनों के स्नेह से नहीं लगते, बल्कि अपने दु:ख को, अपनी व्यथाओं को मेटने के लिए लगते हैं। कहते वे ऐसा ही हैं कि हमारा तुमसे बड़ा प्रेम है, बड़ा स्नेह है, पर उनका यह कहना बिल्कुल झूठ है। कोई किसी पर से स्नेह कर ही नहीं सकता। सभी में अपने में बाधायें है, अपने में विकल्प हैं, अपने में अशांति है, उसको दूर करने के लिए अपनी चेष्टायें की जाती हैं। अब जिन्होंने जिस चेष्टा से अपना भला समझा है वे उस प्रकार की अपनी चेष्टा करते हैं। मोहियों ने विषयसाधनों से स्नेह रखने का प्रयत्न किया है और उसमें राजी होना मानते हैं तो वे कहते हैं कि हमारा तुम पर बड़ा स्नेह है। अरे जब कोई बात बिगड़ जाती है, कषाय से कषाय नहीं मिलती है, अपने मन के अनुकूल बात नहीं बनती है तो वह ही स्नेह दिखाने वाला व्यक्ति अपना मुख मोड़ लेता है। वह सोचता है-ओह ! मैंने तो इससे बड़ा स्नेह किया, पर इसने मेरी बात भी न सुनी। अरे तू कहाँ उससे स्नेह कर रहा था ? तू तो अपने विकल्पों में ही रम रहा था। तो ये अज्ञानी जीव भी किसी के स्नेह से किसी के शरण में नहीं पहुँचते। जीव में यह प्रकृति ही नहीं है कि वह किसी पर से स्नेह कर सके।(24) जीवों का मौलिक दु:ख और उसकी निवृत्ति में शरणग्रहण―हे प्रभो ! जब वस्तु स्वरूप में ही यह बात नहीं पड़ी है कि कोई किसी पर का कुछ कर सके तो ये भक्तजन आपके स्नेह से कैसे आपकी शरण में आ सकते हैं ? आपके चरणद्वय की शरण में आने का कारण यही है कि सारा संसार दु:खों से भरा हुआ है, और ये सब जीव उन समस्त दु:खों से ऊब चुके हैं, वे अब नहीं चाहते हैं उन दु:खों को, सो उन समस्त दु:खों को वे सही ढंग से मेटना चाहते हैं, और जिन्होंने समस्त दु:खों के मेटने का सही ढंग समझ लिया है वे आपके चरणद्वय की शरण में आते हैं। संसार को दु:खमय समझ लेना यह भी एक बहुत बड़ा भारी धर्म का काम है, पर उन छोटे-छोटे बालकों की भाँति ये सब जीव है। जैसे बालक लोग नक़्शों द्वारा अमेरिका, जर्मनी आदिक विदेशों की नदियाँ, पहाड़ आदिक तो खूब समझ लेते हे, पर वे अपने ही गाँव के निकट की नदी अथवा पहाड़ के विषय में कुछ नहीं जानकारी रखते, इसी तरह ये संसारी मोही प्राणी दूसरों के दु:खों को देखकर अथवा अपने पर कुछ विपदायें आते देखकर तो शीघ्र समझ लेते है कि यह संसार दु:खमय है, पर उनकी निगाह में यह बात नहीं आने पाती कि हमारी इन विपत्तियों का मूल कारण हमारा ही पर की ओर का आकर्षण है, हमारा ही अज्ञानभाव है। जो अपने सर्वदु:खों का मूल कारण स्वयं का ही अज्ञानभाव है ऐसा समझकर कहे कि सारा संसार दु:खमय है तो ऐसा ही संसार के दु:खों का सच्चा परिचयी पुरूष प्रभुभक्ति में सही ढंग से आता है।(25) प्रभुभक्ति और आत्मध्यान का सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य―प्रभुभक्ति और आत्मध्यान इन दो कर्तव्यों के समान अन्य कुछ पावन और आवश्यक कर्तव्य है ही नहीं। केवल दो ही श्रेष्ठ, शरण भूत काम जीवन में किये जाने योग्य हैं- प्रभुभक्ति और आत्मध्यान। और उत्कृष्ट काम कभी दो नहीं हुआ करते, एक ही हुआ करता, तो ये प्रभुभक्ति और आत्मध्यान चूँकि मूलत: एक ही उद्देश्य को लिए हुए हैं, अत: ये भी दो बातें नहीं हैं, एक ही है। और वह क्या है ? चैतन्यस्वरूप की भक्ति। चित्स्वरूप की भक्ति में परमात्मभक्ति भी आयी और आत्मभक्ति भी आयी। ऐसा भक्ति का अलौकिक प्रसाद है कि भक्ति के प्रसाद से भक्त का उद्धार हो जाता है, संकट छूट जाते हैं। क्यों न सारे संकट दूर हों, जब चित्स्वरूप में विशुद्ध ज्ञानमयता का ही ज्ञान चल रहा है चार प्रकार के दानों में सबसे प्रधान दान ज्ञानदान को शास्त्रों में कहा है, ओर उस ज्ञानस्वरूप की भक्ति करके आप यही स्वीकार कर लेंगे-ओह ! ज्ञानदान ही सर्वोत्कृष्ट दान है।
(26) ज्ञानातिरिक्त अन्य दानों में संकटों के मूलत: विनाश का अभाव―किसी मनुष्य को रोजगार लगाकर, धन देकर उसकी तकलीफ मिटायी तो कितने दिन की तकलीफ मिटायी ? और इसका भी कुछ पता नहीं कि तकलीफ मिटे या नहीं। तकलीफ बढ़ भी तो सकती है। किसी की भूख प्यास मिटाकर तकलीफ मिटायी तो वह ठीक है, मगर यह तो सोचिये कि कितने दिनों की तकलीफ मिटायी ? जो तकलीफ मिटायी गई भूख प्यास की, उसके बाद में क्या वह तकलीफ न होगी ? तो यद्यपि ये सब दान भी उचित हैं, लेकिन जब हम इसको पूर्ण हितरूप की दृष्टि से निरखते हैं तो ज्ञानदान एक बहुत उत्कृष्ट रूप में निरखा जा सकता है। किसी रोगी दु:खी की औषधि कर दी तो ठीक है, वह भी एक सामने का कर्तव्य है, लेकिन जरा इस विवेक की ओर से तो सोचिये कि यदि एक समय का रोग कुछ शांत कर दिया तो इससे क्या यह आत्मा पार पा जायगा ? इसको आगे कभी रोग न होंगे क्या ? वह आगे के रोग के चक्र से छूट जायगा क्या ? नहीं छूटेगा। किसी पुरूष को स्थान देकर, धर्मशाला में ठहराकर, अन्य प्रकार वचनों द्वारा ढाढ़स देकर उसको किसी भय के प्रतिकूल अपनी चेष्टा का सहयोग देकर निर्भय बना दिया, उसे कुछ सांतवना दिला दी, तो यद्यपि यह कर्तव्य है, लेकिन विवेक से सोचो कि थोड़ा अगर किसी को निर्भय बना दिया तो क्या वह निर्भय बना ही रहेगा ? क्या आगे कोई भय न आयेंगे ?
(27)ज्ञानदान से संकटों का मूलत: विनाश―अब जरा ज्ञानदान की बात देखो-आत्मा का शुद्ध सहजस्वरूप क्या है इसका ज्ञान हो जाय किसी को-मैं स्वयं ज्ञानानंद स्वभाव मात्र हूँ, स्वयं सब विकारों से दूर केवल एक ज्ञाता दृष्टा मात्र हूँ, ऐसा ज्ञान, ऐसा अनुभव यदि किसी उपदेश के निमित्त से हो जाय तो जिसमें यह ज्ञान प्रयोगात्मक रूप से किया गया है उस विशुद्ध ज्ञान की अनुभूति का यह प्रताप है कि कर्मबंध तड़ातड़ टूट जाते हैं, नवीन कर्म आते नहीं, जन्ममरण की परंपरा मिट जाती है और निकट काल में ही देह से सदा के लिए रहित हो केवल निज स्वरूपमात्र ही सदा के लिए रहकर अनंत ज्ञान का साधन बन जाता है। ऐसी कुंजी ऐसे ज्ञान की प्राप्ति होना कि जिससे भव-भव का भ्रमण ही मिट जाय, भव रहित अवस्था हो जाय, मैं अपने विशुद्ध वास्तविक प्रतिभाव स्वरूप में समा जाऊँ, ऐसी बात अगर बन जाती है तो इससे कोई बढ़कर बात है क्या लोक में ? देखो सदा के लिए उसके दु:ख, क्लेश, जन्ममरण सब छूट गए। अब दूसरे दानों की आहारदान, औषधिदान और अभयदानों की भी जरूरत नहीं। बिल्कुल विघ्नों से पार हो गया। तो ऐसे अंतस्तत्व की बात, ऐसे अंतस्तत्व का ध्यान इस लोक में सर्वोत्कृष्ट है।
(28)प्रभुभक्ति व आत्मध्यान की प्रतिमूर्तता―प्रभुभक्ति व आत्मध्यान, इनसे बढ़कर दुनिया में और कोई कार्य नहीं है। सच पूछो तो प्रभुभक्ति और आत्मध्यान, इनकी मूर्ति होते हैं मुनि। जैसे हम अरहंत मूर्ति के निकट बहुत कुछ स्वरूपध्यान और आत्मलाभ करके जाते हैं और यह मूर्ति तो कुछ भी नहीं बोलती है। तो साधु जन जो कि अरहंत के ही नंदन माने गए हैं वे भी उस मूर्ति की तरह मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति में निरंतर रहते हैं। हाँ गुप्ति में जब नहीं रह पाते हैं तब ही जगत के जीवों को हित करने वाला, अपने आपकी सम्हाल से दूर न जाने वाला व्यवहार बनता है। ऐसे मुनि आत्मा के ध्यान की मूर्ति ही कहलाते हैं, और लोग इसी कारण मुनिभक्ति करते हैं। मुनि के सत्संग में रहेंगे, उनकी सेवा में रहेंगे तो हमारे यहाँ वहाँ के विषय जाल गप्प सप्प ये सब छूट जायेंगे और हम भी मोक्षमार्ग में अपना कदम बढ़ायेंगे।(29) दु:खसंतप्त विवेकी जीवों का परमार्थ शरणग्रहण―जो जीव प्रभुभक्ति व आत्मध्यान के रूप में प्रभु का शरण गहते हैं सो कब और क्यों ? जब दु:ख से संतप्त होते हैं। बच्चा भी तो दु:खी हुये बिना माँ बाप की शरण नहीं लेता। कोई सताये, कोई छेड़े, पकड़े तो घबड़ाकर, दु:खी होकर माँ की शरण में वह बच्चा पहुंचता है। खुद को भूख लगी हो, दु:खी हो तो वह माँ की शरण गहता है। दु:खी हुए बिना तो बच्चा भी माँ की शरण नहीं लेता। प्रभु की शरण लेने वाले लोग ये ही तो हैं जो नाना संतापों से दु:खी हैं और उन दु:खों से घबड़ायें हुए हैं। इस जीव ने अनेक शरण ढूँढ़े, सबसे प्रार्थना की, सबके आगे कायर बना, मुझे कोई सुखी कर देगा। छोटे-छोटे बच्चों के आगे भी यह बाप कायर बन रहा है। दो एक वर्ष के बच्चे का मुख देख-देखकर कायर बन रहा, यह मुझे सुख देगा, इससे मुझे आनंद मिलेगा, और बुढ़ापे में तो उसका आश्रय ताकते ही हैं। तत्काल के भी आनंद का आसरा उस बच्चे की ओर तक रहे हैं। जगह-जगह डोला, जगह-जगह शरण गही, हर एक मलिन पुरुषों के आगे झुका, अपने आप को दीन बनाया, पर इन सब प्रवृत्तियों से इसका दु:ख बढ़ता ही गया, शांति कभी न पायी। जो दु:खों से मुक्त हुए वे ही आकस्मिक निरपेक्ष निश्चेष्ट रहकर शांति के कारण बन जाते हैं। तो जैसे लोग ऐसी गर्मी के दिनों में कहीं बाहर जाते हैं कि सूर्य की तीव्र किरणें विकट गर्मी के कारण जमीन में समा गई हैं, तो वे जाने वाले लोग मार्ग में किसी वृक्ष की छाया के निकट या शीतल चंद्र की किरणों में जाते हैं तो वे क्यों जाते हैं? या उन्हें वहाँ कौन पहुँचाता है ? तो उन्हें वहाँ पहुँचाता है ग्रीष्मकाल का सूर्याताप। वह बनता है ग्रीष्मकाल में लोगों को दु:ख का कारण, तो उस संताप से पीडि़त पुरूष इस शीतल छाया में जाया करते हैं।
(30) प्रभुसेवक को याचना में क्षति का योग―यहाँ भक्तजन जाते हैं प्रभु की शरण में। तो प्रभु की शरण में जाने वाला भक्त पुरूष यदि प्रभु से कुछ माँग बैठे-धन वैभव, जय-विजय, परिवार सुख, संतान आदिक, तो यों समझिये जैसे किसी बड़े पुरूष के पास जाकर कोई गंदी रद्दी चीज माँग बैठे तो वह चीज उसे मिल तो जायगी, क्योंकि बड़े पुरूष का सान्निध्य पाया है, सो इस माँगने वाले को वह चीज मिल तो जायगी, क्योंकि थोड़ी मंद कषाय करके उसने अपना पुण्य रस बढ़ाया है, लेकिन यह जानिये कि उस बड़े के पास पहुंचकर यदि वह भक्त कुछ न माँगता तो उसे कोई बड़ी चीज मिल जाती। बड़ा अपनी ओर से जो कुछ देता वह कुछ बड़ी ही बात थी, लेकिन इस शरण गहने वाले ने अपनी बुद्धि के अनुसार न कुछ जैसी चीज मांग ली तो उसके आगे अब यह हिसाब तो न रहा कि अरे तू इतनी तुच्छ चीज क्यों माँगता है, इस तुच्छ चीज के मांग लेने से तू बड़े लाभ के पाने से वंचित रह जायगा, लाभ के बजाय तू टोटे में ही रहेगा। प्रभुचरणों की सेवा, प्रभुस्वरूप का स्मरण केवल एक अलौकिक आनंदधामस्वरूप निरखकर तृप्त रहने के लिए ही करता रहता तो इसको अपने आप इतनी समृद्धियाँ ऋद्धियां मिलती कि जिन पर लोग अचरज किया करते, लेकिन मांग लिया कोई धन वैभव आदिक तो उसका भी ठिकाना नहीं कि मिल ही जायगा। मिले अथवा न भी मिले, लेकिन यह तो निश्चित हो गया कि जो अलौकिक लाभ इसे मिलना था वह न मिलेगा।
(31) प्रभुसेवक ज्ञानी की अयाचना का कारण--ज्ञानी संत पुरूष प्रभुस्वरूप का स्मरण करते हैं, स्मरण की छाया में रहते हैं। विवेकी पुरूष क्यों नहीं कुछ चाहते ? क्यों नहीं कुछ माँगते ? उसका कारण स्पष्ट है। जैसे कि कोई पुरूष गर्मी के संताप से दु:खी होकर, मान लो गर्मी के दिनों में रास्ते में चल रहा था कोई पथिक ऊपर की तीव्र भीषण गर्मी से व्याकुल होकर वह यहाँ वहाँ तलाशने लगा मार्ग के निकट कि कहीं कोई छायावान वृक्ष मिल जाय तो मैं उसकी शरण में जाऊँ और अपनी गर्मी का संताप मिटाऊ चलते-चलते मिल गया कोई बरगद का पेड़, उसमें घनी छाया थी, उस छाया के नीचे पहुंच गया। छाया में पहुंचकर क्या कभी किसी मनुष्य को देखा ऐसा कि वह वृक्ष से हाथ जोड़कर याचना करता हो कि ऐ वृक्ष तू मुझे शीतल छाया दे दे ताकि मैं अपनी गर्मी का संताप मिटा लू ? अरे वह तो छाया में पहुंच गया, विश्राम से रहने लगा। इसी प्रकार जो प्रभुस्वरूप के स्मरण की छाया में पहुंच गया वह तो शांत है, विश्रांत है, तृप्त है, वह अब कुछ नहीं माँगता कि हे प्रभो ! मुझे अमुक चीज दो। मांगने से क्या फायदा? तो यह ज्ञानी पुरूष प्रभु के स्वरूप के स्मरण में पहुंच गया है। अब उसको वास्तविक शरण मिल गया है, बस ज्यों- ज्यों वह अपना कदम बढ़ाता है, उस मार्ग में प्रगति करता है त्यों-त्यों उसका काम दुगुना सधता चला जाता है।
(32) आत्महित के लिये केवल स्व का संबंध―भैया ! सब कुछ सोचना है केवल अपने आप को निरखकर। दूसरे को देखकर, दूसरे की आशा रखकर, दूसरे के प्रयोजन को लेकर यहाँ कुछ काम नहीं किया जाना है। यहाँ तो केवल एक निज से ही संबंध रखना है दूसरे से नहीं। यदि अपना वास्तविक हित चाहिए तो उसका संबंध है केवल अपने आप से किसी दूसरे से नहीं। कहीं भी हो। शरीर से पवित्र हों अथवा अपवित्र। कहीं भी बैठे हों, कैसे ही बैठे हों, किसी भी अवस्था में हों, वह आत्मा पावन है जो अपने ज्ञानस्वरूप में अपने ज्ञानस्वरूप का ही अनुभव कर रहा है। चाहे वह दस्त में, मूत्र में लिपटा हुआ क्यों न पड़ा हो ? आत्मा को चाहिए क्या ? शांति! शांति उसको मिल ही रही है जो अपने ज्ञानस्वरूप के स्मरण में बना हुआ है। और उसी से संबंध है प्रभुभक्ति का। अतएव प्रभुभक्ति और आत्मध्यान इन दो पुरूषार्थो और कर्त्तव्यो से बढ़कर दुनिया में कुछ भी नहीं है। एक यही निर्णय कर लीजिए अपने जीवन में कि प्रभुभक्त्िा आत्मध्यान, बस दो ही मेरे काम है, दो से ही मेरा प्रयोजन है, अन्य किसी से मेरा कुछ प्रयोजन नहीं।(33)व्यवहारापन्न ज्ञानी गृहस्थों के कर्तव्य की झलक―यह व्यवहार, यह लोगों का उठना बैठना, यह लोगों का वार्तालाप, ये सब आग हैं, संताप हैं, दु:ख हैं, मगर गृहस्थजन क्या करें ? मुनिजन हों तो इनसे कुछ दूर भी रह सकते हैं, जिन्हें किसी से कुछ प्रयोजन नहीं है, केवल तीव्र क्षुधा की वेदना हुर्इ तो सामायिक का समय छोड़कर दिन में किसी भी समय किसी ओर निकल गए और सुगमता से विधि सहित आहार मिल गया तो लेकर चले आते हैं। यदि आहार मिल गया तो ठीक, न मिला न सही, जिन्होंने यह सोच लिया है कि मैं तो मर ही चुका, अब रहा-सहा जीवन आत्मकल्याण के लिए है, वही तो मुनि बन सकेगा और जो भविष्य की आशंकायें करें, किसी जगह मुझे कदाचित् आहार न मिला तो क्या होगा, ऐसी आशंका रखकर किसी महिला आदिक को अपने पास रखना कोई समय ऐसा न हो कि मुझे आहार न मिल सके ऐसी आशंका जो व्यक्ति रख रहा है वह प्रभुभक्ति में और आत्मध्यान में नहीं उतर सकता है। मुनिजन तो पूर्ण निरपेक्ष होते हैं, पर गृहस्थजन क्या करें ? उन्हें तो संग में रहना ही है, व्यवहार में चलना ही है, लोगों से बोलना ही पड़ेगा। तब क्या करें गृहस्थजन ? वे यह करें कि जो असली बात है उसे जान ले। आँखें खुली, चीज दिखी तो वह ज्ञान में आ गई। वह चीज भूलेगी तो नहीं, इसी तरह मन से अनुभव कर लिया, भीतर समझ लिया, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष जान लिया, फिर वह बात कैसे भूल जायगी ? बस वह ज्ञान ही इस गृहस्थ का सहाय है। यह व्यवहार, यह जनसंपर्क, यह लोगों का बीच, ये तो सब आग है, संताप हैं, इनमें पड़कर भी इस गृहस्थ को बचाने में कोई समर्थ है तो वह ज्ञान स्मरण ही समर्थ है। और कोई दूसरा उपाय नहीं है।(34) सुगम स्वाधीन धर्मपालन के लिये उत्साहन―अब समझ लीजिए कि कितना तो सुगम काम है सदा के लिए संसार के संकटों से छूटने का और कितना स्वाधीन काम है। जब गर्दन झुकावो देख लो अंदर, जब उपयोग लगाया, देख लो अंदर, जब इंद्रियों का व्यापार बंद किया देख लो अंदर। जिसने जो बात देखी है, अनुभवी है उसको उसे देखने में देर तो नहीं लगती। जैसे आपके घर में किसी बक्स के अंदर कोई चीज रखी हुई है, उसे आप जानते है, तो मंदिर में अथवा अन्य कहीं बैठे हुए जब आपका चित्त उस चीज की ओर पहुंच जाता है तो आपको उसके जानने में देर तो नहीं लगती। तो इसी तरह से अपने अंदर छिपी हुई चीज को जिसे कि आप जानते हैं, जब देखना चाहो देखे लो अंदर। इस काम को करने में अगर कष्ट भी सहने पड़े तो सह लो। इस आत्मस्वरूप के अनुभव के प्रसाद से तो सदा के लिए सर्व संकट समाप्त हो जायेंगे। शुद्ध आत्मतत्व का विकास होगा। कर्मवश होकर तो अभी तक खूब संकट सहे, नरकनिगोद घोर संकट सहे। पशु-पक्षी कीट पतिंगा, सूकर, गधा, झोंटा आदिक की पर्यायों में पहुंच-पहुंचकर घोर संकट सहे। तो परवश तो कठिन से कठिन दु:ख सह लिये जाते है, पर स्ववश होकर धर्मपालन के लिए थोड़ा सा भी कष्ट नहीं सहा जाता। थोड़ा संयमरूप प्रवृत्ति बने न ज्यादा बार खावें, एक दो अथवा तीन बार नियमित रूप से दिन में ही खा लेवें, रात्रि को न खावें, यत्र तत्र गप्प सप्प की गोष्ठियों में न बैठे, व्यर्थ के आलाप-प्रलाप में न पड़े, कुछ समय सत्संग में व्यतीत करें, धार्मिेक कार्यो में रूचि रखे आदि इन बातों में क्या कष्ट है ? लेकिन स्ववश होकर थोड़े-थोड़े कष्ट भी नहीं सहे जाते।
(35) करणीय अकृत कार्यो के लिये कष्टसहन का श्रृंगार―भैया ! धार्मिक कार्यो में यदि कष्ट भी सहन करने पड़े तो उन्हें समता से सहकर अपने आप में जो आत्मस्वभाव आत्मज्ञान, आत्मतत्व की बात अंत:प्रकाशमान है उसका अनुभव कर लें। यह एक अलौकिक कार्य है, इसको कभी नहीं किया गया है, बाकी तो सभी कार्य खूब किए गए। मनुष्य होकर बच्चा बच्चियों से प्रीति रखना यह कोई अनोखा कार्य है क्या ? अरे सूकर होकर 10–12 बच्चों से खूब प्रेम किया, कुत्ता, बिल्ली आदिक बनकर दो दो चार चार बच्चों से खूब दिल बहलाया। उनके बच्चों से ये मनुष्यों के बच्चे कोई खास है क्या ? प्रेमार्थ जैसे मनुष्यों के बच्चे, वैसे ही सूकर, कुत्ता, बिल्ली आदि के बच्चे। भैया ! यह बात मोह के नाते से कही जा रही है। जैसे मनुष्य मोहवश अपने बच्चों से प्रेम करते हैं, ऐसे ही वे पशु पक्षी आदि भी मोहवश अपने बच्चों से प्रेम करते हैं। धन संपदा की बात ऐसी है कि उसे खूब जोड़ते जावो, पर अंत में उससे फायदा क्या मिलेगा ? इस जीव की दुर्गति को यह धन मिटा देगा क्या ? बल्कि जो चिंता की, जो शोक किया, जो व्याकुल भाव हुए, जो क्षोभ हुए, धर्म के लिए समय न मिला, यह जीव की कितनी बरबादी की चीज है। बड़े-बड़े उपसर्ग सहकर भी धर्म में अग्रसर रहो। यह तो कष्ट आप सह लेगे। एक कष्ट और भी है उसे भी सह लेना हँसकर। सुनिये वह बात।
(36) लोकापलाप की भी उपेक्षा करके, कष्ट सहकर भी प्रभुत्व की उपासना की प्रेरणा―बाहरी व्यवहार में कम रहने वाले, धर्म के कार्यों में अधिक समय देने वाले को अधिकांश लोग बुद्धू सा भी कह बैठेंगे, लेकिन कह लेने दो। उनकी भी बातें सुन लो। इसकी भी परवाह न करो कि लोग मुझे क्या कहेंगे ? अरे लोग क्या कहेंगे वे जैसे स्वयं है तैसे ही कहेंगे। जो जैसा खुद है वह वैसा ही कहेगा। और क्या कहेगा ? जब दो बालकों के बीच में कुछ गाली गलोज की बात हो जाती है तो एक उद्दंड बालक दूसरे को बहुत-बहुत गालियाँ दे देता है, बहुत सी उल्टी सीधी बातें बक देता है, पर जो सज्जन बालक है वह सिर्फ एक ही बात कह देता है-क्या कि जो कुछ तूने कहा वह सब तू ही है, मैं क्यों हूँ ? लो सारी बातें उस उद्दंड बालक पर लग गयीं और उस समय बालक की सभ्यता भी बढ़ गई। तो ऐसे ही ये मूढ़ जन भले ही कुछ कहें-उन्हें कहने दो, उनकी बातों का कुछ भी बुरा न मानो। समस्त संकट उपसर्ग सहकर भी इस चिदानंद घन सर्व क्लेशों से विमुक्त, जन्ममरण की परंपरा को नष्ट कर देने वाले इस प्रभु के उज्ज्वल स्वरूप की भक्ति करो और अपने आप में सहज अंत: प्रकाशमान जो स्वरूप है उस स्वरूप का ध्यान करो।(37) प्रभुभक्ति और आत्मध्यान करके अपने को नि:संकट बनाने का संदेश―प्रभुभक्ति और आत्मध्यान ये ही दो कार्य हैं जीवन में किये जाने योग्य। इस बात को पत्थर में खोदकर रख लो, अरे पत्थर में खोदने से क्या ? अपने उपयोग में गड़ा कर रख लो कि प्रभुभक्ति और आत्मध्यान ये ही दो काम जीवन में किये जाने योग्य हैं। इनके अतिरिक्त जो कुछ भी गड़बड़-सड़बड़, अच्छा बुरा होता हो होने दो, ऐसा समझो कि मुझे इस ओर से कोई बेचैनी नहीं है। मेरे काम तो करने के मुख्य दो ही है-प्रभुभक्ति और आत्मध्यान। इन दोनों कार्यो में लगे हुए व्यक्ति कभी दु:खी नहीं हो सकते। पुराणों में जो कुछ महापुरुषों के उपसर्ग सुनने में आये, किसी किस्म का पूर्वजन्म का विशेष पाप का उदय था जो विपाक में आया है, पर ऐसा उपसर्ग सहकर, ऐसे दु:ख में रहकर तपश्चरण करके आत्मसाधना करके सिद्ध होने वाले थोड़े ही जीव हैं, यों समझिये कि करोड़ों में एक। और बड़े आनंद रस में तृप्त होने वाले उपसर्ग से भी दूर रहने वाले ऐसे पुरूष रहे हैं अनेक। तो समझिये कि आत्मध्यान में प्रभुभक्ति में लग करके हम आपको न लौकिक कष्ट रहने का है और न पारलौकिक कष्ट रहने का है। और हो भी उपसर्ग, कष्ट, तो भी वह अनुभव में न रखेगा। इससे एक ही निर्णय है कि प्रभुभक्ति और आत्मध्यान यही शरण है। तो हे प्रभो ! आपके चरणद्वय की शरण में ये सब भक्तजन आये हैं वे आपके स्नेह से नहीं आये हैं, किंतु यह संसार विचित्र दु:खों का घर है, बस यही कारण है जो आपकी शरण में आये है।