वर्णीजी-प्रवचन:शांतिभक्ति - श्लोक 5
From जैनकोष
लोकालोकनिरंतरप्रविततज्ञानैकमूर्ते विभो।
नानारत्नपिनद्धदंडरूचिरश्वेतातपत्रत्रय।।
त्वत्पादद्वयपूतगीतरवत: शीघ्रं द्रवंत्यामया:।
दर्पांध्मातमृगेंद्रभीमनिननाद्वंया यथाकुन्जरा:।।5।।
(69) ज्ञानमूर्ति प्रभु के चरणस्तवन से रोगप्रक्षय―हे प्रभो ! आपकी पवित्र स्तुति से रोग शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। आप का स्वरूप क्या है और उस स्वरूप के स्मरण से रोग नष्ट हो जाने का विधान क्यों है ? इस संबंध में यहाँ से ही प्रारंभकरते है कि शरीर मिलता क्यों है ? इस आत्मा के भावों के ही जिस प्रकार के विभावों में रहने से आत्मा के शरीर रचते बनते हैं उन भावों का फल है कि शरीर बन रहा है। वे भाव यदि अत्यंत खोटे हैं तो उनका फल है कि खोटा शरीर मिलेगा। शरीर मिलने के बाद भी यदि खोटा परिणाम रहता है तो कुछ ही काल बाद शरीर में रोग व्याधियाँ अनेक आ जायेंगी। यदि परिणाम शुभ है, पवित्र हैं, पुण्यरूप हैं तो उनका परिणाम यह है कि शरीर उत्तम मिलेगा। शरीर मिलने के बाद भी परिणामों में विशुद्धता है, प्रभुभक्ति है, स्वरूप का ध्यान है तो उसके प्रताप से तत्काल तो अनुभव है ही स्वस्थता का और कालांतर में रोग के क्षय का भी अंतर आ जाता है। हे प्रभो ! लोक और अलोक में निरंतर व्याप्त केवलज्ञान ही है एक मूर्ति जिनकी ऐसे हे शांति प्रभो ! नाना रत्नों से युक्त और सुंदर गंधों से शोभित श्वेत तीन छत्रों से युक्त है मूर्ति जिनकी, ऐसे आपके चरणद्वय की स्तुति से रोग शीघ्र दूर होते हैं।
(70)प्रभुदर्शन विधि―प्रभु को केवल ज्ञानपुंज के रूप में निरखने से प्रभु के दर्शन होते हैं। वह दर्शन अनुभवात्मक है। चक्षु से आगे कोई प्रभु दिख जाय, सामने हो ऐसा कोई दर्शन नहीं, किंतु अपने अनुभव से ज्ञानमात्र आनंदधाम स्वरूप की जो अनुभूति होती है वह है प्रभुदर्शन। जिस काल में प्रभु साक्षात विहार किया करते थे उस काल में भी प्रभु का दर्शन नेत्रों से न होता था। प्रभु शरीर सहित थे। शरीर के दर्शन हो गए, पर प्रभुता का दर्शन तो उस समय भी ज्ञानी विवेकी पुरूष ज्ञानज्योति के रूप में, ज्ञानानुभूति के रूप में दर्शन किया करते थे। वह ज्ञानतत्व स्वयं परसंपर्क रहित है, रोगरहित है, पवित्र है, अमूर्त है। केवल जानन ही जिसका कार्य है ऐसे अमूर्त पवित्र ज्ञानमात्र स्वरूप को निरखने पर उपयोग निर्भार होता है और उसके प्रताप से ये रोग भी शीघ्र नष्ट होते है। उदाहरण में कहते हैं कि जैसे मदोन्मत्त सिंह के भयानक शब्द से वन के हाथी भाग जाते हैं, ऐसे ही आपके चरणस्तवन से अनेक रोग दूर हो जाते है।
(71)स्वरूपसाक्षात्कारपूर्वक स्तवन की विशेषता―चित्त में प्रभुता का स्वरूप समाया हो तो उसको निरख करके जो स्तवन होता है वह स्तवन अंतस्तत्व को छूता हुआ होता है, और रूढि़वश रटा रटाया है शुरू से अंत तक बोल गए, उसके साथ भाव नहीं लगाये जा रहे है। चित्त कहीं और जगह है। तो यद्यपि वह भी इतना फल तो देता है कि श्रद्धा को बनाये है। श्रद्धा है तभी तो प्रभु के निकट आये है, पर कर्म विपाक ऐसा है, रागांश ऐसे लगे है कि जिन से चित्त किसी बाह्य पदार्थ की और लगा हुआ है। नहीं हो पाता है दर्शन, स्वरूप का अनुभव लेकिन श्रद्धा है, तो जो जितना मात्र विशुद्ध भाव है उतना फल मिलता है, पर वीतराग स्वरूप के दर्शन हों, अनुभव हो और उस वीतराग स्वरूप की भावना से जो भीतर में निर्मलता प्रकट होती वह बात ऊपरी क्रिया से नहीं बनती है इसका तो ज्ञान से संबंध है। लोक में वस्तुयें तो हैं सब जीव भी हैं बहुत से , कोई कीट है, पशु हैं, पक्षी हैं, मनुष्य हैं, तो ऐसे ही कोई जीव ऐसे भी हैं कि जो रागद्वेष रहित है जिनके ज्ञान में पूर्ण विकास आ गया है, और इसमें तो कोई संदेह की बात नहीं। अचरज की बात तो अज्ञानी बनने को है।
(72)ज्ञान विकास में विस्मय का अभाव―जो बात वस्तु में पड़ी है वही बात प्रकट हो, यह तो वस्तु के स्वभाव की बात है। उसमें विस्मय नहीं है। विस्मय है अज्ञानी बनने में, दु:खी होने में, जगत में रूलने में। जो बात जैसी है ठीक सही वैसी रहे तो इसमें आश्चर्य क्या है ?ज्ञान का स्वरूप जानने का है। और इस जानने के लिए यह आवश्यकता नहीं है कि सामने कोई चीज हो तब जान सकें। देखो अब भी मन के द्वारा भूतकाल की चीजों को जानते है। जो बात गुजरी उसका स्मरण करते हैं। 10- 20- 30वर्ष पहिले की भी बातें कुछ तो जानते है। तो इस ज्ञान में यह कला तो है ना कि भूतकाल की बात को यह जान जाय। और यह भविष्य की बात को भी जानता है। सही न उतरे, अंदाज रूप से करे, मगर कला तो है इसमें कि भविष्य की बात को भी यह जाना करे। वर्तमान की बातों को जानता है, पीठ पीछे की भी बात जानता है यह मन, आगे पीछे की भी जानता है, भूत भविष्य की भी जानता है। तो जहाँ मन लगा है, विकृत अवस्था है वहाँ भी जब यह परिचय मिल रहा है ज्ञान का कि इसमें कला है ऐसी कि भूत भविष्य की बातों की जान जाय, दूर की, पीठ पीछे की बातों को जान जाय। जब इस ज्ञान से विकार आवरण, कर्म आवरण पूरा हट गया, तो एकदम स्वच्छ स्वतंत्र केवल रहता हुआ ज्ञान समस्त लोकालोक को जान ले, इसमें कुछ आश्चर्य नहीं।
(73)अविशिष्ट ज्ञान में शांति का साम्राज्य--देखिये सबको यह विशुद्ध ज्ञान जान लेता है याने सब कुछ आ गया ज्ञान में, पर वह सब सामान्य जैसा ज्ञान है। रागद्वेष न होने से, कुछ प्रयोजन न होने से, कुछ जानने में दिलचस्पी न होने से उनके किसी विशेष आकार, विशेष विकल्प, विशेष चीज को पकड़कर के नहीं रहता, अत: सत्य आनंद है साधारण ज्ञान में। विशेष ज्ञान में, विशेष परिचय में ज्ञान की विशेषता में शांति का घात है और ज्ञान की साधारणता में, अविशिष्टता में केवलज्ञान जान नहीं चल रहा है, उसमें पर पदार्थो की पकड़ नहीं है ,हो रहा है सबका ज्ञान, पर विकल्प नहीं है तो ऐसे ज्ञान से शांति का लाभ होता है। सामान्य का महत्व बड़ा है, सामान्य का विस्तार बड़ा है। शांति पथ में सामान्य का महत्व है, विशेष का महत्व नहीं। विशेष में, लगाव में हितरूपता नहीं। प्रभु का ज्ञान ऐसा साधारण होता है कि जाने हुए पदार्थ में से किसी भी पदार्थ की किसी से तुलना करने वाला, झुकाव वाला नहीं है, लगाव वाला नहीं है। ऐसा होता है प्रभु का ज्ञान। ये प्रभु राजा महाराजाओं की तरह होवें कि भक्तों को खोजें, भक्तों के प्रति लीला दिखायें, भक्तों का काम सम्हालें, भक्तों की लीलावों में शामिल हों, ये सब व्यवहार प्रभुता के नहीं, समता के नहीं, वीतरागता के नहीं। प्रभुस्वरूप तो केवल एक ज्ञानद्वारा सम्वेदन के योग्य है और व्यवहारता प्रभु से हम आपका कोई व्यवहार नहीं बन सकता। कितनी भक्ति हो, पर प्रभु से व्यवहार नहीं बनाया जा सकता।
(74)मोहियों का निर्वाचित भगवान- जब प्रभु झुकें, आकर्षण करें, किसी के प्रश्न का उत्तर दें, किसी की बात सुनें तो मोहियों को वहाँ उत्सुकता होगी। अरे न उत्तर देने की बात रही, न सुनने क बात रही वहाँ अज्ञानी क्या करेगा इंद्रियज ज्ञान तो है ही नहीं। अतींद्रिय ज्ञान है। आपके शब्द नहीं सुनते, आपकी बात चित्त में नहीं देते, आपका उत्तर नहीं देते भगवान, लोगों की ऐसे भगवान की ओर आकर्षण वृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ये मोही हैं। ऐसा स्वरूप सुनकर मोहियों को आनंद नहीं आ सकता। मोही तो तब आनंद मानते हैं जब प्रभु का स्वरूप ऐसा निरखते हैं कि प्रभु अपने भक्त का मुकदमा जितायेंगे, भक्त का प्रयोजन भी ये प्रभुसिद्ध कर देंगे, और अधिक भक्ति अगर भगवान की की गई तो भगवान अपने भक्त को दर्शन भी दे देंगे और उस भक्त को कुछ अपना बोल भी सुना जायेंगे। ऐसी बातें यदि भगवान के स्वरूप के संबंध में समायी हों तो मोहियों का आकर्षण है, लेकिन प्रभु का स्वरूप इस प्रकार का है नहीं।
(75)ज्ञानैकमूर्तिकी भावना का परिणाम―प्रभु तो पूर्ण वीतराग और परिपूर्ण सर्वज्ञ हैं। ज्ञान और आनंद के धाम हैं, शरीर रहित हैं। वह स्वरूप स्वयं रोगरहित हैं। जहाँ शरीर ही नहीं वहाँ रोग का कहाँ टिकाव है ?तो ऐसे शरीर रहित रोगरहित विकार रहित सर्वज्ञ, ज्ञानपुंज प्रभु को जो ध्यान में रखता है उसके समस्तरोग नष्ट हो जाते है। एक क्षण को भी इंद्रिय के विषयभूत पदार्थ में उपयोग को लगाना यह इस जीव की बरबादी का हेतु है। और जीव के कल्याण को पूरा खतरा है। और इंद्रिय विषयों की भी बात जाने दो, जान बूझकर किसी तत्त्व में भी उपयोग का लगाना यह भी उसकी तुरंत ही एक हैरानी है। एक मात्र निज सहज अंतस्तत्व जिसके उपयोग में विराजा रहे उसके समान कोई अमीर नहीं। उसके समान कोई शांत नहीं, वह अधिक ऋद्धि संपन्न है, किंतु ऐसा होना बड़ी ज्ञानभावना के अभ्यास द्वारा साध्य हैं।
(76) सहज ज्ञानस्वरूप की भावना में हित का प्रत्यय―मैं ज्ञानमात्र हूँ, शरीर तो मैं हूँ ही नहीं। शरीर को तो लोग यों जला देंगे जैसे सबके शरीर जलते हैं ऐसे ही यह मेरा भी शरीर जलेगा। शरीर मैं नहीं हूँ। शरीर को पकड़कर ग्रहण करके शरीर में उपयोग लगाकर, वासना बसाकर हम कौनसा अपना कल्याण पालेंगे ? शरीर मैं नहीं। मैं तो ज्ञानमात्र हूँ। जो कुछ इस आत्मा पर विकार चढ़ा हुआ है वह विकार , रागद्वेषादिक भाव, ये कषायें, ये इच्छायें मैं नहीं हूँ। ये तो होकर नष्ट हो जाते है और इस आत्मा को जन्ममरण के ताँते में फंसना पड़ता है। इन विकारों रूप मैं नहीं हूँ। मैं हूँ एक सहज ज्ञानस्वरूप ।
(77)देहप्रभावना का विकल्प तोड़कर ज्ञानभावना करने में कुशलता―भैया ! इस ज्ञानमात्र की भावना भाने का अधिकाधिक यत्न रखें। अब तक इस जीवने देहभावना ही की, जिस गति में गया, जिस देह को पाया सर्वत्र देह भावना ही की,यही मैं हूँ। मनुष्य हुआ तो यदि किसी भींत में हाथ लग गया और थो़ड़ा कलई का निशान आ गया तो वह भी अरूचिकर हो जाता है। उसको खूब अच्छी तरह से साफ करते हैं, और अपने सारे शरीर से उसका मिलान करते हैं कि मेरे सारे शरीर जैसा साफ हो गया कि नहीं। लोगों को वह कलई का जरा सा भी धब्बा सहन नहीं होता। इस देह को नहाने के लिए घंटों का समय लग जाता है। ऊपर फव्वारा खोलकर बड़ा मौज लेते हुए, बहुत-बहुत तेल साबुन आदि लगा-लगाकर घंटो तक लोग स्नान किया करते हैं और इस शरीर की सफाई करते रहनें में बहुत-बहुत समय गंवा देते है। पर जरा बताओ तो सही कि इस शरीर की ऊपर ही ऊपर सफाई करने से लाभ क्या मिलेगा? उस सफाई के करने से इस शरीर की अपवित्रता मिट जायगी क्या ? इस शरीर को पवित्र करने से कौनसी पवित्रता बनती है सो तो बनाओ ? गंदे विचार वालों को उस शरीर की अपवित्रता से ऊब आती रहती है, उनको नहाना आवश्यक है। अपवित्र, गंदे खोटे विचारों में रहने वाले लोग किसी रूप से नहाकर थोड़ा सा मन भरते है कि अब शुद्ध हो गए, साफ हो गए, और ऐसे लोगों का नहाना आवश्यक है, लेकिन नहाने मात्र से क्या होगा ?
(78)नहाकर भ्रम से पवित्रता मानने की अपवित्रता―अनेक लोग किसी नदी में, कुवें में अथवा समुद्र में जो यह सोचकर नहाते हैं कि इसमें नहाने से मेरे सब पाप धुल जायेंगे, मेरी सारी गंदगी धुल जायगी, तो ऐसा भी कभी हो सकता है क्या ?अरे इस तरह से यह गंदगी अथवा ये पापकर्म नहीं धुला करते। यह आत्मा अपने सत्वरूप है, अपने आप में भावों को करता है, भावोंरूप परिणमता है। इसके भावों की पद्धति में ही पवित्रता और अपवित्रता है। भावों की विशुद्धि की और दृष्टि होनी चाहिये । ज्ञानजल से स्नान करें, वहाँ पवित्रता बनती है। कहीं किसी नदी, कुवाँ अथवा समुद्र वगैरह में स्नान कर लेने से इस आत्मा में पवित्रता नहीं जगती। थोड़ा सा नहा लेने पर, कुछ बनावटी भाव बना लेने पर रास्ता क्या मिल जाता है, प्रभुध्यान करने के लिए कुछ गुंजाइस मिल जाती है ? मिलती है बिरलों को, लेकिनइसशरीरको बहुत-बहुत साफ करते और शरीर की सफाई देखकर अपनें में एक गौरव अनुभव करते है ना , यह तो कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है। अरे ये तो भीतरी गंदगियाँ है। भावों की विशुद्धि से आत्मा की विशुद्धि है, देहकीसफाई से आत्मा कीविशुद्धि नहीं है।
(79) विशुद्ध उपयोग होने की सारभूतता―विशिष्ट पुण्योदय हो, अपना भवितव्य उत्तम हो तब ही तत्त्व की बात सुनने, बोलने, समझने और अवधारणा में आती है। जिस ज्ञान से आत्मा की भलाई का मार्ग स्पष्ट हो जाता है, जिस पर चलकर यह जीव सदा के लिए संकटों से छूट जाता है ऐसे ज्ञान की वृत्ति पाना यह तो बड़े ऊँचे भवितव्य की बात है। और विशिष्ट ही पुण्य का उदय हो तब ऐसा उपयोग, ऐसा लगाव, ऐसा प्रवर्तन बनता है, इस ज्ञानमात्रस्वरूप की भावना के प्रसाद से सभी रोग शीघ्र ही क्षय को प्राप्त हो जाते हैं, और शरीर में रोग रहे तो रहे, जब ज्ञानमात्र भावना में यह ज्ञानी जीव उपयुक्त है तो उसके ही तत्काल कुछ रोग है ही नहीं। उसका तो एक ज्ञान की ही ओर लगाव है। शरीर कोढ़ी है तो रहो, शरीर जिस हालत में है रहो। आत्मा को तो संसार के बंधन से छूटना है। उसका छुटकारा देह शुद्धि से न होगा, किंतु ज्ञान शुद्धि से होगा। जितना हम अपने को अपनायेंगे, मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानस्वरूप का अनुभव करेंगे, उस ज्ञानभावना के प्रसाद से हम में निर्भारता बढ़ेगी और ये समस्त रोग दूर हो जाना फिर तो एक साधारण सी बात हो जायगी।
(80) अद्भुत चमत्कारसंपन्न आत्मा की भक्ति से रोग क्षय―जिस ज्ञान में इतना बड़ा चमत्कार पड़ा है, 64 ऋद्धियाँ बताई है, जिन ऋद्धियों का वर्णन सुनकर के बुद्धि अचरज करती है-ओह ! ऐसी ऋद्धियाँ। शरीर जरासी देर में गायब हो जाय, शरीर छोटा बड़ा हो जाय। ऐसा वर्णन है कि ढाईद्वीप के अंदर चाहे वह समुद्र की जगह हो, चाहे पर्वत की जगह हो, कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं बचा जिस जगह से जीव मोक्ष न गया हो। जहां हम आप बैठे हैं यहां से भी अनंत जीव मोक्ष गए। और एक कल्पना बनती है कि मेरू पर्वत की चोटी से मोक्ष कैसे गए होंगे, क्योंकि उस चोटी पर चढ़ा जाता नहीं, जिसके ऊपर स्वर्ग का विमान बसा हुआ है, केवल एक बाल भर का अंतर है। ऐसा जो उसके आस-पास के 4, 6, 10 इंच के हेर फेर से उस जगह से जीव मोक्ष कैसे गए होंगे ? पर वहां से भी जीव मोक्ष गए। ऋद्धिधारी मुनि पर्वत के बीच से भी निकल जायें ऐसी ऋद्धियां जिनके प्रकट हुई हैं वे मुनि उस मेरूपर्वत से निकलते हुए जा रहे थे। जहां ही चोटी है उसी के सीध में वे नीचे से ऋद्धिधारी मुनि गुजरें, और वहीं उनका ध्यान बन गया, वहीं केवलज्ञान हुआ और तुरंत वहीं से मुक्त हुए। तो मुक्त होने पर आत्मा वहां से चला गया ना? रही बात यह कि फिर शरीर का क्या होता होगा ? अरे जीव चाहे जिस जगह से मोक्ष जाय, उसका शरीर उसी जगह कपूर की तरह उड़ जाता है। मोक्ष जाने वालेजीव का शरीर कहीं जलाने के लिए नहीं मिला करता। जो दाह क्रिया की बात बताते हैं, इंद्र करता है वे सब नकली बातें हैं, बनावटी बातें हैं। भक्तिवश बनाया और चरणों में सिर झुकाया, मुकुट से अग्नि पैदा हुई और जला, यह केवल एक रागियों का अनुराग है। जो आत्मा शरीर से निकलकर सदा के लिए जन्मरण से छुटकारा प्राप्त करता है उसका शरीर कपूर की तरह उड़ जाता है। किसी को मिलता नहीं है। तो मेरूपर्वत के मध्य में ही वहीं उड़ गया तो कौन सी बात है ? ऐसी-ऐसी ऋद्धियां उत्पन्न होती हैं वे अचरज के लायक नहीं हैं। ज्ञान ज्ञान में समाया हो तो न जाने क्या क्या समृद्धियां ऋद्धियां, चमत्कार बन जाते हैं जो कि लोगों में विस्मय उत्पन्न कर देते हैं। तो ऐसे ज्ञानपुंज परमात्म स्वरूप की जो भक्ति करेगा, उपासना करेगा उसके समस्त रोग शीघ्र ही क्षय को प्राप्त हो जाते हैं, इसमें संदेह की कोई बात नहीं है।