वर्णीजी-प्रवचन:शांतिभक्ति - श्लोक 7
From जैनकोष
यावत्रोदयते प्रभापरिकर:श्रीभास्करो भासयस्-तावद्धारयतीह पंकजवनं निद्रातिभारश्रमम्।यावत्वच्चरणद्वयस्य भगवन् स्यात्प्रसादोदय:।तावज्जीवनिकाय एष वहति प्रायेण पापं महत्।।7।।
(90) प्रभुचरण प्रसाद के अभाव में पापवहन―हे प्रभो ! जब तक आपके चरणद्वय का प्रसाद नहीं प्राप्त होता तब तक यह जीव बहुत बड़े पाप को ढोता रहता है। आत्मा का सर्वस्व आचरण व्यवहार उपयोग के आधीन है। उपयोग यदि भगवान वीतराग सर्वज्ञ स्वरूप के स्मरण में लगा है तो वहाँ पाप की गुंजाइश नहीं है, और जब भगवान के स्वरूप स्मरण को छोड़कर स्वभावाश्रय से हटकर बाहर नजर लगी है तो वहाँ महान् पाप का बोझ ढोना होता है । जीव का सिवाय भाव करने के और कुछ करतूत नहीं है, वास्ता नहीं है। हम आप सभी जीव अज्ञानी हों अथवा ज्ञानी हों, सिवाय परिणाम बनने के और कुछ नहीं कर पाते। जितनी ये कल्पनायें हैं कि मैं धनी हूँ, व्यापारी हूँ, अमुक पोजीशन का हूँ, अमुक से संबंध है आदिक, उन कल्पनाओं रूप परिणाम के तो हम करने वाले हैं, पर दूकान व्यापार आदिक बाह्य पदार्थों का किसी का कर सकने वाले नहीं हैं, क्योंकि जीव है अमूर्त, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित, वह तो अपने आप में जो कुछ करे सो करे। सभी पदार्थो की यही बात है कि वे पदार्थ अपने आप में जो कुछ कर पायें सो करे, दूसरे का कुछ नहीं कर सकते। जीव हो, पुदगल हो, कुछ भी पदार्थ हो वह अपने में कुछ करेगा, बस इतनी ही बात है उसमें। अपने से बाहर कोई पदार्थ कुछ कर नहीं सकता। क्यों भैया! इस दृष्टि से देखो तो अजीव पुदगल ज्यादह अच्छे हैं। जो पदार्थ हैं जहाँ के तहाँ हैं, दूसरे से कुछ वास्ता नहीं है, लेकिन इन पुदगलों की प्रशंसा यों नहीं है कि चेतना बिना सब पदार्थ सूने होते हैं। चेतन होकर फिर अन्य सभी पदार्थो की भांति अपने आप के स्वरूप में रहते, पर से मतलब नहीं रहता, ऐसी बात जहां प्रकट होती है उसको ही भगवान कहते हैं।(91) कृतकृत्य निर्विकार ज्ञानमात्र प्रभु की उपासना से पाप प्रक्षय―भगवान का ध्यान और स्मरण हमको पाप से बचायेगा, हमारे उद्धार का कारण बनेगा जब कि हम भगवान का स्वरूप वीतराग सर्वज्ञ कृतकृत्य के रूप में देख लें। प्रभु को इन तीन रूपों में तकना चाहिये-कृतकृत्य , निर्विकार और ज्ञानमात्र। ये तीन स्वरूप जब ध्यान में होते हैं तो आत्मा में सही प्रभाव उत्पन्न होता है। भगवान निर्विकार हैं। उनमें राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषय, इच्छा आदि किसी भी प्रकार का विकार नहीं है। प्रभु ज्ञानमात्र हैं। वहाँ हम क्या पा रहे हैं। सिवाय ज्ञान के ओर कुछ नहीं। जैसे दर्पण में स्वच्छता का ही प्रताप है कि कभी वह स्वच्छता तिरोहित होती है और उसमें प्रतिबिंब आ जाता है, दूसरी चीज की फोटो आ जाती है। यों ही अपने आपको निरखिये कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान से अतिरिक्त अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। और यह ज्ञान का ही प्रताप है, चेतना का ही प्रताप है कि निमित्त पाकर रागद्वेष, क्रोध, मान , माया, लोभ आदिक विकार हम पर हावी हो जाते हैं। तो सर्वत्र हम केवल ज्ञान परिणाम को किया करते हैं। प्रभु में विकार नहीं रहा, इसलिए ज्ञानमात्र स्वरूप स्पष्ट मालूम होता है और वह कृतकृत्य है। जिसको करने को कुछ नहीं पड़ा है वह कृतकृत्य हैं। हम आप भी कृतकृत्य हैं। करने को कुछ नहीं पड़ा , मगर करे बिना, विकल्प किए बिना हम आप नहीं मानते । करने को न उन्हें कुछ पड़ा है, न हम आपको कुछ पड़ा है, क्योंकि अपने से बाहर में कुछ कर ही नहीं सकते। पड़ा क्या है ? मानते हैं कि हमको यह काम करने को पड़ा, बस इसका ही दु:ख है। तो आपका जो स्वरूप है निर्विकार ज्ञानमात्र कृतकृत्य, यह स्वरूप उपयोग में बसा हो जिस भक्त के उसके पाप नहीं होते , और जो प्रभु के स्वरूप से अलग हो गया, प्रभु के ध्यान से अलग हो गया उसको प्राय: करके महान पाप का बोझ ढोना पड़ता है। ये जीव निद्रा में बेहोशी में सने हुए हैं। ये कब तक सने रहेंगे जब तक प्रभुस्वरूप का प्रसाद नहीं मिला। जैसे कि जब तक सूर्य का उदय नहीं होता तब तक कमल बंद रहते हैं और जैसे ही सूर्य का उदय हुआ कि उनका विकास होता है, ऐसे ही इस प्रभुस्वरूप का जिन आत्माओं के उपयोग में स्मरण है उनके ज्ञान का आनंद का विकास है। तब करने को बस एक यही काम पड़ा है हम आपको कि प्रभु के स्वरूप का अधिकाधिक स्मरण रहा करे।(92) मंगल, लोकोत्तम व शरण्य निर्विकार प्रभु की उपासना―दर्शन पाठ में नमस्कार मंत्र के बाद जो चत्तारिदंडक पढ़ते हैं उसमें क्या भावना भायी जाती है ? दर्शन में णमोकार मंत्र और चत्तारिदंडक (चत्तारिमंगलं आदि), इतना पाठ तो सर्वप्रथम पढ़ना ही चाहिये, इसके बाद विनती स्तवन आदि जो चाहे पढ़़े । चत्तारिदंडक, एक ऐसा निश्चित पाठ है कि जैसे अन्य लोगों ने अपना एक निश्चित पाठ बना रखा है तो चत्तारिदंडक में कहते हैं- चत्तारिमंगलं-चार चीजें मंगल हैं-अरहंत मंगल है, सिद्ध मंगल है। इस चत्तारिदंडक को खुद समझे और दूसरों को भी बतायें। जैसे कोर्इ अन्य मजहब वाले लोग (अजान में) जोर-जोर से चिल्लाकर कहते हैं ना कि तुम हो श्रेष्ठ हो, यों ही समझिये कि यह चत्तारिदंडक एक श्रेष्ठ अजान है। इसे खुद समझें और दूसरों को समझायें। 4 चीजें मंगल है- मंगल उसे कहते हैं जो पापों को गला दे और सुख को उत्पन्न करा दे। पापों को गला देने की, नष्ट कर देने की और क्या तरकीब है सो तो बताओ ? अपने परिणाम शुद्ध रखना और जो शुद्ध हो गए हैं उनका स्मरण रखना सिवाय इस कार्य के और कौनसा कार्य है जो हमारे पापों को गला सकता है? तो अरहंत और सिद्ध क्या कहलाते हैं, पहिले यह ही समझिये । जो आत्मा शुद्ध हो गए, पवित्र हो गए, निर्विकार कृतकृत्य सर्वज्ञ हो गए, लेकिन जब तक शरीर है साथ में तब तक उस शुद्ध आत्मा का नाम है अरहंत । और वही शुद्ध आत्मा जब शरीर से रहित हो गया तो उसका नाम है सिद्ध। यह किसी का नाम नहीं है, किंतु जो आत्मा शुद्ध हुआ उसका नाम रखा अरहंत। अरहंत का अर्थ है पूज्य। जो अल्य: का अर्थ है वही अर्हन् का अर्थ है- अरि मायने शत्रु, शत्रु हैं घातियाकर्म, तो जिसके इन कर्मशत्रुवों का हनन कर दिया, नष्ट कर दिया उसे कहते हैं अरिहंत । तो ऐसा शुद्ध आत्मा कि जहाँ ज्ञान का विकास है, विकार का रंच नाम भी नहीं है और जो आनंद का धाम है। आनंद का धाम वही बन सकता है जो कृतकृत्य है, जिसको करने को कुछ नहीं पड़ा है। जो करने योग्य है उसका ध्यान होना कितना महत्वपूर्ण पुरूषार्थ है कि इस उपयोग के प्रताप से भव-भव के पाप कट जाया करते है। (93) मोह की आर्द्रता के विनाश से कर्म का निर्जरण―देखिये―जैसे धोती गीली है, नीचे गिर गयी, मिट्टी लग गयी, और कोई जान-बूझकर तनिक उसे धूल से भेड़ दे तो और भी अधिक मिट्टी लग गयी, गीली धोती में धूल चिपट गई। ठीक है, धोती गीली होने से वह धूल चिपट गई, पर ज्यों हो उस धोती का गीलापन दूर हो गया त्यों ही धूल तो अपने आप झड़ जायगी। सूख जाने पर, गीलापन समाप्त हो जाने पर पहिले वाली धूल भी झड़ जायगी और नवीन धूल चिपटने का कोई अवसर ही नहीं। तो यों समझिये कि अपने आपके आत्मा में जब तक रागद्वेष मोह की चिकनाई है, गीलापन है तब तक कर्म बँधते रहते हैं, कर्म कब्जा किये हुए हैं और जब ऐसा उपयोग बने कि रागद्वेष मोहभाव न आयें तो उस समय पाप झड़ेंगे और नवीन कर्म न आयेंगे। लोग सोचते हैं कि मोह बड़ा बलवान है, मोह का बड़ा प्रताप है, लेकिन मोह से बढ़कर ज्ञान का प्रताप है। मोह में कितना मोह बाँध लोगे , कितने कर्म बाँध लोगे ? बाँधते जावो। अनेक भवों के कर्म बँध जायेंगे, किंतु जिस काल में आत्मा को आत्मा के सहजस्वरूप का अनुभवपूर्ण ज्ञान जगेगा उस ज्ञान में इतनी सामर्थ्य है कि अनेक भवों के बाँधे हुए मोह कर्म भी क्षणभर में ही झड़ जायेंगे। बल ज्ञान में अधिक है। मोह विकार में, कर्म में बल अधिक नहीं । ये तो दूसरे के बल पर नाच रहे है।(94) ज्ञानमात्र अंतस्तत्व की अंतर्भावना से भव भव संचितविधिविनाश―भैया हितंकर ज्ञान प्रकट होता है प्रभु के स्मरण से। ये सब बातें यथार्थतया उसके ही उपयोग में घर कर सकती हैं, जिसने अपना ऐसा भाव बनाया हो कि दुनिया की किसी भी चीज का संबंध उसके हित में नहीं है। गृहस्थ हो उसको भी यही निर्णय रखना होगा कि एक अणुमात्र का भी संबंध मेरे हित के लिए नहीं है। मुझे लगना पड़ रहा है परिग्रह में, रक्षा करनी पड़ रही है, संचय भी करना पड़ रहा है। सब कुछ होते हुए भी विश्वास यह रहे कि अणुमात्र भी संपर्क मेरे आत्मा के हित के लिए नहीं, दु:खों से छुटकारा पाने के लिए नहीं, कर्मो से मुक्ति पाने के लिए नहीं । जीव में और बल क्या है सिवाय एक ज्ञान के ? लोक में भी जिस पुरूष को ज्ञान नहीं है, ज्ञान में कमी है, ज्ञान में खराबी है, कुछ दिमाग की खराबी है, कुछ समझता ही नहीं है, अपना खाना-पीना भी नहीं बना सकता, ऐसे पुरूष को लोग कहते हैं ना कि यह बेकार है? क्यों बेकार कहते है? शरीर तो अच्छा है, ह्रष्ट –पुष्ट भी है। अरे उसके पास दिमाग नहीं है , ज्ञान नहीं है। ज्ञानबल न होने के कारण लोग उसे बेकार कहते है। ज्ञानबल हो तो वही पुरूष बड़े काम का पुरूषार्थ कर लेता है। तो आत्मा का धन वास्तव में ज्ञान है जो साथ नहीं छोड़ता । ज्ञानमय ही है यह आत्मा । अन्य कुछ इसमें लगा ही नहीं है। ऐसे ज्ञानमात्र स्वरूप प्रभु का स्मरण करने से भव-भव के पापकर्म दूर होते हैं।(95) प्रभुस्वरूपस्मरण की ईप्सितता―हे नाथ ! बस और कुछ न चाहिए। मुझे माल यह चाहिए कि आपका स्मरण व आपके स्मरण का स्मरण न छूटे। आपके स्वरूप का हमें इस रूप में स्मरण न करना है कि आप इतने लंबे चौड़े हैं, आपका गोरा शरीर है, आप अमुक वंश में उत्पन्न हुए थे आदिक। इस रूप का स्मरण करने से तो वहाँ हम अटककर रह जायेंगे और प्रभुता अनुभव न कर पायेंगे। हम आपके स्वरूप स्मरण चरित्र और प्रवृत्तियों की प्रशंसा द्वारा भी नहीं करना चाह रहे। हम तो सहजप्रभुता के रूप में स्मरण चाह रहे हैं। जब हम एक परमार्थ पद्धति से प्रभु को निरखने जायेंगे तो वहाँ हमें तीन बातों पर ध्यान देना है- प्रभु ज्ञानमात्र हैं, ज्योतिपुंज हैं, ज्ञानस्वरूप के सिवाय और कुछ नहीं हैं। रागद्वेष , कषाय, इच्छा आदि किसी भी विकार का वहाँ अंश नहीं है और प्रभु आनंदधाम हैं। बाहर में कुछ करने को पड़ा ही नहीं है। इस रूप प्रभु का स्मरण करे कोई तो यह भी स्वयं परम आनंदमय होगा और समस्त पापकर्मो को दूर कर देगा।(96)विकारोपयोग में प्रभुता का अभाव –अब सोचिये - इसके विरूद्ध यदि प्रभु ऐसे हों कि अपने भक्तों पर तो प्रसन्न हों। और जो भक्त नहीं हैं उन पर नाराज हों, किसी को दु:ख दें, किसी को सुख दें, ऐसा भी सोच लें कि इस जीव ने यदि पाप किया तो क्या करें, इसको दु:ख देना ही पड़ेगा, इस जीव ने पुण्य किया तो इसको सुख देना ही पड़ेगा, तो भाई पड़ेगा क्या ? प्रभु का यह स्वरूप नहीं कि वह अपने आनंदस्वरूप को छोड़कर दूसरे पदार्थ के कुछ कार्य करने के लिये लगे। यह तो सब हो रहा है , निमित्तनैमित्तिक भाव से चल रहा है। जैसा भाव तैसा कर्मबंध, तैसा उदय, तैसा अनुभव, तैसा फल, ये सब स्वयं चल रहे है। प्रभु तो इन सबसे मुक्त हैं और अपने अनंत आनंद में लीन रहा करते हैं। प्रभु कृतकृत्य है। उन्हें कुछ काम करने को नहीं पड़ा । देखिये तीर्थंकरों ने भी, ऋषभदेव आदिक तीर्थंकरों ने भी जब तक जो कुछ किया, घर में रहे, राजदरबार किया, न्याय किया, कुछ भी किया तब तक उन्हें प्रभु नहीं माना गया। तीर्थंकर जन्म से ही प्रभु नहीं हैं, दीक्षा लेने पर भी प्रभु नहीं हैं, किंतु जब उनके चार घातियाकर्म दूर हुए, कैवल्य प्रकट हुआ, वीतराग, सर्वज्ञ कृतकृत्य हुए तब वे प्रभु कहलाये। हनुमानजी को कामदेव माना गया है, वे राजा पवनंजय के पुत्र थे, जिसकी वजह से बहुत से लोग ऐसा भी कह बैठते हैं कि वे पवन अर्थात हवा के पुत्र थे। भला कभी किसी ने हवा से उत्पन्न हुआ कोर्इ लड़का आज तक देखा है क्या ? अरे जो बात जिस विधि से होती है सो होती है। पवनंजय नामक राजा के पुत्र हनुमान कामदेव थे। कामदेव का अर्थ है-इतना सुंदर रूप कि जिसके समान सुंदर दुनिया में अन्य कुछ न हो । हनुमान का इतना सुंदर रूप था कि उस समय दुनिया में उनसे सुंदर अन्य किसी को नहीं कहा जा सकता। उन्होंने भी जब तक अनेक प्रवृत्तियां कीं, चाहे वे श्रीराम की सेवायें ही क्यों न हों, बड़े-बड़े युद्धादिक के कार्य भी क्यों न हों, पर उन सब प्रवृत्तियों के कारण हनुमान को प्रभुता नहीं प्राप्त हुई। हनुमान जी ने फिर दीक्षा भी ली, निर्ग्रंथ साधु हुए तब भी प्रभु नहीं कहलाये। जब घातियाकर्म उनके नष्ट हो गए, वे वीतराग , सर्वज्ञ, कृतकृत्य हो गए तब प्रभु कहलाये, परमात्मा कहलाये। तो प्रभु को इन तीन रूपों में निहारिये।(97)अविकार स्वरूपी प्रभु के दर्शन का प्रभाव―प्रभुस्वरूप को निर्विकार रूप में देखे तो अपने आपके निर्विकार स्वरूप की सुध बनेगी और उत्सुकता होगी कि मेरे ये विकार दूर हों, और जो मेरा अविकार ज्ञानस्वरूप है उसका निरंतर अनुभव करता रहूं। अपने को कृतकृत्य अनुभव करेंगे तो शांति का मार्ग दृष्टिगोचर होता रहेगा। जब तक बाह्य पदार्थों में कुछ काम करने का विकल्प है तब तक अशांति है, दु:ख है, संसार है। जब निज को निज पर को पर जानकर यह भाव आयगा कि बाह्य पदार्थो में करने को मेरे लिए कुछ नहीं है, जब गड़बड़ हूँ तब भी मैं अपने ही भाव को कर रहा हूँ। जब सम्हलूँगा, शुद्ध पथ पर आऊँगा तब भी मैं अपने भावों को ही कर रहा होऊँगा। मैं किसी भी पदार्थ का करने वाला नहीं हूँ। प्रभु की तरह मेरे में भी कृतकृत्यस्वरूप मौजूद है, उस पर अमल नहीं है। जब प्रभु की सर्वज्ञता पर हमारी सुध होगी तो हमें अपने आपके प्रति भी यह स्मरण रहेगा। देखो-जब विशुद्ध ज्ञान होता है तब किसी दंद-फंद, मोह, रागद्वेष, चिंता, शोक ,भय आदिक कहीं कोई भी विकार नहीं रहते। तब ज्ञान का ऐसा असीम उदय होता है कि ज्ञान-ज्ञान की ही जगह है, आत्मा में ही मौजूद है। और उस ज्ञान में तीन लोक तीन काल के समस्त पदार्थ एक साथ झलकते हैं। यह सब आत्मा के नाते से बात की जा रही है।
(98)आत्मत्व के नाते से शांति के उपाय का अन्वेषण―जिस पुरूष को अपना कल्याण करना है उसे अपने आपके बारे में आत्मा के नाते से ही ध्यान रखना होगा। मैं किस कुल में पैदा हूँ, किस जाति में पैदा हूँ, ये सब विकल्प छोड़ देने होंगे। केवल एक इससे नाता रखना होगा कि मैं आत्मा हूँ, मुझे शांति चाहिये। आत्मा-आत्मा सब एक समान हैं, शांति का स्वरूप सबके लिए एक रूप है। शांति का जो उपाय है वह भी सब में एक ही प्रकार का है। और इस तरह शांति का स्वरूप जानकर शांति के मार्ग में चलें, आत्महित के भाव से रहें, बस उसी के मायने हैं धर्म ।यही हुआ धर्म का पालन करना । तो आत्महित के नाते से विचार करिये। निर्विकार होने से प्रभु में ऐसे ज्ञान का उदय होता है कि जिसमें तीन लोक तीन काल के समस्त पदार्थ एक साथ झलकते रहते हैं। यही है देव, यही है भगवान, इसी को कहते हैं परमात्मा। इस सर्वज्ञ का स्मरण करने से अपने आपके स्वरूप की सुध होती है । मैं भी इस ही स्वरूप हूँ। ज्ञानमात्र सद्भूत होने से प्रदेशवान है यह, चीज है यह, पर इसका सारा ढांचा सब शरीर, सब कलेवर सर्वस्व ज्ञान ज्ञान ही है। मूर्तिकता तो इसमें है नहीं। अमूर्त है यह आकाश की तरह । यह मैं आत्मा अपने स्वरूप मात्र हूँ, यह सुध होती है प्रभु के स्तवन से।
(99)ज्ञान के आधार और आश्रय के मर्म में वैभव का दर्शन- एक भक्ति प्रभुभक्ति में बोलता है कि हे नाथ ! मुझे तो यों लग रहा है कि तुममें मैं हूँ, समा गया हूँ। जब उपयोग जिस किसी पदार्थ में एक तान से लगा हुआ हो तो वह कहाँ प्रवेश किए हुए है ? उस ज्ञान में। देखिये-ज्ञान की ऐसी विलक्षणता है कि ज्ञान का आधार तो है यह आत्मा, लेकिन ज्ञान जिस पदार्थ के जानने में लग जाय, ज्ञान का रहना वहाँ पर कहलायेगा। कहाँ रह रहा है ज्ञान ? जिसको जान रहा है उसमें। याने कितनी विलक्षण बात है? ज्ञान आत्मा को छोड़कर एक प्रदेश भी बाहर नहीं जा सकता, मगर ज्ञान का निवास कहाँ है ? जिसे जान रहा उस पदार्थ में। तो हे प्रभो ! जब मैं एक तान होकर केवल आप में ही लीन हो रहा हूँ, आपको ही जान रहा हूँ तो मैं तो यही समझता हूँ कि तुम ही में मैं हूँ। तुममें मैं आ गया। यद्यपि यह बात सत्य नहीं है। प्रभु में प्रभु हैं मुझमें मैं हूँ, लेकिन जिस काल में मेरा ऐसा उपयोग होता है कि तुममें ही मैं समा गया, इस प्रकार का उपयोग लगता है तो हे प्रभो ! मुझमें बहुत बड़ी तृप्ति उत्पन्न होती है। मैंने जो कुछ करने योग्य था सब कर लिया। हम प्रभु को इन तीन गुणों के रूप में निहारें- भगवान निर्विकार हैं, ज्ञानमात्र हैं, कृतकृत्य हैं, तब अपने भले के लिए , अपनी मोह –निद्रा के भंग करने के लिए सब उद्यम अपने आप होते चले जायेंगे। सम्यक्त्व का कारण है प्रभुस्वरूप और निर्ग्रंथ गुरु, और स्वपर दयामयी धर्म। इनके स्वरूप का निर्णय होना सम्यग्दर्शन कारण है। हे भगवन ! जब तक आपके चरणकमल की प्रसन्नता का उदय नहीं होता तब तक ही यह जीव मोह के महापाप को धारण करता है और जब प्रभुस्वरूप का उदय हो, उपयोग में आपके चरणद्वय की वंदना हो तो फिर वहाँ पाप नहीं ठहरते। इस जीवन में जीकर निष्पाप होने का यत्न हमें करना है और जो शुद्ध स्वरूप है उस स्वरूप के ध्यान करने में हमें यत्न करना है। यह महान तपश्चरण हम आपके कर्मकलंक को जला देगा, शांति के निकट पहुंचायेगा, और निकट काल में मुक्ति भी प्राप्त होगी।