वर्णीजी-प्रवचन:शांतिभक्ति - श्लोक 4
From जैनकोष
त्रैलोक्येश्वरभंगलब्धविजयादत्यंतरौद्रात्मकां,
नानाजंमशतांतरेषु पुरतो जीवस्य संसारिण:।को वा प्रस्खलतीह केन विधिना कालोग्रदावानला-
न्न स्याच्चेत्तव पादपद्मयुगलस्तुत्यापगावारणम्।।4।।
(57) काल का उग्र दावानल―संसारी प्राणियों को यह आयु क्षय, यह यमराज अपनी मृत्यु अग्नि से भस्म कर रहा है। इस यम का, इस आयुक्षय का संसार के जीवों पर कितना विचित्र प्रभाव पड़ा हुआ है कि देखो अनेक जीव तो एक श्वास में 18 बार जन्ममरण करते हैं, कीड़े मकोड़े 3 दिन, 7 दिन अथवा 40 दिन तक अधिक से अधिक जीवित रहते हैं इसके बाद वे नियम से नष्ट होते हैं। और पशु-पक्षी मनुष्य इन सबकी आयु का भी कुछ विश्वास तो नहीं, जब चाहे नष्ट हो जाते हैं। इस आयु क्षय को किसलिए इतनी रौद्रात्मकता बन गयी, एक मौज और स्वच्छंदता से अपना काम विस्तार करने की वृत्ति बन गयी कि इसने तीन लोक के बड़े-बड़े राजा महाराजाओं को नष्ट किया है, और उससे जो इस आयुक्षय ने विजय प्राप्त की है, इस यमराज ने जो एक अपनी लोक में स्वच्छंद विहार रूप विजय पायी है उस विजय से अत्यंत रौद्रात्मक हो गया। आयुक्षय के प्रति अलंकार रूप से वर्णन किया जा रहा है। इस काल से इस संसार के कोई प्राणी नहीं बचे। नहीं बचे सो ठीक ही है, क्षण-क्षण में, सेकेंड-सेकेंड में कुछ ही दिन में ये मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। सो हे नाथ ! यदि आपके चरणकमल की स्तुति जो कि आपदावारण की तरह है, विघ्न निवारण की तरह है, अर्गला पटने की तरह है, यदि यह आपके चरणकमल का स्तवन ध्यान न होता तो इस यम के विकराल पंजे से फिर कौन बचाता ?
(58) काल के उग्र दावानल से बच निकलने का हेतु प्रभुचरणस्तवन―एक तो अन्य जीवों की अपेक्षा इस मनुष्य जीवन में अथवा कभी देवगति का जीवन पाया तो वहाँ जहाँ अच्छी जिंदगी के साथ आयु लगी हुई है विशेष, तो यह सब धर्म का ही तो प्रताप है। धर्म में रूचि हुई, प्रभु का ध्यान हुआ तो ऐसी अवस्थायें मिलती हैं कि जिन में कुछ सुख साता और विशुद्ध भाव परिणति पूर्वक जीवन कुछ विशेष रहता है। हे प्रभो ! यह सब आपके ही चरणों के स्तवन का तो प्रताप है। दूसरे-इस काल के पंजे से सदा के लिए भी बच निकलता है जीव तो उसका भी कारण यही प्रभुभक्ति है। प्रभुताभक्ति, स्वरूपभक्ति, नित सहज आत्मतत्व की लीनता, यदि यह आपदावारण न होता, अर्गला हटाने वाली चीज न होती तो कौन इस काल के पंजे से बच जाता ? हे प्रभो ! इस यम से, इस जन्म मरण के चक्र से बचाने वाला आपका चरणस्तवन है।(59) शांति के अर्थ परवस्तु के संपर्क के त्याग की अनिवार्यता―जीव को चाहिये क्या ? शांति। अब वह शांति इन व्यर्थ के ऊधमों में मिलती है या आत्मस्मरण से मिलती है इसका भी तो निर्णय कर लीजिये। मोही जीवों के चित्त में यह छाया हुआ है कि मेरा जीवन, मेरा गुजारा, मेरा सुख सब कुछ इस गृहस्थी पर निर्भर है, इन बच्चों पर निर्भर है। यह ध्यान में नहीं लाते कि अकेले थे, अकेले जायेंगे। और इस काल भी तो तू अकेला ही रह रहा है। अपने इस अकेलेपन की भावना से जब यह जीव हटता है तो यह व्यर्थ के ऊधम मचाता है याने मोह रागद्वेष करता है और दु:खी होता है, जन्ममरण की परंपरा बढ़ाता है। मैं ऐसा मार्ग पाऊँ कि परविषयक मोह परिणाम, राग परिणाम, स्नेह परिणाम ये मूलत: समाप्त हो जायें, उस उद्यम में लगना है। मनुष्य जो भी यत्न ठान लेना है, करते-करते उस यत्न में वह सफल हो जाता है। देख लो यहीं व्यवहार के काम। जिस काम में लोग लगते हैं उस काम को कुछ न कुछ निभा लेते हैं जबकि वह काम अपने नियंत्रण के अंतर्गत नहीं है कि मेरी इच्छा से, मेरे यत्न से वह काम पूरा हो ही। जब अनियंत्रित बात पर भी हम आप अपने कुछ उद्यम से सफल हो जाते हैं तो फिर अपने आप की बात में, जिस पर कि हमारा वश चल सकता है उसको करने में क्यों सफल नहीं हो सकते ? अवश्य सफल हो जायेंगे। शत प्रतिशत यह बात निर्णीत है कि परवस्तु का स्नेह इस जीव के लिए दु:ख का कारण है।(60) परवस्तु के परिणमन से आत्मा की हानि के अभाव का दिग्दर्शन―कोई बात ऐसी होती है कि दु:ख से बात बनती है तो बनो- दु:ख सहना ही पड़ेगा, उस बात के बनाये बिना काम न चलेगा, मगर ये संसार की बातें ऐसी नहीं हैं कि इनके बिना काम न चलेगा। मान लो नहीं है अनेक मकान, नहीं है ऐसी जायदाद तो इस जीव का काम न चलेगा क्या ? जीव का काम है यह कि ऐसा बोध रखना, ऐसी जानकारी करना कि जिसमें आकुलता न हो। जिन बातों की कल्पना करके दु:खी होते हैं उन बातों के विषय में ठीक-ठीक तो सोचो। वैभव की हानि में ये मोहीजन हानि समझते है। सो वैभव की हानि में तो हानि क्या ? शरीर की भी हानि हो जाय तो भी उससे जीव की हानि नहीं है। यदि स्वभाव दर्शन पाया है, आत्मा का जो सहज परमात्मस्वरूप है उस पर यदि अधिकार पाया है तो कुछ भी विनसो, इस जीव की उससे कुछ हानि नहीं है। उसका यत्न करना चाहिए। और रहा मोही लोगों का वातावरण, जहाँ बैठते हैं, जहाँ निकलकर जाते हैं, जिनके बीच गुजरते हैं उनकी करतूतों का भी प्रभाव न पड़ सके, ऐसा विशिष्ट ज्ञानाभ्यास चाहिए तब यह काम बनेगा। तो चाहिए शांति, और शांति प्राप्त होने का उपाय भी यह है कि आत्मा को विविक्त जानें, अकेला समझे। सबसे निराला केवलज्ञान मात्र, आनंदघन अपने आत्मस्वरूप को समझें। यदि कल्पित सब कुछ मिट जाय तो भी इस का क्या गया ? घर गृहस्थी धन दौलत, संतान, स्त्री अथवा माता-पिता, सारे परिग्रह, सब मित्रजन, ये सब अत्यंत पर हैं। रंच भी तो संबंध नहीं है, वे समस्त पर पदार्थ यदि बिखरते हैं, विघटते हैं तिस पर भी अपने पर दुष्प्रभाव न आये, समझिये इसके लिए कितने ज्ञानाभ्यास की जरूरत है।(61) धर्मपालन का परिचय―लोग तो धर्म के नाम पर मंदिर आ गए, हाथ जोड़ लिए, पूजन कर लिया, एक दो पेज कोई पुस्तक पढ़ ली, बस यह संतोष करके लौट जाते हैं कि हमने बहुत धर्मपालन कर लिया। और ऐसा भ्रम बनाया है खुदने भी और दूसरे लोगों ने भी तो इसी कारण जब उस पर कोई विपदा आती है, इष्टवियोग होता है तो यह विह्वल हो जाता है और लोग उसकी हँसी करते हैं और कहते हैं-‘देखो यह इतना तो धर्म कर रहा था, बड़ा धार्मिक है, फिर भी कितना विह्वल हो रहा है, कितना पागल हो रहा है। इसको कौन समझाये ?’ अरे भाई वह धर्मात्मा था कब ? उसने धर्मपालन किया कब ? जैसे राग में किसी बात की धुन होती है, कोई काम करने की धुन, देशसेवा करने की धुन, तो जैसे उस धुन में लग जाता है ऐसे ही राग में इसको दर्शन, पूजा, जाप आदिक की धुन लग गयी तो उसने अपने राग की धुन निभायी, धर्मपालन नहीं किया। धर्मपालन तो परिणम यह है कि कठिन से भी कठिन स्थितियाँ आ जायें, वैभव घट जायें, कोई हानि हो जाय, इष्टवियोग हो जाय अथवा अनिष्ट संयोग हो जाये, तिस पर भी उसके ज्ञान में यह स्पष्ट रहता है कि लो यह परद्रव्य यहाँ था वहाँ चला गया। हम तो जान ही रहे थे कि जो कुछ मिला है, जो कुछ समागम प्राप्त है वह तो विघटने का है। सो जिसके जानने में यह संभावना समझ रहे थे वह बात हमें और दिख गई। जिसका चिंतवन हम भविष्य में परिणति होने की कर रहे थे और इस दृष्टि से हम उस जानकारी का साकार रूप रखने की प्रतीक्षा कर रहे थे, ऐसा होगा, वह बात यहाँ अभी दिखने में आ गयी। ज्ञानी पर इसका असर नहीं होता। धर्मपालन यह है।(62) धर्मपालन की एक झाँकी – अपनी आत्मा की विविक्तता का इतना दृढ़ अभ्यास हो कि बाह्य के इष्टवियोग आदिक का अपने आप पर प्रभाव न पड़ सके। अध्यात्मगोष्ठी, आत्मतत्व चर्चा, इस विविक्त सहज स्वभावमात्र अपने आपकी प्रतीति करना, इसकी ही जहाँ चर्चा होती हो। मान लो ऐसी शास्त्र सभा है जिसमें शामिल होकर विवेक चिंतन यथार्थ लगाकर अपने आप में ज्ञान सुधारस का पान किया जाता हो ऐसी शास्त्रसभा कोई एक श्रोता किसी दिन लेट आया, आधा घंटा देर में आया। एक घटना की बात मन में रख करके सुनो। आया वह श्रोता देर में। शास्त्र समाप्त होने के बाद वक्ता पूछता है कि भाई !आज आपको शास्त्रसभा में आने में देर कैसे लग गयी ? तो वह श्रोता बोला-आज हम एक मेहमान को विदा करने के लिए गए थे, उसमें देर लग गयी । सभी श्रोतावों को उस घटना का पता था। क्या हुआ था कि उसके इकलौते पुत्र का मरण हो गया था। उसकी दाह क्रिया करने वह गया हुआ था, जिसके कारण शास्त्रसभा में आने में आधा घंटा देर हो गयी थी- तो अब उसके शब्दों को देखिये उसने क्या कहा था ? आज हम एक मेहमान को विदा करने के लिए गए थे इससे देर लग गयी। ज्ञानबल के कारण उस पर प्रभाव कुछ न पड़ा । भैया, जब सम्यक्त्व होता है, जब यथार्थ प्रतीति होती है तो उस पर इन बाहरी परिणतियों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। यह तो अपने ज्ञान की बात है। अपनी दृष्टि और अभ्यास की बात है। जहाँ पदार्थों का स्वतंत्र–स्वतंत्र स्वरूपास्तित्व ज्ञात होता है, फिर मोह नहीं रहता।
(63) ज्ञानी की निर्मोहता पर मोहियों को अविश्वास और विस्मय होने की प्राकृतिकता―ज्ञानी की निर्मोहता पर मोहीजन विश्वास न कर सकेंगे कि ऐसा भी कोई दिल होता है क्या कि बाह्य में कुछ भी घटनायें बन जायें और उनका चित्त पर प्रभाव न पड़े ? मोही लोग अचरज करेंगे तो करें, पर ऐसा हुआ है, इसको ज्ञानी पुरूष ठीक समझ जाते हैं। अचरज करने की बात तो ऐसी है कि सज्जनों की चेष्टा पर दुर्जन लोग अचरज करते हैं, दानियों की चेष्टा पर कंजूस लोग अचरज करते हैं, तपस्वियों की चेष्टा पर विषयासक्त लोग अचरज करते हैं। अचरज की बात से फैसला नहीं होता है। होते हैं ज्ञानी पुरूष ऐसे कि जिन पर कठिन से कठिन उपद्रव आ जायें, इष्ट-वियोग हो जाय तो भी उनके चित्त पर रंच भी प्रभाव नहीं होता। एक उक्ति है कि कोई एक कंजूस पुरूष किसी सड़क से जा रहा था। एक सेठ अन्न, वस्त्र, भोजन, धन आदि अर्थियों को, भिखारियों को खूब दान दे रहा था। उस कंजूस ने जब वह दृश्य देखा तो उसके दिल पर बहुत बड़ी ठेस लगी-ओह कैसा लुटाया जा रहा है ? और उसके सिरदर्द हो गया, वह वहीं से घर लौट आया। उसे दु:खी देखकर स्त्री कहती है-‘नारी पूछे सूमसे, काहे बदन मलीन। क्या तेरो कुछ गिर गयो, या काहू को दीन।। हे पतिदेव ! आप आज इतना दु:खी क्यों हैं ? क्या आपका आज कुछ गिर गया है या आपने आज किसी को कुछ दे डाला है? तो वह कंजूस पुरूष बोला-‘ना मेरो कुछ गिर गयो, ना काहू को दीन। देतन देखा और को, तासौ बदन मलीन। हे पत्नी जी ! मेरा कुछ गिर नहीं गया है और न मैंने किसी को कुछ दे डाला है, पर मैंने दूसरे को धन लुटाता हुआ देख लिया है जिसके कारण आज हमारा बदन मलीन हो गया । तो दानियों की चेष्टा पर कंजूस लोग और तपस्वियों की चेष्टा पर विषयलोलुपी कामी लोग अचरज किया करते है। तो ज्ञानियों की चेष्टा पर अज्ञानी भी विस्मय किया करते है।
(64) ज्ञान की शुद्ध दिशा में गति का प्रताप-विधिपूर्वक ज्ञानाभ्यास करके ज्ञान होने की बात तो अमोघ होती ही है, लेकिन अनेक लोग ऐसे मिलेंगे कि शास्त्रोक्त ढंग से ज्ञान की बात नहीं सीखी है, किंतु संस्कार और प्राकृतिकता से ऐसा हृदय बना हुआ है कि कितना ही इष्टवियोग हो, कितना ही टोटा हो, कैसी ही बाह्य में परिणति हो, उसका उन पर प्रभाव ही नहीं पड़ता। तो ऐसा ज्ञान जिसने प्राप्त किया हो, वह अपनी शुद्ध आत्मभावना में रत होकर ऐसी विशुद्धि प्राप्त करता है, कि इस काल के पंजे से, इस जन्ममरण के चक्कर से यह सदा के लिए मुक्त हो जायगा। एक दिशा मोड़ने भर की जरूरत है। अपने उपयोग का मुख मोड़ने की जरूरत है। अभी उपयोग का मुख है पर पदार्थो के सामने । यहाँ से मुड़कर निज तत्त्व के समक्ष हो जाय उपयोग का मुख याने यह ज्ञान अपने आप में बसे हुए स्वरूप के जानने में लग जाय तो इसका संकट टले, कर्म टलें, बाधायें दूर हों, आकुलतायें समाप्त हों। संसार–संकटों से सदा के लिए पार हो जायेंगे। करने योग्य काम यही है।
(65) मोह राग रूष दु:ख की खान―मोह राग द्वेष ये ही दु:ख की खान हैं, दूसरा कोई दु:खी करने वाला नहीं है। कोई वैभव की हानि में निमित्त पड़ गया तो मोहीजन उस पर क्रोध करते हैं, इसने मुझे इतने हजार का टोटा करा दिया। अरे एक तो उसने टोटा कराया नहीं, तुम्हारे ही विकल्प हैं, तुम्हारा ही उदय है और हो गयी हानि तो उस वैभव की हानि से तुम्हें क्लेश नहीं है, किंतु तद्विषयक जो मोह राग लगा है उसके कारण दु:ख है। सो वह दु:ख तो रहेगा ही। वैभव मिट गया तब तू दु:ख मान रहा। और जब वैभव था तब क्या तुझे दु:ख न था? तब भी दु:ख था। राग के रहते हुए दु:ख कभी मिट ही नहीं सकता। क्योंकि राग के रहते हुए सुख की आशा करना व्यर्थ है। थोड़ा सा उसकी पद्धति में अंतर आया। वैभव के रहते हुए दु:ख की पद्धति और है, वैभव के मिटने पर दु:ख की पद्धति और है। दु:ख तो लगातार है, वैभव है तब भी दु:ख, वैभव जा रहा तब भी दु:ख। यह मानना भ्रम है कि जब मेरे पास वैभव था तब मैं सुखी था और अब वैभव न रहा तो मैं दु:खी हो गया। जब स्त्री, पुत्र, घर, माँ बाप थे तब मैं बड़े सुख से रहता था, अब मुझ पर बड़ा दु:ख हो गया। अरे तूने कभी सुखी होना सीखा ही न था। तब भी दु:खी था, अब भी दु:खी है। जब दु:ख और ढंग से मानते थे और उसमें सुख का भ्रम किए हुए थे। आज के दु:ख से पहिले का दु:ख कठिन था। परिग्रह में, वैभव में, परिवार में, किसी के अनुराग में, जवानी में, बचपन में जब दु:ख भोग रहे थे और सुख मान रहे थे, वह कठिन दु:ख था। आज तो एकदम फैसला हो गया, बात एक और है, जानकारी ठीक बन गई है। खतरे का दु:ख तो नहीं है। पहिले दु:ख तो घोर खतरे का था, दु:ख कब न था ? संबंध में दु:ख ही दु:ख होता है। संबंध मिटने पर दु:ख के अभाव की आशा की जा सकती है, और यदि दिल से भी संबंध हट जाय तो निश्चित शांति है।
(66) कालचक्र के चंगुल से बच निकलने की तरकीब―भैया ! बारबार के जन्मरण के चक्कर से यदि निकलना है तो ऐसा यत्न बनायें कि हमें जीना ही न पड़े, अर्थात इस काल के चक्र से, यम के चंगुल से सदा के लिए छूट जायें, इसका यदि कोई उपाय है तो हे भगवान ! आपके स्वरूप का स्मरण है। चीज जो है सो ही है, और सभी चीजें अपने आपके मूल में सहज जिस प्रकार से हैं उसी प्रकार से हैं। वह बात कहीं हट नहीं गई। वह सदा रहती है। तो उसका जो सहज स्वरूप है अपने आप जैसा जो कुछ उसका सत्व है वह भी है, मिट नहीं गया, स्वरूप में पड़ा है, अंत: प्रकाशमान है, उसको निरख लें तो कल्याण पा लेंगे। और उसके निरखे बिना भैया, भतीजे, कुटुंब, परिवार, स्त्री, मित्र, रूप, रस, गंध, स्पर्श सुहावने लग रहे, मौज मान रहे, यदि ये सब बातें हैं तो उसका फल है जन्ममरण। यदि कालचक्र से छूटना है तो आवो प्रभु शरण में। और यदि कालचक्र के चंगुल में ही रहना है याने जन्ममरण करते रहने का ही काम यदि करना है तब फिर उसका तो धंधा चल ही रहा है, मोह करें, राग करें, द्वेष करें, विषयों में ही रमें, इनमें ही सुख मानें, इनके ही बंधन में रहे, ये उसके उपाय है, सो चल ही रहे है। निर्णय का बहुत बड़ा बल होता है। जो तत्त्व की बात हो, उसका एक बड़े उत्साह से, बड़ी परीक्षा से निर्णय तो कर डालें। उसमें कसर नहीं रखना हैं।
(67) धर्म के दृढ़ अवलंबन की मूल पद्धति―भैया! चित्त में बात न बैठी हो तो अभी और कोशिश करना है, समझना है और चित्त से ध्यान करना है कि प्रत्येक पदार्थ मात्र अपने-अपने स्वरूप को लिए हुए है। त्रिकाल में भी एक का स्वरूप दूसरे में नहीं पहुंचता। एक दूसरे का कोई परिणमन नहीं कर सकता। एक दूसरे का कुछ कोई हो नहीं सकता। व्यर्थ का मोहभ्रम। तो इस स्वरूप निर्णय का वह बल है ज्ञानी के अंतर में कि वह समस्त परिग्रहों से उपेक्षा रखता है। यही है धर्मपालन। इस तरह से धर्मपालन करे कोई धीरे-धीरे संतोष से विचार पूर्वक चिंतना लाकर और भीतर में यह बात बैठ जाय कि निर्णय कर लें यही उपाय है मुक्ति पाने का और मुझे तो मुक्ति प्राप्त करना है। दूसरी बात का मेरा लक्ष्य ही नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई सार बात ही नहीं। कुछ तथ्य ही नहीं। किसी भी परपदार्थ का मुझे रंच भी विश्वास नहीं है कि उनका प्रत्यय नहीं । यह मेरे कुछ काम आ सकेगा ऐसी बात किसी भी पदार्थ में पड़ी हुई नहीं है। मैं ही अकेला परिणमता हूँ भावरूप। भाव बनाता हूँ। मेरे ही उस भाव का निमित्त पाकर यहीं की पड़ी हुई अनंत विस्रसोपचय रूप से जो कार्माण वर्गणायें है, कर्म बन जाती हैं, उनका उदय होता है तब होता है फल इसका जन्ममरण, अनेक शोक संकट से गुजरना पड़ता है।
(68) शिवस्वरूप मुक्ति के लिये ही प्रगति करने का पूर्ण निश्चय―किसी भी पर से मेरा हित नहीं है, बरबादी ही है, इसलिए बाहर में मेरा कुछ प्रोग्राम नहीं । मेरा वास्तविक आंतरिक दृश्य और कुछ न हो, ऐसा मेरा प्रोग्राम है। मेरा तो केवल एक मुक्ति का प्रोग्राम है। मुझे मुक्तिप्राप्त करना है। धीरे-धीरे लुढ़कते–लुढ़कते किसी भी प्रकार मेरा यह काम बने, पर मेरा एक यही प्रोग्राम है। जैसे जब यात्रा करते हैं और पहाड़ पर चढ़ते हुए, कदम बढ़ाते हुए एक निर्णय बना रखा है ना कि मुझे उस चोटी तक पहुंचना है, वहाँ चरण वंदना करना है। देर लग रही है, थक गए, बैठ गए, कभी-कभी पैर पीछे को भी लौटते, फिर भी आगे बढ़ते रहते हैं। एक दृढ़ निर्णय बना लिया ना कि मुझे तो यह काम करना है। कर डाली सारी वंदना और अपने घर लौट आये। प्रकृत में यह है सदा के लिए अभेद बनने का दृढ़ निर्णय, सच्चा प्रोग्राम । मुझे तो केवल मुक्ति प्राप्त करना है। सर्व विकल्पों से रहित होकर परिणमते रहना, लहराते रहना ऐसी स्थिति पाना है। और कुछ बात नहीं है हमारे प्रोग्राम में । यह निर्णय हो किसी के चित्त में, तो चाहे धन-वैभव की हानि हो, किसी इष्ट का वियोग हो अथवा अनिष्ट का संयोग हो, किसी भी बाहरी बात से वह कष्ट नहीं महसूस करता। वह जानता है कि काहे का कष्ट ? तो ऐसे अपने ज्ञानदर्शनात्मक चैतन्यस्वरूप के स्तवन में, अभेद उपासना में जो पुरूष लगा हुआ है वह पुरूष सदा के लिए इस कालचक्र के चंगुल से बच निकलता है और सदा के लिए निर्विकार आनंदधाम, पवित्र और शांत हो जाता है।