वर्णीजी-प्रवचन:शांतिभक्ति - श्लोक 2
From जैनकोष
क्रुद्धाशोविषदष्टदुर्जयविषज्वालाबलीविक्रमो।विद्याभेषजमंत्रतोयहवनैर्याति प्रशतिं यथा।तद्वत्ते चरणारूणांबुजयुगस्तोत्रोन्मुखानां नृणाम्।
विध्ना: कायनिकायकाश्च सहसा शामयंत्यहो विस्मय:।।2।।
(38) प्रभुचरणद्वयस्तवनोन्मुख पुरूषों के विघ्नों का शमन―हे प्रभो! आपके चरणद्वय की स्तुति में सन्मुख हुए प्राणियों के विष और रोग आदिक शीघ्र ही दूर हो जाते हैं, इसमें रंच भी विस्मय नहीं है। जो विष बड़े क्रुद्ध भयंकर विषैले साँपों से डसे हुए और असहाय विष की ज्वाला की पंक्तियों का जो तेज है वह विद्या, औषधि, तंत्र, मंत्र, जल, हवन आदिक से शांति हो जाता है, शरीर की प्राप्ति में जीव के भावों का कुछ संबंध हैं कि नहीं ? है। जीव के खोटे भाव होते हैं तो उनके फल में खोटे देह मिलते हैं। जैसे कीट, पतिंगा, नरक आदिक देहों के प्राप्त होने का कारण क्या है ? जीव के खोटे परिणाम। और जीव के विशुद्ध परिणाम हों, संयमरूप परिणाम हों तो जीव को देव स्वर्गादिक के शरीर प्राप्त होते हैं, और जीव के यदि धर्म रूप परिणाम हों, आत्मा के स्वभाव में लय होने के परिणाम हों तो शरीर सदा के लिए मिट जाता है, तो जब शरीर की उत्पत्ति में बहुत कुछ कारण संबंध अविनाभाव नियम यथा तथा की बात आत्मा के भावों के साथ देखी जाती है तब देह निरोग हो, देह रोगी हो, क्या इसका संबंध जीव के भावों के साथ नहीं हो सकता ? हो सकता है। जीव के परिणाम विशुद्ध हों, अपने आप के धर्म की और लगे हुए हों तो उन परिणामों के निमित्त से बड़े से बड़े भयंकर रोग विघ्न भी शांत हो जाते हैं।(39) प्रभुस्वरूपस्मरण की शरण्यरूपता―सच तो यह है कि प्रभु के स्वरूप के स्मरण का शरण ही वास्तविक शरण है। वहाँ रंचमात्र भी तो संकट नहीं रहता। प्रभुस्मरण की शरण छोड़कर मोहीजन अपना दिमाग श्रम लगाकर बाह्य यत्नों में खूब जुटते हैं, जुटें। यदि कुछ लाभ होता है तो वह पूर्वकृत धर्मसेवन का फल है। वर्तमान में यदि भाव विशुद्ध होते हैं तो उसके प्रताप से वहीं बहुत से पाप रस समाप्त हो जाते हैं, पुण्य रस की वृद्धि होती है। समस्त समृद्धियाँ उपस्थित होती है और हो चाहे न हों वैभवसमृद्धियाँ इज्जत प्रतिष्ठा आदिक, लेकिन विशुद्ध परिणामों के कारण तत्काल आत्मा में शांति प्राप्त होती है। जिसका प्रारंभ ही खराब है, लोग कहते हैं कि वह कार्य क्या पार पड़ेगा। और जिसका प्रारंभ अच्छा है उस कार्य में पार पा लेने की आशा रखी जाती है। तो आत्मस्मरण, प्रभुस्मरण का कार्य ऐसा है कि इसका प्रारंभ ही शांतिप्रद है। शांति के साथ ही तो प्रभुस्मरण होता है। प्रभुस्मरण का वहाँ प्रारंभ है उसके आगे सभी कार्य भले होंगे। सब कुछ हमारा भविष्य हमारे विचार और हार्दिक भावों पर निर्भर है। जिसका मन वश में नहीं है उसको सर्वत्र परेशानी है, जिसने ज्ञानबल से अपने मन के वश किया है उसको कही परेशानी नहीं है। अपना सब कुछ कार्य अपने आप में ही पड़ा हुआ है। सब कुछ लूट लो, अपने में भली बातें पैदा करो, बुरी बातों का परिहार करो। चाहे दुर्गति में जाने का सर्टिफ़िकेट ले लो, चाहे सदगति में जाने का सर्टिफ़िकेट ले लो, सारे कार्य इस निज कार्यालय में ही सिद्ध हो जायेंगे। बाहर कुछ बात ही नहीं है। तो प्रभु के स्वरूप स्मरण के प्रसाद से प्रभु के चरणद्वय की स्तुति के उन्मुख हुए पुरूषों को कोई भी संकट हो सब समाप्त हो जाते हैं। वे प्रभु के दो चरण कौन से हैं ? वे हैं ज्ञान और दर्शन। और हम क्या चरण ढूँढ़े जब केवल ज्ञानपुंज है प्रभु, ज्ञान ज्योतिर्मय है प्रभु ? और दूसरे का नाम प्रभु नहीं। जो शरीर भी कभी रहता है, अरहंत के तो रहता है ना, तो वह शरीर प्रभु नहीं, शरीर के अंगोपांग प्रभु नहीं, प्रभुता उनकी आत्मा में है और ऐसे प्रभु आत्मा के संबंध से उनका शरीर भी लोक में पूज्य हो गया है, पर प्रभु तो वही है ज्ञानानंदपुंज। उस ज्ञानानंद प्रभु के चरणद्वय हैं- ज्ञान और दर्शन। सामान्य चैतन्य, विशेष चैतन्य। तो चरणद्वय की स्तुति की इसका अर्थ क्या ? क्या पैरों की स्तुति की ? यह प्रभु की स्तुति करना कहलाता है।(40) महात्माओं के विनय प्रसंग में पादद्वय के विनय की प्रथा का कारण―जब किसी भी बड़े पुरूष की विनय की जाती है तो लोग चरण छूते है। क्यों चरण छूते हैं ? चरणों से अच्छा तो मस्तक है। मस्तक को लोग क्यों नहीं छूते ? पर चरण छूने का भाव यह है कि शरीर के समस्त अंगों में छोटा अंग है चरण। लोक व्यवहार में भी ऐसा माना जाता है। किसी मनुष्य के यदि हाथ मार दिया तो वह उतना बूरा न मानेगा। जितना बुरा पैरों से मारने पर मानेगा। क्योंकि पैरों को बुरा माना है, निम्न अंग माना है। और पैर निम्न हैं भी। सबसे नीचे के अंग हैं। पैरों से नीचे और शरीर की क्या चीज है ? किसी को अगर लात मार दी तो वह इतना अपमान महसूस करता है कि भव-भव तक भी उस बात को वह नहीं भूल सकता। सुकुमाल मुनीश्वर को जो स्यालियों ने भखा तो वहाँ क्या था ? किसी पूर्व भव में सुकुमाल के जीव ने अपनी भाभी को लात मारी थी। उस भाभी ने उससे इतना अपमान महसूस किया था कि भव-भव तक संस्कार उसका रहा और कई भवों के बाद सुकुमाल मुनीश्वर के भव में उस भाभी ने स्यालिनी के रूप में जन्म लेकर वहाँ दो तीन दिन घोर उपसर्ग किया। पैरों को जंघाओं को चीर डाला, मांस खा डाला, क्या यह उन पर कोई कम उपसर्ग था ? तो पैरों से मारना यह लोग बहुत हल्की बात समझते हैं, सब अंगों में पैर सबसे नीचे छोटे अंग माने गए हैं। तो जिस बड़े के प्रति हम आप विनय करते हैं वहाँ तुरंत तो यह नहीं सोचते कि बड़े के शरीर का जो सबसे खोटा खराब अंग है उसको हम छूते हैं, उसकी हम विनय करते हैं, ऐसा कहकर तो कोई विनय नहीं करता, लेकिन मर्म उसका यही है। और उस विनय में इतना भाव बढ़ता है कि उन चरणों को पवित्र कहा जाता है। जैसे मुझे इन पावन चरणों को छू लेने दो, ये मेरा उद्धार कर देंगे। उनमें पवित्र का भी विशेषण लगा है। तो यह विनय की प्रगति है। प्रभु विनय किया जा रहा है कि हे प्रभो ! तुम्हारे चरणकमलद्वय की स्तुति में सन्मुख हुए मनुष्यों के समस्त विघ्न, समस्त रोग शांत हो जाते है।(41) भक्तिप्रभाव का एक दृष्टांत –वादिराजमुनि के समय की बात है। वादिराजमुनि बहुत विद्वान् थे, जिनको स्तवन में इस प्रकार गाया गया है-वादिराज मनु शाब्दिकलोको, वादिराजमनु तार्किकसिंह:। वादिराजमनु काव्यकृतस्ते, वादिराजमनु भव्यसहाय:। कितनी बड़ी उनकी प्रशंसा की गई। जितने भी वैयाकरण लोग हैं, संस्कृत के जितने धुरंधर विद्वान् है वे सब वादिराज का अनुसरण करने वाले हैं, जितने भी दार्शनिकों में श्रेष्ठ हैं, बड़े न्याय के दिग्गज विद्वान् हैं वे सब वादिराज के पीछे हैं। वादिराज के अनुचर, अनुसारी हैं, और जो जो कुछ भव्यों को सहाय हैं वे सब वादिराज के पीछे हैं। यह बात वादिराज के समय की कही जा रही है। इतनी उत्कृष्ट महिमा जिन वादिराज के संबंध में गायी गर्इ है वे वादिराज मुनि एक नगर के पास जंगल में ध्यान कर रहे थे। वे बहुत ही धुरंधर विद्वान् थे, अत्यंत शांत थे, किंतु उनके सारे शरीर में कोढ़ था। उन्हीं दिनों राजदरबार में यों ही गप्प छिड़ गई, लोग अपने-अपने गुरूओं की तारीफ करने लगे, तो एक जैन से भी न रहा गया, वह भी खड़ा होकर अपने गुरूओं की प्रशंसा करने लगा। जैन गुरु निर्ग्रंथ दिगंबर, निरारंभ, निष्परिग्रह, समता के पुंज, रागद्वेष से दूर है, जिनका दर्शनमात्र ही सगुन है, ऐसे होते है जैनगुरू। तो किसी सभासद ने खड़े होकर कहा कि महाराज ! हम जानते हैं जैन गुरूवों को, जैसे होते हैं, वे कोढ़ी होते हैं। तो वह जैन श्रावक पुन: बोला कि हमारे गुरु कोढ़ी नहीं हैं। यद्यपि वह चूक गया, कह देता कि कोढ़ी हों तो क्या, न हों तो क्या ? यह शरीर ही तो साधु नहीं है। साधु तो आत्मा है। आत्मा की पवित्रता देखो-सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक् विश्वास से पवित्रता मानी जाती है, लेकिन भक्ति के आवेश में वह कह तो गया। तो उस सभासद ने कहा-महाराज ! कल इसकी निगरानी कर लीजिए। पास के ही जंगल में इनके साधु महाराज बैठे हैं, देख लीजिए कोढ़ी हैं कि नहीं। राजा ने दूसरे दिन निगरानी करने का तय किया। अब वह श्रावक उदास होकर घर आया। स्त्री कहती है कि आज तुम उदास क्यों हो ? तो श्रावक बोला कि आज हमसे एक बड़ा अपराध हो गया है। जैनधर्म की अप्रभावना का मैं कारण बन गया हूँ। इससे बढ़कर अपराध और क्या हो सकता है ? स्त्री बोली – आखिर बात क्या है ? तो श्रावक ने सारी बात उससे कह सुनार्इ। तो गृहिणी धैर्य देती है कि तुम चिंता मत करो। धर्म के प्रसाद से, धर्म की श्रद्धा से, विशुद्ध भावों से सारे विघ्न दूर हो जाते हैं। आप तो वहीं श्री वादिराज मुनिराज के पावन चरणों में जाकर भक्ति करो। वह श्रावक गया शाम के समय। स्तुति की, उदास हुआ, कुछ अश्रुबिंदु आये। कृपालु मुनिराज पूछते हैं कि ऐ भक्त क्या बात है ? तो उस श्रावक ने बड़े दु:ख के साथ अपने अपराध को दुहराया। तो मुनिराज बोले – बस इतनी सी ही बात पर तुम दु:खी हो गए। अच्छा, घर जावो। चला आया वह श्रावक घर। बस रात्रि के समय में वादिराज मुनि ने भगवान जिनेंद्र देव का जो स्तवन किया वह अद्वितीय है। उन्हें उस समय प्रज्ञ कवि होने से तुक, गण, मात्रायें आदि मिलाने की आवश्यकता न थी। तो उन्होंने एकीभावनामक जो स्तोत्र रचा है। उसका भीतरी मर्म, भीतरी रचना कैसी है, यह तब ही समझ में आता है जब कि उसका आध्यात्मिक मर्म भी साथ ही साथ जानेगे। और तब ही उनकी विद्वता का दिग्दर्शन होता है। स्तवन करते करते एकीभावस्तोत्र में जब वे मुनिराज चतुर्थ काव्य की रचना करते हैं, जिसमें लिखा है कि – प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात्, पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम्। ध्यानद्वारं मम रूचिकर स्वांतगेहं प्रविष्टस्तत्कि चित्रं जिन वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि। इसी की एक झाँकी हिंदी काव्य में इस तरह है-आये न देवलोक से थे आप यहाँ पर, तो भी हुआ था देश सर्व संपदा का घर। जब ध्यानद्वार से ह्रदय मंदिर में बुलाते, मम संपदा दिलाने में क्यों देर लगाते। अर्थात् जब आप स्वर्गलोक से यहाँ न आये थे तब भी यह सारा भूमंडल स्वर्णमय हो गया था, और जब हम ध्यान के द्वार से ह्रदय के मंदिर में आपको बिठाये हुए है, एक तो अंतर कि तब तो आप थे स्वर्ग में और यहाँ हैं मेरे हृदय में, और दूसरा यह अंतर कि तब तो हुआ था देश नगर समर्पना का घर और हम यहाँ चाहते हैं केवल यह कि मेरी ही खुद की जो शक्ति है, जो निधि है, बस वह प्रकट हो जाय। हे प्रभो ! हमारी मांग भी कितनी छोटी है और प्रयत्न कितना बड़ा है। वहाँ तो कुछ भी प्रयत्न न था। आप स्वर्ग में थे और मांग बहुत बड़ी थी, साढ़े दस करोड़ रत्न चाहिये थे। और यहाँ प्रयत्न तो ऐसा है कि ध्यानद्वार से हम आपको अपने ह्रदय स्थल में विराजमान कर दें, और चाहते हम यह हैं कि हमारे ही अंदर जो हमारी खुद की निधि है वह प्रकट हो जाय। पर हे नाथ ! आप इसमें भी देर लगाते हो, अब देर न लगावो नाथ ! इस संस्कृत काव्य में यह कहा है कि जब आप स्वर्ग में आये न थे उससे भी पहिले यह सारा पृथ्वी मंडल आपने स्वर्णमय बना दिया था, अब यहां ऐसे ह्रदय में मैंने आप को बिठाया है जिसे मैंने ज्ञानजल से धोकर अत्यंत पवित्र किया है, जो हृदय आपके विराजमान किये जाने लायक है, तो ऐसे पवित्र ह्रदय में बैठाया है तब इसमें क्या आश्चर्य है कि जो आप मेरे शरीर को स्वर्णमय बना दें। बस इस ही भक्ति के प्रताप से उन वादिराज मुनि का सारा कोढ़ मिट गया और अत्यंत कांतिमय, देदीप्यमान उनका शरीर हो गया। तुरंत ही उन मुनिराज को ख्याल हो आया कि ओह ! जिसने कहा था कि जैन गुरु कोढ़ी होते हैं उसके ऊपर कोई विपदा न आ जाय, यहां मेरे कोढ़ को न देखकर कहीं उसकी फाँसी न दे दी जाय, सो यह सोचकर उन्होंने अंगूठा और अनामिका इन दोनों अंगुलियों से तर्जनी को अच्छी तरह भींच लिया था ताकि उस जगह का कोढ़ मत मिटे। जब दिन हुआ तो बहुत से नागरिक लोग उमड़े हुए चले आये। बड़ा कौतूहल था। आज एक बहुत बड़ा निर्णय होना था। और ऐसा बड़ा निर्णय कि जिसमें धर्म की हँसी और अप्रभावना से भी संबंध था और साथ ही किसी की जान जाने तक का भी संबंध था। जब राजा पहुंचा मुनिराज के पास, तो देखते ही आश्चर्यचकित हो गया, मुनिराज के चरणों में लोट गया, बड़ा पवित्र बना और स्तवन करके जब जरा कटाक्ष से किसी पुरूष को ढूंढने लगा- तो मुनिराज बोले-महाराज ! अब क्या क्रोध लाते हो ? देखो हमारी अनामिका अंगुली में कोढ़ है। जिसने कहा था कि जैन गुरु कोढ़ी होते हैं उसका भी कहना सत्य है, और जिसने कहा का कि जैनगुरू कोढ़ी नहीं होते हैं उसका भी कहना सत्य है।(42)ज्ञानबल से मन का नियंत्रण करके, कष्ट सहिष्णु होकर धर्मामृत पान का कर्तव्य―तो यहाँ कहने का प्रयोजन यह है कि अपने भाव यदि विशुद्ध हों तो रोग और विघ्न सब शांत हो जाते हैं। और यदि नहीं भी शांत होते हैं तो क्या बात है ? धर्म के खातिर सहज कुर्बान होना सीख लो, प्राण जायें जायें पर शिवमार्ग पाना सीख लो। जिस धर्म का फल यह है कि सदा के लिए संकटों से छूट करके शुद्ध पवित्र बन जायेंगे, कृतार्थ हो जायेंगे उस धर्म के लिए तो दुनिया के समस्त उपद्रव, जैसे-निर्धनता, अप्रतिष्ठा, असम्मान, क्षुधा, तृषा आदिक, इन सबको बराबर सह लेना चाहिए। जिसको धर्म में लगन है उसको उन समस्त संकटों के सहते हुए भी कष्ट नहीं मालूम होता। शांति कहाँ से प्रकट होती है ? अपने आत्मा से ही। शांति का धाम यह निजी अंतस्तत्व है। उसका कोई शरण गह रहा हो, अपने आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का ध्यान रख रहा हो और उसे कष्ट मालूम हो ऐसा हो नहीं सकता। ज्ञानबल से मन को काबू करने की जरूरत है। दो चीज़ें है आपके पास-ज्ञान और मन। (स्वरूप भेद की बात की जा रही है ) आप ज्ञान को मित्र बनावें, ज्ञान को बल दें, ज्ञान को अंगीकार करें, और उसके समक्ष मन की उपेक्षा करें। मन चाहता है किसी वस्तु से राग करने का, तो तुरंत मन को मार दीजिए। हमें नहीं करना है राग, यह परवस्तु है। मनचाहता है किसी चीज के खाने का, तो इस मन को मार दें, अरे हमें नहीं खाना है उस चीज को। स्वाद में क्या धरा है ? सब असार बातें है। मन चाहता है कि अमुक रूप को देखना है, सिनेमा देखना है तो तुरंत मन को मार दीजिए-हमें नहीं देखना है। तो ज्ञानबल से जो पुरूष इस मन पर काबू पा लेते हैं वे पुरूष विषयी हैं। यद्यपि यह एक द्वंद है मन का और विवेक का, उस द्वंद में चल रहे हैं, पर प्रतीति तो यह रखिये कि हमें ज्ञान का हौसला बढ़ाना है, मन का पक्ष नहीं लेना है। प्रभु के चरणद्वय का स्तवन क्या ? प्रभु के स्वरूप का स्तवन। प्रभु का स्वरूप है ज्ञान दर्शन। तो ज्ञान दर्शन गुणों का जो स्तवन है वही प्रभु के चरणों का स्तवन है।(43)अद्भुत निमित्तनैमित्तिक प्रसंग―हे प्रभो ! जो मनुष्य आपके स्वरूप के स्मरण में रत रहते हैं उनको विघ्न रोग ये नहीं सताते, शांत हो जाते है। जैसे कि किसी क्रुद्ध आशीविषधर सर्प ने किसी को डस लिया हो व उस डसे गए पुरूष के शरीर में विष की ज्वालायें फैल रही हों, नशाजालों के रूप में, रंगों के रूप में विष की ज्वालायें अग्नि की तरह धधक रही हों और गर्मी, संताप की ज्वाला भी जल रही हो। इतना बड़ा तेज विकराल विष विक्रम भी विद्या से, औषधि से, यंत्र मंत्र से, जन हवन आदिक से शांति को प्राप्त हो जाता है। निमित्तनैमित्तिक संबंध का भी जरा स्वरूप देखियेगा। जिस पुरूष के शरीर में विष छाया हुआ है वह पुरूष तो दूर है, और कितने ही तो ऐसे सुने गए हैं कि जिस पुरूष को मंत्रवादी ने कभी देखा भी नहीं, किसी अन्य पुरूष ने उसके पास जाकर समाचार दे दिया कि अमुक जगह अमुक पुरूष को सर्प ने डस लिया है, तो वह मंत्रवादी वहीं से अपने घर में बैठा हुआ ही कुछ मंत्र जपता है या कोई तंत्र करता है और वहाँ उस पुरूष का विष दूर हो जाता है तो जब इतनी दूर रहने वाला मंत्रवादी कहीं दूर रहने वाले पुरूष के देह में व्यापे हूए सर्प के विष को दूर कर देता है तो फिर जिस आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह होकर यह शरीर रह रहा है वह आत्मा यदि अपने भाव शुद्ध बनाये, प्रभु का स्मरण करे तो प्रभुभक्ति के प्रसाद से समस्त विघ्न, समस्त रोग दूर न हो सके, यह कैसे हो सकता है ? अर्थात अवश्य ही वे सब रोग दूर होंगे।(44)निमित्तनैमित्तिक और स्वतंत्रता का अविरोध―यहाँ निर्णय तत्त्व की बात यह है कि ये सब निमित्तनैमित्तिक भाव हैं, इतने पर भी देख लो – कितनी विचित्र घटना है कि मंत्रवादी का हाथ पैर तन, मन, वचन, वाणी कुछ भी बाहर नहीं गया। वह सब कुछ अपने में उद्यम कर रहा है अपने में भाव भर रहा है, शुद्ध भाव कर रहा है, प्रभुस्मरण कर रहा है, जिस प्रकार का ऋद्धि तंत्र उसके पास है उस तरह अपनी भावना कर रहा है और बाह्य पदार्थ में उस पुरूष में विष का दूरीकरण हो रहा है। देखो दोनों जगह आत्मा का स्वतंत्र परिणमन है, वहाँ विष का जो कुछ बन रहा है वह उसके परिणमन से बन रहा है तो निमित्त्तनैमित्तिक भाव होकर भी वस्तु की स्वतंत्रता देखिये- कैसी अनोखी है। यहाँ भी प्रभु के चरणस्मरण स्तवन के प्रसाद से विघ्न दूर होना, रोग दूर होना आदिक बातें हो जाती हैं। बाहर में जिसका जो परिणमन हो, वह उसके परिणमन से है, इस आत्मा में जो कुछ स्तवन, प्रभु भजन का परिणमन है वह इसके परिणमन से है। निमित्तनैमित्तिक भाव भी है और यह अनोखी स्वतंत्रता भी है। दोनों का एक साथ रहनें में भी विरोध नहीं।(45)सर्वक्लेशमुक्ति के लिये प्रभुभक्ति का समर्थ सहयोग―यहाँ शांतिभक्ति में जिसमें शांति भगवान का मुख्य लक्षण करके स्तवन किया जा रहा है- कह रहे हैं कि हे प्रभो ! तुम्हारे चरणकमल युगल की स्तुति के सम्मुख हुए प्राणियों का विघ्न और रोग जल्दी ही शांत हो जाता है, यह एक विस्मय की बात है। धनंजय कवि ने कहा है कि लोग रोगशांति के लिए विषापहारमणि को ढूंढने जाते है औषधियों को ढूँढ़ते है, रसायन खोजते हैं, मंत्र खोजते हैं, तंत्र करना चाहते हैं। अरे ये सब भगवान के गुणस्मरण के ही पर्यायवाची शब्द हैं। भाव देखियेगा अर्थात प्रभुस्मरण के प्रताप से सहसा वे सब काम बनते हैं जो विषापहार मणि यंत्र, मंत्र, तंत्र, औषधि, हवन आदिक से हुआ करते हैं। प्रभुभक्ति के समान इस लोक में मेरे उद्धार के लिए कोई दूसरा कार्य नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रभुभक्ति का भाव उमड़ता ही तब है जब उपासक विषय-राग से हटकर वीतरागभाव में रूचि करता है। सो विषयराग से हटना और वीतरागभाव में आना यह स्वयं मंगल लोकोत्तम व शरण है। इस ही शरण्य भाव की पुष्टि वीतराग स्तवन में है। वीतराग सर्वज्ञ प्रभु की भक्ति से सर्व विघ्न शांत होते हैं।